मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

 वानिकी जगत
पर्यावरण बनाम वनाग्नि
शम्भुप्रसाद भट्ट स्नेहिल

    मनुस्मृति में कहा गया है कि सभी जनों को चराचर संसार के प्रिााण्यों को अपने समान समझते हुए उनके रक्षण व पालन-पोषण को अपना कर्तव्य समझना चाहिए । इस नीति वाक्य को अपने जीवन में उतारकर प्रकृति मेंव्याप्त् सम्पूर्ण वनस्पति-जीव जगत का संरक्षण तथा विकास करना हम सबका दायित्व है । प्रकृति में फैला यह वनस्पति-जीव जगत हमारा पारिस्थितिकीय तन्त्र का प्रमुख भाग है । यत्र तत्र जो कुछ भी व्याप्त् है या जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब पारिस्थितिकीय पर्यावरण ही तो है । शाब्दिक दृष्टि से परित: आवरणम इति पर्यावरणम, अर्थात् इस संसार में हमारे चारों और फैलाहुआ यह सम्पूर्ण आवरण, जिसमें जगत के चराचर समस्त तत्व विद्यमान हैं अर्थात् जिसमें इस भू-धरा की पूरी जैव-विविधता समाई हुई है, पर्यावरण के ही अन्तर्गत आते हैं । हमारे चारों और जो भी प्राकृतिक और मानव द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएें विद्यमान हैं वे सब पर्यावरण के पहलु ही है । पर्यावरणीय वनस्पति-जन्तु जगत वन के मुख्य अंग हैं । इस कारण पर्यावरणीय जानकारी के लिए वन को समझना अत्यन्त आवश्यक है । 
     वन शब्द की व्यापकता को देखते हुए इसे परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है, फिर भी सूक्ष्म शब्दोंमें आंकलन करने का प्रयास मात्र है । वन की सूक्ष्म शब्दों में परिभाषा इस प्रकार हैं :- सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त् उस भू-भाग या क्षेत्र को वन कहते हैं, जिसमें नदी-नाले, पहाड़-चट्टान, पठार, मैदानी भाग के साथ मिट्टी-पत्थर-खनिज एवं जीव-जन्तु, विशाल हिंसक जानवर, आकर्षक-पशु और वृहत् स्तर तक फैले विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे (वनस्पति) विद्यमान हो । परिभाषा की दृष्टि से वन वह अथाह एवं असीमित खजाना एवं भण्डार है, जिसका आज तक मानव ने पार नहीं पाया है, यह अनन्त   है । जिसे संस्कृत भाषा में अरण्य कहा जाता है अर्थात् जिसमें जीवन भर रहने पर भी पूर्ण रमण (भ्रमण) नहीं किया जा सकता है ।
    पर्यावरणीय सन्तुलन बनाये रखने के लिए वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना परम आवश्यक है । क्योंकि वन मानव जीवन के यह अन्नयतम साथी हैं, जो कि प्राकृतिक-सुन्दरता के साथ-साथ पर्यावरणीय सन्तुलन एवं भू-स्थिरता बनाये रखने मेंअहम् भूमिका निभाते हैं और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक के शाश्वत् सहयोगी है । इसलिए सभ्य एवं आदर्श मानव समाज वहीं है, जो वनों के विकास एवं संरक्षण को अपना आवश्यक कर्तव्य समझता   है ।
सुखदु:खयोश्च: ग्रहणाछिन्नस्य च विरोहणात् ।
जीव पश्यामि वृक्षाणामचैतन्य न विद्यते ।।
    महाभारत के शान्ति पर्व में उल्लेख मिलता है कि सभी पेड़-पौधों सुख-दुख का अनुभव करते हैं, कटे वृक्ष में पुन: नवांकुरण होने पर उसके सजीवता का प्रमाण मिलता है । इसलिए वृक्षों को किसी प्रकार की भी क्षति पहुंचाकर प्राणी उत्पीड़न/हत्या के पाप का भागीदार नहीं बनना चाहिए । वन क्षेत्र के अन्तर्गत विचरण करने वाले वन्यप्राणियों का अवैध आखेट कर कुछ स्वार्थी एवं अय्यासी किस्म के मानवों द्वारा वन के सन्तुलन को बिगाड़ने से जंगल का राजा कहे जाने वाले सिंह/शेर को वन-अस्तित्व की रक्षार्थ मानवों से भिड़ने हेतु मजबूर होना पड़ता है ।
विचलित कर प्रकृति को आपदाआें का ज्वार बढ़ाया है ।
वन्य जीवों का आखेट कर शेर को घर-गाँव बुलाया है ।
