रविवार, 14 अप्रैल 2013




प्रसंगवश
अरावली बचाने का निर्णय
    प्रसंगवश प्राकृतिक संपदा का ज्यादा से ज्यादा दोहन वर्तमान आर्थिक विकास का आधार है, पर देश में जिस बेशर्मी से यह दोहन जारी है, उस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा आर्थिक विकास की निरन्तरता तो बनी हीं नहीं रह सकती, दीर्घकालिक दृष्टि से देखें, तो विकास की यह अवधारणा उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जीने का भयावह संकट खड़ा कर सकती है, जिसकी रोजी-रोटी प्रकृति पर ही निर्भर है । इसी लिहाज से सुप्रीम कोर्ट ने २००२ में अरावली पर्वत श्रृंखला में उत्खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था, पर पिछले १०-११ वर्षो में इस पर अमल नहीं हुआ है ।
    नतीजजन, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने एक बार फिर दुनिया की इस सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला को बचाने के लिए आदेश जारी किया है । इसके तहत् दिल्ली से सटे गुड़गांव के पूरे अरावली क्षेत्र में सड़क निर्माण व पेड़ों के काटने पर रोक लगा दी गई है । विकास के बहाने पर्यावरण संरक्षण को अकसर नजरअंदाज कर दिया जाता है, पर इस बार इस फैसले से यह संदेश प्रचारित हुआ है कि पर्यावरण सुरक्षा के हितार्थ कड़े कदम उठाए जा सकते हैं । आज का सीमेंट, कंक्रीट और लोहे की संरचनाआें से जुड़ा विकास हो या कम्प्यूटर और संचार क्रांति से जुड़ा प्रौघोगिक विकास सब प्राकृतिक संपदा पर ही आश्रित है ।
    इस विकास का माध्यम जल, जंगल, जमीन तो हैंही, खनिज, जीवाष्म ईधन और रेडियोएक्टिव तरल पदार्थ भी हैं । ये संपदाएं अब अकूत नहीं रहीं । इनके भंडार भी रीत रहे हैं । अत: न्यायाधिकरण ने गुडगांव, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के ५४८ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है । ऐसा इसलिए कि खनन क्षेत्र में शर्तो के मुताबिक पर्यावरण सुधार के प्रावधानों को अमल में नहीं लाया जा रहा   था । न्यायालय एवं सरकार से बेखौफ होकर सूरजकुंड कीपहाड़ियों में बड़े पैमाने पर गैर कानूनी निर्माण हो रहा था । फार्म हाउस, इमारतें और रिसोर्ट बनाए जा रहे थे । जो पहाड़ियां एक समय वनों से आच्छादित रहती थी, बंजर बना दी गई ।
    अब अरावली की हरियाली लौटाने की दृष्टि से न्यायाधिकरण ने बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने की योजना बनाई है और क्षेत्र में कचरा फेकनें पर रोक लगा दी है ।
संपादकीय
गंभीर जल संकट की आहट
    पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने विश्व के सभी देशों को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि पानी की बर्बादी को जल्द नहीं रोका गया तो जल्दी ही विश्व गंभीर जल संकट से गुजरेगा । विश्व जल विकास रिपोर्ट प्रत्येक तीन साल पर जारी की जाती है । इस रिपोर्ट को जल विज्ञान, अर्थशास्त्र और सामाजिक मुद्दों के विशेषज्ञों ने यूनेस्को के संरक्षण में तैयार किया है । दुनिया की आबादी जिस तरह से बढ़ रही है, सबको स्वच्छ पेयजल मुहैया कराना विश्व के सभी देशोंखासकर विकासशील देशों के लिए  एक चुनौती है ।
    जल एक चक्रीय संसाधन है जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाया जाता  है । पृथ्वी का लगभग ७१ प्रतिशत धरातल पानी से आच्छादित है परन्तु अलवणीय जल कुल जल का केवल लगभग ३ प्रतिशत ही है । वास्तव में अलवणीय जल का एक बहुत छोटा भाग ही मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है । अलवणीय जल की उपलब्धता स्थान और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न है । इस दुर्लभ संसाधन के आवंटन और नियंत्रण पर तनाव और लड़ाई झगड़े, संप्रदायों, प्रदेशों और राज्यों के बीच विवाद का विषय बन गए है । विकास को सुनिश्चित करने के लिए जल का मूल्यांकन, कार्यक्षम उपयोग और संरक्षण आवश्यक हो गया हैं ।
    पानी की समस्या आज भारत के कई हिस्सोंमें विकराल रूप धारण कर चुकी है और इस बात को लेकर कई चर्चाएं भी हो रही है । इस समस्या से जूझने के कई प्रस्ताव भी हैं लेकिन जल संरक्षण से हम इस समस्या से काफी हद तक निजात पा सकते हैं । पानी को बचाने के कुछ प्रयासों में एक उत्तम व नायाब तरीका है आकाश से बारिश के रूप में गिरे हुए पानी को बर्बाद होने से बचाना और उसका संरक्षण करना । यदि पानी का संरक्षण एक दिन शहरी नागरिकों के लिए अहम मुद्दा बनता है तो निश्चित ही इसमें तमिलनाडु का नाम सबसे आगे होगा क्योंकि वहां एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है ।
    पिछले कुछ सालोंसे गंभीर सूखे से जूझने के बाद तमिलनाडु सरकार इस मामले में और भी प्रयत्नशील हो गई है और उसने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत तीन महीनों के अंदर सारे शहरी मकानों और भवनों की छतों पर वर्षा जल संरक्षण संयंत्रों का लगाना अनिवार्य हो गया है ।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

सामयिक
गंभीर होता पर्यावरणीय संकट
एस.एन. द्विवेदी

    प्राकृतिक संसाधनों के अंसतुलित दोहन एवं भौतिक संसाधनों के प्रति मानव के अनावश्यक रूप से बढ़ रहे अत्यधिक आकर्षण ने लगभग पूरे विश्व को पर्यावरणीय संकट के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है ।
    एक स्वस्थ समाज के निर्माण में स्वास्थ्यपरक एवं शुद्ध वातावरण की अहम भूमिका होती है लेकिन पिछले कुछ सालोंमें हमारा विश्व समाज विकसित हो रहे अत्याधुनिक संसाधनों को पा लेने की होड़ में पर्यावरण के महत्व एवं जीवन में इसकी अनिवार्यता को भुल-सा गया है । इसमें कोई दो राय नहीं कि आज आधुनिकता के अन्धुत्साह में सब कुछ पलक झपकते पा लेने की महत्वाकांक्षा ने हमारे पर्यावरण के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न कर दी है । 



     एक तरह जहां जल-प्रदूषण मरने वालोंकी संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है वहीं वायु प्रदूषण की विशुद्धता में हो रही कमी भी पर्यावरण के लिए किसी संकट से कम नहीं है । आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार आगामी २०५० तक वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या जल प्रदूषण से मरने वालों से ज्यादा हो जाएगी, अनुमान है कि २०५० तक हमारे वातावरण की हवाआें में जहर इतना फैल चुका होगा जिससे प्रत्येक साल ३६ लाख से ज्यादा लोग काल के गाल मेंसमाते जायेंगे । 


    इन आंकड़ों में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा प्रभाव भारत एवं चीन जैसे देशों में ही देखने को मिलेगा । निश्चित रूप से स्वच्छ वायु मानव जीवन की सबसे बड़ी जरूरत है और इसके अभाव में जीवन का संकट उत्पन्न हो जाता है । ऐसे में अगर हम पर्यावरण संरक्षण के प्रतिसमय रहते सजग एवं सचेष्ट नहीं हुए तो आगामी वर्षो में हमारा जीवन संकट में होना तय है । वैशिवक पर्यावरणीय परिदृश्य - २०५० नामक रिपोर्ट में जलवायु में अस्थिरता एवं वायु प्रदूषण से मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर सर्वाधिक चिंता जताई गयी है ।
    आज तकनीक एवं संसाधनों के प्रति मानवीय महत्वाकांक्षाआें मंे हो रही गुणोत्तर वृद्धि ने उत्पादन की प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है । मांग और आपूर्ति की इसी होड़ में बड़ी कंपनियों से लेकर  आम आदमी तक को पर्यावरण के प्रति लापरवाही एवं निष्क्रिय बना दिया है । आज सब कुछ एक क्षण में पा लेने की होड़ और सब कुछ सबसे पहले उपलब्ध करा देने की जल्दबाजी के बीच शायद किसी को इससे उत्पन्न भावी संकट का आभास तक नहीं हो पा   रहा । बढ़ते कल-कारखानों एवं तमाम अन्य उद्योगों में इस्तेमाल ऊर्जा संसाधनों से हमारे वातावरण की हवाआें में ग्रीन हाउस गैस की मात्रा में तेजी से बढ़ोत्तरी होती जा रही है एवं आगामी वर्षो में इसमें और बढ़ोत्तरी की संभावना जताई जा रही है जो कि पर्यावरणीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से चिंतापूर्ण विषय है ।
    हवाआें में फैल रही ग्रीन हाउस गैस की मात्रा में वृद्धि का सीधा प्रभाव ओजोन परत पर पड़ता है और आजोन परत पतली होती जा रही है एवं इसके दिन-प्रतिदिन और पतले होने की संभावना बनती जा रही है । ग्रीन हाउस नामक जहर की चपेट में आते जा रहे ओजोन लेयर के पतले होने के कारण सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणें कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का कारण बनेगी और इससे मरने वालों की संख्या में इजाफा होता जायेगा, जिसे रोकना शायद तब संभव न हो सके । ग्रीन हॉउस गैस रूपी जहर का असर सिर्फ कैंसर से मरने वालों तक सीमित न होकर अन्य तमाम समस्याआें को जन्म देने वाले कारक के रूप में भी देखा जा सकता है । वायु प्रदूषण के कारण कई नयी तरह की बीमारियों का भी जन्म हो सकता है और समाज को चिकित्सा को दोहरे संकट का सामना करना पड़ सकता है जो कि अपने आप में बहुत विकट समस्या की तरह है ।
    इतना तो लगभग तय है कि हमारी प्राकृतिक हवाआें में फैल रहा यह जहर समाज के लिए किसी भावी आपदा से कम नहीं प्रतीत हो रहा है । अत: ग्रीन हाउस गैस रूपी जहर के हवाआेंमें घुलने एवं ओजोन के परत का स्तर बारीक होने के परिणाम समाज के लिए बहुत भयावह एवं समाज को सकंट ग्रस्त करने वाले हैं । अनुमान जताया जा रहा है कि २०५० तक दुनिया की ७० फीसदी आबादी शहरों में निवास कर रही होगी और तब केवलवायु प्रदूषण से मरने वालों का ग्राफ १० लाख से चार गुना ज्यादा बढ़कर चालीस लाख के आंकड़ें को छू रहा होगा । संभावना इस बात की भी है कि अगर समय रहते इस समस्या पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता तो २०५० तक दुनिया के एक अरब चार करोड़ लोगों को स्वच्छ एवं स्वास्थ्यपरक आक्सीजन तक मयस्सर नहीं होगी ।
    आगामी तीन दशकों में पड़ने वाले प्रदूषित वायु के इन दुष्प्रभावों से बेखबर दिख रहा मानव समाज न तो इसके नियत्रंण के प्रति सजग हो रहा और न ही पर्यावरण एवं वायु शुद्धता के प्रति सचेष्ट दिख रहा है । आम आदमी की तो बात दूर, हमारी सरकार सहित विश्व की तमाम सरकारों के माथे पर पर्यावरण के इस भावी खतरे को लेकर कोई शिकन तक नहीं दिखती । वायु प्रदूषण एवं ग्रीन हाउस गैस का सबसे ज्यादा प्रभाव भारत में पड़ने का खतरा है, अत: निश्चित रूप से भारत सरकार को इस समस्या को बढ़ने से रोकने एवं इस पर नियंत्रण करने के लिए गंभीर होना पड़ेगा एवं इसके निराकरण में कुछ ठोस एवं दूरगामी उपायों को अमल में लाना पड़ेगा ।
    आगामी पर्यावरणीय संकट को संदर्भ में रखते हुए सरकार द्वारा पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा संसाधनों को वैकल्पिक रूप से लाने पर योजना बनाने एवं उसे लागू कराने पर बल देने की जरूरत है । पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा स्त्रोतों का प्रयोग होने से काफी हद तक इस समस्या से निजात पाने में मदद मिलेगी । इस क्रम में सरकार द्वारा इस बात पर बल देने की जरूरत है कि उन ऊर्जा स्त्रोतों जिनसे पर्यावरण को संकट है, के ऊपर किसी तरह की टैक्स छूट आदि जैसी रियायत नहीं दी जाये एवं उनके उपभोग का दायरा भी तय किया जाये ।
हमारा भूमण्डल
सौ अमीर बनाम अरबों गरीब
साम पिझिगाति

