बुधवार, 2 जुलाई 2008

११ ज्ञान विज्ञान

सिंथेटिक बॉयोलॉजी से `जैविक आतंक'

लंदन में नाटिंघम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चेताया है कि सिंथेटिक बॉयोलॉजी के फायदों को देखते हुए यह संभावना बढ़ गई है कि आंतकवादी इसका प्रयोग पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के लिए कर सकते हैं । उल्लेखनीय है कि सिंथेटिक बॉयोलॉजी एक ऐसी तकनीक है जिससे कृत्रिम जीवन पैदा किया जा सकता है । इसमें कृत्रिम इंजीनियरिंग अंगों का उपयोग किया जाता है । विवि के बॉयोटेक्नोलॉजी एंड बॉयोलॉजिकल साइंसेज काउंसिल ने अध्ययन कर पता लगाया है कि ऐसी तकनीक समाज के लिए अहितकारी हो सकती है अगर वह गलत हाथों में चली जाए । इस तकनीक से जैविक आतंकवाद इस तरह से संभव है कि अगर मानव को ऐसे अंगों का सामना करना पड़े जो उसके लिए मुफीद नहीं हैं तो वह निश्चित ही तकलीफ में पड़ सकता है । इस रिपोर्ट को लिखने वाले वैज्ञानिक एंड्रयू बामर और प्रो. पॉल मार्टिन ने कहा कि हमें डर है कि आतंकी कहीं इस तकनीक को गैरेज बॉयोलॉजी न बनाकर रख दें । इसका मतलब है कि कहीं इस त्तकनीक से संबंधित प्रयोग घरों में न होने लगें जो बहुत ही अनिष्टकारी है । इस रिपोर्ट जिसका शीर्षक है - सिंथेटिक बॉयोलॉजी: सोशल एंड इथिकल चेंजेज में यह चिंता भी जताई गई है कि कहीं कृत्रिम अंगो को वातावरण में खुला नहीं छोड़ दिया जाए, क्योंकि ऐसी हालत में भी वह घातक ही साबित होंगे । अध्ययन के स्त्रोत रहे नार्टिघम विवि ने अंदेशा जताया है कि किसी भी प्रकार की जैविक मशीनें अगर वातावरण में खुली छोड़ी जाती हैं तो वो निश्चित ही उसे नुकसान पहुँचा सकती है और यह किसी आतंकवादी घटना से कम बात नहीं है । वैज्ञानिकों ने कहा है कि अगर ऐसा होता है तो यह भगवान के साथ खिलवाड़ करने जैसा ही है, क्योंकि इसका नतीजा फिर कुछ भी हो सकता है । उन्होंने इस तकनीक को बेहद सुरक्षित बनाए जाने की बात कही ।
मुश्किल में है गांगेय डॉल्फिन

असम सरकार द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी की डॉल्फिन को संकटग्रस्त प्राणी घोषित किए जाने के बावजूद वहाँ इनके लुप्त् होने का खतरा बढ़ रहा है । डॉल्फिन से निकलने वाले स्वास्थ्यवर्धक तेल के लिए होने वाला उनका शिकार, दुर्घटनावश मृत्यु और हैबिटाट के खत्म होने से प्रदेश में उनकी संख्या सिकुड़कर २५० रह गई है । अब असम सरकार ने इन्हें बचाने के लिए एक अन्य तरीका खोज निकाला है । असम से होकर बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी और उसके बेसिनों में मीठे पानी यानी नदी जल की डॉल्फिनें पाई जाती है । भारत में डॉल्फिन की इस प्रजाति को `गांगेय डॉल्फिन' कहा जाता है । इनका यह नाम प्रसिद्ध नदीं गंगा में पाए जाने के कारण पड़ा है । वैसे डॉल्फिन की यह प्रजाति उत्तर भारत तथा उत्तर पूर्व की कई सारी नदियों में पाई जाती है । असम में इन्हें `शिहू' कहा जाता है । इस महत्वपूर्ण जलचर को बचाने के लिए राज्य की तरूण गगोई सरकार ने इस डॉल्फिन को `एक्वेटिक स्टेट एनिमल' (प्रादेशिक जलचर प्राणी) घोषित किया है । सरकार का सोचना है कि उसके इस कदम से इस अदभुत प्राणी के अवैध शिकार पर लगाम लगेगी । अब सरकार कह रही है कि वह नदियों के उन क्षेत्रों को जहाँ ये डॉल्फिन पाई जाती है, संरक्षित करेगी ताकि उनकी संख्या में इजाफा हो सके । डॉल्फिन की संख्या कम होने की मुख्य वजह शिकार ही है जिस पर अभी तक काबू नहीं पाया जा सका है । वैसे कई बार यह मछली अनचाहे मछुआरों के जाल में फँस जाती है जबकि मछुआरे उसे पकड़ना नहीं चाहते हैं । लेकिन इस चूक से भी आखिर डॉल्फिन को तो जान से हाथ धोना ही पड़ता है । डॉल्फिन फाउंडेशन के सुजीत बैरागी लंबे समय से डॉल्फिन को बचाने के लिए अभियान चला रहे हैं । उनकी माँग हैं कि इस जीव की जब तक अच्छे तरीके से मॉनीटरिंग नहीं होती तब तक इसे बचाए रखना मुश्किल है इसलिए सरकार को इसकी मॉनिटरिंग के व्यापक इंतजाम करने चाहिए ।
अम्लीय पानी से होगा समुद्री जीवों को नुकसान