    लेखक ने अपनी पुस्तक श्री कार्तिकेय-दर्शन में लिखा है कि प्रकृति स्वयं हमें सचेत कर कह रही है कि - हे मानव ! अभी भी संभल जा, अभी मौका है, नहीं तो तुझे पछताने का अवसर भी नहीं मिल पायेगा । यदि मैंने भी तुम्हारे बेरूखेपन के बदले पूर्णत: प्रतिफल देने की ठान ली, तो फिर अनर्थ हो जायेगा, लेकिन क्या करें, मानव की विकास की अंधी दौड़ ने तो उसकी सोचने, समझने व सुनने की शक्ति ही क्षीण कर दी है ।
हे बेदर्द मानव ! संभल जा ।
अपनापन छोड़कर हमें सताता  है ।
क्यों निर्भीक होकर वन में आग लगाता है ।। हे बेदर्द ..... ।।
प्रकृति के सब जीवों का अधिकार तुने छीना है ।
वन में आग लगाके तूने सताई अपनी आत्मा है ।। हे बेदर्द .. ।।
हे मानव ! अपनी बेरहमी का तैयार हो जा ।
असमय मौत से बचना है तो प्रमु-स्मरण करता जा ।।
हे बेदर्द ....... ।।
    हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षो से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनो से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रोंमें लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएं से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है । इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्ास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही  है ।
    तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षो से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में समयानुकूल नहीं है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हित पिघलने की दर बढ़ गई   है जिससे हिमालय में भी प्राकृतिकता की स्थिति विचलित हो रही है । ओजोन परत के क्षीण होने से सूर्य की पैराबेंगनी किरणें पृथ्वी पर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है, जिसके प्रभाव से नेत्र व त्वचा संबंधी बीमारियां होने की प्रबल संभावना रहती है । वनों की आग से हानिकारक गैसें बनती है, इससे ग्रीन हाऊस प्रभाव बढ़ता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है जिससे ग्लोबल वार्मिग प्रारंभ हो जाता है, जो कि धरती को भयानक खतरा उत्पन्न करता हैं ।
आग वनों की है दुश्मन, वन अग्नि का करें समापन ।
आज राष्ट्र का लक्ष्य यही है, वृक्षों से हो स्वच्छ पर्यावरण ।।
    वनों में आग लगने के कारणों की ओर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि प्राकृतिक रूप से, मानवीय लापरवाही, अपने स्वार्थवश या शरारतवश इस प्रकार की घटनाएें घटित होती है । वन क्षेत्र में लगने वाली अग्नि तभी दावाग्नि कहलाती है, जब अनियन्त्रित रूप से उसमें लगी या लगाई गई हो । भारतीय वन अधिनियम १९२७ संशोधित २००१ की धारा २६(१) बी सी तथा धारा ७९ और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम १९७२ की धारा ९ सपठित ५१ के तहत वनाग्नि के संबंध किये गये किसी प्रकार के अपराध के लिए कड़े से कड़े दण्ड का प्राविधान रखा गया है ।
हे इंसान !
हमारी भी सुनता जा ।
हमे सता के, तू भी परेशान होता जा ।।
हे मानव ! तेरी इस करनी से, तपन धरती को होती तड़फता जीव है ।
छोड दे काटना तू हमको, क्योंकि वन ही तेरे जीवन की नींव है ।।
    वनाग्नि के प्रभाव से प्रभावित क्षेत्र में आग की तीव्रता के आधार पर वनस्पति-जन्तु जगत को अनगिनत क्षति पहुंचती है जिससे मानवों को प्रकृति की प्रतिकूलता विभिन्न प्रकार की घटनाआें/आपदाआें व असमय फैलने वाले रोगों के रूप मेंभोगना पड़ता है । इसलिए हम सबको मिलकर इनकी रक्षा व विकास का संकल्प लेना चाहिए, तभी सब सुरक्षित जीवन जी सकते है । अत में कहा जा सकता है :-
जैव विविधता की यह चर्चा, पास-पड़ोस प्रकृति की रक्षा ।
वन रक्षा हो सबकी इच्छा, काम यही है सबसे अच्छा ।।

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