मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

सामाजिक पर्यावरण
मनोरोगी : असली कौन, नकली कौन  ?
प्रतिनव अनिल

    अगर पागलपन और मानसिक संतुलन अलग-अलग अवस्थाएं हैं तो हम उनमें फर्क कैसे करें ? अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डेविड रोसेनहैन ने १९७३ का अपना ऐतिहासिक शोधपत्र इसी प्रसिद्ध प्रश्न से शुरू किया था । उनका प्रयोग और शोधपत्र आज भी मनोविज्ञान की शिक्षा में मनोचिकित्सा के पूर्वाग्रह समझाने के लिए पढ़ाया जाता है, लेकिन कहीं न कहीं यह बात हम सबकी पोल खोलती है । हमारी दृष्टि की खोट भी बताती है ।
    उस प्रयोग में कुल आठ लोग थे ।  तीन मनोवैज्ञानिक, एक मनोविज्ञान का छात्र, एक मनोचिकित्सक, एक गृहिणी, एक डॉक्टर और एक था चित्रकार । इनके अगुआ थे- मनोवैज्ञानिक रोसेनहैन । वे पता करना चाहते थे कि मनोरोग के अस्पताल तय कैसे करते हैं कि कोई व्यक्ति मनोरोग से पीड़ित है या पागल है । वे और उनके सात साथी पांच अमेरिकी राज्योंके बारह मनोरोग अस्पतालों में गए ।  
     इन अस्पतालों के बाह्य रोगी वार्ड में जाकर इन लोगों ने अपने झूठे नाम लिखवाए । जब उनसे अस्पताल के चिकित्सकों ने उनकी परेशानी पूछी तो उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देती हैं । उन्होंने बतलाया कि आवाजें साफ नहीं थी और जहां तक उन्हें समझ में आया आवाज खाली धम्म और खोखले जैसे शब्द कह रही थी । जब उनसे और सवाल पूछे गए तो उन्होनें चिकित्सकों को आवाज का मतलब कुछ यूं बतलाया कि उनका जीवन खोखला है और उसमेंबहुत खालीपन हैं ।
    झूठे नाम और आवाज सुनने के छलावे के अलावा चिकित्सकों के हर व्यक्तिगत प्रश्न का हमारे नकली मनोरोगियोंने बिलकुल सही-सही जवाब दिया था, सिवाए इसके कि मनोवैज्ञानिकोंने अपना पेशा उन्हें नहीं बताया । इनमें से किसी एक को भी कभी मनोरोग या मानसिक अंसतुलन की कोई शिकायत नहीं रही थी ।
    आठों नकली मनोरोगियों को अस्पतालों ने दाखिल कर लिया । चिकित्सकों ने सात को मनोभाजन या खंडित मानसिकता (सिजोफ्रेनिआ) से पीड़ित करार दिया और एक को उन्मत्त अवसाद (मेनिक डिप्रेशन) का रोगी बताया । अस्पताल में दाखिले के बाद हर एक का बर्ताव सीधा और सच्च था । वे चिकित्सकों से कहते रहे कि अब उन्हें कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ रही और उन्हें बिल्कुल ठीक महसूस हो रहा है । वार्ड की नर्सो की रपट में उन्हें अच्छे विशेषण ही दिए गए जैसे मित्रवत और सहयोगी । हर एक की नर्स रपट में नकली रोगी के बारे में लिखा था कि उनके व्यवहार में कुछ भी अनुचित नहीं था ।
    किसी भी अस्पताल का कोई भी कर्मचारी प्रयोग का भांप नहीं पाया । स्वस्थ लोगों को मनोरोगियों की ही तरह रखा गया । उनका इलाज हुआ, हालांकि हमारे नकली रोगियों ने उन्हें दी जाने वाली दवाईयां खाने की बजाए चुपचाप फेंक दी । औसतन हर नकली रोगी को १९ दिन अस्पताल में रखा गया । कम से कम सात दिन और ज्यादा से ज्यादा ५२ दिन । अस्पताल से छुट्टी मिलने पर हर एक की रपट में लिखा गया कि उनकी अवस्था सुधरने लगी थी ।
    प्रयोग का परिणाम देखकर डेविड अंचभित रह गए । रोग का निदान करने में लक्षण ठीक से जांचने की बजाए चिकित्सक अपने पूर्वाग्रहों का सहारा ले रहे थे । अस्पताल में दाखिले के पहले चिकित्सकों ने डेविड से उनके अपने माता-पिता के संबंध में बारे में पूछा और उनके बच्चे से संंबंध के बारे में पूछा और उनके बच्चें से संबंध के बारे में भी । उन्होंने जबाब ठीक वही जवाब दिए जो कोई भी साधारण व्यक्ति देता । इसमें से चिकित्सक ने केवलवही चुन लिए जो बीमारी के लक्षण माने जा सकते हैं और वह सब छोड़ दिया जो किसी भी साधारण व्यक्ति के अनुभव संसार में आता था । मतलब चिकित्सक पहले ही तय कर चुके थे कि उनके सामने बैठा व्यक्ति किसी मनोरोग से ग्रस्त है । यह तय करने के बाद चिकित्सक उनके जीवन की वही छोटी से छोटी अस्वाभाविक घटनाआेंको सत्य मान रहे थे जो कि उनके अनुमान को सिद्ध करती हो ।