वैज्ञानिकों ने दुनिया को चेताया है कि सन् २१०० तक दुनिया के महासागर ज्यादा अम्लीय हो जाएँगे और उससे समुद्रों में पाया जाने वाला कोरल इको सिस्टम नष्ट हो जाएगा । ये तथ्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में सामने आए है । `न्यू साइंटिस्ट' में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार संसार के महासागरों की संरचना में परिवर्तन आ रहा है । इटली के समुद्री तट से उथले मेडिटेरियन समुद्री पानी की जाँच के बाद पाया गया कि इस पानी का अम्लीकरण हो रहा है । यह अम्लीकरण मुख्य रूप से समुद्र में कार्बनडाइ ऑक्साइड के घुलने की वजह से हुआ है । इसी कारण समुद्री पानी का पीएच पहले के मुकाबले कम हो रहा है। सन् १९०० मेंजहाँ यह पीएच ८.२ था, वहीं सन् २१०० में इसके ७.८ होने की संभावना है । अध्ययन के अनुसार जब पानी का अम्लीयकरण बढ़ेगा तो पानी में रहने वाले खोल वाले जीव जंतु संकट में आ जाएँगे, क्योंकि इससे उनके खोल धीरे-धीरे समुद्र में घुलने लगेंगे । ब्रिटेन के प्लेमाउथ विश्वविद्यालय के जेसन हॉल-स्पेंसर ने इस विषय पर प्रयोग के लिए दक्षिणी इटली के इशचिया द्वीप को चुना, जहाँ प्राकृतिक तौर पर समुद्री कार्बन -डाइआक्साइड घुल रही थी । उन्होंने सबसे पहले गहरे समुद्री पानी का पीएच मापा जो ८.२ था और इसके बाद उस तटीय क्षेत्र के पानी का पीएच मापा जो गिरकर ७.४ तक आ गया था । उस क्षेत्र में कोरेलीन एलगी, मूंगा चट्टानें और प्रवाल भित्तियाँ पानी में चूर-चूर हो रही थीं । श्री स्पेंसर के अनुसार अम्लीय पानी में जीवन जीना एक मुश्किल काम है, खासतौर से खोल वाले नाजुक जीवों के लिए । वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसे पानी में कठोर खोल वाले जीव ही जीवन जी सकते हैं लेकिन उनको ऐसी जगह लाकर बसाया कैसे जा सकता है ? वर्तमान में इस पानी में जो जीव रह रहे हैं, उनके खोल तो इतने नर्म हैं कि आप अपने अँगूठे से भी उनके खोल को दबा सकते हैं ।

और अब बारिश का बैक्टीरिया

क्या बारिश बैक्टीरिया के कारण होती है ? लगता है कि ऐसा ही है । दरअसल लग तो यह रहा है कि बारिश वह तरीका है जिससे बैक्टीरिया वापिस धरती पर पहुंचते हैं । यह निष्कर्ष निकला है दुनियाभर में गिरने वाली बर्फ के विश्लेषण से । इन नमूनों की जांच से पता चला है कि बारिश के बैक्टीरिया दुनिया भर में पाए जाते हैं । दरअसल हवा में जब जल वाष्प की मात्रा बढ़ जाती है, तो वह संघनित होकर पानी या बर्फ के रूप में गिरती है। मगर संसाधन के लिए जरूरी होता है कि हवा में कुछ कण मौजूद हो, जिनके आसपास जल वाष्प के कण इकट्ठे हो सकें । इसीलिए कृत्रिम बारिश लाने के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ के कण हवा में बिखराएं जाते हैं । यह भी काफी समय से पता है कि हवा में तैरते बैक्टीरिया भी इस तरह की भूमिका निभा सकते हैं । लुइसियाना राज्य विश्वविद्यालय के ब्रेन्ट क्राइसनर का मत है कि यह बरसाती भूमिका वे बैक्टीरिया निभाते हैं जिनकी बाहरी सतह पर कुछ खास किस्म के प्रोटीन होते हैं -इन्हें बर्फ संग्राहक प्रोटीन कहते हैं। मसलन, स्यूडोमोनास सिरिंजे नामक बैक्टीरिया की बाहरी सतह पर एक प्रोटीन होता है जो पानी के अणुआें को इस तरह बांधने में मदद करता है कि वे बर्फ के क्रिस्टल जैसे बन जाते हैं । जब ये क्रिस्टल भारी होकर गिरते हैं तो वर्षा होती है । श्री क्राइसनर और उनके साथियों ने पाया है कि हिमपात के बाद इकट्ठी की गई बर्फ में अधिकांश बर्फ संग्राहक प्रोटीन जैविक स्त्रोतों से आए थे । यदि उनका विचार सही है तो इन बैक्टीरिया अथवा ऐसे प्रोटीन्स का उपयोग कृत्रिम बारिश करवाने में किया जा सकेगा । जैसे स्यूडोमोनास जैसे बैक्टीरिया वनस्पति पर बसते हैं । सूखे की परिस्थिति से निपटने के लिए क्षेत्र में ऐसे पौधे लगाए जा सकते हैं, जिस पर ये बैक्टीरिया पलते हैं । बहरहाल, ऐसी संभावनाआे को साकार करने से पहले काफी अनुसंधान की जरूरत होगी । ***

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