गुरुवार, 11 सितंबर 2014



रविवार, 7 सितंबर 2014

प्रसंगवश
राष्ट्र भाषा की अनदेखी शर्मनाक
    भारतीय भाषाआें के पिछड़ने के लिए हमारी शासन व्यवस्था और सरकारें भी जिम्मेदार हैं । लेकिन भारतीय भाषाआें के विकास में सबसे बड़े बाधक सरकारी नौकरशाह है । भारतीय भाषाआें के प्रश्रय और संरक्षण के लिए नियम और कानून बने हुए हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है । जिसके लिए नौकरशाही ज्यादा जिम्मेदार है ।
    अब यह सब केन्द्र सरकार की नाक के नीचे राजधानी दिल्ली में भी चल रहा है । संविधान के अनुच्छेद ३५१ के अनुसार हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना संघ का कर्तव्य होगा और अनुच्छेद ३४४ के अनुसार अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने और अंग्रेजी के प्रयोग पर बंधन लगाने का भी खुला विरोध किया गया है । राष्ट्रभाषा हिन्दी के संबंध में १८ जनवरी १९६८ को एक संसदीय संकल्प पारित किया गया जिसका पालन करना अनिवार्य है । सरकार की नाक के नीचे ही इस कानून की धज्जियां उड़ रही है । संसदीय संकल्प का पालन कड़ाई से होना चाहिए । कानूनों का पालन न करना राष्ट्रदोह की श्रेणी में आता है जिसके लिए कठोर सजा हो सकती है।  शासन को इस बात का अहसास कराने की जरूरत है ।
    हमारे अखिल भारतीय अंगे्रजी अनिवार्यता विरोधी मंच का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाआें को सम्मान दिलाना है । हमारा मानना है कि भर्ती परीक्षाआें में अंग्रेजी विकल्प समाप्त् किया जाना चाहिए । जब नौकरी के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त् हो जाएगी  और अपनी भाषाआें का प्रचलन बढ़ेगा तो लोग खुद ही राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषाआें को अपनाएंगे । भर्ती परीक्षाआें में अंग्रेजी की समािप्त् के बाद ही भारतीय भाषाआें का प्रसार संभव है । इसीलिए हमारा जोर भर्ती परीक्षाआें से अंग्रेजी का समाप्त् करने को है । कई विदेशी ताकते भारत मेंअंगेे्रजी को बढ़ावा देने में सक्रिय है, इसे रोकने के लिये समाज और सरकार दोनों को ही मिलकर रणनीति बनानी होगी ।
मुकेश जैन, अ.भा. अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच, दिल्ली

सम्पादकीय 
हिमालय की जरूरत है, पर्यावरण मित्र पयर्टन
    पिछले कुछ वर्षोसे पर्यटकों का हिमालयी क्षेत्रों की ओर रूझान बढ़ रहा है । आवागमन के साधनों में सुधार और मध्यम वर्ग के आर्थिक सामर्थ्य में बढ़ोत्तरी भी इसके बढ़ने का कारण बनते जा रहे हैं । पर्यटन विकास को सरकारें भी पर्याप्त् प्रोत्साहन देने का प्रयास करती हैं । यह एक ऐसा कारोबार है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की भी आवश्यकता नहीं पड़ती । केवल ठहरने/खाने-पीने की अच्छी सुविधाआें और आवागमन के साधनों के विकास की ही जरूरत होती है । इस तरह के ढांचागत विकास मेंकुछ संसाधन जरूर खप जाते हैं । फिर भी अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम संसाधनों के प्रयोग से ज्यादा रोजगार सृजन और लाभ प्राप्त् किया जा सकता है । लेकिन हिमालय जैसे नाजुक क्षेत्र में पर्यटन का मनमाना मॉडल न टिकाऊ हो सकता है और न ही यहां के प्राकृतिक संतुलन के लिए लाभदायक।
    पर्वतीय नाजुकता को ध्यान मेंन रखने के कारण ही सामान्य विकास गतिविधियों, जल-विघुत परियोजनों और अंधाधंुध को बढ़ावा मिला । नदी किनारे मनमाने निर्माण से जन-धन की हानि बढ़ गई । हमें हिमालय क्षेत्र की नाजुकता को ध्यान में रखते हुए टिकाऊ और जिम्मेदार पर्यटन का मॉडल विकसित करना होगा । हम ज्यादा पर्यटक आकर्षित करने के नाम पर ऊंचाई वाले संवेदनशील क्षेत्रोंमें स्की विलेज जैसा मेगा पर्यटन मॉडल अपनाकर जिस प्राकृतिक विशिष्टता के कारण पर्यटक यहां आते हैं, उसे ही खतरे में नहीं डाल रहे है ।
    इस तरह के पर्यटन का स्थानीय छोटे व्यवसायी को कोई रोजगार नहीं मिलने वाला और स्थानीय पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव भी पड़ेगा । संवेदनशील जगहों तक गाड़ी पहुंचाने के बजाय अच्छे रोप-वे बनाने की दिशा में सरकारी प्रयासों को समर्थन मिलना चाहिए । ऐसे रोप-वे बड़े पैमाने पर बने । टैक्सी का व्यवसाय बाधित न हो, इसके लिए युवा उद्यमियों को सहकारी समिति बनाकर उसमेंशेयरधारक बनाना चाहिए । हिमालयवासी, जो हिमालय के सौंदर्य और पारिस्थितिकी का रखवाला है, वह पर्यटन विकास में केवल बैरागिरी या बिस्तर बिछाने तक सीमित रहें, यह ठीक मॉडल नहीं होगा । इन बातों को ध्यान में रखते हुए कुछ नयी सावधानियों को पर्यटन विकास का हिस्सा बनाना होगा ।    
सामयिक
पर्यावरण संरक्षण, कल का आधार
पुनीत कुमार पण्ड्या
    पर्यावरण प्रदूषण की समस्याआें को मद्देनजर रखते हुए सन् १९७२ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टॉक होम (स्वीडन) में पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विश्वभर के समस्त देशों को आमंत्रित किया गया ।
    विश्व के इस प्रथम पर्यावरण सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का उद्भव हुआ जिसका उद्देश्य हर वर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर नागरिकों में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का विकास करना एवं बढ़ते प्रदूषण की समस्या से परिचय करवाना था । इसका एक अन्य प्रमुख उद्देश्य पर्यावरणीय  जागरूकता लाने के साथ ही राजनैतिक चेतना जागृत कर आम जनता को प्रेरित करना था । तभी से हम प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे हैं । 
     वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण के संदर्भ मेंएक भयावह सच यह है कि मानवीय स्वार्थलोलुपता एवं बढ़ती भौतिकतावादी संस्कृति ने जहाँ सुख सुविधाआें के नवीनतम आधुनिक स्वरूपों को जन्म दिया है वहीं प्रकृति की निरन्तर उपेक्षा एवं प्राकृतिक संसाधनों को अत्यधिक एवं अविवेकशील दोहन पृथ्वी व मानव दोनों ही के लिये अभिशाप बनते जा रहा है । तेजी से बढ़ते जनसंख्या, कंक्रीट के जंगलों को निरन्तर फैलाव, सिकुड़ती वन-सम्पदा, अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत एवं निरन्तर पराजीत होती वन्य जीव सम्पदा, जीवनदायिनी पृथ्वी की छाती में गहरे घाव कर सदैव कुछ पाने की अंधी लालसा में सर्वविनाश की और बढ़ते मानवीय कदम थमने की बजाए बढ़ते चले आ रहे हैं, आश्चर्यजनक ही नहीं घोर चिन्ता का विषय है ।
    ममतामयी प्रकृतिकी छत्र छाया में फलने-फूलनेे, प्रकृति के सानिध्य मेंरहकर जीवन की उत्कृष्टताहआें एवं असमिति आनंद की प्रािप्त् की बजाए उससे विमुख होते मानव की दशा ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार एक बच्च अपनी मॉ से विलग होकर बड़ा तो हो जाता है परन्तु मातृत्व सुख एवं संस्कार के अभाव में संवेदनाआें एवं मूल्यों से शून्य हो जाता है ।
    हमने, अतिमहत्वाकांक्षा युक्त साहस प्रवृत्ति, भौतिकवादी बौद्धिकता, स्वार्थलोलुप कामनाआें एवं दिखावे की मायावी संस्कृतिमें अपने स्वरूप तथा आकार का फौलाव तो कर लिया है परन्तु हमें यह कदापि नहीं भुलना चाहिए कि अपनी जड़ों से कटने के पश्चात् हमारी वह गति होनी है जो कि नींव कमजोर होने पर विशालकाय एवं भव्य इमारत के विध्वन्स का सबब बनती है ।
    निरन्तर गर्म होती पृथ्वी, अमृत जल के स्थान पर कल-कारखानों द्वारा रात-दिन उत्सर्जित हलाहल विष रूपी रसायनों को अपने अंतर में समाए विनाशिका की पर्याय बनती जा रही जल वाहिनियाँ, अपनी मर्यादाआें को लांघता समुद्र, सतत विश्व पटल पर उभरती प्राकृतिक आपदाआें की नीत नई इबारतें, परिवर्तनशील जलवायु, सौगंधिक निर्मल एवं स्वच्छ प्राणवायु के स्थान पर पृथ्वी पर रेंगते यातायात साधनों से निकलती प्राणघातक हवाएँ, वातावरण में बढ़ती विकिरणों की मात्रा, विभिन्न देशों द्वारा युद्ध संबंधी वैचारिक भय से उत्पन्न विनाशकारी शस्त्रों का सतत निर्माण एवं परीक्षण तथा इससे जर्जारीत होता प्राकृतिक संतुलन, इस सृष्टि को चित्ताकर्षक बनाने वाले वन्य जीवों, पक्षियों एवं वनस्पतियों की खत्म होती प्रजातियां, मीठे पानी के स्त्रोतों का ह्वास भविष्य के मानव जीवन पर प्रश्न चिन्ह       हैं ।
    पिछले कुछ दशकों में हमारे द्वारा किए गए दुष्कृत्यों का फल उपरोक्त लिखी इन विविध प्रताड़नाआें के रूप में हम भुगत रहे हैं । अब भी समय है, स्वयं से प्रश्न करने का, इस तरह हम हमारी आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में क्या देने जा रहे  हैं ? अब भी समय है भौतिकवादी मायावी तंद्रा से निकलकर जागृत होने का जिससे हम इस गृह की खुबसुरत छवि को फिर से लौटा सकते हैं ।
    हमें पर्यावरण के द्वारा दिए गए अनेक जीवनोपयोगी उपहारों हेतु कृतज्ञ होना चाहिए । हमेंचाहिए कि हम बच्चें में प्रकृतिप्रेम एवं संरक्षण रूपी संस्कारों का बीजारोपण कर सकें । उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि प्रकृति हमारी माँ है, उसकी ममतामयी छांव में जीवन पोषण होता है । इसमें कोई शक नहीं पिछले कुछ वर्षो में हमारा ध्यान विविध पर्यावरणीय समस्याआें एवं उनके समाधनों की तरफ गया    है । पर्यावरण संरक्षण हेतु कुछ उपाय एवं जनचेतना कार्य जो किए जा सकते हैं, वे निम्न हो सकते हैं -
    (१) सिर्फ भाषण व्याख्यानों के स्थान पर क्रियान्वयन का बढ़ावा देना ।
    (२) पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन रैलियों का आयोजन शहरों व कस्बों तक ही सीमित ना होकर  गॉवों, सुदूर ढाणियों एवं फलों तक करना ।
    (३) सरकारी व गैर सरकारी संगठनों द्वारा सतत जन चेतना कार्यक्रमोंका आयोजन एवं मुहिम चलाना ।
    (४) शहरों की सड़कों पर लगे विज्ञापन बोर्ड, विभिन्न-पत्र-पत्रिकाआें में पर्यावरण संरक्षण हेतु जागरूकता विज्ञापन समय-समय पर देना ।
    (५) विभिन्न धर्मोे के धर्मगुरूआें द्वारा अपने प्रवचनों में पर्यावरण संरक्षण आधारित श्रुतिलेखों, परम्परागत विधियाँ इत्यादि का समावेश कर जागृति लाना ।
    (६) विभिन्न कक्षाआें के पाठ्यक्रमों में नए, लेख, कहानियों, कविताआें, नाटकों तथा निबन्धों को जोड़ना जो विद्यार्थियों के कोमल    मन में प्रकृतिप्रेम का अंकुरण कर सकें ।