    विश्व के सौ अमीरों की संपत्ति को यदि दुनिया के निर्धनतम समुदाय में बांट दिया जाए तो पृथ्वी से चार बार गरीबी दूर हो सकती है । एक सैकड़ा व्यक्तियों के हाथों में अरबों साधारण नागरिकों का भविष्य महज गिरवी ही नहीं बंधुआ है । क्या इस असमानता को वैश्विक आर्थिक नीतियां कभी समाप्त् कर पाएंगी ?
    वैश्विक खजाने के अधिक समान वितरण की बात करने वालों को असमानता के हामीदार हमेशा ही रटारटाया जवाब देते हैं । वे दावा करते है कि यदि आप दुनिया के सबसे धनी लोगों की संपत्ति लेकर उसी बराबरी से गरीबों में बांटोगे तो किसी के भी हाथ कुछ नहींआएगा । लेकिन दुनिया में गरीबी के खिलाफ कार्य कर रहा एक प्रमुख संगठन आक्सफेम उनके इस ख्याल से इत्तेफाक नहींरखता है । आक्सप्रेम की नई रिपोर्ट खुलासा करती है कि दुनिया के १०० सर्वाधिक अमीर अरबपतियों के पास इतना अकूत धन संचित है जिससे कि वे दुनिया को गरीबी को चार बार समाप्त् करने का इतिहास रच सकते हैं । रिपोर्ट की विश्लेषक ईम्मा मेरी के अनुसार आक्सफेम का लक्ष्य है औरों के साथ मिलकर गरीबी समाप्त्   करना । लेकिन सीमित संसाधन वाले इस विश्व मेंबिना अति वैभव को समाप्त् किए ऐसा हो पाना संभव नहींे हैं । 
    आक्सफेम का नया अध्ययन, असमानता का मूल्य : किस प्रकार सम्पत्ति और अति आय हम सबको चोट पहुंचाती है को इस वर्ष स्विटरलैंड के डावोस शहर में प्रतिवर्ष होने वाले विश्व आर्थिक मंच बैठक के पूर्व जारी किया    गया । यह एक ऐसा वार्षिक आयोजन है जो कि अनेक मुद्दों को शीर्ष वैश्विक व्यापार एवं राजनीतिक नेताआें के समक्ष रखता है । वैसे मंदी के इस वर्तमान दौर मेंये नेता भी रक्षात्मक हो चले हैं । वैश्विक आर्थिक असमानता को लेकर उन पर लगातार दबाव बन रहा है, लेकिन वे इसे यथासंभव नजरअंदाज करने हेतु प्रयासरत हैं । डावोस के मंच पर इस बार यह दबाव भूतपूर्व फ्रांसीसी वितमंत्री क्रिस्टिन लागार्डे जो कि वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष हैं, जैसों की ओर से आया । सुश्री लागार्डे ने उच्च् वित्तीय संस्थाआें में अधिकारियों के अनाप-शनाप वेतन को लेकर लताड़ लगाई और बैंकरों पर हमला बोलते हुए कहा कि वे नए नियमनों की आवश्यकता के खिलाफ लाबिंग कर रहे हैं । इसी के साथ उन्होनें अधिक सुरक्षित व कड़े सामाजिक प्रतिमान स्थापित किए जाने की बात भी कही ।
    अपनी ओर से आक्सफेम ने वैश्विक अति समृद्धोंऔर बाकी सभी के बीच की खाई को कम करने हेतु सभी से साहसिक कार्यवाही करने का आह्वान    किया । समूह ने विश्व नेताआें से अपील की है कि वे अपने देशों में इस असमानता को कम से कम सन् १९९० के स्तर पर लाने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाएं । इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए आक्सफेम की रिपोर्ट में व्यापक उपाय बताए गए हैं, जिनमें अमीर में भी अमीरों से अधिक दर पर आयकर लेना, इसी के साथ कारपोरेट अधिकारी न्यूनतम वेतन से कितने गुना अधिक वेतन ले सकते हैं, वह सीमा तय करना शामिल हैं ।
    आक्सफेम ने करों के स्वर्ग जो कि वैश्विक असमानता में सर्वाधिक योगदान करते हैं पर भी अंकुश लगाने की बात कही । इसकी वजह यह है कि दुनिया की एक चौथाई से ज्यादा संपत्ति इन्हीं स्थानों पर छुपाई जाती है । लेकिन हमें डावोस में इकट्ठा हुई भीड़ से यह उम्मीद नहीं लगानी चाहिए कि वह इस संबंध में कोई साहसिक निर्णय लेगी । वहां तो विश्व मुद्रा कोष की लागार्डे द्वारा बैंकिंग और कारपोरेट को दी गई सलाह को भी बहुत सीमित समर्थन मिल पाया ।
    यदि अमेरिकी नजरिये की उत्सवधर्मिता समझना हो तो जेपी मॉरगन चेज के मुख्य कार्यकारी जेमी डिमोन की सुधार के प्रति अनिच्छा जिसे कि उन्होनें दबाने का कतई कोई प्रयास भी नहीं किया, को जानना दिलचस्प होगा । वे आरोप लगाते हैं कि बैंक नियमन बहुत जल्दी बहुत कुछ कर लेना चाहते हैं और उनके सरीखे बैंक जो महान कार्य कर रहे हैं उसे लेकर गलत जानकारियां फैला रहे हैं । वे दंभ से कहते हैं, हम ठीक कार्य कर रहे हैं ।
    अन्य वैश्विक कारपोरेट भी यही धुन गा रहे थे । बैंगलोर स्थित भारतीय तकनीकी महाकाय विप्रो के अध्यक्ष अजीज प्रेमजी ने स्वीकार किया कि आक्सफेम का यह नया आंकड़ा कि किस प्रकार विश्व के १०० सर्वाधिक धनी इतना अधिक कमा रहे हैं जिससे कि विश्व की निकृष्टतम गरीबी दूर हो सकती है, से उन्हें दु:ख पहुंचा    है । लेकिन एक साक्षात्कार में प्रेमजी ने विश्व की संपत्ति के इस अवश्विसनीय स्तर पर एकत्रीकरण को किसी भी तरह से अनैतिक मानने से इंकार कर   दिया । उन्होंने सुझाव दिया कि हमें पुनर्वितरण पर समय नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है । इसके बजाए हमें (धनिकों) अपनी ट्रस्टीशिप की जिम्मेदारी को निभाना चाहिए जिससे कि हमारा धन अच्छे काम में लग सके ।
    आक्सफेम का कहना है कि, दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी समस्याआें के हल के लिए अमीरों पर विश्वास करो, अपने जीवन पर नहीं । बात को अंतिम रूप देते हुए आक्सफेम के  जैरमी हाब्स कहते है ऐसा विश्व जिसमें मूल संसाधन जैसे भूमि और पानी भी लगातार दुर्लभ होते जा रहे हैं वहां हम यह नहीं कर सकते कि कुछ लोगों के हाथों में संपत्तियां इकट्ठी हो जाए और अधिकांश लोग जो कुछ बचा रह गया है उसके लिए संघर्ष करें ।
 वानिकी जगत
पर्यावरण बनाम वनाग्नि
शम्भुप्रसाद भट्ट स्नेहिल