    कुछ ऐसा ही उनके अन्य साथियोंके साथ हुआ । अस्पताल में भर्ती के दौरान ये नकली रोगी अपनी ऊब भगाने के लिए वहां की घटनाआेंकी डायरी रखते थे, वे आम तौर पर अपने अनुभव नोट करते रहते थे । उनका ऐसा करना अस्पताल के कर्मचारियों के लिए अस्वाभाविक बर्ताव था और लो मनोरोग का लक्षण भी । जो नकली रोग असल में चित्रकार थीं, वे रंगों से चित्र बनाने लगी । उनके बनाए चित्र इतने अच्छे थे कि उन्हें अस्पताल की वीरान दीवारों पर टांग दिया गया ।
    इस अस्पताल में डेविड खुद परामर्श देने आते थे । आते-जाते उन्होनें अस्पताल में काम करने वालों की इन चित्रों पर टिप्पणियां सुनी । अस्पताल के लोगों को उनके सुन्दर चित्रों में भी उनके कथित मनोरोग के ही लक्षण दिखे । डेविड कहते है कि यह साफ है कि इस परिस्थिति में हम सब यही पढ़ते हैं जो हम पढ़ना चाहते हैं, और मनोवैज्ञानिक किसी व्यक्ति के अस्पताल आने से ही मान ले रहे थे कि वह मनोरोगी है ।
    तो क्या कोई भी इन नकली रोगियों का खेल नहीं समझ पाया ? ऐसा नहीं था । अस्पताल में भर्ती मनोरोगी जान गए थे कि इन नकली रोगियों की उपस्थिति अस्वाभाविक   है । वे लोग जो चिकित्सकों की नजर में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे और जिन्हें नकली रोगियों के निदान तक का पता नहीं था - ऐसे ११८ भर्ती रोगियों के वक्तव्य रिकार्ड किए गए थे । इनमें से ३५ ने कहा कि उन्हें अंदाजा था कि क्या हो रहा है । एक ने तो नकली रोगी को सीधे कहा कि वह पागल नहीं है बल्कि कोई पत्रकार या प्रोफेसर है जो अस्पताल का लेखा-जोखा लेने आया है । सोचने बैठो तो स्वाभाविक सी बात है यह । आखिर और कौन अस्पताल में बैठकर नोट्स लेगा ?
    यह डेविड के मन में एक और सवाल उठा । अगर अस्पताल वाले किसी स्वस्थ व्यक्ति को रोगी मानने के लिए आतुर थे तो क्या किसी असल रोगी को यानी पागल को वे स्वस्थ भी करार दे सकते    हैं ? डेविड ने एक मनोरोग अस्पताल को चिट्ठी लिखकर पूछा कि क्या यह संभव है ? अस्पताल का जवाब आया कि ऐसा हो ही नहीं सकता । तो डेविड ने उन्हें कहा कि इसे जांचने के लिए वे अगले तीन महीने के दौरान कुछ नकली रोगी उस अस्पताल में   भेजेंगे । उन्होनें अस्पताल से कहा कि वे अपने कर्मचारियों को आगाह कर दें कि अगर उन्हें कोई व्यक्ति नकली रोगी लगे तो वे इसे एक फाइल में नोट करते जाएं ।
    इस दौरान अस्पताल में १९३ व्यक्ति दाखिल किए गए । इनमें से ४१ को अस्पताल के किसी एक कर्मचारी या नर्स या चिकित्सक ने नकली रोगी करार दिया । उन्हें अन्य ४२ व्यक्तियों पर भी नकली रोगी होने का संदेह हुआ । अचरज की बात तो यह है कि इस अस्पताल में डेविड ने एक भी नकली रोगी ढूंढ रहा था तब उसे सब रोगी नकली लग रहे थे । डेविड ने लिखा : यह तय है कि हम किसी मनोरोगी और किसी मानसिक रूप से संतुलित व्यक्ति का अंतर अस्पतालों में तो नहीं कर सकते । उनके इस लेख के बाद मनोविज्ञान की दुनिया में रोगों के निदान पर एक बड़ी बहस चली । मनोरोग के निदान में थोड़ी बेहतरी भी आई, लेकिन उनकी कही बता आज भी हम सबको अपनी ही सच्चई बताती है ।

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