    (७) बड़ी कक्षाआें के विद्यार्थियों को प्रोजेक्ट के रूप में विविध पर्यावरणीय समस्याआें पर कार्य देना एवं विभिन्न विद्यालयों द्वारा वर्ष में २ बार समायोजित कार्यक्रम (सेमीनार प्रदर्शनी) इत्यादि का आयोजन करना  ।
    (८) अभिभावकों द्वारा अपने बच्चें को उनके जन्म दिवस पर एक पौधा रोपने एवं उसकी सार संभाल कर बड़ा करने हेतु प्रेरित करना ।
    (९) वर्तमान में बढ़ता कागज प्रदूषण सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है, कम से कम कागज का अधिक से अधिक सदुपयोग करना ।
    (१०) प्लास्टिक/पॉलीथीन की थैलियों का उपयोग अत्यन्त सीमित मात्रा में करना  ।
    (११) जल की एक बंूद भी व्यर्थ ना बहाएं - स्वच्छ जल का दुरूपयोग ना करें ।
    समाज के आयु वय में बड़े व्यक्तियों को चाहिए कि वे स्वयं कठोर अनुशासन द्वारा युवा पीढ़ी के समक्ष  उदाहरण प्रस्तुत करें जैसे -
    (१) कचरा डालने हेतु कचरा पात्र का उपयोग करना ।
    (२) किराने का सामान अथवा सब्जियाँ खरीदने हेतु कपड़े का थैला घर से लेकर जाना ।
    (३) वाहनों को धोने हेतु घर में अन्य कार्यो में उपयोग में लिए गए जल को निस्तारित कर उपयोग में लेना ।
    (४) वाहनों को अनावश्यक उपयोग टालना ।
    (५) वर्षा के मौसम में वर्षा जल संरक्षण तकनीक का उपयोग कर वर्षा जल को व्यर्थ बहने से रोकना ।
    किसी भी स्थान विशेष का जैव विविधता अर्थात् पाए जाने वाले विभिन्न जीवधारी एवं उनकी विविध जातियाँ प्रधान रूप से उसकी जलवाययीय विविधता पर निर्भर करती है । हमें गर्व होना चाहिए कि संसार में विद्यमान समस्त प्रकार की जलवायुवीय एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ भारत में विद्यमान हैं । फलस्वरूप हम इस क्षेत्र में सदैव समृद्ध रहे हैं । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिके साथ खिलवाड़ एवं दोहन को रोका नहीं गया तो भविष्य में इस विरासत कोे हमें हमेशा के लिए हमें खो देना पड़ेगा । 
हमारा भूमण्डल
शताब्दी का सबसे कमजोर सौर चक्र
डॉ. इरफान ह्यूमन

    हमारी पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष की अनंत गहराईयों तक हर समय कुछ न कुछ घटित होता रहता है । कुछ खगोलीय घटनाएं ऐसी होती हैं जिन्हें हम आंखों से देख सकते हैं, लेकिन कुछ ऐसी होती हैं जिनके लिए हमें विशाल दूरबीनों का सहारा लेना पड़ता है । सूर्य की हलचल भी उनमें से एक है ।
    सूर्य जिसे हम प्रतिदिन देखते हैं और जो हमें हर पल शांत-सा नजर आता है, वास्तव में वैसा नहीं है । इस वर्ष १० और ११ जून को सूर्य पर भीषण तूफानी गतिविधियां दर्ज की गई और सूर्य पर शक्तिशाली एक्स-श्रेणी की सौर लपटें निकलती देखी गई, जिन्होंने सौर आंधियों को जन्म दिया है । ये घटनाएं सूर्य के धब्बों (सन स्पॉट) वाले क्षेत्रों से सूर्य के आभा मण्डल में उत्पन्न होने वाली अस्थायी घटनाएं है और तब घटित होती हैं जब सूर्य के किसी भाग का ताप अन्य भागों की तुलना में कम हो जाता है और धब्बे के रूप में दिखाई देता है । इन धब्बों का जीवन काल मात्र कुछ घंटे से   लेकर कुछ सप्तह तक का भी हो सकता है । 
     हमारे सौर मण्डल का सबसे विशाल पिंड है, सूर्य जिसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हजार किलोमीटर है । ऊर्जा का यह शक्तिशाली स्त्रोत मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है, जो परमाणु संलयन की प्रक्रिया द्वारा अपने केन्द्र में हर समय ऊर्जा पैदा करता है । सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुंचता है । इसमें से भी १५ प्रतिशत अंतरिक्ष परावर्तित हो जाता है । लेकिन कभी-कभी सूर्य पर आए सौर तूफान इस ऊर्जा तंत्र को बिगाड़ सकते हैं और हमारे संचार तंत्र के साथ कृत्रिम ऊर्जा तंत्र को तहस-नहस कर सकते हैं । ६ व ९ मार्च १९८९ को सूर्य पर एक्स-श्रेणी के सौर तूफान का प्रभाव जब १३ मार्च को धरती तक पहुंचा था, तो कनाड़ा का बिजली गिड फेल हो गया था ।
    वैज्ञानिक अध्ययनों में पाया गया है कि तेज गति के सौर कणों का झोंका जब वायुमण्डल में प्रवेश करता है तब वज्रपात की संख्या बढ़ जाती है । रीडिंग विश्वविघालय के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. क्रिस स्कॉट के अनुसार इस प्रकार उत्पन्न बिजली बहुत खतरनाक होती है और हर साल २४ हजार लोग बिजली के आघात से मारे जाते है । इस संबंध में युरोप से प्राप्त् आकड़ों से ज्ञात होता है कि ४०० दिनों में ३२१ बिजली गिरने की घटन की तुलना में तेज गति वाली सौर आंधी के बाद ४०० दिनों में बिजली गिरने की औसतन ४२२ घटनाएं हुई थी । वैज्ञानिकों ने पाया कि जब सौर करणों की आंधी की गति और प्रबलता बढ़ती है तो बिजली गिरने की दर भी बढ़ जाती है । यही नहीं, सौर कणों के धरती के वातावरण से टकराने के बाद एक महीने तक मौसम अशांत रह सकता है । अर्थात सौर तूफान मौसम को भी प्रभावित कर सकता है । अत: सौर आंधी की कोई भी पूर्व चेतावनी काफी उपयोगी साबित हो सकती है ।
    सूर्य की सतह पर कहीं-कहीं गैस के विशाल फव्वारे फूटते रहते हैं, तब सोलर प्रामिनेन्स कहलाने वाले फंदे या लूप जैसी संरचना बनती है । इन फंदों के मिलने से विस्फोट के साथ सौर लपटें उत्पन्न होती हैं । वर्ष १९५८ में अमेरिका के वैज्ञानिक यूजीन नारमन पार्कर ने बताया था कि हाइड्रोजन और हीलियम की आयनीय गैस से बनी एक धारा का अनवरत प्रवाह सूर्य से होता रहता है, जिसमें प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन होते हैं, जिसे सौर पवन (सोलर विन्ड) कहते हैं । कभी-कभी यह उत्सर्जन इतनी अधिक मात्रा में होता है कि सूर्य के आयनमंडल से बाहर निकल कर अंतरिक्ष में फैल जाता है ।
    सौर तूफानों के दौरान सौर आंधियों के प्रमाण पृथ्वी पर ध्रुवीय ज्योति कहलाने वाली एरोरा जैसी घटनाआें में मिलते हैं । तब रात का आकाश एकदम सजीव हो उठता है और आकाश में रंगीन छटाएं बिखर जाती है, जैसे किसी चित्रकार ने आकाश में रंग उछाल दिए हो । उत्तर धु्रवीय क्षेत्र में इन्हे एरोरा बोरियोलिस और दक्षिण धु्रवीय क्षेत्र में इन्हें एरोरा आस्ट्रियोलिस कहते हैं ।
    इसका कारण है सौर धब्बों से उठने वाले चुम्बकीय तूफानों के विघुतीकृत कणों का पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा खींच लिया  जाना । जब ये कण पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तो पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी धु्रवों का चुम्बकीय क्षेत्र इनके वेग और दिशा को बदल देता है, जिस कारण ये कण वायुमण्डल मेंउपस्थित हवा के अणुआेंसे टकराते है और उनका आयनन हो जाता है । तब जन्म होता है एरोरा नामक एक रंगीन छटा    का । एरोरा की उत्पत्ति तीन चरणों में होती है । पहले चरण में सौर आंधियां इलेक्ट्रॉन और आयनों को पृथ्वी की ओर भेजती है । दूसरे चरण में इलेक्ट्रॉन और आयन पृथ्वी की चुम्बकीय रेखाआें के साथ टकराते हैं और अन्तिम चरण में वे अपनी ऊर्जा उन कणों को दे देते हैं जिनसे वे टकराते हैं । पृथ्वी पर एरोरा १०० से १००० किलोमीटर की ऊंचाई  तक बनते हैं ।
    बिग बैंग के लगभग १४ अरब वर्ष बाद आज चुम्बकीय क्षेत्र सभी आकाशगंगाआें और आकाशगंगाआें के समूहों में मौजूद   है । लेकिन सभी ग्रह या उपग्रह चुम्बकीय क्षेत्र की अद्भुत क्षमताआें से युक्त नहीं होते । अंतरिक्ष यंत्रों की मदद से ली गई प्रत्यक्ष मापों ने सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी के समीपतम चन्द्रमा के अतिरिक्त शुक्र और मंगल ग्रह का पृथ्वी की तरह अपना चुम्बकीय क्षेत्र नहीं है । हमारी पृथ्वी एक चुम्बकीय कवच से सुरक्षित है, जिसका आकार आइस्क्रीम कोन जैसा है । कवच का यह आकार सौर वायु के कारण होता है, जो सूर्य की तरफ वाले हिस्से के चुम्बकीय कवच को दबा देता है और दूसरे हिस्से को फैला देता है । सूर्य की ओर वाले हिस्से पर कवच की सतह से ऊंचाई ६०,००० किलोमीटर और पृथ्वी के रात वाले हिस्से पर कवच की ऊंचाई ६०,००,००० किलोमीटर होती है । इस कवच के अंदर दो विकिरण पटि्टयां होती है । आंतरिक पट्टी ब्राजील से ४०० किलोमीटर और इंडोनेशिया से ९६० किलोमीटर की ऊंचाई पर है, जबकि बाहरी पट्टी करीब ६४,००० किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित है ।
    यदि सूर्य पर चुम्बकीय क्षेत्र की बात की जाए तो सौर तूफानों को जन्म देने वाले सौर धब्बे सूर्य की सतह पर चुम्बकीय क्षेत्र की अत्यधिक सघनता के कारण बनते है, जिनका आकार पृथ्वी से भी बड़ा हो सकता  है । इस तीव्र चुम्बकीय क्षेत्र का तापमान शेष क्षेत्र की तुलना में कम होता है । यही कारण है कि इन क्षेत्रों की चमक अन्य भागों की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से कम होती है और ये सूर्य पर धब्बे के रूप में दिखाई पड़ते हैं । जब इन सौर धब्बों की संख्या बढ़ जाती है तो सौर तूफानों का जन्म होता है और ऊंची-ऊंची सौर लपटें उठने लगती है । इससे बड़ी मात्रा में प्लाज्मा का उत्सर्जन होता है, इसे वृहद उत्क्षेपण कहते हैं । सौर चक्र के दौरान सूर्य पर किसी विशेष क्षेत्र पर भयंकर विस्फोट होते है जो १००० किलोमीटर प्रति सेकण्ड की रफ्तार की सौर आंधियां पैदा करते हैं ।
    औसतन ११ वर्ष का एक सौर चक्र ९ से १४ वर्ष तक का हो सकता है । ११ वर्षीय सौर चक्र के दौरान अन्तिम चरण में सौर गतिविधियां अपने चरम पर होती है और सूर्य से तूफानों के साथ अधिक सौर लपटें उत्सर्जित होती हैं । कभी-कभी इसके चुम्बकीय तूफानोंके साथ अधिक सौर लपटें उत्सर्जित होती है । कभी-कभी इसके चुम्बकीय तूफानों का प्रभाव इतना भयंकर होता है कि पृथ्वी के पॉवर ग्रिड के साथ अतंरिक्ष में कृत्रिम उपग्रह तक ठप पड़ सकते हैं और अंतरिक्ष यात्रियों के लिए जोखिम बढ़ सकता है । यही नहीं, इस दौरान सूरज से निकलने वाले हानिकारक और विकिरण से भी हम अछूते नहीं रह सकते । इन दिनों हम २५० वर्षो में सूर्य के २४वें सौर चक्र से गुजर रहे हैं । इस नए सौर चक्र का प्रभाव शुरूआत में तो कम रहा, मगर वर्ष २०११, २०१२, २०१३ के साथ २०१४ मेंअपना खूब प्रभाव दिखा रहा है ।