    मनुस्मृति में कहा गया है कि सभी जनों को चराचर संसार के प्रिााण्यों को अपने समान समझते हुए उनके रक्षण व पालन-पोषण को अपना कर्तव्य समझना चाहिए । इस नीति वाक्य को अपने जीवन में उतारकर प्रकृति मेंव्याप्त् सम्पूर्ण वनस्पति-जीव जगत का संरक्षण तथा विकास करना हम सबका दायित्व है । प्रकृति में फैला यह वनस्पति-जीव जगत हमारा पारिस्थितिकीय तन्त्र का प्रमुख भाग है । यत्र तत्र जो कुछ भी व्याप्त् है या जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब पारिस्थितिकीय पर्यावरण ही तो है । शाब्दिक दृष्टि से परित: आवरणम इति पर्यावरणम, अर्थात् इस संसार में हमारे चारों और फैलाहुआ यह सम्पूर्ण आवरण, जिसमें जगत के चराचर समस्त तत्व विद्यमान हैं अर्थात् जिसमें इस भू-धरा की पूरी जैव-विविधता समाई हुई है, पर्यावरण के ही अन्तर्गत आते हैं । हमारे चारों और जो भी प्राकृतिक और मानव द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएें विद्यमान हैं वे सब पर्यावरण के पहलु ही है । पर्यावरणीय वनस्पति-जन्तु जगत वन के मुख्य अंग हैं । इस कारण पर्यावरणीय जानकारी के लिए वन को समझना अत्यन्त आवश्यक है । 
     वन शब्द की व्यापकता को देखते हुए इसे परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है, फिर भी सूक्ष्म शब्दोंमें आंकलन करने का प्रयास मात्र है । वन की सूक्ष्म शब्दों में परिभाषा इस प्रकार हैं :- सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त् उस भू-भाग या क्षेत्र को वन कहते हैं, जिसमें नदी-नाले, पहाड़-चट्टान, पठार, मैदानी भाग के साथ मिट्टी-पत्थर-खनिज एवं जीव-जन्तु, विशाल हिंसक जानवर, आकर्षक-पशु और वृहत् स्तर तक फैले विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे (वनस्पति) विद्यमान हो । परिभाषा की दृष्टि से वन वह अथाह एवं असीमित खजाना एवं भण्डार है, जिसका आज तक मानव ने पार नहीं पाया है, यह अनन्त   है । जिसे संस्कृत भाषा में अरण्य कहा जाता है अर्थात् जिसमें जीवन भर रहने पर भी पूर्ण रमण (भ्रमण) नहीं किया जा सकता है ।
    पर्यावरणीय सन्तुलन बनाये रखने के लिए वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना परम आवश्यक है । क्योंकि वन मानव जीवन के यह अन्नयतम साथी हैं, जो कि प्राकृतिक-सुन्दरता के साथ-साथ पर्यावरणीय सन्तुलन एवं भू-स्थिरता बनाये रखने मेंअहम् भूमिका निभाते हैं और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक के शाश्वत् सहयोगी है । इसलिए सभ्य एवं आदर्श मानव समाज वहीं है, जो वनों के विकास एवं संरक्षण को अपना आवश्यक कर्तव्य समझता   है ।
सुखदु:खयोश्च: ग्रहणाछिन्नस्य च विरोहणात् ।
जीव पश्यामि वृक्षाणामचैतन्य न विद्यते ।।
    महाभारत के शान्ति पर्व में उल्लेख मिलता है कि सभी पेड़-पौधों सुख-दुख का अनुभव करते हैं, कटे वृक्ष में पुन: नवांकुरण होने पर उसके सजीवता का प्रमाण मिलता है । इसलिए वृक्षों को किसी प्रकार की भी क्षति पहुंचाकर प्राणी उत्पीड़न/हत्या के पाप का भागीदार नहीं बनना चाहिए । वन क्षेत्र के अन्तर्गत विचरण करने वाले वन्यप्राणियों का अवैध आखेट कर कुछ स्वार्थी एवं अय्यासी किस्म के मानवों द्वारा वन के सन्तुलन को बिगाड़ने से जंगल का राजा कहे जाने वाले सिंह/शेर को वन-अस्तित्व की रक्षार्थ मानवों से भिड़ने हेतु मजबूर होना पड़ता है ।
विचलित कर प्रकृति को आपदाआें का ज्वार बढ़ाया है ।
वन्य जीवों का आखेट कर शेर को घर-गाँव बुलाया है ।
    लेखक ने अपनी पुस्तक श्री कार्तिकेय-दर्शन में लिखा है कि प्रकृति स्वयं हमें सचेत कर कह रही है कि - हे मानव ! अभी भी संभल जा, अभी मौका है, नहीं तो तुझे पछताने का अवसर भी नहीं मिल पायेगा । यदि मैंने भी तुम्हारे बेरूखेपन के बदले पूर्णत: प्रतिफल देने की ठान ली, तो फिर अनर्थ हो जायेगा, लेकिन क्या करें, मानव की विकास की अंधी दौड़ ने तो उसकी सोचने, समझने व सुनने की शक्ति ही क्षीण कर दी है ।
हे बेदर्द मानव ! संभल जा ।
अपनापन छोड़कर हमें सताता  है ।
क्यों निर्भीक होकर वन में आग लगाता है ।। हे बेदर्द ..... ।।
प्रकृति के सब जीवों का अधिकार तुने छीना है ।
वन में आग लगाके तूने सताई अपनी आत्मा है ।। हे बेदर्द .. ।।
हे मानव ! अपनी बेरहमी का तैयार हो जा ।
असमय मौत से बचना है तो प्रमु-स्मरण करता जा ।।
हे बेदर्द ....... ।।
    हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षो से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनो से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रोंमें लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएं से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है । इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्ास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही  है ।
    तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षो से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में समयानुकूल नहीं है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हित पिघलने की दर बढ़ गई   है जिससे हिमालय में भी प्राकृतिकता की स्थिति विचलित हो रही है । ओजोन परत के क्षीण होने से सूर्य की पैराबेंगनी किरणें पृथ्वी पर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है, जिसके प्रभाव से नेत्र व त्वचा संबंधी बीमारियां होने की प्रबल संभावना रहती है । वनों की आग से हानिकारक गैसें बनती है, इससे ग्रीन हाऊस प्रभाव बढ़ता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है जिससे ग्लोबल वार्मिग प्रारंभ हो जाता है, जो कि धरती को भयानक खतरा उत्पन्न करता हैं ।
आग वनों की है दुश्मन, वन अग्नि का करें समापन ।
आज राष्ट्र का लक्ष्य यही है, वृक्षों से हो स्वच्छ पर्यावरण ।।
    वनों में आग लगने के कारणों की ओर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि प्राकृतिक रूप से, मानवीय लापरवाही, अपने स्वार्थवश या शरारतवश इस प्रकार की घटनाएें घटित होती है । वन क्षेत्र में लगने वाली अग्नि तभी दावाग्नि कहलाती है, जब अनियन्त्रित रूप से उसमें लगी या लगाई गई हो । भारतीय वन अधिनियम १९२७ संशोधित २००१ की धारा २६(१) बी सी तथा धारा ७९ और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम १९७२ की धारा ९ सपठित ५१ के तहत वनाग्नि के संबंध किये गये किसी प्रकार के अपराध के लिए कड़े से कड़े दण्ड का प्राविधान रखा गया है ।
हे इंसान !
हमारी भी सुनता जा ।
हमे सता के, तू भी परेशान होता जा ।।
हे मानव ! तेरी इस करनी से, तपन धरती को होती तड़फता जीव है ।
छोड दे काटना तू हमको, क्योंकि वन ही तेरे जीवन की नींव है ।।
    वनाग्नि के प्रभाव से प्रभावित क्षेत्र में आग की तीव्रता के आधार पर वनस्पति-जन्तु जगत को अनगिनत क्षति पहुंचती है जिससे मानवों को प्रकृति की प्रतिकूलता विभिन्न प्रकार की घटनाआें/आपदाआें व असमय फैलने वाले रोगों के रूप मेंभोगना पड़ता है । इसलिए हम सबको मिलकर इनकी रक्षा व विकास का संकल्प लेना चाहिए, तभी सब सुरक्षित जीवन जी सकते है । अत में कहा जा सकता है :-
जैव विविधता की यह चर्चा, पास-पड़ोस प्रकृति की रक्षा ।
वन रक्षा हो सबकी इच्छा, काम यही है सबसे अच्छा ।।
सामाजिक पर्यावरण
मनोरोगी : असली कौन, नकली कौन  ?
प्रतिनव अनिल

    अगर पागलपन और मानसिक संतुलन अलग-अलग अवस्थाएं हैं तो हम उनमें फर्क कैसे करें ? अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डेविड रोसेनहैन ने १९७३ का अपना ऐतिहासिक शोधपत्र इसी प्रसिद्ध प्रश्न से शुरू किया था । उनका प्रयोग और शोधपत्र आज भी मनोविज्ञान की शिक्षा में मनोचिकित्सा के पूर्वाग्रह समझाने के लिए पढ़ाया जाता है, लेकिन कहीं न कहीं यह बात हम सबकी पोल खोलती है । हमारी दृष्टि की खोट भी बताती है ।
    उस प्रयोग में कुल आठ लोग थे ।  तीन मनोवैज्ञानिक, एक मनोविज्ञान का छात्र, एक मनोचिकित्सक, एक गृहिणी, एक डॉक्टर और एक था चित्रकार । इनके अगुआ थे- मनोवैज्ञानिक रोसेनहैन । वे पता करना चाहते थे कि मनोरोग के अस्पताल तय कैसे करते हैं कि कोई व्यक्ति मनोरोग से पीड़ित है या पागल है । वे और उनके सात साथी पांच अमेरिकी राज्योंके बारह मनोरोग अस्पतालों में गए ।  
     इन अस्पतालों के बाह्य रोगी वार्ड में जाकर इन लोगों ने अपने झूठे नाम लिखवाए । जब उनसे अस्पताल के चिकित्सकों ने उनकी परेशानी पूछी तो उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देती हैं । उन्होंने बतलाया कि आवाजें साफ नहीं थी और जहां तक उन्हें समझ में आया आवाज खाली धम्म और खोखले जैसे शब्द कह रही थी । जब उनसे और सवाल पूछे गए तो उन्होनें चिकित्सकों को आवाज का मतलब कुछ यूं बतलाया कि उनका जीवन खोखला है और उसमेंबहुत खालीपन हैं ।
    झूठे नाम और आवाज सुनने के छलावे के अलावा चिकित्सकों के हर व्यक्तिगत प्रश्न का हमारे नकली मनोरोगियोंने बिलकुल सही-सही जवाब दिया था, सिवाए इसके कि मनोवैज्ञानिकोंने अपना पेशा उन्हें नहीं बताया । इनमें से किसी एक को भी कभी मनोरोग या मानसिक अंसतुलन की कोई शिकायत नहीं रही थी ।
    आठों नकली मनोरोगियों को अस्पतालों ने दाखिल कर लिया । चिकित्सकों ने सात को मनोभाजन या खंडित मानसिकता (सिजोफ्रेनिआ) से पीड़ित करार दिया और एक को उन्मत्त अवसाद (मेनिक डिप्रेशन) का रोगी बताया । अस्पताल में दाखिले के बाद हर एक का बर्ताव सीधा और सच्च था । वे चिकित्सकों से कहते रहे कि अब उन्हें कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ रही और उन्हें बिल्कुल ठीक महसूस हो रहा है । वार्ड की नर्सो की रपट में उन्हें अच्छे विशेषण ही दिए गए जैसे मित्रवत और सहयोगी । हर एक की नर्स रपट में नकली रोगी के बारे में लिखा था कि उनके व्यवहार में कुछ भी अनुचित नहीं था ।
    किसी भी अस्पताल का कोई भी कर्मचारी प्रयोग का भांप नहीं पाया । स्वस्थ लोगों को मनोरोगियों की ही तरह रखा गया । उनका इलाज हुआ, हालांकि हमारे नकली रोगियों ने उन्हें दी जाने वाली दवाईयां खाने की बजाए चुपचाप फेंक दी । औसतन हर नकली रोगी को १९ दिन अस्पताल में रखा गया । कम से कम सात दिन और ज्यादा से ज्यादा ५२ दिन । अस्पताल से छुट्टी मिलने पर हर एक की रपट में लिखा गया कि उनकी अवस्था सुधरने लगी थी ।
    प्रयोग का परिणाम देखकर डेविड अंचभित रह गए । रोग का निदान करने में लक्षण ठीक से जांचने की बजाए चिकित्सक अपने पूर्वाग्रहों का सहारा ले रहे थे । अस्पताल में दाखिले के पहले चिकित्सकों ने डेविड से उनके अपने माता-पिता के संबंध में बारे में पूछा और उनके बच्चे से संंबंध के बारे में पूछा और उनके बच्चें से संबंध के बारे में भी । उन्होंने जबाब ठीक वही जवाब दिए जो कोई भी साधारण व्यक्ति देता । इसमें से चिकित्सक ने केवलवही चुन लिए जो बीमारी के लक्षण माने जा सकते हैं और वह सब छोड़ दिया जो किसी भी साधारण व्यक्ति के अनुभव संसार में आता था । मतलब चिकित्सक पहले ही तय कर चुके थे कि उनके सामने बैठा व्यक्ति किसी मनोरोग से ग्रस्त है । यह तय करने के बाद चिकित्सक उनके जीवन की वही छोटी से छोटी अस्वाभाविक घटनाआेंको सत्य मान रहे थे जो कि उनके अनुमान को सिद्ध करती हो ।
    कुछ ऐसा ही उनके अन्य साथियोंके साथ हुआ । अस्पताल में भर्ती के दौरान ये नकली रोगी अपनी ऊब भगाने के लिए वहां की घटनाआेंकी डायरी रखते थे, वे आम तौर पर अपने अनुभव नोट करते रहते थे । उनका ऐसा करना अस्पताल के कर्मचारियों के लिए अस्वाभाविक बर्ताव था और लो मनोरोग का लक्षण भी । जो नकली रोग असल में चित्रकार थीं, वे रंगों से चित्र बनाने लगी । उनके बनाए चित्र इतने अच्छे थे कि उन्हें अस्पताल की वीरान दीवारों पर टांग दिया गया ।
    इस अस्पताल में डेविड खुद परामर्श देने आते थे । आते-जाते उन्होनें अस्पताल में काम करने वालों की इन चित्रों पर टिप्पणियां सुनी । अस्पताल के लोगों को उनके सुन्दर चित्रों में भी उनके कथित मनोरोग के ही लक्षण दिखे । डेविड कहते है कि यह साफ है कि इस परिस्थिति में हम सब यही पढ़ते हैं जो हम पढ़ना चाहते हैं, और मनोवैज्ञानिक किसी व्यक्ति के अस्पताल आने से ही मान ले रहे थे कि वह मनोरोगी है ।
    तो क्या कोई भी इन नकली रोगियों का खेल नहीं समझ पाया ? ऐसा नहीं था । अस्पताल में भर्ती मनोरोगी जान गए थे कि इन नकली रोगियों की उपस्थिति अस्वाभाविक   है । वे लोग जो चिकित्सकों की नजर में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे और जिन्हें नकली रोगियों के निदान तक का पता नहीं था - ऐसे ११८ भर्ती रोगियों के वक्तव्य रिकार्ड किए गए थे । इनमें से ३५ ने कहा कि उन्हें अंदाजा था कि क्या हो रहा है । एक ने तो नकली रोगी को सीधे कहा कि वह पागल नहीं है बल्कि कोई पत्रकार या प्रोफेसर है जो अस्पताल का लेखा-जोखा लेने आया है । सोचने बैठो तो स्वाभाविक सी बात है यह । आखिर और कौन अस्पताल में बैठकर नोट्स लेगा ?
    यह डेविड के मन में एक और सवाल उठा । अगर अस्पताल वाले किसी स्वस्थ व्यक्ति को रोगी मानने के लिए आतुर थे तो क्या किसी असल रोगी को यानी पागल को वे स्वस्थ भी करार दे सकते    हैं ? डेविड ने एक मनोरोग अस्पताल को चिट्ठी लिखकर पूछा कि क्या यह संभव है ? अस्पताल का जवाब आया कि ऐसा हो ही नहीं सकता । तो डेविड ने उन्हें कहा कि इसे जांचने के लिए वे अगले तीन महीने के दौरान कुछ नकली रोगी उस अस्पताल में   भेजेंगे । उन्होनें अस्पताल से कहा कि वे अपने कर्मचारियों को आगाह कर दें कि अगर उन्हें कोई व्यक्ति नकली रोगी लगे तो वे इसे एक फाइल में नोट करते जाएं ।
    इस दौरान अस्पताल में १९३ व्यक्ति दाखिल किए गए । इनमें से ४१ को अस्पताल के किसी एक कर्मचारी या नर्स या चिकित्सक ने नकली रोगी करार दिया । उन्हें अन्य ४२ व्यक्तियों पर भी नकली रोगी होने का संदेह हुआ । अचरज की बात तो यह है कि इस अस्पताल में डेविड ने एक भी नकली रोगी ढूंढ रहा था तब उसे सब रोगी नकली लग रहे थे । डेविड ने लिखा : यह तय है कि हम किसी मनोरोगी और किसी मानसिक रूप से संतुलित व्यक्ति का अंतर अस्पतालों में तो नहीं कर सकते । उनके इस लेख के बाद मनोविज्ञान की दुनिया में रोगों के निदान पर एक बड़ी बहस चली । मनोरोग के निदान में थोड़ी बेहतरी भी आई, लेकिन उनकी कही बता आज भी हम सबको अपनी ही सच्चई बताती है ।
 स्वास्थ्य
आम आदमी विरोधी है, नई दवा मूल्य नीति
कुंदन पांडे