    ४ जनवरी २००८ को सौर धब्बे ९८१ की उत्पत्ति से सौर चक्र २४ की शुरूआत समझी जाती है । इसी वर्ष नवम्बर में १००७ नामक धब्बे से बी-श्रेणी की पहली सौर लपट उत्पन्न हुई । २००९ में पूरे वर्ष सौर गतिविधि सबसे कम आंकी गई, लेकिन १९ जनवरी २०१० को सौर धब्बा १०४६ से एम-श्रेणी से भी शक्तिशाली सौर लपट दर्ज की गई । इसी वर्ष १२ फरवरी और ५ अप्रैल के बाद १ व २ अगस्त को चार सीएमई दर्ज की गई, जिन्हें पृथ्वी पर एरोरा जैसी घटना को जन्म दिया ।
    १५ फरवरी २०११ को सौर धब्बा ११५८ से सौर चक्र २४ की पहली एक्स-श्रेणी की सौर लपट निकली और फिर १८ फरवरी को इसी क्षेत्र से एम-श्रेणी का एक्स-रे विस्फोट हुआ ।
    वर्ष २०११ में ७ व ९ मार्च, ३० जुलाई, २, ३, व ९ अगस्त, ६ सितम्बर, २ अक्टूबर को सूर्य पर आने वाले तूफान अपने चरम पर    थे । इस वर्ष का नवम्बर माह सौर चक्र २४ का सबसे सक्रिय माह रहा जिसमें लगभग १०० सौर धब्बे उत्पन्न हुए । ३ नवम्बर को सूर्य के ४० किलोमीटर चौड़े और दुगने लम्बे सौर धब्बे १३३९  से एक्स-श्रेणी की सौर लपटें   निकली । लेकिन इस बार भी विस्फोट के समय पृथ्वी सूर्य के उस हिस्से के सामने नहींथी । वर्ष के अन्त में आते-आते २५ दिसम्बर को भी सूर्य पर एक एम-श्रेणी की सौर लपट दर्ज की गई ।
    वर्ष २०१२ सौर चक्र २४ का सबसे सक्रिय वर्ष रहा जिसमें सूर्य पर १९ व २३ जनवरी, ७,९ व १३ मार्च को एम-श्रेणी और एक्स-श्रेणी की सौर लपटें दर्ज की गई । इसके अतिरिक्त १६ अप्रैल, १० मई, २, ४, ५, ८, १९  व २८ जुलाई, ३१ अगस्त, २७ सितम्बर, ५ व २० अक्टूबर ओर १३ नवम्बर को सूर्य पर आए तूफानों से कई हजार किलोमीटर प्रति सेकण्ड की रफ्तार से लपटें निकलती देखी गई थी । इस वर्ष जहां दिसम्बर माह में दो वर्षो में सबसे कम सौर गतिविधियां दर्ज की गई वहीं जून माह में एम-श्रेणी की ११ सौर लपटें देखी गई । वर्ष २०१३ के मध्य मई में एक बार सूर्य फिर से सक्रिय हो उठा । इस वर्ष १३ मई को दो बार और इसी क्षेत्र से १४ मई को पुन: विस्फोट दर्ज किया गया । २५ अक्टूबर को दो और १९ नवम्बर को एक एक्स-श्रेणी की सौर लपटें देखी गई । २०१४ फरवरी-मार्च में सौर गतिविधियों को देखकर लगता है कि सौर तूफान अभी सक्रिय है ।
    अगर पिछले सौर चक्र की बात करें तो पाएंगे कि वर्ष २००१ में सूर्य भयंकर तूफानों की चपेट में रहा था । तब सूर्य पर हुए ऊर्जा के जबरदस्त विस्फोट ९३९३ धब्बे के पास से उपजे थे । यह धब्बा धरती से १३ गुना बड़ा था । पृथ्वी इन विस्फोटों  के कुप्रभावों से इसलिए बच गई क्योंकि इसका स्त्रोत सूर्य के पश्चिमी  सिरे पर था, इसलिए सारा उत्सर्जन पृथ्वी से बचकर निकल गया । फिर भी इससे उत्सर्जित विकिरण ने सौर विस्फोटों की ताकत मापने के लिए उपयोग में लाए जा रहे दो अंतरिक्ष यानों के एक्स-रे डिटेक्टरों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला  था ।
    नियमित एक्स-रे आंकड़े वर्ष १९७६ से ही उपलब्ध होने शुरू हो गए थे, लेकिन इससे पहले इतना ताकतवर विस्फोट पहले कभी नहीं मापा गया ।
    सौर तूफानों के दौरान उत्सर्जित मुख्यत: आवेशित प्रोटॉन कणों से उपग्रहों को नुकसान पहुंचता है । ये उपग्रह के पैनलों की सतह को क्षति पहुंचाते है और उनका जीवनकाल कम या समाप्त् कर देते हैं । अत्यधिक ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन भी उपग्रह को नुकसान पहुंचाते हैं । ये डिजिटल बीट्स को अस्पष्ट आंकड़ों में बदल देते हैं, जिससे उनका ऑपरेटिंग सिस्टम बंद हो जाता है । अब वैज्ञानिक ऐसे सौर पैनलों के निर्माण में लगे हैं, जिनसे उपग्रह अपने जीवन काल के अंतिम समय तक क्रियाशील रह सके । उधर अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च ने सौर तूफानों की स्थिति का अनुमान  लगाने के लिए एक नया मॉडल विकसित किया है ।
    श्रृंखलाबद्ध परीक्षणों के बाद विकसित किए गए मॉडल की सहायता से भविष्य में सौर तूफानों की स्थिति का सटीक विश्लेषण किया जा सकेगा । इन मॉडल के आधार पर वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि आने वाले वर्षो में सौर तूफानों की तीव्रता ३० से ५० प्रतिशत तक बढ़ सकती है । फिलहाल तो सौर चक्र २४ विगत सौ वर्षो का सबसे कमजोर सौर चक्र रहा है, कहीं यह भविष्य में आने वाले किसी भीषण सौर तूफान की खामोशी तो नहीं    है ? इसका जवाब तो भविष्य के वैज्ञानिक अनुसंधानों से ही मिल पाएगा ।
सामाजिक पर्यावरण
आजादी बचाने की छटपटाहट
किशनगिरी गोस्वामी

    आजादी केवल खुलकर बोलने या स्वच्छंद विचरण से ही स्थायी नहीं रह सकती । इसे कायम रखने के लिए आवश्यक है कि सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में समरसता हो । अगर व्यक्तिगत स्वार्थ इसी तरह हावी होता रहा तो हमारी स्वतंत्रता ही खतरे में पड़ जाएगी । आवश्यकता इस बात की है कि लोकतांत्रिक संरचना में आ रही गिरावट को तुरंत थामा जाए ।  
     लोकतंत्र में शासन प्रशासन वह आइना है, जिसके प्रतिबिम्ब से आम लोग अपना चेहरा मिलाते हैं और फिर अपना जीवन भी वैसा ही बनाना चाहते हैं । इसलिए जो सामने हैं या आगे हैं, उनकी जिम्मेदारी भी बड़ी होती है । सार्वजनिक जीवन के  मर्म और उसकी मर्यादा का पाठ  पढ़ाते हुए गांधीजी ने कहा है- `कि हम जिनके प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, उनके वर्तमान और भविष्य से हमारा क्या नाता है यह हमारी जीवनशैली से पता चलना चाहिए । अगर वर्तमान अभाव भरा है, तो उस अभाव में हमें भी हिस्सेदारी करनी होगी । भविष्य तिनका-तिनका जोड़ने की चुनौती दे रहा है, तो शासन-प्रशासन को भी तिनका-तिनका जोड़ते हुए दिखाई देना चाहिए । यह कोई चुनावी रणनीति या दूसरों को टेढ़ी स्थिति में डालने की चालाकी नहीं है, बल्कि अंदर से पैदा हुआ अहसास है । इसलिए यह खुद से शुरु होता है ।` सार्वजनिक धन से स्वयं शानदार तरीके से रहन-सहन ही अनैतिकता नहीं है, बल्कि सार्वजनिकजीवन में रहने की आकांक्षा रखना और अपने आर्थिक वैभव, सत्ता तक पहुंच आदि का प्रदर्शन करना भी अनैतिकता की श्रेणी में आता है । जनता का उपकार करने और जनता के बीच में रहने में जो बड़ा फर्क है, इसकी समझ ही अभी तक हमारे राजनेताओं में नहीं बनी है ।
    कभी-कभी यह सोचने के  लिए बाध्य होना पड़ता है कि क्या सभी गुण राजनेताओं में ही होते हैं या होना चाहिए ? वैसे चुनाव जीतने के बाद विद्वता, पाण्डित्य, ईमानदारी एवं सेवा आदि सब के सब गुण उनमें अचानक आ जाते हैं । तब वे चिंतक विद्वान, भविष्यदृष्टा, समाजसेवक एवं समाज सुधारक सभी होते हैं । इसके बावजूद धन के कारण देश, समाज और यहां तक कि घर परिवार भी पीछे छूट जाता है । विद्यार्थी होश संभालते ही पैकेज को आदर्श मानने लगते हैं । मानवता विहीन विज्ञान, श्रमहीन धन और आदर्शहीन राजनीति नामक इन तीन पापों ने समाज का काफी अकल्याण किया है ।
    राजनेता बनते ही व्यक्ति अचानक मामूली से गैरमामूली में तब्दील हो जाते हैं । तब वह पहला काम स्वयं को जमीन से डेढ़ इंच ऊपर उठाने का करते हैं । पहले उनके कदम जमीन पर पड़ते थे, बाद में वे हवा में पैर रखते हैं । अचानक उन्हें अपने आस-पास के लोग छोटे लगने लगते हैं । जब कोई कुछ अधिक ही ऊंचा उठता है, तो उसे नीचे वाले चींटी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते । जैसे-जैसे राजनेता का कद बढ़ता जाता है वैसे-वैसे वह गैर मामूलियत की ओर बढ़ने लगता है । वह आम से खास हो जाता है । हमारे नेता ही नहीं, अफसर और नव धनाढ्य इसकी खास मिसाल हैं । आधुनिक नेता मात्र वोटों, नोटों एवं अपने बेटों-पोतों के प्रति खूब संवेदनशील है ।
    वर्तमान में हमारी राज्यसत्ता विधायक गुणों से शून्य हो चुकी है । राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की दिशा में पहल करने की कौन कहें ? वह स्वयं समाधान के रास्ते में बड़ी रुकावट बन रही है और नई-नई समस्याओं को जन्म देकर राष्ट्रीय जीवन के संकट को बढ़ा रही हैं । अंग्रेजी राज में तो मुट्ठीभर अंग्रेज हमारे ऊपर राज करते थे । आज की १० प्रतिशत लोग ९० प्रतिशत के सीने पर सवार हैं । कुछ भी हो एक बड़ा परिवर्तन तो हुआ है कि अंग्रेजों की सरकार तलवार के बल पर बनी थी, लेकिन हमारी सरकार हमारे ही वोट से बनती है और हमारे ही नोट से ही चलती है ।
    इस देश के राजनेताओं ने यह तय कर लिया है कि वोटों की राजनीति के चलते देश और देशवासियों का कितना भी अपमान किया जाए, वह चलेगा । महंगाई बढ़ाने वाले कितने ही निर्णय लिए जाएं, सब वाजिब   होंगे । 
    जो संस्थाएं राजसत्ता को समाजोन्मुख बनाकर उसे जीवनीशक्ति प्रदान करती है और लोकतंत्र को जीवंत बनाती है, उन्हें पंगु बनाकर राज्यसत्ता स्वयं पंगु बन गई है और अब तो दृढ़तापूर्वक यह कहा जा सकता है कि अपने वर्तमान स्वरूप में राष्ट्र के विकास की दृष्टि से उसकी भूमिका पूरी तरह नकारात्मक हो गई है । लोकतंत्र के मंच पर छ: दशक से राजनीतिक नाटक खेला जा रहा है, जो क्रमश: गंभीर नाटक से प्रहसन और प्रहसन से त्रासदी में तब्दील होता जा रहा है । लोकतंत्र का यह वर्तमान नाटक अराजकता लाएगा या क्रांति, यह भविष्य के गर्भ में है ।
    भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - `हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा थी कि प्रत्येक आंख के आंसू को पोंछ दिया जाए । ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा ।` इसके उलट आज आम आदमी के सम्मान को तो सरकारी अधिकारियों एवं राजनेताओं ने ताक पर रख दिया है । अमीर-गरीब के बीच खाई दिन-ब-दिन बेहद चौड़ी होती जा रही है । जहां देश जलता हुआ, बिकता हुआ दिख रहा है वहीं ये राजनेता आजादी की कसमें खा-खाकर सत्ता सुख भोग रहे हैं । जिस जमीन को गुलामी से मुक्त कराने हेतु संग्राम किया गया था, उस जमीन का दर्द इन `काले अंग्रेजों` के जेहन में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है । यह कैसी आजादी है ? सरकारी अमले के बाहर कोई देखे-आजादी का क्या अर्थ है ? जनता का कोई भी सपना पूरा नहीं हुआ है । खोटे लोग अब सत्ता तक पहुंचने लगे हैं । क्या भद्र समाज सच में ऐसा मानता है कि कोई प्रामाणिक आदमी आज चुनाव में जीत सकता है ?
    आजादी का मतलब भोग-विलास के अपार साधन जुटाने का अवसर नहीं है । हमारी आजादी की मात्रा में तो इजाफा हो रहा है, पर उसकी गुणवत्ता गिर रही है अर्थात हम जितने आजाद हो रहे हैं, उतने ही गिरते जा रहे हैं । पहले हमने अहिंसा त्यागी, फिर सत्य त्यागा और अब ईमानदारी त्याग दी है। इसके बाद त्यागने को बचा ही क्या है ? जिन लोगों पर देश के खजाने की रक्षा का भार है, वे ही सबसे ज्यादा गबन और हेरा-फेरी कर रहे हैं । आजादी के पहले अगर देश के नौजवानों ने यह सब किया होता, तो हमारा देश आज भी गुलाम होता । हमें उनके बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए ।
    सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश की कोई गहरी समझ और उसका वैकल्पिक खाका हमारे राजनेताओं के सामने है ही नहीं । दिहाड़ी की राजनीति से न तो देश चलते हैं और न बनते हैं । राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की कमी से देश कराह रहा है । इसका निराकरण यह है कि हर व्यक्ति  अपने दायित्व का स्वयं वहन करें । जागरूक रहे । हमारे राजनेताओं को यह बात भी याद रखनी चाहिए कि  वे सिर्फ उसी सूरत में याद किए जाएंगे, जब वे अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित और समृद्ध भारत सौंपकर जाएंगे ।
विस्थापन
सरदार सरोवर परियोजना की समीक्षा जरुरी
भारत डोगरा
    सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई १७ मीटर बढ़ाने की अनुमति के साथ ही पुनर्वास की वास्तविकता और विस्थापन की विभीषिका के  प्रश्न पुन: चर्चा में आ गए हैं । अनेक दस्तावेज व गांवों में रह रहे चर व अचर सभी यह सिद्ध कर रहे हैं कि पूर्ण पुनर्वास तो दूर अभी तो पूर्ण विस्थापन ही नहीं हुआ है। जबकि कुछ समय पूर्व तक नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण `जीरो बैलेंस` यानि पूरी नर्मदा घाटी खाली हो चुकी है की बात करता रहा है । 
    आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं और लोक व देशहित में निर्णय लें ।
    नर्मदा नदी पर बन रही सरदार सरोवर बांध परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है । एक ओर सरकार बांध की ऊंचाई को १७ मीटर बढ़ाने के निर्णय पर आगे बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आंदोलन दो लाख या उससे अधिक उन विस्थापितों की रक्षा के लिए अंतिम मोर्चा संभाल रहा है जिनका पुनर्वास हो जाने का दावा सरकार ने किया है। परन्तु उनका वास्तविक पुनर्वास अभी तक नहीं हो सका है ।
     इस संदर्भ में सरकारी पक्ष व आंदोलन पक्ष द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों में बहुत अंतर है। यह अंतर कुछ हद तक इस आधार पर समझ में आता है कि सरकार ने पुनर्वास की कुछ औपचारिकताओं को तो पूरा कर ही दिया है जैसे कि पुनर्वास स्थलों को चिन्हित करना व कुछ नकद क्षतिपूर्ति कर दी गई है । पर प्रश्न यह है कि क्या अधिकांश विस्थापित वास्तव में भली-भांति नए सिरे से बस पाए हैं? वहीं हकीकत यह है कि अनेक पुनर्वास स्थल खाली पड़े हैं और हजारों परिवार अभी भी डूब क्षेत्र मेें रह रहे हैं और बांध की ऊंचाई बढ़ने से वे संकटग्रस्त होते हैं । 
    विस्थापन से सबसे अधिक प्रभावित राज्य मध्यप्रदेश में बहुत कम विस्थापित परिवारों से जमीन के बदले जमीन का वायदा पूरा हुआ है । वहीं नकदी मुआवजे में बहुत अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। मध्यप्रदेश उच्च् न्यायालय द्वारा पुनर्वास से जुड़े भ्रष्टाचार की जांच न्यायमूर्ति (से.नि.) झा आयोग द्वारा कराई जा रही है ।
    हमें स्मरण करना होगा कि मूल रूप से कितने वायदे विस्थापितों से किए गए थे (जिनके आधार पर परियोजना को स्वीकृति मिली थी)। इसी के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि वास्तव में बहुत कम वायदे ही पूरे हुए हैं । यह स्थिति मध्यप्रदेश में स्पष्ट नजर आती है जहां अनेक फलते-फूलते गांव व समृद्ध खेती डूब क्षेत्र में आ रही है । आदिवासी हितों की रक्षा को एक राष्ट्रीय उद्देश्य माना गया है परंतु अनेक आदिवासी गांव भी इस परियोजना से डूब रहे हैं । इसके  अतिरिक्त पर्यावरण व सुरक्षा संबंधी सरोकार हैंजो मोर्स समिति रिपोर्ट जैसे अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में पहले से ही दर्ज हो चुके  हैं । 
    एक अन्य बड़ा सवाल यह है कि आरंभ में इस परियोजना से जिन विभिन्न लाभों का दावा किया गया था, क्या वे वास्तव में प्राप्त हुए हैं ? परियोजना की स्वीकृति के समय सबसे अधिक समर्थन इस आधार पर प्राप्त किया गया था कि सौराष्ट्र व कच्छ के सूखाग्रस्त गांवों को इस परियोजना का पानी मिलेगा । यह लक्ष्य तो प्राप्त हुआ नहीं, बल्कि गांवों व खेती को मिलने वाला पानी उद्योगों या शहरों की ओर मोड़ दिया गया ।
    लाभ-हानि का मूल्यांकन कर जब परियोजना को स्वीकृति दी गई तब इसकी लागत ४२०० करोड़ रुपए आंकी गई थी । जबकि वर्ष २०१२ में योजना आयोग ने इसकी लागत को लगभग ७०००० करोड़ रुपए आंका, जो अब बढ़कर ९०००० करोड़ रुपए तक पंहुच सकती है ।
जनजीवन
हम और हमारा पर्यावरण
आकांक्षा यादव
    मनुष्य और पर्यावरण का संबंध काफी पुराना और गहरा है । पर्यावरण के बिना जीवन ही संभव नहीं है । प्राचीन गं्रथों में वर्णित पंच तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं । ये तत्व आवश्यकतानुसार समस्त जीव के उपयोग-उपभोग में अपनी भूमिका निभाते हैं । मानव अपनी आकांक्षाओं के लिए इन तत्वों पर निर्भर हैं । इनका एक निश्चित तारतम्य जीवन को नए प्रतिमान देता है, पर जब किन्हीं कारणों से इनका असंतुलन बिगड़ता है तो पर्यावरण-संतुलन भी बिगड़ता है, जो अंतत: न सिर्फ मानव बल्कि सभ्यताओं को प्रभावित करता है । ऐसे में जरूरत है कि इनका दोहन नहीं बल्कि सतत् विकास द्वारा सवंदेनशील उपयोग किया जाए । 
    पर्यावरण के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता आज भयावह परिणाम उत्पन्न कर रही है । एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, उस पर से प्रकृति का अनुचित दोहन, वाकई यह संक्रमणकालीन दौर है । यदि हम अभी भी नहीं चेते तो सभ्यताओं के  अवसान में देरी नहीं लगेगी । वैश्विक स्तर पर देखें तो धरती का मात्र ३१ प्रतिशत क्षेत्र वनों से आच्छादित है, जबकि ३६ करोड़ एकड़ वन क्षेत्र प्रतिवर्ष घट रहा है । नतीजन ११४१ प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है । वहीं जंगलों पर निर्भर १.६ अरब लोगों की आजीविका खतरे में है ।
    बढ़ते पर्यावरण-प्रदूषण ने जल-थल-नभ किसी को भी नहीं छोड़ा है । पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है, जिसमें करीब ०.३ फीसदी में से भी मात्र ३० फीसदी जल ही पीने योग्य बचा है। तभी तो ११० करोड़ लोगों को दुनिया में पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता । नतीजन, दुनिया में प्रतिवर्ष १८ लाख बच्च्े पानी की कमी और बीमारियों के कारण दम तोड़ देते हैं । वहीं प्रतिवर्ष २२ लाख लोग जल जनित बीमारियांे के चलते मौत के मुँह में समा जाते हैं । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०२५ तक २.९ अरब अतिरिक्त लोग जल आपूर्ति के  संकट में इजाफा ही करेंगे ।
    यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिस गंगा नदी को जीवनदायिनी माना जाता है, उसमें १ अरब लीटर सीवेज मिलता है । ऐसे में स्वाभाविक है कि गंगा में बैक्टीरिया का स्तर २८०० गुना बढ़ गया है । इसी प्रकार यमुना नदी की बात करंे तो अकेले राजधानी दिल्ली का ५७ फीसदी कचरा यमुना मंंे डाला जाता है । यहाँ ३०५३ मिलियन लीटर सीवेज पानी यमुना में हर रोज बहाया जाता है । कहना गलत न होगा कि ८० फीसदी यमुना दिल्ली में ही प्रदूषित होती है ।
    सिर्फ जल ही क्यों, जिस वायु में हम साँस लेते हैं, वह भी प्रदूषण से ग्रस्त है। पिछले ५ सालों में वायु में ८-१० फीसदी कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ी है, नतीजन ५ करोड़ बच्च्े हर समय वायु प्रदूषण से बीमार होते हैं । अकेले एशिया में ५३ लाख लोग प्रदूषित वायु के चलते मौत के  मुँह में चले जाते हैं । हाल ही में अमेरिका की येल और कोलंबिया विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों की ओर से १३२ देशों में कराए गए वायु गुणवत्ता अध्ययन की मानें तो वायु-प्रदूषण के मामले में भारत आखिरी दस देशों में शामिल है । १३२ देशों में भारत को १२५ वाँ स्थान मिला है, जबकि चीन का स्थान ११६वाँ है ।
    एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, दूसरी तरफ बढ़ता पर्यावरण-प्रदूषण ऐसे में उनके बीच परस्पर संतुलन की शीघ्र आवश्यकता है । मानव और पर्यावरण के मध्य असंतुलन से जहाँ अन्य जीव-जंतुओं व वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट होने के कगार पर हैं, वहीं ग्रीन हाउस के बढ़ते उत्सर्जन व ग्लोबल वार्मिंग से स्वच्छ साँस तक लेना मुश्किल हो गया है । मानवीय जीवन में बढ़ती भौतिकता एवं प्रकृति व पर्यावरण के प्रति बढ़ती उदासीनता, लापरवाही, बेपरवाही व दोहन ने विनाश-लीला का तांडव आरंभ कर दिया है । पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के  चलते जलवायु-परिवर्तन भी हो रहा   है ।
    एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार-जलवायु परिर्वतन से हर वर्ष लगभग तीन लाख लोग मर रहे हैं, जिनमें से अधिकतर विकासशील देशों के हैं । ग्लोबल हृयूमैनिटेरियन फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार-``१९०६ से २००५ के मध्यम पृथ्वी का तापमान ०.७४ डिग्री सेल्सयिस बढ़ा है और हाल के  वर्षों में इसमें उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है । वर्ष २१०० तक यह तापमान न्यूनतम दो डिग्री सेल्सयिस बढ़ने के आसार हैं ।``
    संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०३० तक वैश्विक ऊर्जा की जरूरत में ६० फीसदी की वृद्धि होगी । ऐसे में निर्वहनीय विकास के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है । कोयला और पेट्रोल के अधिकाधिक उपयोग से वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही  है । वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर संतुलित तापमान के लिए वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा ०.३ फीसदी रहना जरूरी    है । इसमें असंतुलन भयावह स्थिति पैदा कर सकता है । ओजोन परत जहाँ पराबैंगनी किरणों से धरा की रक्षा करता है, वहीं नित्-प्रतिदिन बढ़ते एयर कंडीशनर व रेफ्रीजरेटर एवं प्लास्टिक उद्योग में उपयोग किए जाने वाले क्लोरोलोरो कार्बन के उत्सर्जन से ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है । इससे जहाँ पराबैंगनी किरणों के प्रवाह के चलते त्वचा कैंसर जैसी बीमारियाँं उत्पन्न हो रही हैं, वहीं ग्लेशियरों के पिघलने के चलते  तमाम दीपों व देशों पर खतरा मंडरा रहा है ।
    आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन पर २००४ में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में विश्व के अन्य भागों की अपेक्षा तापमान-वृद्धि दुगनी गति से हो रहा है । वस्तुत: आर्कटिक क्षेत्र में बर्फीली सतहें अधिक कारगर ढंग से सूर्य-उष्मा का परावर्तन करती हैं, पर अब तापमान बढ़ने एवं हिमखंडों के तीव्रता से पिघलने के कारण अनाच्छादित भूक्षेत्र व सागर तल द्वारा अपेक्षाकृत अधिक ऊष्मा ग्रहण की जा रही है, जिससे यह क्षेत्र अत्यंत तीव्र गति से गर्म होता जा रहा है । ऐसे में महासागरों का जलस्तर बढ़ने से तमाम द्वीपों व देशों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । इससे जहाँँ जनसंख्या पलायन की समस्या उत्पन्न हुई है, वहीं समुद्री जीव-जंतुओं के विलुप्त होने की संभावनाएं भी उत्पन्न हो गई हैं ।
    वस्तुत: जब हम पर्यावरण की बात करते हैंतो यह एक व्यापक शब्द है, जिसमें पेड़-पौधे, जल, नदियाँ, पहाड़ इत्यादि से लेकर हमारा समूचा परिवेश सम्मिलित है। हमारी हर गतिविधि इनसे प्रभावित होती है और इन्हें प्रभावित करती भी है । कभी लोग गर्मी में ठंंडक के लिए पहाड़ोंं पर जाया करते थे, पर वहाँ भी लोगों ने पेड़ोंं को काटकर रिसॉर्ट और होटल बनाने आरंभ कर दिए । कोई यह क्यों नहीं सोचता कि लोग पहाड़ों पर वहाँ के  मौसम, प्राकृतिक परिवेश की खूबसूरती का आनंद लेना चाहते हैं न की कंक्रीटों का । पर लगता है जब तक यह बात समझ में आयेगी तब तक काफी देर हो चुकेगी ।