    केन्द्र सरकार की प्रस्तावित औषधि मूल्य निर्धारण नीति से आवश्यक दवाआेंके मूल्य बजाए घटने के और अधिक बढ़ जाएंगे और अंतत: ये आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएंगे । सरकार की सारी नीतियां बहुराष्ट्रीय व देशी महाकाय दवा कंपनियों को प्राथमिकता दे रही है ।
    केन्द्र सरकार की उस विवादस्पद नीति पर अनिश्चितता के बादल छा रहे हैं, जिसका लक्ष्य देश में आवश्यक दवाआें का मूल्य निर्धारण करना था । सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार जिस पद्धति से दिसम्बर २०१२ में नई राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण नीति को तैयार किया गया है उससे तो आवश्यक दवाईयां लोगों की पहुंच से ही बाहर हो जाएंगी । 
     स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस नीति के खिलाफ सर्वोच्च् न्यायालय में शपथ पत्र दाखिल किया है, लेकिन जिस दिन इस मामले की सुनवाई होनी थी उस दिन समय की कमी के कारण इस पर सुनवाई ही नहीं हो पाई । वहीं दूसरी ओर सर्वोच्च् न्यायालय ने अगली सुनवाई की तारीख तक तय नहीं की ।
    यह मसौदा नीति ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क द्वारा सन् २००३ में दायर एक जनहित याचिका के बाद तैयार की गई है, जिसमें कहा गया है कि आवश्यक दवाइयों की कीमत बहुत ज्यादा है । नेटवर्क चाहता था कि और अधिक दवाइयां मूल्य नियंत्रण के अन्तर्गत आएं । उस समय कीमतें सन् १९९४ की दवाई नीति के अनुसार निर्धारित की गई थी । इसके प्रत्युत्तर में रसायन एवं उर्वरक विभाग ने सन् २०११ में राष्ट्रीय औषधि मूल्य नीति का पहला मसौदा तैयार किया । स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा इसकी व्यापक निदंा की गई, क्योंकि इसके अन्तर्गत कीमत तय करने के फार्मूले से दवाइयां पहुंच से बाहर ही हो जाती, लेकिन नए मसौदे ने भी लोगों के लिए कुछ ज्यादा नहीं किया है । अपीलकर्ताआें को डर है कि न्यायालय द्वारा निर्णय लिए जाने के पहले ही मंत्रालय इसे अधिसूचित कर सकता है ।
    गलत फार्मूला
    सन् १९९४ की दवा नीति में अनिवार्य दवाईयों की कीमत तय करने के लिए लागत आधारित मूल्य का प्रयोग किया गया था । इसमें कच्च्े माल की लागत, रूपांतरण की लागत और निर्माण के बाद अधिकतम १०० प्रतिशत खर्चो की अनुमति दी गई थी । लेकिन राष्ट्रीय औषधि मूल्य नीति २०११ के मसौदे में बाजार आधारित मूल्य निर्धारण को अपनाया गया । इसके हिसाब से अधिकतम कीमत निर्धारण किसी आवश्यक दवाई के तीन सर्वाधिक विक्रय होने वाले ब्रांडोंके औसत मूल्य के आधार पर किया जाएगा । वहीं सन् २०१२ के मसौदे ने बाजार आधारित मूल्य निर्धारण नीति को तो जारी रखा है, लेकिन इसके फार्मूले मेंपरिवर्तन कर दिया है । इसमें बाजार में उपलब्ध ऐसे सभी ब्रांड जिनकी एक प्रतिशत या इससे अधिक हिस्सेदारी है, उनका औसत लेकर मूल्य निर्धारण होगा ।
    ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के सह संयोजक गोपाल दाभाड़े का कहना है, इस बात में कोई शक नहीं कि नई पद्धति से दवाइयों के मूल्य मेंकमी आएगी, लेकिन इसके बावजूद ये आम आदमी की पहुंच से बाहर रहेगी, क्योंकि जो भी ब्रांड अधिक बिकते हैं वे सामान्यतया सबसे अधिक महंगे होते हैं । इसके अलावा ऐसे ब्रांड जो कि दवाईयों को कम कीमत पर बेचते हैं धीरे-धीरे मूल्य बढ़ाते जाएंगे, जिससे कि अधिक मूल्य निर्धारण हो सके । बड़ौदा स्थित गैर लाभकारी संस्था लो कास्ट के प्रबंध ट्रस्टी एस. श्रीनिवासन जो कि आम आदमी की पहुंच मेंहो ऐसी दवाई बनाती है, का कहना है कि सन् १९७९ से हम जिस लागत आधारित मूल्य निर्धारण नीति का अनुपालन कर रहे है वह सर्वश्रेष्ठ विकल्प है । श्री निवासन की भी न्यायालय में याचिका दाखिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
    अपने शपथ पत्र में याचिकाकर्ताआें ने मांग की है कि लागत आधारित मूल्य निर्धारण फार्मूले को यथावत बनाए रखा    जाए । उन्होनें तमिलनाडु सरकार के दवाई खरीदने वाले मॉडल को पूरे देश में अपनाने का कहा है । तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कारपोरेशन एक स्वायत्तशासी औषधि क्रय करने वाली एजेंसी है, जो निर्माताआें से दवा खरीदती है और राज्य की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाआें को इसकी आपूर्ति करती है । इस माडल को राजस्थान एवं केरलने भी सफलतापूर्वक अपनाया है । श्री निवासन का कहना है कि लागत आधारित मूल्योंं, बाजार आधारित मूल्यों एवं तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कारपोरेशन के मूल्यों के बीच जबरदस्त अंतर है ।
    उदाहरण के लिए दिल के दौरे को रोकने के लिए एस्ट्रोवास्टेटिन की १० मि.ग्रा. की १० गोलियां बाजार की सिरमौर कंपनी ११० रूपये में बेचती है । यदि लागत के आधार पर इसके मूल्य की गणना की जाए तो ये ५.६० पैसे की १० गोलियां  पड़ेगी। यदि ऐसे सभी ब्रांडों का औसत लिया जाएगा, जिनकी कि बाजार में हिस्सेदारी १ प्रतिशत से अधिक है तो इन गोलियों का मूल्य करीब ५० रूपये बैठेगा । वहीं तमिलनाडु सरकार द्वारा इस दवाई की सार्वजनिक खरीदी (१० गोलियां) का मूल्य केवल २.१० पैसे है ।
    श्री निवासन का कहना है कि मसौदे के प्रस्ताव वाले नए फार्मूले में निर्माण की वास्तविक लागत से कोई संबंध नहीं है । वहीं ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की सह संयोजक एवं सह-संस्थापक मीरा शिवा के अनुसार इस बात की तुरन्त आवश्यकता है कि ऐसी दवा नीति बने जो कि देश की स्वास्थ्य नीति के अनुरूप हो । क्योंकि स्वास्थ्य नीति से ही देश के सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान की जा सकती है ।
पर्यावरण परिक्रमा
क्या अब कहानी में ही बचेगी गौरेया
    घरों के आंगन, मुंडेर, खपरैल और छत पर चहचहाती, तिनका-तिनका घोंसला बनाती, अपने नन्हें बच्चें को सारा दिन दाना चुगाती, इंसान के ईद-गिर्द रहकर उसकी कोमल संवेदनाआेंको बचाती गौरेया आने वाले दिनों में महादेवी वर्मा की कहानी के पन्नों में ही तो नहीं बचेगी ।
    आधुनिक इंसान के जेहन मेंअब यह सवाल कौंधने लगा है क्योंकि गौरेया के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। भारत हीं नहीं दुनिया के अन्य हिस्सों में भी खासकर शहरों में गौरेया  की संख्या तेजी से घट रही है । ब्रिटेन की रायल सोसायटी आफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड ने भारत समेत दुनिया के विभिन्न हिस्सों के शोधोंके निष्कर्षो के आधार पर इंसान के साथ रहने वाली छोटी गौरेया को वर्ष २०१० में लाल सूची यानी लुप्त्प्राय पक्षियों की सूची में शामिल कर लिया है । इसके बाद से गौरेया को लेकर लोगों की चिताएं बढ़ी और इसके संरक्षण के उपाय शुरू किए गए ।
    गौरेया को बचाने की कवायद के तहत दिल्ली सरकार ने इसे राजपक्षी घोषित किया है । पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गौरेया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाइल के टावर प्रमुख हैं । गौरेया के घटती संख्या के कारणोंपर अध्ययन करने वाले केरल के पक्षी विज्ञानी डॉ. सैनुदीन ने बताया कि मोबाइल टॉवर ९००-१८०० मेगाहर्ट्ज की आवृत्ति उत्सर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकिरण इलेक्ट्रोमैनेटिक रैडिएशन से गौरेया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है । इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता भी बाधित होती है । आम तौर पर १० से १४ दिनों तक अंडे सेने के बाद गौरेया के बच्च्े निकल आते हैंलेकिन मोबाइल टॉवरों के पास ३० दिन सेेने के बावजूद अंडा नहीं फूटता है ।
    कोयंबटूर स्थित सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केन्द्र के डॉ. वी.एस. विजयन के आधुनिक जीवन शैली और मकानों एवं भवनों के वास्तु में बदलाव के कारण मकानों में दरारें नहीं रह गई हैं तथा घरों के बगीचे भी समाप्त् हो गए जिससे गौरेया का पर्यावास समाप्त् हो रहा है । इंडियन क्रेन्स एेंड वेटलैंड वर्किंग ग्रुप के केएस गोपीसुन्दर के अनुसार सीसारहित पेट्रोल से निकलने वाले मिथेन और नाइट्रेट से तथा रासायनिक खादों से गौरेया के पसंदीदा आहार छोटे कीड़े-मकोड़े समाप्त् हो रहे है । शहर में कौआें की संख्या बढ़ रही है और ये गौरेया के अंडोंको खा जाते हैं । भारत के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली और फिनलैंड के शहरों में भी गौरेया की संख्या तेजी से कम हो रही है ।

अमेरिकी इतिहास में २०१२ सबसे गर्म साल

    वर्ष २०१२ अमेरिका के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था । औसत तापमान के आधार पर बीते साल को अब तक के सबसे गर्म साल के तौर पर देखा जा रहा है ।    
    अमेरिका में वर्ष २०१२ का औसत तापमान ५५.३ डिग्री फेरेनहाइट रहा जो कि पिछली सदी के औसत तापमान से ३.२ डिग्री फेरेनहाइट अधिक था । अब तक वर्ष १९९८ को सबसे गर्म साल माना जाता था लेकिन २०१२ में तापमान उससे भी १ डिग्री फेरेनहाइट अधिक रहा । ये आंकड़े नेशनल क्लाइमेट डेटा सेंटर ऑफ द नेशनल ओशियनिक एंड एट्मॉस्फिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की ओर से जारी किए गए हैं । पर्यावरण एवं लोक सेवा समिति के अध्यक्ष सीनेटर बारबरा बॉक्सर के मुताबिक यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है ।
    सीनेटर ने कहा कि तेजी से बढ़ता तापमान और सैंडी से होने वाली तबाही भविष्य के खतरों की ओर इशारा करते हैं । हमें इस ओर अभी से ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि हम अपने लोगों और समुदाय को बचा सकें ।