    ग्लोबल वार्मिंग अपना रंग दिखाने लगी है, लोग गर्मी में ४५ पर तापमान के  आने का रो रहे हैं,पर इसके लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहता । सारी जिम्मेदारी बस सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं की है । जब तक हम इस मानसिकता से नहीं उबरेंगे, तब तक पर्यावरण के नारों से कुछ नहीं होने वाला है । आइये आज कुछ ऐसा सोचते हैं, जो हम कर सकते हैं । जिसकी शुरुआत हम स्वयं से या अपनी मित्रमंडली से कर सकते  हैं । हम क्यों सरकार का मुँह देखें ? पृथ्वी हमारी है, पर्यावरण हमारा है तो फिर इसकी सुरक्षा भी तो हमारा कर्तव्य है । कुछ बातों पर गौर कीजिये, जिसे हम अपने परिवार और मित्र-जनों के साथ मिलकर करने की सोच सकते हैं । आप भी इस ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं ।
    जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्रकृति के प्रति अनुराग पैदा करने हेतु फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ । स्कूल में बच्चें को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है । इसी प्रकार सूखे वृक्षों को तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय । जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करना चाहिए, ताकि सतत-संपोष्य विकास की अवधारणा निरंतर फलती-फूलती रहे । यह और भी समृद्ध होगा यदि अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जाएँ, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों । यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी ।
    आज के उपभोक्तावादी जीवन में इको-फ्रेडली होना बहुत जरूरी है । पानी और बिजली का अपव्यय रोककर हम इसका निर्वाह कर सकते हैं । फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें । शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोककर लोगों को प्रेरणा भी दे सकते हैं । इसी प्रकार री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोककर और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग किया जा सकता  है ।
    मानव को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार कर किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है । अत: जरूरत है कि अभी से प्रकृति व पर्यावरण के  संरक्षण के प्रति सचेत हुआ जाए और इसे समृद्ध करने की दिशा में तत्पर हुआ जाय ।
प्रयासकैसे साफ हुई प्रदूषित नदी
संध्या रायचौधरी

    नई सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा की सफाई के लिए बड़े पैमाने पर योजनाएं बनना शुरू हो गई है । गंगा की सफाई के साथ देश की अन्य नदियों का भी कायाकल्प होने की उम्मीद है । लेकिन हमें इस बात पर ज्यादा दुख करने की जरूरत नहीं है कि हमारे देश में नदियों के हाल खस्ता है ।
    जर्मनी, चीन जैसे विशाल देशों में भी नदियां हमसे कहीं ज्यादा आंसू बहाती है । हां, यह बात अलग है कि उन देशों में नदियों को उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता है । करीब १० साल पहले जर्मनी की एल्बे नदी विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदी   थी । लेकिन आज उसकी गिनती विश्व की सबसे साफ नदियों में की जाती है । इसकी वजह यह है कि उस देश की सरकार ने नदियों को अपने देश की धरोहर माना है । 
    कुछ ही साल पहले की बात है जब जर्मनी की नदियों में इतनी गंदगी थी कि इसमें रहने वाली मछलियां अल्सर से मर रही थी । आज ये नदियां एकदम साफ हैं । क्या एल्बे नदी से दुनिया सीख ले सकती हैं ? पानी और तैरता प्लास्टिक, सांस लेने  बार-बार सतह पर आती अधमरी मछलियां, प्रदूषित पानी के कारण ऐसी स्थिति दुनिया के कई देशों में पैदा हो गई है । कुछ ही साल पहले तक जर्मनी की नदियों की भी यही हालत थी । लेकिन अब यहां मछलियां लौट आई है, खासकर चेक गणराज्य से निकल कर हैम्बर्ग के आगे उत्तरी सागर में जाने वाली एल्बे नदी का पानी काफी प्रदूषित था । १९९० में जर्मनी के एकीकरण तक नालियों का पानी सीधे एल्बे में डाल दिया जाता था ।
    वर्ष १९८८ में शोधकर्ताआें ने पता लगाया कि एल्बे से जहरीले तत्व समुद्र में जा रहे हैं । इन जानलेवा रसायनों में १६,००० टन नाइट्रोजन, १०,००० टन फॉस्फोरस, २३ टन सीसा, और अति जहरीला रसायन पेंटाक्लोरो-फिनॉल शामिल था । हैम्बर्ग विश्वविघालय के जीव वैज्ञानिक फाइट हेनिष ने बताया मछलियों के मंुह में गंभीर अल्सर हो गए थे, जिसे कॉलफ्लावर अल्सर कहा जाता है । सांप जैसी दिखने वाली मछलियों की हालत भी खराब थी, छोटी मछलियों की त्वचा पर इन्फेक्शन हो गए थे ।
    फिर नदियां कैसे साफ की गई ? पूर्व जर्मनी में कई फैक्ट्रियां बंद हो गई, गंदा पानी लगातार साफ किया गया और एल्बे के आसपास कड़े पर्यावरण नियमों ने उसे बचा लिया । फाइट हेनिष के मुताबिक जर्मनी की बाकी नदियों के लिए भी ऐसा ही किया गया । अब मछली पकड़ने वालों और तैराकों के लिए एल्बे खुली है । इसमें तैरने से कोई खतरा नहीं है, मछलियों सहित बाकी समुद्री जीव भी लौट रहे है । सन् २०१३ में एल्बे में २०० पॉरपॉइज मछलियाँ देखी गई, बसंत में ये मछलियां शिकार के लिए एल्बे में आती है ।
    झीलों, तालाबों की तुलना में नदियों से प्रदूषण तेजी से समुद्र में पहुंचता है । नदियां तो कुछ हद तक खुद को साफ कर लेती हैं, लेकिन समुद्र में नुकसानदायक पदार्थ रह जाते है । हालांकि नदियों के तल में भी जहरीले पदार्थ जमा होते हैं । पिछले सालों में जर्मनी में आई बाढ़ के कारण ये जहरीले पदार्थ फिर से ऊपर आ सकते हैं और नदियों में पहुंच सकते हैं । बाढ़ के कारण नदी की तलछट हिलती है और यह नदी के पानी की तुलना में ज्यादा दिन तक प्रदूषित रहती है ।
    चीन की टेक्निकल युनिवर्सिटी हरबुर्ग हैम्बर्ग में वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट एंड वॉटर प्रोटेक्शन इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाले टेफोन कोएस्टर ने अपने शोध के आधार पर एक जर्नल मेंलिखा कि, बहुत पुरानी बात नहीं है जब पर्यावरण संरक्षण के नियम नहीं थे और इंसान प्रकृतिका फायदा उठाता था । कोएस्टर कहते है कि नदियां खास तौर पर इंसानी लापरवाही का शिकार होती है । हमने देखा है कि हम पानी में कुछ भी डाल देते हैं, यह फिर तेजी से समुद्र में चला जाता है, नजर से दूर तो दिमाग से भी दूर ।
    आज शोधकर्ताआें का नजरिया बदल गया है गंदे पानी को साफ करने के लिए ज्यादा से ज्यादा निवेश किया जा रहा है - सिर्फ यांत्रिक शोधन (छानना वगैरह) में नहीं बल्कि बायो केमिकल सफाई में भी । साफ करने के तरीके भी बदले हैं । कोएस्टर कहते हैं अब पोषक तत्वों को अलग कर लिया जाता है नाइट्रोजन निकाली जाती है और फॉस्फोरस को हटा दिया जाता है ।
    वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी की सफाई बड़े से छोटे वाले नियम पर चलती है । पहले यांत्रिक सफाई में बड़े आकार का कचरा अलग किया जाता है और फिर छोटे आकार का, फिर रेत अलग की जाती है क्योंकि इससे पंप को नुकसान हो सकता है । तलछटीकरण टैंक सुनिश्चित करता है कि पानी में घुले पदार्थोंा के अलावा सिर्फ बैक्टीरिया ही मौजूद हो ।
    जर्मनी ने तो अपनी नदियां बचा ली लेकिन दुनिया के कई देशों में खासकर चीन और भारत में नदियां भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है । क्या युरोपीय तरीके से इन नदियों की सफाई की जा सकती है ।
    कोएस्टर काफी साल से चीन के साथ शोध में जुड़े हुए है । कोएस्टर का कहना है कि चीन में पानी के मुद्दे पर कई मुश्किलेंहैं जिन्हें सुलझाना जरूरी है । नदियों की सुरक्षा के लिए नियम और कानून तो हैं लेकिन उन्हें अच्छे से लागू नहीं किया जाता । फाइट हेनिष कहते हैं कि एल्बे के मामले में भी काफी काम अभी होना बाकी है, जबकि नदी अब धीरे-धीरे प्राकृतिक स्थिति में पहुंच रही है ।
    पानी की गुणवत्ता सिर्फ रासायनिक तौर पर अच्छी हुई है, लेकिन नदी की संरचना और उसका प्राकृतवास और खराब हुआ है ।
    भारत की युवा वैज्ञानिक शिली डेविड २००९ से जर्मनी के सेंटर फॉर मरीन ट्रॉपिकल इकोलॉजी में केरल की पम्बा नदी पर शोध कर रही है, वे भारत में दम तोड़ रही नदियों में फिर से जान फूंकना चाहती हैं ।
    त्रिवेंद्रम के सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज में रिसर्च करने के बाद शिली जर्मनी गई । उन्होनें डीएएडी की स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया । जेडएमटी ब्रेमन के प्रोफेसरों को अपने शोध का विषय बताने और समझाने के बाद शिली को दाखिला भी मिला और स्कॉलरशिप भी ।
    जेडएमटी में वे दक्षिण भारत की तीसरी बड़ी नदी पर रिसर्च कर रही हैं । नदी प्रदूषण से बीमार है । अतिथि वैज्ञानिक के रूप में सुश्री शिली जेडएमटी के साथ मिलकर नदी और उसकी आसपास के पारिस्थिकी तंत्र को बचाना चाहती है । इसके लिए वे ६ से ८ महीने में भारत आती हैं । केरलकी पम्बा नदी से पानी के नमूने लेती हैं । खेतों में डाली जाने वाली खाद के नमूने जुटाए जाते हैं ।
    नदी इंसानी दखलअंदाजी की वजह से मर रही है । सुश्री शिली कहती है - पम्बा नदी के आसपास बहुत कृषि संबंधी गतिविधियां होती हैं । अहम बात वहां श्रद्वालुआें का जमावड़ा भी है, शबरीमाला मन्दिर के श्रद्वालु । हम यह जांच करना चाहते हैं कि कैसे ये सारी गतिविधियां पानी की क्वालिटी पर असर डालती है । अब तक हमने देखा है कि श्रद्वालुआें से सीजन में नदी में प्रदूषण अथाह बढ़ जाता है ।
    प्लास्टिक और रसायनों की वजह से पानी में जरूरी पोषक तत्व खत्म होते जा रहे हैं । पानी इतना खराब हो चुका है कि नदी के आसपास बसे इलाकों में बीमारियां फैल रही है । खेती पर असर पड़ रहा है । सुश्री शिली ऐसे बुनियादी कारणों का पता लगा रही है जो नदियों को जहरीला करते हैं । उदाहरण के लिए देखा जाए तो जर्मनी में डिटरजेंट फॉस्फेट फ्री होते हैं लेकिन भारत में अभी तक डिटरजेंट में मुख्य तत्व फॉस्फेट है, जो पानी को ज्यादा गंदा करता है ।
    जैव विविधता के लिहाज से भारत में नायाब चीजें मिलती है । हिमालय में जहां यूरोप जैसी मछलियां है तो दक्षिण की नदियों में विषुवत रेखा जैसा जीवन है लेकिन कचरा इस खूबसूरती को खत्म कर रहा है । सुश्री शिली कहती हैं - पानी की क्वालिटी के लगातार गिरावट के चलते हम कह सकते है कि भारत में नदियां धीरे-धीरे मर रही हैं । पानी में ऑक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल रहा पारिस्थितिक तंत्र मरने लगता     है । एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को मृत घोषित कर दिया जाता है ।
पर्यावरण परिक्रमा
विदेशों में भारतीय जड़ी-बूटियों की भारी मांग
    अमेरिका, जापान, रूस और यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की भारी मांग है और इनके निर्यात से देश को हर साल करीब ३० अरब रूपए की कमाई होती है ।
    सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जड़ी बुटियों से तैयार दवाआें और आयुर्वेदिक उत्पादों की सबसे ज्यादा मांग अमेरिका में है । अमेरिका के बाद भारतीय परम्परागत दवाआें का सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश पाकिस्तान है । इसके अलावा जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, रूस, इटली और फ्रांस में भी इन दवाआें की भारी मांग है । यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की मांग बढ़ रही है और वर्ष २०१३-१४ के दौरान इन देशों को ६.५ करोड़ डालर की दवाएं निर्यात की गई जो वर्ष २०१२-१३ की तुलना में २० प्रतिशत अधिक   है । पड़ोसी देश पाकिस्तान में भारतीय जड़ी बूटियों और आयुर्वेदिक दवाआें की मांग लगातार बढ़ रही है । वर्ष २०११-१२ में इस पड़ोसी देश को २.९२ करोड़ डालर की औषधियां निर्यात की गई ।
    वर्ष २०१३-१४ में अमेरिका को १५.५ करोड़ डालर मूल्य की भारतीय औषधियों का निर्यात किया गया जबकि वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा १८.२ करोड़ डालर और वर्ष २०११-१२ में ५० करोड़ डालर था । वर्ष २०११-१२ में भारत से ५० करोड़ डालर से ज्यादा मूल्य की ऐसी दवाएं निर्यात की गई । वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा ५२.८ करोड़ डालर था जबकि वर्ष २०१३-१४ में इसमें छह प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और यह निर्यात ४९.८ करोड़ डालर रह   गया । इस गिरावट का मुख्य कारण दुनिया के कईदेशों में नियमों में बदलाव और कई देशों द्वारा स्वदेश में जड़ी बूटियों का उत्पादन है ।