अब चन्द्रमा से मिलेगी बिजली
    चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द परिभ्रमण करता है । सौरमंडल के अन्य ग्रहों की अपेक्षा चंद्रमा पृथ्वी के  काफी समीप है यानी केवल २ लाख् ४० हजार मील के फासले पर । चंद्रमा को सूर्य से ही प्रकाश व ऊर्जा मिलती है और वहींसे प्रकाश परिवर्तित होकर पृथ्वी पर आता है ।
    खास बात यह है कि अब चंद्रमा से बिजली प्राप्त् होगी । यह अनुसंधान अमेरिका यूनिवर्सिटी ऑफ ह्यूस्टन के इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस सिस्टम के प्रो. डेविड क्रिसवेल ने किया है । डेविड की मान्यता है कि चंद्रमा के विभिन्न स्थानोंपर सूर्य की ऊर्जा एकत्रित कर उसे पृथ्वी की ओर माइक्रोवेव बीम के रूप में मोड़ा जा सकता है । पृथ्वी पर इस माइक्रोवेव बीम को विद्युत ग्रिड के माध्यम से विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा            सकेगा ।
    यदि इस परियोजना को स्वीकृति मिल गई और क्रियान्वित हुई तो चंद्रमा विद्युत उत्पादन का बड़ा स्त्रोत बन जाएगा । कई विकासशील एवं पिछड़े देश इस प्रोजेक्ट से लाभ उठा सकेगें ।

समंदर के तल में फफूंद मिली

    शोधकर्ताआें ने प्रशांत महासागर की गहराईयों में जीवित फंफूद खोजी है । इतनी गहराई पर जो तलछट जमा है वह संभवत:१० करोड़ वर्ष पुरानी है और इसमें पौषक तत्वों का घोर अभाव है । इतने गहरे में सजीव फंफूद  की उपस्थिति बताती है कि जीवन कितनी अति-परिस्थितियों में संभव है ।
    इस फंफूद का अध्ययन लॉस एंजेल्स के दक्षिण कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैव रसायन शास्त्री ब्रांडी रीस ने किया है । वे बताती है कि इनमें से कुछ फंफूद पेनिसिलियम जीनस की है जो पेनिसिलिन का स्त्रोत है । इस अध्ययन के परिणाम हाल ही मेंअमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की बैठक मेंप्रस्तुत किए  गए ।
    वैसे तो पहले भी गहरे संमदर में फंफूद मिल चुकी है  मगर जीव वैज्ञानिकों ने शंका जाहिर की थी कि हो सकता है कि यह फंफूद उपकरणों में संदूषण की वजह से वहां पहूंचती  है । कुछ जीव वैज्ञानिकोंका मत था कि जो फंफूद वहां खोजी गई है वह समुद्र के पानी में उपस्थित फंफूद के बीजाणु है, जो किसी वजह से तलछट में बैठ गए है । यानी यह माना जा रहा था कि यह फंफूद वहां जीती नहीं बल्कि किसी अन्य वजह से वहां पहुंच गई है ।
    मगर रूस के दल ने पूरी सावधानी बरती कि बाहर से फंफूद संक्रमण न होने पाए । इसके अलावा उन्होंने प्रशांत महासागर के पेंदे से जो आनुवांशिक सामग्री हासिल की उसमें डीएनए के अलावा आरएनए भी था । आरएनए वह अणु है जो कोशिका के प्रोटीन बनाने की क्रिया का संचालन करता है । यानी यह ऐसी कोशिका है जिसमेंजीवन क्रियाएं चल रही है । अर्थात ये फंफूद वहां सिर्फ पड़ी नहीं है बल्कि जीवन की प्रक्रियाएं संपन्न कर रही है ।
    इस खोज से कई सवाल उठ रहे है । पहला सवाल तो यह है कि इतने कम पोषण कर यह फंफूद जीवित कैसे है । एक व्याख्या यह है कि वहां जो पदार्थ है उनका उपभोग एक-कोशिकीय जीव नहीं कर पाते हैं  इसलिए फंफूद को ये पोषण तत्व उपलब्ध हो जाते है । एक अन्य सवाल यह भी है कि इतनी गहराई में उपस्थित इस इकोतंत्र में ये फंफूद क्या व किस तरह की भूमिका निभाती है ।
    वैसे इन फंफूदों की खोज से नई औषधियां मिलने की उम्मीद भी जगी है । हमारी कई एंटीबायोटिक औषधियां फंफूदों से ही मिली है और फंफूदों की नई प्रजातियों के साथ नई औषधियां मिलने की उम्मीद है ।
अब मशीनों के पहरे से रोकेंगे प्रदूषण
    अब मध्यप्रदेश के उद्योगों से निकलने वाला धुंआ और शहर में वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर मशीनों का पहरा होगा । यह आटो कंटीनुअस मानीटरिंग सिस्टम (एयर मानीटरिंग सिस्टम) हवा मेंही प्रदूषण की मात्रा को माप कर उसे बोर्ड पर डिस्पले कर देगा । प्रदूषण रोकने के लिये यह करोड़ों की मशीन उद्योगों के अलावा प्रदेश के चार बड़े शहरों में भी लगाई जाएगी ।
    मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने प्रदेश के चार शहरों में प्रमुख चौराहों पर एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाने की योजना बनाई है । करीब पौने दो करोड़ की यह मशीन शहर में होने वाले प्रदूषण को बताएगी । इसकी शुरूआत भोपाल के रोशनपुरा चौराहे से की जायेगी । इसके लिये मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अस्सी लाख रूपए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भेज दिये हैं । इसमें आधी-आधी कीमत प्रदेश और केन्द्र को देना है । प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाए जा रहे है । अभी तक दस से अधिक उद्योगों में इन सिस्टमों को लगा दिया है । उद्योगों से निकलने वाले धुंए की मानीटरिंग के लिये दो तरह के सिस्टम लगाए गये हैं। इनमें जो उद्योग बिना चिमनी के चल रहे हैं उनमें एबीएेंट मानीटरिंग सिस्टम (वातावर-णीय परिवेश) लगाया  जायेगा । जिन उद्योगों में चिमनी से धंुआ निकलता है, उनमें स्टेक मानीटरिंग सिस्टम लगाया जायेगा  ।
विज्ञान हमारे आसपास
पौधों को छूने से फूल देरी से आते हैं
डॉ.डी.बालसुब्रमण्यन

    पौधे आपके स्पर्श पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और इसके लिए वे न सिर्फ अपनी जैव रासायनिक अभिक्रियाआें को संयोजित करते हैं बल्कि परिस्थिति और सुरक्षा जरूरतों के अनुरूप अपने आकार एवं माप को व्यवस्थित भी कर लेते हैं ।
    स्पर्श, गंध, दृश्य, श्रवण और स्वाद की पांच इंद्रियों में से कौन-सी इंद्रियां पौधों में भी पाई जाती है । अर्थात इनमें किस तरह के उद्दीपनों के प्रति पौधे प्रतिक्रिया देते हैं । इस सवाल ने वैज्ञानिकों और पौधों के जानकार लोगों को भी समान रूप से आकर्षित किया है । बेशक, पौधे प्रकाश को ग्रहण करने और उसका इस्तेमाल भोजन निर्माण में करने में सिद्धहस्त होते हैं । 
     अगर हम पौधों की श्रवण क्षमता के बारे में बात करें तो कामकाजी माली इस बात के पुरजोर समर्थक हैं कि पौधे आपकी बातचीत या संगीत का प्रत्युत्तर देते हैं । वैज्ञानिक इस बात को महज एक दिलचस्प बात कहकर नकार देते हैं । अलबत्ता यह सवाल कि क्या पौधे खुशबू को महसूस कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, अब भी पूरी तरह खुला हुआ है जिस पर वैज्ञानिकों का जवाब आना बाकी है ।
    मगर पौधों द्वारा स्पर्श को महसूसने और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने का मुद्दा अब स्पष्ट होता जा रहा है । जी हां, पौधे आपके स्पर्श पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और इसके लिए वे न सिर्फ अपनी जैव रासायनिक अभिक्रियाआेंको संयोजित करते हैं बल्कि परिस्थिति और सुरक्षा जरूरतों के अनुरूप अपने आकार एवं माप को ढालते भी हैं । वैज्ञानिक साहित्य में इस तरह की प्रतिक्रियाके लिए थिगमार्फोजेनेसिस शब्द हैं ।
    पौधे हवाआें का ध्यान रखते हुए अपनी लम्बाई को कम करते हैं और तने को चौड़ा करते हैं । पौधे छूने पर प्रतिक्रिया देते हैं । इसके लोकप्रिय उदाहरण शर्मीला और एकांतप्रिय पौधा टच-मी-नाट, छुई-मुई (मिमोसा प्यूडिसा) और मांस भक्षी वीनस फ्लाई ट्रैप (डिओनिया म्युसिपुला) हैं मगर इनके अलावा भी सारे पौधे बारिश या हवाआेंसे उत्पन्न स्पर्श संवेदना या कंपन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं ।
    इस बात की खोजबीन के लिए जिस पौधे को वैज्ञानिकोंने आदर्श रूप से चुना वह है सरसों कुल का अरेबिडोप्सिस थैलिआना जो आसानी से गमलों में उगाया जा सकता है और इसका जीवन चक्र भी छह हफ्तों का ही होता है । इसमें बीज भी काफी मात्रा में आते हैं और इसके डीएनए का अनुक्रमण किया जा चुका       है । विकास के दौरान यदि इसकी पत्तियों को धीरे-धीरे आगे पीछे झुलाया जाए, तो पौधे में फूल देर से आते हैं, तने और डंठल छोटे होते  हैं ।
    टेक्सास के राइस विश्वविद्यालय के डॉ. जेनेट ब्राम का समूह पिछले कुछ समय से थिगमार्फोजेनेसिस  की कार्यप्रणाली का अध्ययन कर रहा है । उनके हालिया प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि इस पर जेस्मोनेट का खासा प्रभाव पड़ता है । नाम से ही पता चलता है कि जेस्मोनेट जेस्मीन यानी चमेली से सम्बंधित है । यह रसायन चमेली के तेल में पाया जाता है । अपनी भीनी खुशबू के अलावा जेस्मोनेट एक वनस्पति हार्मोन भी है जो पौधे की जैव रासायनिक, कोशिका, क्रियाआेंऔर सुरक्षा प्रक्रियाआें को शुरू करने का काम करता है । इस पर्चे में यह भी बताया गया है कि जेस्मोनेट पौधे की कीटों से रक्षा भी करता है ।
    प्रयोग के दौरान पौधे को धीरे से छूने के अलावा हिलाना-डुलाना भी शामिल था । इस प्रयोग में उन्होंने पाया कि पौधे को जितना अधिक छुआ गया पौधे ने उतना ही अधिक जेस्मोनेट बनाया । इसके परिणाम-स्वरूप पौधे का पुष्पन देर से हुआ साथ ही फूलोंके डंठल और पत्तियों के समूह भी छोटे बने ।
    ड्डस तरह के परिणामोंसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब कीटों का कोई झुंड इन पौधों पर इन्हें खाने के लिए आता है तो पौधे खुद को इनसे बचाने के लिए जेस्मोनेट का सहारा लेते हैं । यह एक मायने में प्रेरित थिग्मोमार्फोजेन  है । यह हार्मोन जीन के पूरे समूह को नियंत्रित करता है जिसके जरिए न सिर्फ उसके विकास के पैटर्न को नियंत्रित करता है बल्कि कीटों से सुरक्षा भी प्रदान करता है । यह प्रभाव तब और स्पष्ट हो गया        जब इसकी संवेदनशीलता का परीक्षण करने के लिए पौधे पर बाहर से फंफूद का आक्रमण कराया    गया । ऐसी स्थिति में जिस पौधे को ज्यादा हिलाया गया था उसने फंफूद और एक कीट के विरूद्ध बेहतर प्रतिरोध प्रदर्शित किया ।
    श्री ब्राम कहते हैं कि यांत्रिक उद्दीपनों (हिलाने-डुलाने) से प्रभावित पौधे बाह्य आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा करने में कहीं बेहतर सक्षम होते हैं । शायद हवा, जो कवक के बीजाणु प्रसार का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम होती है, पौधों को संभवित संक्रमण के लिए तैयार करने मेंमदद करती है । कीटों के झुंड के पौधे पर उतरने से होने वाली हलचल या पौधों के आसपास से बड़े जानवरों के निकलने से पौधों का हिलना-डुलना पौधों को जेस्मोनेट उत्पादन करने को उकसाता है । अगर ऐसी हलचल आक्रमण की चेतावनी हो तो सुरक्षा के लिए तैयार होने में मददगार होती है ।
    पौधों का जीवन जो हमें बाहर से इतना नििष् क्रय या खामोश-सा लगता है, वास्तव में वैसा है नहीं । पौधे जिस वातावरण में रहते हैं वहां अपने दुश्मनों से अपनी रक्षा करने और उनका सामना करने के लिए      तैयार है । अवश्य ही उत्साही जन यह पूछ सकते हैं कि क्या दृश्य और स्पर्श जैसी संवेदनाएं ही पौधों में होती हैं, जिसके प्रति वे प्रतिक्रिया करते हैं ? कई लोग यह दावा भी कर सकते हैं कि पौधें ध्वनियों पर भी प्रतिक्रिया देते हैं ।    
    डॉ. मोनिका गैग्लिआनो सहित पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया विश्वविघालय के कुछ शोधकर्ताआें ने एक शोध के बाद यह दावा किया कि मकई की नई जड़ें लगातार क्लिक की आवाज करती रहती हैं । उन्होनें यह भी पाया कि जब मकई की इन नई जड़ों को पानी में डुबाया गया और एक तरफ से लगातार २२० हट्र्ज का कंपन प्रसारित किया गया तो पाया गया कि जड़ें उस कंपन स्त्रोत की तरफ मुड़ गई । यह कंपन उस रेंज के भीतर ही है जो खुद मकई की जड़ों में निकलते देखे गए थे । यह कहना जल्दबाजी होगी कि हम तो यह बात पहले से ही जानते थे और हमारे संगीतकार तो पहले ही यह साबित कर चुके हैं । और तो और, कहा तो यहां तक जाता है कि हमारे संगीतज्ञ तो अलग-अलग पौधों से प्रतिक्रियापाने के लिए अलग-अलग रागों का चुनाव भी कर चुके थे । इंटरनेट पर ऐसी ढेर जानकारियां पड़ी हैं जिनके गहन वैज्ञानिक सत्यापन और जांच की जरूरत है । इसके बगैर तो ये सिर्फ अटकलेंही हैं ।
 विशेष लेख
दोहा वार्ता : जलवायु परिवर्तन पर सालाना पिकनिक
के. जयलक्ष्मी
    वर्ष २०१२ में वैश्विक स्तर पर कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के एक बार फिर उंचाइयों पर पहुंचने की संभावना है । युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया स्थित टिन्डाल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च अनुसंधानकर्ताआें के नेतृत्व में चलाए जा रहे वैश्विक कार्बन प्रोजेक्ट के ताजा आंकड़ों के अनुसार इस साल ३५.६ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होगा । यह पिछले साल की तुलना में २.६ फीसदी ज्यादा होगा । क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन उत्सर्जन को वर्ष १९९० के स्तर तक लाने की बात कही गई थी । यह उससे ५८ फीसदी अधिक होगा । 
     वैश्विक कार्बन प्रोजेक्ट का यह ताजा विश्लेषण जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज के २दिसंबर के अंक में समग्र आंकड़ों के साथ प्रकाशित हुआ है । इसी विश्लेषण को पत्रिका अर्थ सिस्टम साइंस डैटा डिस्कशंस द्वारा भी जारी किया गया है । इसके अनुसार वर्ष २०११ में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में सबसे बड़ा हिस्सा चीन   (२८ फीसदी) का रहा है । इसके बाद अमरीका (१६ फीसदी), युरोपीय संघ (११ फीसदी) और भारत  (७ फीसदी) का योगदान रहा है । चीन में कार्बन उत्सर्जन में ९.९ फीसदी और भारत में कार्बन उत्सर्जन में ७.५ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, जबकि अमरीका में १.८ फीसदी और युरोपीय संघ के देशों में २.८ फीसदी की कमी आई । चीन में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन ६.६ टन तक पहुंच गया है जो युरोपीय संघ के ७.३ टन के आसपास है । हालांकि यह अब भी अमरीका से पीछे है, जहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन १७.२ टन प्रति व्यक्ति है । वर्ष २०११ में वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता ३९१ पीपीएम (पाट्र्स पर मिलियन) तक पहुंच गई थी ।
    ये नतीजे हमें अगाह कर रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन की दर पहले से ही काफी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है और अगर इस पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो समाज को इसकी भारी कीमत चुकानी होगाी । इससे पहले अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, विश्व बैंक, युरोपीय पर्यावरण एजेंसी और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स भी अपनी रिपोट्र्स में ऐसी ही चिंता जता चुके हैं । प्राइसवाटरहाउस कूपर्स का अध्ययन तो कहता है कि दुनिया इस सदी में भयावह वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजरेगी । इसके अनुसार जीवाश्म इंर्धन के विकल्प तलाशने में सरकारों की विफलता के कारण वैश्विक तापमान में ६ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है ।
    जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति (आईपीसीसी) के दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य का पूरा करने के लिए दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें को अगले ३९ सालों तक ५.१ फीसदी की कार्बन-मुक्ति दर हासिल करनी होगी । लेकिन यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से आज तक नहीं हो पाया है ।
    दोहा वार्ता
    जलवायु परिवर्तन से तालमेल बैठाने के लिए विकसित देशों द्वारा गरीब देशों को मदद करने का पक्का आश्वासन  सदैव बहस के केन्द्र में रहा है  । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में जो वादा किया था, उसके अनुरूप वे करीब ३० अरब डॉलर की राशि अनुदान और कर्ज के रूप में जारी कर चुके हैं । यह प्रतिबद्धता इस साल समाप्त् हो जाएगी । गरीब देशों को सालाना १०० अरब डॉलर की राशि मुहैया करवाने के लिए ग्रीन क्लाइमेट  फंड तैयार किया गया है, लेकिन इसकी शुरूआत में अभी वक्त है ।
    कार्बन उत्सर्जन की सीमा बांधने वाली एकमात्र संधि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि भी इसी साल के अंत मेंखत्म हो रही है । कतर की राजधानी दोहा में एकत्र विभिन्न देशों के पर्यावरण मंत्रियों और जलवायु से जुड़े अधिकारियों ने इस संधि को वर्ष २०२० तक बढ़ाने पर सहमति देकर इस सम्मेलन को पूरी तरह विफल होने से बचा लिया ।
    कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर विकसित देश अपनी प्रतिबद्धता पूरी नहीं कर पाए हैं । और तो और, इस लक्ष्य को पूरा करने के मामले में वे विकासशील देशों से भी पीछे रहे हैं । इससे कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य काफी हद तक पूरा नहीं हो पाया है । एक तो विकसित देश अपना वादा पूरा नहीं कर पाए, ऊपर से विकासशील देशों को इस उत्सर्जन में और कटौती करने को कह रहे हैं ।
    जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की दो दशक पुरानी वार्ता ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के अपने मुख्य उद्देश्य में विफल रही है । ये वही गैसें हैं, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है । इस वार्ता का एकमात्र सकारात्मक परिणाम जलवायु वित्त पोषण व्यवस्था है, लेकिन इससे भी सस्या उलझ गई  है । अब जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बैठकें भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बदले धन कमाने का जरिया बनती जा रही है ।
    ऑक्सफैम की रिपोर्ट
    दोहा में जलवायु परिवर्तन पर होने वाली वार्ता की पूर्व संध्या पर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि विकसित व संपन्न देशों को धोखा दिया है । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में २०१० से २०१२ के बीच गरीब देशों को ३० अरब डॉलर की फास्ट ट्रेक फंडिंग और वर्ष २०२० से हर साल १०० अरब डॉलर देने का वादा किया था । यह राशि कर्ज या मदद के तौर पर नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति के तौर पर दी जानी दी थी । यह राशि गरीब देशों को इसलिए दी जानी थी ताकि वे स्वयं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बना सके । यह रायिा ओवरसीज डेवलपमेंट एड (ओडीए) के अतिरिक्त दी जानी थी । वास्तव में हुआ यह है कि विकसित देशों ने पुराने फंडों के नाम बदल दिए हैं ।
    इस रिपोर्ट में ब्रिटिश संस्था ऑक्सफैम द्वारा किए गए एक रिसर्च के हवाले से कहा गया है कि विकसित देशोंने क्लाइमेट फडिंग के नाम पर पूरी दुनिया को मुर्ख बनाया है और वे जलवायु परिवर्तन की आड़ में गरीब देशों को अनुदान देने की बजाय कर्ज दे रहे हैं । इतना ही नहीं, यह राशि भी ओडीए से ही जा रही  है । अब तक जो राशि दी गई है, उसमें से केवल २४ फीसदी ही ओडीए के अतिरिक्त है । इस राशि में से भी केवल ४३ फीसदी ही अनुदान के रूप में है । शेष राशि कर्ज पर दी गई हैं, जिस पर विकसित देश ब्याज भी कमाएंगे । प्रदान की गई राशि में से केवल२१ फीसदी का ही इस्तेमाल जलवायु अनुकूलन में किया गया । विकसित देशों द्वारा वर्ष २०१३ से २०२० की अवधि के लिए ठोस वित्तीय वादे का ऐलान अभी बाकी  है ।
    इसी बीच भारत ने दोहराया है कि २००५ में कार्बन उत्सर्जन का जो स्तर था, उसमें से २० से २५ फीसदी तक की कटौती वर्ष २०२० तक करने के स्वेच्छा से किए गए वादे पर वह टिका रहेगा । एक ऐसी नई संधि होने की भी संभावना जताई जा रही है जो चीन सहित तमाम विकासशील देशों पर लागू होगी । गौरतलब है कि दुनिया में कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन चीन ही कर रहा है । इस संधि पर २०१५ में दस्तखत होने की संभावना है । लागू यह इसके पांच साल बाद होगी ।
    दक्षिण एशिया पर खतरा
    विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ४ डिग्री सेल्सियस वृद्धि से बचें को पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी के रूप में लिया जाना चाहिए । चाहे समुद्र तल से २.७ मीटर की ऊंचाई पर स्थित मालदीव हो या ५२४२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित नेपाल, वैश्विक तापमान का असर सभी पर एक समान होगा । पिछले दो दशक के दौरान दक्षिण एशिया की ५० फीसदी आबादी यानी करीब ७५ करोड़ लोग प्राकृतिक आपदाआेंसे प्रभावित हुए हैं । इसमें ६० हजार से भी अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है और ४५ अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान हुआ है । इस अवधि में बंगाल की खाड़ी में आठ भयंकर तूफान आए हैं और इसके आसपास का क्षेत्र बाढ़ की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में शामिल है । वर्ष २०१० में पाकिस्तान में आई बाढ़ इतनी भयावह थी कि उसका देश के करीब २० फीसदी हिस्से पर असर पड़ा था और उस वजह से दो करोड़ लोग विस्थापित हुए थे । वर्ष २०११ और २०१२ में भी पाकिस्तान को कई बार बाढ़ का सामना करना पड़ा ।
    दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों में दो-तिहाई आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है और यह खेती मुख्यत: मानसून पर आश्रित है । इन देशों में ७० फीसदी बारिश मानसून के चार महीनों में होती है । अनियमित मानसून के कारण खाद्य पदार्थोंा की कीमतें पहले ही आसमान छू रही     हैं । एशिया के १.३० अरब लोग मुख्य रूप से सात बड़ी नदियों पर निर्भर हैं जिनके पानी का स्त्रोत हिमालय के ग्लेशियर हैंं । ये ग्लेशियर पहले ही संकट में हैं । ६० करोड़ गरीब और ३३ करोड़ कुपोषित आबादी वाला दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले प्रभावोंको शायद ही सहन कर सकेगा ।
     विश्व बैंक की रिपोर्ट का मुख्य सार यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वादोंको पूरा नहीं करने के परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी । नतीजतन, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी, सूखे और बाढ़ की घटनाएं अभूतपूर्व ढंग से बढ़ेंगी और कृषि की पैदावार में गिरावट आएगी ।
    रिपोर्ट में विकास सम्बंधी और भी कई चुनौतियों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें इस क्षेत्र की नीतियों में शामिल नहीं किया गया है, जैसे महासागरों का अम्लीकरण, समुद्रों के जल स्तर में वृद्धि के कारण भारत के तटीय इलाकोंपर पड़ने वाला असर आदि ।
    यहां यह भी गौरतलब है कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सालाना ३.३ फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है । मध्य पूर्व को छोड़ दें, तो यह वृद्धि अन्य तमाम क्षेत्रों की तुलना में कहां ज्यादा है । प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा की आड़ में खुद को छिपाना आसान है, लेकिन तथ्य यही है कि पर्यावरण को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उत्सर्जन प्रति व्यक्ति कितना है । क्षेत्र के लिए विकास गतिविधियों की अनिवर्यता के मद्देनजर यह सुनिश्चित करना बहुत ही अहम हो गया है कि जलवायु सम्बंधी वित्त-पोषण ऐसा हो कि उससे सभी सम्बंधित पक्ष संतुष्ट हों और इस तरह कार्बन उत्सर्जन पर ब्रेक लग सके ।
कृषि जगत
 फसलों को पाले से कैसे बचाएं
डॉ. किशोर पंवार