बर्तन में छुपा है सेहत का खजाना
    सेहतमंद खाना पकाने के लिए आपका तेल-मसालों पर तो पूरा ध्यान हैं, पर क्या आप खाना पकाने के लिए बर्तनों के चुनाव पर भी ध्यान देते है ? अगर आपका जवाब न है तो आज से ही इस बात पर भी ध्यान देना शुरू कर दें । भोजन की पौष्टिकता में यह बात भी मायने रखती है कि आखिर उन्हें किस बर्तन में बनाया जा रहा है । भोजन पकाते समय बर्तनों का मैटीरियल भी खाने के साथ मिक्स हो जाता है ।
    एल्यूमीनियम, तांबा, लोहा, स्टेनलेस स्टील और टेफलोन बर्तन में इस्तेमाल होने वाली आम सामग्री है । बेहतर है कि आप अपने घर के लिए कुकिंग मटेरियल चुनते समय कुछ जरूरी बातों का ख्याल रखें और इसके लिए आपको उन बर्तनों के फायदे नुकसान के बारे में जानकारी होना जरूरी है ।
    कास्ट लोहे के बर्तन देखने और उठाने में भारी, महंगे और आसानी से न घिसने वाले ये बर्तन खाना पकाने के लिए सबसे सही पात्र माने जाते है । शोधकर्ताआें की माने तो लोहे के बर्तन में खाना बनाने से भोजन में आयरन जैसे जरूरी पोषक तत्व बढ़ जाते हैं ।
    एल्युमिनियम के बर्तन हल्के, मजबूत और गुड हीट कंडक्टर होते  है । साथ ही इनकी कीमत भी ज्यादा नहीं होती । भारतीय रसोई में एल्युमिनियम के बर्तन सबसे ज्यादा होते है । एल्युमिनियम बहुत ही मुलायम और प्रतिक्रियाशील धातु होता है । इसलिए नमक या अम्लीय तत्वों के संपर्क में आते ही उसमें घुलने लगता है । इससे खाने का स्वाद भी प्रभावित होता है ।
    तांबा (कॉपर) और पीतल के बर्तन हीट के गुड कंउक्टर होते है । इनका इस्तेमाल पुराने जमाने में ज्यादा होता था । ये एसिड और सॉल्ट के साथ प्रक्रिया करते हैं । नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के अनुसार खाने में मौजूद ऑर्गेनिक एसिड, बर्तनों के साथ प्रतिक्रिया करके ज्यादा कॉपर पैदा कर सकता है । इससे फूड प्वॉयजनिंग भी हो सकती है । इसलिए इनकी टिन से कोटिंग जरूरी है जिसे कलई भी कहते है ।
    स्टेनलेस स्टील के बर्तन अच्छे, सुरक्षित और किफायती विकल्प है । इन्हें साफ करना भी बहुत आसान है । स्टेनलेस स्टील एक मिश्रित धातु है । इस धातु में न तो लोहे की तरह जंग लगता है और न ही पीतल की तरह यह अम्ल आदि से प्रतिक्रिया करती है । लेकिन इसे साफ करते समय सावधानी बरती जानी चाहिए ।
    नॉन-स्टिक बर्तनों की सबसे खास बात यह है कि इनमें तेल की बहुत कम मात्रा या न डालो तो भी खाना बढ़िया पकता है । नॉन-स्टिकी होने की वजह से खाना चिपकता भी नहीं ।

अगले साल जारी होगे प्लास्टिक नोट
    आरबीआई अगले साल परीक्षण के तौर पर प्लास्टिक के करेंसी नोट जारी करने की योजना बना रहा है । केन्द्रीय बैक जाली नोटों की समस्या से निपटने के लिए नोटों के सिक्योरिटी फीचर्स में सुधार भी करेगा । यह नैशनल बिल पेमेंट्स सिस्टम भी शुरू करेगा जिससे मध्यस्थों की भूमिका खत्म हो सकती है ।
    आरबीआई ने २०१३-१४ के लिए अपनी सालान रिपोर्ट में कहा कि अगले साल तक प्लास्टिक नोट्स लॉन्च करने की उम्मीद है । आरबीआई नोट्स की लाइफ सुधारने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार कर रहा है । कई वर्षो तक विचार-विमर्श के बाद जनवरी २०१४ में आरबीआई ने प्लास्टिक के करेंसी नोट्स के लिए टेंडर जारी किया था । शिमला सहित पांच शहरों में पायलट टेस्टिंग की जाएगी । पायलट टेस्टिंग के आधार पर २०१५ में इसे लॉन्च किया जाएगा । इन नोटों की परफॉर्मेस देखने के बाद ही इस बारे में अंतिम फैसला किया जाएगा ।
    प्लास्टिक के करेंसी नोटों पर दाग नहीं लगते और इन्हें आसानी से फाड़ा नहीं जा सकता है । कई देशों ने इसे आजमाने की कोशिश की है । हालांकि कॉटन फाइबर वाली करेंसी के मुकाबले इन नोटों को तैयार करने की लागत बहुत ज्यादा है ।
    आरबीआई कोिच्च्, मैसूर, जयपुर, भुवनेश्वर और शिमला में प्लास्टिक करेंसी पेश कर सकता है । इन शहरों में मौसम एक-दूसरे से काफी अलग रहता है । फाइनेशल इन्वलूजन को बढ़ावा देने और कंज्यूमर के हितोंकी रक्षा के लिए आरबीआई नो योर कस्टमर से जुड़े नियमों की समीक्षा करने की योजना भी बना रहा है ।

बाघ के मूवमेंट पर होगी सैटेलाइट नजर
    भोपाल के आस-पास के जंगलोंमें घूम रहे बाघों पर अब २४ घण्टे निगरानी रखी जाएगी । वन विभाग सैटेलाइट इलेक्ट्रानिक आई की मदद से यह काम करेगा । रातापानी अभयारण्य के अन्तर्गत आने वाले समरधा रेजू के कठौतिया, कलियासोत और केरवा के जंगलों में ई सर्विलांस कैमरेलगाने का काम शुरू कर दिया गया है । यह काम दो महीने मेंपूरा हो जाएगा ।
    वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार भोपाल के केरवाकलि-यासोत से लेकर, रातापानी अभयारण्य तक चार स्थानोंका चयन किया है, जहां ये इलेक्ट्रानिक आई लगाई जा रही है । इससे बाघों की सुरक्षा होगी । साथ ही शिकारियों पर शिंकजा भी कसा जा सकेगा । गौरतलब है कि भोपाल फॉरेस्ट सर्किल ने इस संबंध में सवा साल पहले एक प्रस्ताव राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को भेजा था, जिसे छह महीने पहले मंजूरी मिल गई थी ।
    इलेक्ट्रानिक आई एक प्रकार का सर्विलेंस वाइल्ड लाइफ ट्रैकिंग सिस्टम है । इसमें एक कैमरा होता है, जो सैटेलाइट व इंटरनेट से जुड़कर सीधे बाघ पर नजर रखेगा । सेटेलाइट से बाघों की निगरानी करने के मामले मेंमध्यप्रदेश देश का दूसरा राज्य  होगा । फिलहाल यह व्यवस्था उत्तरप्रदेश के जिम कार्बेट नेशनल पार्क मेंलागू है ।
    इस प्रोजेक्ट पर करीब साढ़े तीन करोड़ रूपए खर्च होगे । असंरक्षित वन क्षेत्र के लिए इस तरह का प्रस्ताव पहली बार तैयार किया गया है । चूंकि रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ रही है । उस हिसाब से यहां पर बल नहीं  है । ऐसे में ये सिस्टम लगाया जा रहा है, ताकि बाघों की निगरानी की जा सके ।
समुद्री जीवों को खतरे में डाल सकता है सनस्क्रीन
    सनस्क्रीन आपकी त्वचा को भले ही अल्ट्रवायलेट किरणों (यूवी) से बचाता हो और समुद्र तट पर समय बिताने वालों के लिए सबसे जरूरी सामान हो, लेकिन इसके लिए पर्यावरण खतरे में पड़ सकता है ।
    समुद्र में नहाने के दौरान जब आपकी त्वचा पर लगा सनस्क्रीन पानी में मिलता है तो विषाक्त प्रभाव उत्पन्न कर सकता है और यह छोटे समुद्री जीवों के लिए खतरनाक हो सकता है । बाद में यही छोटे जीव बड़े समुद्री जीवों को भोजन भी बनते हैं । यह अध्ययन जर्नल एनवायमेंटल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ है । शोधकर्ता एटोनियो तोवार सानशेज ने पाया कि सनस्क्रीन में आम तौर पर पाए जाने वाले टाइटेनियम डाइऑक्साइड और जिंक ऑक्साइड अल्ट्रावायलेट किरणों और हाइड्रोजन पेरोक्साइड जैसे विषेल यौगिकों के सपंर्क में आकर प्रतिक्रिया करते हैं ।
विज्ञान हमारे आसपास
हीलियम की खोज की कहानी
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
    हीलियम एक रासायनिक तत्व है जिसकी परमाणु संख्या २ तथा संकेत कश है । यह एक रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, निष्क्रिय तथा एक-परमाणविक (मोना एटॉमिक) गैस है जो आवर्त सारणी के नोबल गैस समूह में प्रमुख है । अभी तक ब्रह्माण्ड में जितने तत्व पाए गए हैं उन सभी में अल्पतम क्वथनांक तथा अल्पतम हिमांक हीलियम का ही है । यानी यह सबसे कम तापमान पर उबलती और ठोस बनती है ।
    सर्वाधिक हल्के तत्वों में हीलियम का स्थान दूसरा है तथा ब्रह्माण्ड में तत्वों की प्रचुरता के दृष्टिकोण से भी इसका स्थान दूसरा है । ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी तत्वों का जो मिला-जुला द्रव्यमान है उसका २४ प्रतिशत भाग सिर्फ हीलियम का है । यह सभी भारी तत्वों के सम्मिलित द्रव्यमान के १२ गुना से भी अधिक है । ब्रह्माण्ड में हीलियम की यह प्रचुरता सूर्य तथा बृहस्पति ग्रह में हीलियम की प्रचुरता के लगभग बराबर है । हीलियम की इतनी प्रचुरता का कारण है इसके नाभिक की अति उच्च् बंधन ऊर्जा (बाइंडिंग एनर्जी) । 
     वैज्ञानिकों के मतानुसार ब्रह्माण्ड में उपस्थित अधिकांश हीलियम का निर्माण महाविस्फोट (बिग बैंग) के दौरान हुआ था । इसके अलावा भारी मात्रा में नई हीलियम का निर्माण विभिन्न तारों में हाइड्रोजन के परमाणुआें के आपस में जुड़ने (संलयन) के कारण हो रहा है ।
    हीलियम की उपस्थिति का प्रथम संकेत १८ अगस्त १८६८ को सूर्य के क्रोमोस्फीमर के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) मेंतीव्र चमकीली पीली रेखा के रूप में प्राप्त् हुआ था । इस रेखा की तरंग लम्बाई ५८७.४९ नैनोमीटर थी । इस पीली रेखा को फ्रांसीसी खगोलविद जूल्स जैंसन द्वारा पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान भारत में आंध्रप्रदेश के गंुटूर नामक स्थान पर देखा गया था । पहले तो जूल्स जैंसन ने वर्णक्रम की इस पीली रेखा को सोडियम से उत्पन्न समझा । उसी वर्ष २० अक्टूबर को ब्रिटिश खगोलविद नॉर्मन लॉकेयर ने सौर वर्णक्रम में एक पीली रेखा देखी जिसका नाम उन्होनें डी-३ फ्रानहॉफर रेखा रखा क्योंकि पीली रेखा सोडियम की ज्ञात डी-१ तथा डी-२ रेखाआें के निकट थी ।
    लॉकेयर ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस पीली रेखा का निर्माण सूर्य मेंमौजूद किसी ऐसे तत्व के कारण हो रहा है जो पृथ्वी पर अज्ञात है । लॉकेयर तथा ब्रिटिश रसायनविद एडवर्ड फै्रंकलैंड ने इस नए तत्व का नाम सूर्य के लिए ग्रीक शब्द हीलियोस  के आधार पर हीलियम  रखा ।
    सन १८८२ में इटालियन भौतिकीविद लुइगी पालमियेरी ने जब माउंट वेसुवियस से प्राप्त् लावा का विश्लेषण किया तो पृथ्वी पर पहली बार डी-३ वर्णक्रम रेखा के आधार पर हीलियम की उपस्थिति का संकेत  पाया । स्कॉटलैंड के रसायनविद सर विलियम रैमसे ने २६ मार्च १८९५ को क्लेवाइट नामक खनिज पर अम्लों की प्रतिक्रिया से पहली बार धरती पर हीलियम प्राप्त् करने मेंसफलता प्राप्त् की । क्लेवाइट यूरेनियम का एक अयस्क है । वस्तुत: रैमसे आर्गन की खोज कर रहे थे परन्तु गंधकाम्ल की अभिक्रिया से उत्पन्न गैस से ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन को अलग करने के बाद बची हुई गैस के वर्णक्रम मेंउन्होंने एक चमकीली पीली रेखा देखी जो सूर्य के वर्णक्रम में दिखाई पड़ने वाली डी-३ रेखा से मिलती-जुलती थी ।
    उसी वर्ष स्वीडन निवासी दो रसायनविदों पेर थियोडोर क्लीव तथा अब्राहम लैंग्लेट ने स्वतंत्र रूप से उपसला नामक स्थान पर क्लेवाइट नामक खनिज से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम गैस प्राप्त् की तथा उसका परमाणु भार निर्धारित किया । रैमर्स से भी पूर्व हीलियम को प्राप्त् किया था अमेरिकी भू-रसायनविद विलियम फ्रांसिस हिलब्रांड ने । हिलब्रांड ने यूरेनीनाइट नामक खनिज का विश्लेषण करते हुए वर्णक्रम में एक विशिष्ट प्रकार की पीली रेखा देखी । परन्तु उन्होंने गलती से इस रेखा को नाइट्रोजन से उत्पन्न मान लिया । जब रैमसे द्वारा हीलियम की खोज का समाचार हिलब्रांड को मिला तो उन्होंने बधाई संदेा भेजा जिसमें उन्होनें अपने द्वारा की गई चूक की भी चर्चा की ।
    सन १९०७ में अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा थॉमस रॉयड्स ने प्रयोग द्वारा साबित किया कि अल्फा कण वस्तुत: हीलियम के नाभिक हैं । इसके लिए इन वैज्ञानिकों ने अल्फा कणों को निर्वात ट्यूब में दीवार को भेदकर भेजा तथा ट्यूब में डिस्चार्ज उत्पन्न कर भीतर की गई गैस के वर्णक्रम का अध्ययन किया । पाया गया कि ट्यूब में बनी नई गैस हीलियम है ।
    सन् १९०८ में हॉलैंड के भौतिकीविद हाइक कैमरलिंग ओनेस हीलियम को एक डिग्री केल्विन से भी कम तापमान तक ठंडा कर उसे द्रव अवस्था में परिवर्तित करने में सफल हुए । उन्होंने इसे और अधिक ठंडा कर ठोस अवस्था में परिवर्तित करना चाहा, परन्तु सफलता नहीं मिली । परन्तु  ओनेसे का ही एक छात्र विलियम हेड्रिक कीसोम १९२६ में एक घन सेंटीमीटर हीलियम पर दाब आरोपित करके ठोस अवस्था में परिवर्तित करने में पूर्णत: सफल    हुआ ।
    सन् १९३८ में रूसी भौतिकविद प्योत्र लियोनिदोविच कपित्सा ने यह पता लगाया कि परम शून्य तापमान पर हीलियम में गाढ़ापन (श्यानता) नगण्य परिमाण में होती    है । इस गुण को अति-तरलता कहा जाता है ।
    सन् १९०३ में संयुक्त राज्य अमेरिका के कैन्सास क्षेत्र में खनिज तेल के निष्कर्षण हेतु किए गए ड्रिलिंग के फलस्वरूप एक गर्म गैस का सोता (गीज़र) उत्पन्न हुआ । परन्तु यह गैस ज्वलनशील नहीं थी । कैन्सास के भू-विज्ञानवेत्ता इरेस्मस हैवर्थ ने उस गीज़र से निकलती दैस के नमूने का विश्लेषण कैन्सास विश्वविघालय के हैमिल्टन केडी तथा डैविड मैक फॉलैंण्ड नामक रसायनविदों की सहायता से किया तो पता चला कि उसमें आयतन के हिसाब से ७२ प्रतिशत नाइट्रोजन, १५ प्रतिशत मीथेन, १ प्रतिशत हाइड्रोजन तथा १२ प्रतिशत अपरिचित गैसें थी । बाद में किए गए विश्लेषणों से पता चला कि उसमें १.८४ प्रतिशत हीलियम थी । इस प्रकार यह तथ्य सामने आया कि पृथ्वी पर इस गैस की कमी के बावजूद अमेरिका के इस क्षेत्र मेंइसका काफी बड़ा भंडार मौजूद है । इस विशाल भंडार की उपलब्धता के चलते आज यूएस पूरे संसार मेंहीलियम का सबसे बड़ा उत्पादक तथा निर्यातक है ।
    प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अमरीकी नौसेना ने तीन छोटे प्रयोगिक हीलियम प्लांट प्रायोजित किए थे । उद्देश्य था अज्वलनशील तथा हवा से हल्की गैस भरे गुब्बारों की आपूर्ति करना । उपर्युक्त तीन प्लांटों में ५७०० घन मीटर गैस का उत्पादन किया गया जिसमें से ९२ प्रतिशत हीलियम थी । इसमें से कुछ हीलियम का उपयोग संसार के प्रथम हीलियम भरे एयरशिप सी-७ के लिए किया गया जिसका उपयोग अमरीकी नौसेना द्वारा किया गया ।
    हीलियम का उपयोग मुख्य रूप से हवा से हल्के वायुयान के लिए होता आया है । इसी कारण द्वितीय युद्ध के दौरान हीलियम की मांग काफी बढ़ी थी । मैनहटन परमाणु बम परियोजना में भी हीलियम का उपयोग काफी आवश्यक हो गया था ।
    भारत में परमाणु ऊर्जा विभाग के अधीनस्थ वैरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रोन सेंटर द्वाा पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में स्थित बके्रश्वर के गर्म झरनों का अध्ययन करने पर पता चला कि यहां से निकलने वाली प्राकृतिक गैसों में हीलियम की भी काफी मात्रा है । सर्वेक्षणों से जानकारी मिली कि पश्चिम बंगाल के बक्रेश्वर तथा झारखंड के तंतलोई स्थित गर्म झरनों से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम युक्त प्राकृतिक गैसें बुलबुलों के रूप में निकलती रहती हैं । इनमें हीलियम की मात्रा करीब १.३ प्रतिशत है । उपरोक्त दोनों गर्म झरनों वाले स्थान एक-दूसरे से लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर और कोलकाता से २५० कि.मी. की दूरी पर स्थित है ।
कृषि जगत
बीटी बैंगन की व्यावसायिक असफलता
डॉ. ईवा सिरिनाथसिंह
    बीटी तकनीक को भविष्य का चमत्कार बताया जा रहा है । इसके बारे में कहा जाता है कि इनमें किसी प्रकार के कीट नहीं लगेंगे और इस तरह यह किसान हितैषी है । परंतु बांग्लादेश में इस नई तकनीक की असफलता ने सीमित संख्या में ही सही लेकिन किसानों को नुकसान पहुंचाया है ।     
    गार्डियन ने हाल ही में बताया है कि एशिया में पहली बार व्यावसायिक रूप से उत्पादित जीनांतरित (बी.टी.) बैंगन के  निराशाजनक परिणाम सामने आए  हैं । भिन्न जलवायु क्षेत्र में इसकी चार किस्में-कजला, उत्तरा, नयनतारा और आईएमडी ००६ लगाई गई थी ।  बांग्लादेश में बैंगन, उपभोग एवं निर्यात दोनों लिहाज से महत्वपूर्ण फसल है और इसकी खेती के  जनसंख्या पर व्यापक स्वास्थ्य व आर्र्थिक जोखिम आ सकते हैं । वास्तव में यह क्षेत्र बैंगन के उद्गम और जैवविविधता वाला क्षेत्र है । अतएव जैव सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र कार्टाजेना सम्मेलन के सुझावों के तहत इस क्षेत्र को जीन संवर्धित संदूषण से बचाना आवश्यक है । इसकी लोकप्रियता और प्रमुख खाद्य फसल होने के नाते कई जी.एम. प्रस्तावक अपनी जी.एम. (जीनांतरित) तकनीकों को बंाग्लादेश एवं समीप के व्यापक क्षेत्र जिसमें भारत भी शामिल है (और जहां पर कि अभी इस पर रोक लगी हुई है,) मंे फैलाने पर तुले हुए हैं । भारतीय स्थगन विभिन्न नागरिक समूहों, सर्वोच्च् वैज्ञानिकोें ,बैंगन उपजाने वाले क्षेत्रों की राज्य सरकारों के साथ ही साथ, नागरिकांे एवं पर्यावरण समूहों के घोर विरोध के बाद आया है। बांग्लादेश मंे भी इसकी खेती को लेकर इसी तरह के विवाद सामने आए और १०० नागरिक संगठनों ने प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस संबंध में विरोध पत्र लिखा था । इस प्रकार के निराशाजनक परिणाम इस परियोजना की तरफदारी करने वालों के लिए धक्का साबित हांेगे ।
     गार्डियन के संवाददाताओं ने समस्याग्रस्त २० किसानों में से १९ से संपर्क किया । ७ स्थानों का दौरा किया, इसमें से ९ किसानों ने उन्हें अपनी समस्या बताई जिसमें कीड़े लगने (बैक्टीरियलविल्ट) एवं सूखा शामिल हैं । गौरतलब है कि इन फसलों को लेकर दावा किया जाता रहा है कि यह कीटों जैसे फ्रूट एवं शूट बोरर आदि पर नियंत्रण पाने में सक्षम है । गाजीपुर क्षेत्र में पांच में से चार खेतों में फसल को नुकसान पहंुचा है, जिसके परिणामस्वरूप किसानों को जबरदस्त आर्थिक हानि पहुंची है । इसी वजह जीएम समर्थक समूह इन परिणामों को छुपाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं और जीएम विरोधियों पर फसलों की असफलता को लेकर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं ।
    परंन्तु इस नई रिपोर्ट में किसानों और उनके खेतों की फसलों की विस्तृत रिपोर्ट में नष्ट (ईद) फसल के फोटो भी शामिल हैं । विवाद को और हवा देते हुए कहा जा रहा है कि बांग्लादेश कृषि शोध संस्थान (जीएमआई) जो कि यू.एस. एड और कारनेल विश्वविद्यालय की मदद से यह परियोजना चला रहा है, के कार्य से प्रतीत होता है कि उसने लाईसेंस समझौते के कुछ अनुबन्धों का पालन नहीं किया है । इससे इस योजना की वैधता पर प्रश्न उठ  रहे हैं । अनुबंधों में व्यवस्थित लेबलिंग (नामकरण), खेतों में उत्पादन प्रक्रिया का सूत्रीकरण, खेतों में जैव सुरक्षा प्रबंधन योजना, किनारे लगने वाली पंक्ति  के  प्रबंधन की योजना और स्थानीय एवं देशज किस्मों एवं जंगली पौधों की सुरक्षा की तकनीक शामिल हैं।  बीएआरआई ने स्वीकार किया है कि उसने फसल लगाने के पहले खेतों का दौरा नहीं किया था । इसके अतिरिक्त यह समाचार भी है कि गलत प्रकार की लेबलिंग के कारण नागरिक इस बात को लेकर पूरी तरह से अनजान थे कि वे क्या खरीद रहे हैं ।
    बीटी बैंगन को सर्वप्रथम मूलत: महिको, जो कि मोंसेंटो की भारतीय सहायक कंपनी है, ने भारत में खेती करने के लिए विकसित किया था । परंतु भारत में इसके व्यापारिक उत्पादन पर तब तक के लिए स्थगन लग गया जब तक कि स्वतंत्र नियामक प्राधिकारी अपना स्वयं का सुरक्षा परीक्षण न कर ले । फिलिपीन्स में भी सन् २०११ में खेतों में परीक्षण इसलिए रोक दिया गया क्योंकि शोधकर्ताओं ने इस हेतु पूरी तरह से जरूरी सार्वजनिक विचार विमर्श नहीं किया था । उसके बाद यह तकनीक स्थानीय बांग्लादेशी किस्मों को स्थानांतरित एवं उनमें विस्तारित कर दी गई । इतना ही नहीं सन् २०१३ में महिको द्वारा वही सुरक्षा आंकड़े जो कि उसके भारत में अस्वीकृत फसल हेतु प्रयोग में लाए गए थे, के आधार पर इसको अनुमति दे दी गई । यहां सुरक्षा परीक्षण मात्र ३ माह की अवधि के लिए किए गए, जिससे स्पष्ट तौर पर दीर्घावधि में होने वाले दुष्परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है ।
    बीटी फसलों पर हुए स्वतंत्र अध्ययन पहले ही इनमें व्याप्त जहरीलापन, प्रतिरोधक शक्ति  में कमी, आंतरिक अंगों को नुकसान एवं सांस संबंधी समस्याओं के बारे में बता चुके हैं । इसके पूर्व ग्रीनपीस इंडिया के  लिए प्रोफेसर सेरालिनी और उनका समूह भारत के लिए नियत बीटी बैंगन की किस्मों के जहरीलेपन का अध्ययन कर चुके हैं । उन्होंने पाया था कि इसमें असंतुलित पोषण, चूहों और बकरियों के रक्त रसायन पर प्रभाव, दूध देने वाली गायों में वजन का बढ़ना एवं मोटा चारा पदार्थ खाने में वृद्धि शामिल हैं । इसके अलावा चूहों में पानी का बढ़ता उपभोग, लीवर (यकृत) के  वजन में कमी और लीवर व शरीर के वजन के अनुपात के अंतर में घट बढ़ एवं दस्त लगना भी देखने में आए हैं ।
    दुर्भाग्यवश बांग्लादेश की जैवसुरक्षा नियमन प्रणाली काफी कमजोर है तथा जहरीलापन मापने की उसकी अपनी प्रयोगशाला भी नहीं    है । इस वजह से वह आसानी से जीएम निगमों (कारपोरेशन) एवं संस्थानों के शोषण का शिकार हो रहा है। बीटी बैंगन के बांग्लादेश मेंे होने वाले उत्पादन के फलस्वरूप उत्पन्न संकर परागण से सीमा से लगे भारत जैसे देश भी प्रभावित होंगे । अतएव जीनांतरित संदूषण केवल बांग्लादेश की चिंता का विषय नहीं है । भारत द्वारा इसकी खेती प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद इसकी सीमा के नजदीक ही पायलेट योजना मूर्त रूप ले रही    है । पहले भी ऐसा हो चुका है कि जीएम फसलें सीमा पार तक फैली हैं और ब्राजील जैसे देशों को जीएम फसलों की वैधानिकता को ही चुनौती देना पड़ी थी । गौरतलब है कि यदि यह फसल एक बार बढ़ना शुरू कर देती है तो इसको हटाना बहुत कठिन है । ऐसा भारत के साथ भी हो सकता है ।
    एक अन्य विवाद इस फसल के बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर है । इसके बारे में दावा किया गया है कि स्वतंत्र रूप से बांग्लादेशी सार्वजनिक संस्थानों की संपत्ति है । जबकि बीटी तकनीक अभी भी महिको, महाराष्ट्र हाइब्रीड सीड कंपनी लि. की संपत्ति है । हालांकि इस पायलेट योजना के अंतर्गत किसानों को बीज मुफ्त में और बिना किसी रॉयल्टी के बांटे गए हैं, लेकिन इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि बौद्धिक संपदा अधिकार भविष्य में एक मुद्दा बन सकता है ।
    त्रिपक्षीय अनुबंध, जिसे सतगुरु समझौते के नाम से जाना जाता है पर १४ मार्च २००५ को बी.ए.आर.आई. महाराष्ट्र हाईब्रीड सीड कंपनी लि. एवं सतगुरु मैनेजमेंट कंसल्टेंट के बीच हस्ताक्षर हुए । जिसके अंतर्गत बीटी बैंगन से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार महाराष्ट्र हायब्रीड सीड कंपनी के पास ही    रहेंगे । इस समझौते में महाराष्ट्र हाईब्रीड सीड कं. लि. उप लाइसेंसर है और बीआरएआई सब लाइसेंसी और वह बांग्लादेश में कृषि जैव तकनीक सहायता परियोजना-२, परियोजना में सहभागी भी है ।
    इतना ही नहीं यदि पॉयलेट योजना के बाद बड़े स्तर पर खेती की अनुमति दे दी गई तो बीटी जीन के साथ सैकडों नई किस्में (जीएम पेटेंट) विकसित हो जाएंगी । किसान तो अब कारपोरेट लड़ाई में फंस गए हैंऔर इस नई तकनीक की वजह से उनकी आजीविका संकट में है । इतना ही नहीं इससे उनकी खेती और स्वास्थ्य भी दीर्घकालिक जोखिम में फंस गए हैं । इस पायलट योजना की असफलता एक तरह से तो किसानों के लिए शुभ है और किसानों का इससे दूर रहना ही बेहतर है ।
ज्ञान विज्ञान
परजीवी लताएं पेड़ों को आसमानी बिजली से बचाती हैं
    उष्ण कंटिबंध के जंगलों में पेड़ों पर लताएं लिपटी होती हैं और इनकी तादाद बढ़ती जा रही है । खास तौर पर पनामा के जंगलों में लियाना नामक लताआें की तादाद तेजी से बढ़ी   है । ये लताएं पेड़ों पर सहारे के लिए परजीवी हैं । ये पेड़ों के सहारे ऊपर चढ़कर जंगल के ऊपरी हिस्से को ढंक देती हैं । इसके चलते पेड़ों को पर्याप्त् रोशनी नहीं मिल पाती । 
     मगर कुछ शोधकर्ताआें का मत है कि ये लताएं पेड़ों को सिर्फ नुकसान नहींपहुंचाती बल्कि उनकी रक्षा भी करती हैं । खास तौर से जब बिजली गिरती है तो लताएं तड़ित चालक की तरह काम करते हुए पेड़ को जलने से बचा लेती हैं क्योंकि सारी बिजली लताआें में होकर जमीन में चली जाती है । हालांकि अभी इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है मगर एक बात जरूर देखी गई है । इन लताआें की विद्युत चालकता उन पेड़ों से कम होती है जिन पर ये लिपटती हैं ।
    जुलाई में लुई विले विश्वविद्यालय के इकॉलॉजीविद स्टीव यानोविएक के नेतृत्व में एक दल पनामा के बारो कोलेरेडो द्वीप पर इसी बात का अध्ययन करने को रवाना होने वाला    है ।