    बदलते मौसम का सर्वाधिक प्रभाव जीव-जन्तुआेंपर ही पड़ता  है । चलने-फिरने वाले जीव तो जैसे-तैसे  अपने बिलों में, घोसलों में दुबककर एवं घरों में घुसकर तेज धूप, घनघोर बारिश और कंपकपा देने वाली सर्दी से बच जाते हैं परंतु अचल हरे-भरे जीवों पर ऐसे में क्या गुजरती है, कभी   सोचा है आपने ?
    जी हां, हम अपने आसपास में उगे बाग-बगीचों और खेतों में उगी उन फसलों की ही बात कर रहे हैं जो मौसम की मार में बेहाल हो रही हैं । फसलों की पत्तियां झुलस रही है और कहीं-कहीं उनके पत्तों पर बर्फ भी जम रही है । पूरे उत्तर भारत में सर्दी का प्रकोप जारी है । ठंड ने पिछले कई सालों  का रिकार्ड तोड़ दिया है । कहीं-कहीं रात का तापमान २ से ५ डिग्री सेल्सियस तक दर्ज किया गया है । ऐसी ठंड में पाला पड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती है । पाला पड़ने से चना, टमाटर एवं आलू की फसलों को ज्यादा नुकसान होता  है । आइए देखें कि पाला क्या है ? और पत्तियां क्यों और कैसे प्रभावित होती हैं ?
      पाला दरअसल दो तरह का होता है । पहला एडवेक्टिव और दूसरा रेडिएटिव अर्थात विकिरण आधारित । एडवेक्टिव पाला तब पड़ता है जब ठंडी हवाएं चलती है । ऐसी हवा की परत एक-डेढ़ किलोमीटर तक हो सकती है । इस अवस्था में आसमान खुला हो या बादल हों, दोनों परिस्थितियों में एडवेक्टिव पाला पड़ सका है ।
    परन्तु जब आकाश बिलकुल साफ हो और हवा शांत हो । तब रेडिएटिव प्रकार का पाला गिरता  है । जिस रात पाला पड़ने की आंशका व्यक्त की जाती है उस रात बादल पृथ्वी के कम्बल की तरह काम करते हैं जो जमीन से ऊपर उठने वाले संवहन ताप को रोक लेते हैं । ऐसे में बहती हवाएं इस रोकी गई हवा से मिल जुलकर तापमान एक समान कर देती हैं । और शांत हवाएं विकिरण ऊष्मा को पृथ्वी से अंतरिक्ष में जाने से रोक देती है ।
    ऐसे में हवा के नहीं चलने से एक इनवर्शन परत बन जाती   है । इनवर्शन यानी एक ऐसी वायुमंडलीय दशा जो सामान्य दिनों की तुलना में उल्टी हो । सामान्य दशा में हवा का ताप ऊंचाई बढ़ने से घटता है । इनवर्शन के  कारण ठंडी हवा पृथ्वी की सतह के पास इकट्ठा हो ताजी है और गर्म हवा इस पर्त के ऊपर होती है ।
    भौगोलिक परिस्थितियां भी पाले का प्रभावित करती है । ढलान की तलहटी में ठंडी हवा नीचे बैठ जाती है क्योंकि गर्म हवा से भारी होती है  । अत: घाटी में फ्रास्ट बनता है जहां ठंडी हवा घिर जाती है । यही कारण है कि पहाड़ों के शीर्ष एवं घाटियों में पाला ज्यादा पड़ता है जबकि पहाड़ के अन्य हिस्से उससे बचे रहते हैं ।
    पाला पड़ने की चेतावनी हमें यह बताती है कि हमारी फसलें मुश्किल में हैं । हालांकि पौधों को नुकसान फ्रास्ट की वजह से नहीं बल्कि पौधों के अंगों, विशेषकर पत्तियों के ऊतकों के आंतरिक तापमान के कारण होता है । यदि तापमान इतना कम है कि वह कोशिका भित्ति को तोड़ दे या कोशिकांग को इतना क्षतिग्रस्त कर दे कि वे वापस अपनी पूर्व स्थिति में न आ पाएं  ता प्रभावित ऊतक मुरझा जाते हैं । प्रभाव ज्यादा हो तो उनकी मृत्यु भी हो जाती है ।
    पौधों पर कम तापमान का प्रभाव दो तरह का होता है । एक को चिलिंग क्षति कहते हैं और दूसरे को फ्रीजिंग । चिलिंग क्षति जमाव बिन्दु से ऊपर अर्थात शून्य डिग्री सेल्सियस से ऊपर होती है ।
    फ्रीजिंग क्षति ऊतकों का तापमान शून्य या शून्य से कम होने पर होती है । इस स्थिति में पत्तियों के अन्दर बर्फ जम जाती  है । गर्म क्षेत्रोंके पौधे रात के १२ से २० डिग्री सेल्सियस पर भी क्षतिग्रस्त हो जाते हैं ।
    रेडिएटिव पाला से बचने के लिए कई कदम उठाए  जात हैं । एक तो यह कि पूर्व के सालों में पड़े पाले के दिनोंका ध्यान रखें । पाला पड़ने की लगभग ५० प्रतिशत संभावना इन्हीं दिनों में होती है । पाला पड़ने की संभावना हो तो बेहतर होगा कि आप फसल में सिंचाई कर दें । सूखी मिट्टी की तुलना में नम मिट्टी चार गुना ज्यादा गर्मी अपने में समाए रखती है । इस कारण फसलों के आसपास का तापमान इतना कम नहींे हो पाता और वे पाले की क्षति से बच जाती हैं ।
    टमाटर जैसी फसलें पाला के प्रति बहुत संवेदी होती है । अत: पाला से बचने का अन्य कोई उपाय न हो तो बेहतर है कि हरे टमाटर, जो पकने की स्थिति में आ चुके हैं, उन्हें तोड़ लें और एक परत के रूप में बिछाकर ऐसे अंधेरे गर्म कमरे मेें रख दें जहां हवा की आधी निकासी है । टमाटर और अन्य फसलों को पकने के लिए प्रकाश की जरूरत नहीं होती हैं ।
    देखा गया है कि साफ आकाश, ठंडी रातें और कम नमी अक्सर ठंडी हवा चलने के कारण होती हैं । ऐसे में पाला पड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं ।
    कुछ लोग यह भी मानते हैं कि आसमान में पूरा चांद खिला हो तब भी पाला पड़ने की आशंका होती है । परंतु मौसम सम्बंधी रिकार्ड बताते हैं कि चांद और पाले का ऐसा कोई सम्बंध नहीं है ।
    सवाल यह है कि पाला से पत्तियां ही क्यों ज्यादा प्रभावित होती हैं । दरअसल पौधे पायकिलोथर्म होते हैं । अर्थात उनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान से नियंत्रित होता है । गर्म हवा में पौधे गर्म हो जाते हैं, ठंडी हवा में ठंडे । पाला गिरने से पत्तियां सबसे ज्यादा प्रभावित इसलिए होती हैं कि पत्तियां ही पौधे का सर्वाधिक खुला एवं ज्यादा क्षेत्रफल का हिस्सा होता है ।
    पत्तियां ही हवा के आदान-प्रदान में ज्यादा भूमिका निभाती हैं और इनमें पानी की मात्रा भी अधिक होती है । अत: बाहरी तापमान में उतार-चढ़ाव का सर्वाधिक प्रभाव पत्तियों पर ही पड़ता है । पत्ती के अन्दर कोशिकाआें के बीच-बीच में और अंदर भी पानी भरा रहता है जो तापमान शून्य या शून्य से कम होने से जम जाता  है । पत्तियों पर बर्फ ज्यादा जमी दिखने का कारण भी यही है कि इसका क्षेत्रफल ज्यादा होता है और ये प्राय: आड़ी होती हैं । जो बर्फ मिट्टी पर गिरती हैं वह मिट्टी का ताप अधिक होने से पिघल जाती  है जबकि पत्तियों पर बनी रहती    है ।
    पाला पड़ने की संभावना होने पर एक दिन पूर्व सिंचाई करने से गीली मिट्टी अपेक्षाकृत धीरे-धीरे ठंडी होती है । ऐसे में पाला पड़ना रूक जाता है । इस दिशा में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि गीली मिट्टी के ऊपर का तापमान सूखी मिट्टी के तापमान की तुलना में २ डिग्री सेल्सियस ज्यादा होता है । और तापमान का यह अंतर दूसरे दिन सुबह ६ बजे तक बना रहता है । अत: मिट्टी की सतह पर अपेक्षाकृत ज्यादा ताप होने से फसल पाले के दृष्प्रभाव से बच जाती है ।
    पाला से फसलोंको बचाने का एक उपाय उनको ढंकने का भी है । यह देखा गया कि प्लास्टिक की तुलना में कपड़े के कवर ज्यादा बेहतर ऊष्मारोधी का काम करते हैं । कवर जब हवा बंद हो तब शाम को लगाएं और सुबह सूरज निकलने के पूर्व हटा लें ।
    फसलों की सिंचाई करने से पत्तियों मेें पानी की मात्रा बढ़ जाती है । और जब पानी जमता है तब ८० कैलोरी के लगभग ऊष्मा निकलती है प्रत्येक ग्राम पानी    के जमने पर । अत: पाला पड़ने से पहले फसलों को पानी देने से इनका आंतरिक तापमान जमाव बिंदु से ऊपर बना रहता है और वे क्षतिग्रस्त होने से बच जाती हैं ।
    ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक बार पौधे पाले से प्रभावित हो गए तो फिर सिंचाई काम नहीं आती है । इसलिए ऐहतियात ही बेहतर है ।
ज्ञान विज्ञान
पनडुब्बी से मिसाइल दागने वाला भारत पहला देश
    भारत ने २९० किमी से ज्यादा दूर तक मार करने वाली ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल के सबमरीन वर्जन का पिछले दिनों बंगाल की खाड़ी में सफल परीक्षण किया । इसके साथ ही पनडुब्बी से मिसाइल दागने की क्षमता हासिल करने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया है । 
     ब्रह्मोस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) ए. सिवथानु पिल्लई ने बताया कि ब्रह्मोस के पनडुब्बी से छोड़े जा सकने वाले वर्जन का पानी के भीतर सफल परीक्षण किया गया । उन्होंने बताया के पानी के भीतर सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का दुनिया में कहीं भी यह पहला परीक्षण है । मिसाइल ने अपनी क्षमता के अनुरूप २८० किमी से ज्यादा दूरी तय की । परीक्षण के दौरान मिसाइल का प्रदर्शन एकदम सटीक था ।
    पानी के जहाज और जमीन से छोड़े जाने वाली ब्रह्मोस मिसाइल सफल परीक्षण के बाद भारतीय थल सेना और नौ सेना में तैनात कर दी गई है । पनडुब्बी में आड़े तरीके से फिट करने के लिए  ब्रह्मोस मिसाइल पूरी तरह है सक्षम । पनडुब्बी में मसाइल लगने के बाद यह दुनिया की सबसे मारक पनडुब्बी बन जाएगी । रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैज्ञानिकों तथा रूसी विशेषज्ञों सहित इस परियोजना से जुड़े भारतीय नौ सेना के अधिकारियों को सफल परीक्षण के लिए बधाई दी है ।