     ऐसा देखा गया है कि जब सम-शीतोष्ण इलाकोंके जंगलोंमें बिजली गिरती है तो जंगल में आग लग जाती है और काफी बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाता है । मगर उष्ण कटिबंध के बरसाती जंगलों में आम तौर पर काफी नमी होती है और वहां आग नहीं लगती, सिर्फ कोई एक पेड़ तबाह हो जाता है । मगर ऐसा माना जा रहा है कि धरती के गर्म होने के साथ आसमानी बिजली का असर ज्यादा होगा । जैसे, नासा द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक यदि धरती का तापमान ४.२ डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो बिजली गिरने की घटनाआें में ३० प्रतिशत की वृद्धि होगी । इसके अलावा धरती गर्माने की वजह से सूखे की स्थिति भी विकट होगी और बिजली गिरने के असर कहींज्यादा भयानक होंगे ।
    ऐसी बदली हुई परिस्थिति में यदि लियाना पेड़ों को आसमानी बिजली से सुरक्षा प्रदान करती है तो यह एक बड़ी बात होगी । पिछले वर्षो में बारो कोलेरेडो द्वीप के पेड़ों पर लियाना की तादाद खूब बढ़ी है । जहां १९६८ में मात्र ३२ प्रतिशत पेड़ों पर लियाना लिपटी थीं, वहीं २००७ में ७५ प्रतिशत पेड़ लियाना को सहारा दे रहे थे ।
    यानोविएक ने ही यह पता लगाया है कि पेड़ों की शाखाआें और तने की बनिस्बत लियाना के तने विद्युत के बेहतर चालाक होते हैं । इसलिए अब वे अध्ययन करना चाहते हैं कि क्या चालकता में इस अंतर का पेड़ों को कोई लाभ मिलता है । वे यह करने जा रहे हैं कि पेड़ों और लियाना पर बिजली गिराएंगे । इसके लिए उन्होंने एक उपकरण बनाया है जिसकी मदद से वे आसमान से गिरती बिजली को किसी पेड़ या किसी लियाना की ओर मोड़ सकते हैं । वैसे कई लोगों का मानना है कि पेड़ों और लियाना की विद्युत चालकता में इतना अंतर नहीं है कि बिजली गिरने पर कोई फर्क पड़े मगर यानोविएक को लगता है कि करके देखने मेंक्या बुराई है ।

घोंघे गोवा में समुद्री प्रदूषण के संकेतक हैं

    हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि गोवा के समुद्र में कई विषैले प्रदूषकों की स्थायी छाप समुद्री जीवों के डीएनए पर देखी जा रही है । वैज्ञानिकों का मत है कि इनमें से कुछ प्रजातियों का उपयोग पानी में प्रदूषकों की निगरानी के लिए किया जा सकता है ।
    गोवा के समुद्र मेंआसपास के शहरों का मल-जल, उद्योगों का अपशिष्ट जल और मालवाहक जहाजों तथा मोटर बोटों से काफी मात्रा में रिसने वाला तेल पहुंचता है । इनमें पोलीसायक्लिक एरोमैटिक हायड्रो-कार्बन (पीएएच) और भारी धातुएं होती हैं । खासतौर से पीएएच डीएनए को क्षति पहुंचाते हैं । 
     गोवा में करंजलेम स्थित एन्वायरो-केयर के अनुपम सरकार और उनके साथियों ने गोवा के ९ तटों- अरम्बोल, अंजुना, सिंकेरिम, दोना पौला, होलांट, वेलसाओ, बेतुल और पेलोलेम - से कई सारे घोंघे (मॉरूला ग्रेनुलेटा) एकत्रित किए । प्रयोगशाला में इनमें से डीएनए निकाला गया और उसका अध्ययन किया गया ताकि जेनेटिक क्षति के स्तर का अंदाज लग सके । इसके साथ ही टीम ने हर जगह के पानी की गुणवत्ता को भी नापा । इसके अन्तर्गत पानी का तापमान, अम्लीयता, लवणीयता, पीएएच और नाइट्रेट व फॉस्फेट लवणों की मात्रा का मापन किया गया ।
    इकोटॉक्सिकोलॉजी एण्ड एन्वायमेंटल सेफ्टी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन से पता चला कि उन तटों के घोंघों में ज्यादा जेनेटिक क्षति हुई थी । जहां के तलछट में कैंसरकारी पीएचए की सांद्रता ज्यादा थी । दो तटों-सिंकेरिम और होलांट - के घोंघों में जेनेटिक क्षति सबसे अधिक पाई गई । ये वे तट हैं जहां मालवाहक जहाजों, मत्स्य ट्रालर्स, पर्यटक नौकाआें से रिसने वाले तेल के अलावा उद्योगों का कचरा भी सबसे ज्यादा मात्रा में पहुंचता है । ये सभी पीएएच के स्त्रोत हैं । देखा गया कि जेनेटिक क्षति का संबंध लवणीयता और नाइट्रेट फॉस्फेट की सांद्रता से भी है ।
    अनुपम सरकार के मुताबिक इस तरह के अध्ययन निरन्तर होते रहने चालिए ताकि समुद्री जीवों पर बदलते पर्यावरण के असर का आकलन किया जा सके । इसके अलावा ये मानते हैं कि समुद्री घोंघों में होने वाली जेनेटिक क्षति एक प्रकार का संकेतक है जिसके आधार पर हम समुद्री प्रदूषण का आकलन कर सकते हैं ।

एंटीबायोटिक युग का अवसान

    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि एंटीबायोटिक युग समाप्त् होने को है और हम एंटीबायोटिक पश्चात युग की दहलीज पर खड़े हैं । संगठन ने इसे एक एक वैश्विक संकट निरूपति करते हुए एक विश्व व्यापी निगरानी नेटवर्क स्थापित करने की जरूरत जताई है ।
    १२९ सदस्य देशों से प्राप्त् आंकड़ों के अ?ाधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में संगठन ने बताया है कि दुनिया के हर इलाके में एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध पैदा हो चुका है । इसके लिए मुख्य रूप से एंटीबायोटिक औषधियों का अंधाधुंध इस्तेमाल जिम्मेदार है । 
     सूक्ष्मजीवों में एंटीबायोटिक औषधियों के खिलाफ प्रतिरोध पैदा होने का मतलब यह है कि साधरण से संक्रमण और छोटी-मोटी चोटें भी जानलेवा साबित हो सकती है । एंटीबायोटिक औषधियां इन संक्रमणों को आसानी से संभालती रही हैं । रिपोर्ट के मुताबिक खास चिंता का विषय यह है कि कार्बनपेनीम नामक एंटीबायोटिक के खिलाफ भी प्रतिरोध पैदा हो गया है । रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के कुछ इलाकों में कई रोगों के जनक ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया के आधे संक्रमण कार्बनपेनीम के प्रतिरोधी हो चुके हैं ।
    दिक्कत यह है कि कार्बपेनीम फिलहाल हमारे पास आखरी हाथियार है और इसका कोई विकल्प नहीं है । विकल्प की खोज के लिए जिस तरह के संसाधनों की जरूरत है, उनका अभाव है । जैसे कंपनियों को नए एंटीबायोटिक की खोज के अनुसंधान पर धन लगाने का कोई उत्साह या प्रलोभन नहीं है । वैसे भी शोधकर्ताआें के लिए ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया के खिलाफ औषधि विकसित करना मुश्किल रहा है ।
    संगठन के मुताबिक सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि अधिकांश देशों के पास एंटीबायोटिक प्रतिरोध संबंधी व्यवस्थित जानकारी भी नहीं है और न ही ऐसी जानकारी जुटाने की व्यवस्था है । वैसे एंटीबायोटिक प्रतिरोध पिछले एक दशक से एक समस्या रहा है मगर कोई विश्व व्यापी निगरानी तंत्र विकसित नहीं हो पाया है । मात्र २२ देशों के पास ९ ऐसी एंटीबायोटिक-बैक्टीरिया जोड़ियों के बारे में जानकारी थी जो आज सबसे अधिक चिंता के सबब है और निकट भविष्य में भी ऐसे किसी निगरानी तंत्र की स्थापना के आसार नहीं है क्योंकि इसके लिए जरूरी धन नहीं है और न ही किसी ने इसका वायदा किया है ।
कविता
पशु-पक्षी संरक्षण
गौरी शंकर वैश्य   विनम्र 
पर्यावरण संतुलन हित शुभ, पशु-पक्षी संरक्षण ।
वन-उपवन के बीच बसा है, जीव-जन्तुआें का संसार ।
हरे-भरे तरू की शाखाएं, सबको लुटा रही है प्यार ।
रंग-बिरंगी चिड़ियों की है, गूंज रही मीठी बोली ।
कोयल, बुलबुल, मोर, पपीहा, शुक, गौरेया की टोली ।
परोपकार मान कर प्रकृति का, करते स्नेहार्पण ।
पर्यावरण प्रदूषण घातक, घटती जाती हरियाली ।
बहु-प्रजातियां नष्ट हो चुकी, कुछ सहसा जाने वाली ।
जीवों पर आया है संकट, वन कट गए कहाँ जाएँ ।
नहीं मिल रहा भोजन-पानी, कैसे प्राण बचा पाएँ ।
वातावरण मिले तब होगा, जीवन का अनुरक्षण ।
सभी जीव है पात्र दया के, मानव के हित हितकारी ।
सुख से धरती पर रहने के, सब समान हैंअधिकारी ।
नहीं क्रूरता-भय दिखलाओ, स्वार्थवृत्ति को त्यागो ।
महानाश क्यों बुला रहे हो, सोचो ! अब तो जागो ।
शाकाहारी बनो, त्याग दो, जीव-जन्तु का भक्षण ।
नए चतुर्दिक वृक्ष लगाओ, मिले सरस फल-छाया ।
रंग-बिरंगे फूल खिलाओ, रहे निरोगी काया ।
फिर जंगल में मंगल होगा, झूमेंगे भौरे-तितली ।
कुहू-कुहू, पिउ-पिउ स्वर होगा, उछलेगी जल में मछली ।
महकेगा विनम्र घर-आंगन, स्वच्छ-स्वस्थ हो जन-गण ।
पर्यावरण संतुलन हित शुभ, पशु-पक्षी संरक्षण ।
पर्यावरण समाचार
कूनो अभयारण्य का क्षेत्र होगा दोगुना
    गिर (गुजरात) के सिंहों (शेर) के लिए, मध्यप्रदेश के पालनपुर-कूनो अभयारण्य (श्योपुर) का क्षेत्र बढ़ाया जाएगा । इसमें ३०४ वर्ग किलोमीटर को अभयारण्य क्षेत्र में जोड़ा जाएगा । इस तरह सिंहों के लिए कूनो अभयारण्य का क्षेत्र ६०० वर्ग किलोमीटर से ज्यादा का हो  जाएगा । शेर अपने परिवार के साथ यहां रह पाएंगे ।
    सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सिंहों को लाने का रास्ता करीब-करीब साफ हो चुका है । नई दिल्ली में कुछ एनजीओ की याचिका और लगी है । उन पर फैसला होते ही मध्यप्रदेश का वन विभाग शेरों को लाने की तैयारी शुरू कर देगा ।
    सूत्र बताते हैं कि बीते दिनों दिल्ली में हुई बैठक में वन्य प्राणी की एक्सपर्ट कमेटी ने मध्यप्रदेश के वन विभाग को अभयारण्य का क्षेत्र बढ़ाने को कहा था । उक्त आदेश के बाद विभाग ने कूनो अभयारण्य क्षेत्र का सर्वे कराया । सर्वे का काम पूरा हो चुका है ।
    सर्वे के बाद कूनो अभयारण्य के एरिया में ३०४.५९६ वर्ग किलोमीटर का एरिया और जोड़ा जाएगा । इसके साथ ही अभयारण्य का कुल क्षेत्र ६५९.२८२ वर्ग किलोमीटर हो जाएगा । कुल रेंज २ की जगह ४ हो जाएगी । इनमें मुरावन पूर्व और मुरावन पश्चिम रेंज और शामिल कर ली जाएंगी ।
    कूनो अभयारण्य का वर्तमान क्षेत्र ३४४,६८६ वर्ग किलोमीटर है । इसमेंदो रेंज पालपुर पूर्व और पालपुर पश्चिम रेंज आती है । अभयारण्य क्षेत्र के लिए वनमण्डलाधिकारी भी अलग से पदस्थ है ।

इन्दौर के वैज्ञानिक ने खोजा ६ करोड़ साल पुराना जीवाश्म
    मध्यप्रदेश के इन्दौर में होलकर साइंस कॉलेज में प्राणी विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. विपुलकीर्ति शर्मा ने ६ करोड़ वर्ष पुराना जीवाश्म खोज निकाला है । वैज्ञानिकों ने उनकी इस खोजा का श्रेय उन्हें देते हुए जीवाश्म का नामकरण शर्मा के नाम पर कर दिया है । उनके द्वारा खोजे गए सीअर्चिन को दुनिया अब स्टिरियोसिडेरिस कीर्ति के नाम से जानेगी । प्राणी विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय फोरम ने स्वीकार किया है कि स्टिरियोसिडेरिस एक नई खोज है, जो इसके पूर्व विश्व में कहीं नहीं मिली । अब किताबों में जहां भी उक्त जीवाश्म का नाम आएगा । डॉ. शर्मा का नाम भी लिया जाएगा ।
    डॉ. शर्मा ने बताया, यह जीवाश्म २००६-०७ के दौरान मनावर के जीराबाद गांव में करोदिया मान-सुकर नदी के क्षेत्र में मिला था । इसका व्यास ५० मिमी और ऊंचाई ३८ मिमी है । क्रीमी पिंक कलर का यह जीवाश्म ६ से १० करोड़ वर्ष पुराना है । यह जिस जीव का जीवाश्म है, वह समुद्र के उथले जल में पाया जाता होगा ।
    डॉ. शर्मा बताते हैं ६ करोड़ वर्ष पूर्व इन्दौर समुद्री किनारे पर था । अरब सागर उस वक्त टेथिस समुद्र     था । टेथिस की एक भुजा गुजरात के कच्छ से पश्चिम निमाड़ होती हुई जबलपुर तक फैली थी ।
    यही क्षेत्र आज नर्मदा वैली के नाम से जान से जाना जाता है । मध्यकाल के मीजोजोईक इस में टेथिस की गहराई बढ़ जाने के कारण उथले समुद्री किनारों पर पाये जाने वाले जीव विलुप्त् हो गए ।
    कालांतर में टेथिस समुद्र की यह भुजा भौगोलिक परिवर्तनों के कारण समाप्त् हो गई और अपने पीछे जीवाश्मों का खजाना छोड़ गई । ये जीवाश्म राष्ट्र की बहुमूल्य संपत्ति और धरोहर है ।
ऐसे तो गंगा २०० साल में भी साफ नहीं हो पाएगी
    पिछले दिनों धार्मिक आस्था से जुड़ी गंगा नदी की साफ-सफाई के लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाई जा रही योजना को सुप्रीम कोर्ट से बड़ा झटका लगा है । सरकार ने गंगा को निर्मल बनाने के लिए अपना एक्शन प्लान पेश किया, तो शीर्ष अदालत ने इसे तल्ख टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया ।
    कोर्ट ने कहा, आप जिस योजना में गंगा की सफाई का खाका खींच रहे है, उससे तो २०० साल में भी ये नदी साफ नहीं हो पाएगी । आपको ऐसे कदम उठाने चाहिए कि गंगा की ऐतिहासिक शान लौटे और आने वाले पीढ़िया उसे निर्मल रूप में देख सके । हमें तो पता नही हम उसे देख पाएंगे या नहीं । केन्द्र सरकार को  फटकार लगाते हुए कोर्ट ने कहा कि आप तीन हफ्ते में एक चरणबद्ध योजना पेश करें, जिसमें इस नदी को साफ करने की सटीक योजना का व्यवस्थित ब्यौरा हो । कोर्ट ने कहा कि हमें यह नहीं जानना कि आप क्या समिति बना रहे है और कौन सी समिति कौन सा काम करेगी ।