ऊर्जा का स्त्रोत बनेगी जलती बर्फ

    तेल और गैस के भारी आयात ने भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ा दिया है । यह चीज देश की तेज आर्थिक वृद्धि की राह में रोड़ा बन रही है । लेकिन पिछले हफ्ते जापान ऑयल गैस एंड मेटल्स नैशनल कॉरपोरेशन (जेओजीएम ईसी)की एक तकनीकी उपलब्धि हमारे लिए अंधेरे में आशा की किरण बनकर आई है । वे लोग समुद्र तल पर जमा मीथेन हाइड्रेट के भंडार से प्राकृतिक गेैस निकालने में कामयाब रहे । इस चीज को आम बोलचाल में फायर आइस या जलती बर्फ भी कहते हैं, क्योंकि यह चीज सफेद ठोस क्रिस्टलाइन रूप मेंपाई जाती है और ज्वलनशील होती है । भारत के पास संसार के सबसे बड़े मीथेन हाइड्रेट भंडार है । 

     मीथेन हाइड्रेट प्राकृतिक गैस और पानी का मिश्रण है । गहरे समुद्र तल पर पाई जाने वाली निम्न ताप और उच्च् दाब की विशेष स्थितियोंमें यह ठोस रूप धारण कर लेता है । कनाडा और रूस के स्थायी रूप से जमे रहने वाले उत्तरी समुद्रतटीय इलाकों में यह जमीन पर भी पाया जाता है । इन जगहों से निकाले जाने के बाद इसे गरम करके या कम दबाव की स्थिति मेंलाकर  (जेओजीएमईसी ने यही तकनीक अपनाई थी) इससे प्राकृतिक गैस निकाली जा सकती है । एक लीटर ठोस हाइड्रेट से १६५ लीटर गैस प्राप्त् होती है । यह जानकारी काफी पहले से है कि भारत के पास मीथेन हाइड्रेट के बहुत बड़े भंडार हैं । अपने यहां इसकी मात्रा का अनुमान १८,९०० खरब घन मीटर का लगाया गया है । भारत और अमेरिका के एक संयुक्त वैज्ञानिक अभियान के तहत २००६ में चार इलाकों की खोजबीन की गई । ये थे - केरल-कोंकण बेसिन, कृष्णा गोदावरी बेसिन, महानदी बेसिन और अंडमान द्वीप सूह के आसपास के समुद्री इलाके । इनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन हाइड्रेट के मामले में संसार का सबसे समृद्ध और सबसे बड़ा इलाका साबित हुआ । अंडमान क्षेत्र में समुद्र तल से ६०० मीटर नीचे ज्वालामुखी की राख में हाइड्रेट के सबसे भंडार पाए गए । महानदी बेसिन में भी हाइड्रेटस का पता लगा ।
    बहरहाल, आगे का रास्ता आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से होकर गुजरता है । हाइड्रेट से गैस निकालने का किफायती तरीका अभी तक कोई नहीं खोज पाया है । उद्योग जगत का मोटा अनुमान है कि इस पर प्रारंभिक लागत ३० डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) आएगी, जो एशिया में इसके हाजिर भाव को दोगुना और अमेरिका में इसकी घरेलू कीमत का नौगुना है । जेओजीएम ईसी को उम्मीद है कि नई तकनीक  और बड़े पैमाने के उत्पादन के क्रम में इस पर आने वाली लागत घटाई जा सकेगी । लेकिन पर्यावरण की चुनौतियां फिर भी अपनी जगह कायम रहेगी । गैस निकालने के लिए चाहे हाइड्रेट को गरम करने का तरीका अपनाया जाए, या इसे कम दाब की स्थिति में ले जाने का, या फिर या दोनों तरीकें एक साथ अपनाए जाएं, लेकिन हर हाल में गैस की काफी बड़ी मात्रा रिसकर वायुमंडल में जाएगी और इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा । कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में प्राकृतिक गैस १५-२० गुना गर्मी रोकती है । पर्यावरण से जुड़ी इन आशंकाआें के चलते कई देशों ने अपने यहां शेल गैस का उत्पादन ठप कर दिया है और हाइड्रेट से गैस निकालने के तो पर्यावरणवादी बिल्कुल ही खिलाफ   है । लेकिन शेल गैस के रिसाव को रोकना ज्यादा कठिन नहीं है । कौन जाने आगे हाइड्रेट गैस के मामले मेंभी ऐसा हो सके । काफी पहले, सन् २००६ मेंमुकेश अंबानी ने गैस हाइड्रेट्स के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाने को कहा था, लेकिन आज तक दिशा में कुछ नहीं किया सका है । अमेरिका, जापान और चीन में हाइड्रेट्स पर काफी शोध चल रहे हैं लेकिन भारत में इस पर न के  बराबर ही काम हो पाया है । राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट कार्यक्रम के तहत पहला इसके भंडार खोजने के लिए पहला समुद्री अभियान भी २००६ में चला था । दूसरे अभियान की तब अब तक बात ही चल रही है ।

जीएम फसलों का जंजाल


    देश में आधुनिक जैव प्रौघोगिक के अन्तर्गत आनुवांशिक बदलाव वाली या जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों और देश की खाद्य सुरक्षा के संभावित मूल्यांकन को लेकर बहस चल रही है । बीटी फसलों में टॉक्सिन (जहर) बनाने वाली जीन डाली जाती है, जो मिट्टी में पाए जाने वाले एक बैक्टीरिया बैसिलस थूरिजेनेसिस (बीटी) में पाई जाती है । इससे तैयार होने वाली फसल बीटी फसल कहलाती है ।
    यह जीन फसलों पर खुद जहर बनकर उन पर लगने वाले कीट को मार देती है । कुछ बड़ी जैव प्रॉद्योगिकी कंपनियां, कृषि वैज्ञानिक और प्रबुद्ध लोगों का एक वर्ग बढ़ती  आबादी, घटती खेतिहर भूमि के कारण देश में खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम बीज तकनीक को अपनाने पर जोर दे रहा है । मगर क्या वाकई जीएम फसलेंहमारे लिए उपयोगी है ?

     पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बीटी बैंगन के व्यावसा-यीकरण के स्थगन के बाद बहुराष्ट्रीय बीज उद्योग ने भारत मेंजीएम फसलों के पक्ष में अभियान छेड़ दिया । प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहाकार समिति ने देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए जीएम फसल अपनाने की सलाह दे डाली  है । स्वयं कृषि मंत्री शरद पंवार इसके बड़े पैरोकार हैं ।
    मगर देश में पहले ही हरित क्रांति ने रसायनों का अंधाधंुध प्रयोग करके भूमि की उर्वरता, भूमिगत जल और पर्यावरण को इस कदर विषैला बना दिया है कि इसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है । जीएम फसलों के घोड़े पर सवार होकर जो दूसरी कथित हरित क्रांति आ रही है, उससे कृषि पर्यावरण, मानस स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर पड़ने वाले असर का आकलन करना आवश्यक है ।
    दुनिया भर के विशेषज्ञ पिछले ५० वर्षो में सभी कृषि प्रौघोगिकियों और पद्धतियों का मूल्यांकन कर इस नतीजे पर पहुंचे है कि ऐसी कृषि पद्धति, जो पारस्थितिकी दृष्टिकोण एवं टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाते हुए जैविक खेती का समर्थन करती है, गरीबी कम करने और खाद्य सुरक्षा को आत्मनिर्भर बनाने में ज्यादा सार्थक सिद्ध हुई है । स्वामीनाथन टास्क फोर्स ने २००४ में सरकार को सौंपी रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसल अपनाने की तकनीक उन्हीं स्थिति में अपनाई जाए, जब और कोई विकल्प न बचे ।
कविता
बसंत
सुमित्रानंदन पंत

    चंचल पग दीपशिखा के धर
    गृह मग वन में आया वसंत ।
    सुलगा फागुन का सूनापन
    सौंदर्य शिखाआें में अनंत ।
            सौरभ की शीतल ज्वाला से
            फैला उर-उर में मधुर दाह
            आया वसंत भर पृथ्वी पर
            स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह ।
    पल्लव पल्लव में नवल रूधिर
    पत्रों में मांसल रंग खिला
    आया नीली पीली लौ से
    पुष्पो के चित्रित दीप जला ।
            अधरों की लाली से चुपके
            कोमल गुलाब से गाल लजा
            आया पंखड़ियों को काले -
            पीले धब्बों से सहज सजा ।
    कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
    अलि के अंतर मेंप्रणय गान
    लेकर आया प्रेमी वसंत -
    आकुल जड़-चेतना स्नेह-प्राण ।
पर्यावरण समाचार
मलिन बस्तियों में रहते हैं सात करोड़ भारतीय
    भारत के शहरों में करीब सात करोड़ आबादी मलिन बस्तियों में रहने को मजबूर हैं । हालांकि, इन बस्तियों में रहने वाले ९० फीसदी लोग बिजली का इस्तेमाल करते हैं  और दो तिहाई से ज्यादा के पास टीवी है । देश में अभी तक के अपनी तरह  के पहले सर्वे में इसका खुलासा हुआ है । भारत के महापंजीयक द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में आवासों का लेखा-जोखा भी पेश किया गया है ।
    केन्द्रीय आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री अजय माकन ने पिछले दिनों एक रिपोर्ट जारी करते हुए झुग्गी झोपड़ियों के उद्धार के लिए ठोस कदम उठाने का संकेत दिया  है । उन्होनें कहा कि सरकार इन बस्तियों में कोई भेदभाव किए बिना समग्र विकास की योजना बनाएगी । इस मौके पर केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह और महापंजीयक सी. चन्द्रमौली भी मौजूद थे ।
    रिपोर्ट के आधार पर माकन ने कहा कि २०११ की जनगणना के अनुसार देश में १.७३ करोड़ आवास मलिन बस्तियों में है । इनमें लगभग ७० फीसदी आबादी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के शहरों में है । वर्ष २००१ में शहरी आबादी का तकरीबन एक चौथाई (२३.५ फीसदी) हिस्सा झुग्गी-झोपड़ी में रहता था, जिससे छह प्रतिशत की कमी आई है ।
    रिपोर्ट के अनुसार इन बस्तियों के ७० फीसदी घरों में रहने वालों का मालिकाना हक है जबकि शेष किराए पर लगाया गया है । ९० फीसद से ज्यादा घरों में बिजली है, ६६ फीसद घरों में शौचालय है । यानी हर तीसरे घर में परिसर के अंदर शौचालय नहीं है ।
    सफाई को जो भी हो, ७० फीसदीं घरों में टेलीविजन है तो १० फीसदी घरों में कम्प्यूटर भी है । लगभग ६४ फीसदी घरों में मोबाइल हैं तो ४.८ फीसदी पर ऐसे भी है, जहां मोबाइल और लैंडलाईन दोनों   हैं । श्री चन्द्रमौली ने बताया कि यह सर्वे उन्हीं शहरों में कराए गए जहां नगर निगम या इस तरह के निकाय कार्यरत है ।