रविवार, 7 सितंबर 2014

सामयिक
पर्यावरण संरक्षण, कल का आधार
पुनीत कुमार पण्ड्या
    पर्यावरण प्रदूषण की समस्याआें को मद्देनजर रखते हुए सन् १९७२ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टॉक होम (स्वीडन) में पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विश्वभर के समस्त देशों को आमंत्रित किया गया ।
    विश्व के इस प्रथम पर्यावरण सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का उद्भव हुआ जिसका उद्देश्य हर वर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर नागरिकों में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का विकास करना एवं बढ़ते प्रदूषण की समस्या से परिचय करवाना था । इसका एक अन्य प्रमुख उद्देश्य पर्यावरणीय  जागरूकता लाने के साथ ही राजनैतिक चेतना जागृत कर आम जनता को प्रेरित करना था । तभी से हम प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे हैं । 
     वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण के संदर्भ मेंएक भयावह सच यह है कि मानवीय स्वार्थलोलुपता एवं बढ़ती भौतिकतावादी संस्कृति ने जहाँ सुख सुविधाआें के नवीनतम आधुनिक स्वरूपों को जन्म दिया है वहीं प्रकृति की निरन्तर उपेक्षा एवं प्राकृतिक संसाधनों को अत्यधिक एवं अविवेकशील दोहन पृथ्वी व मानव दोनों ही के लिये अभिशाप बनते जा रहा है । तेजी से बढ़ते जनसंख्या, कंक्रीट के जंगलों को निरन्तर फैलाव, सिकुड़ती वन-सम्पदा, अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत एवं निरन्तर पराजीत होती वन्य जीव सम्पदा, जीवनदायिनी पृथ्वी की छाती में गहरे घाव कर सदैव कुछ पाने की अंधी लालसा में सर्वविनाश की और बढ़ते मानवीय कदम थमने की बजाए बढ़ते चले आ रहे हैं, आश्चर्यजनक ही नहीं घोर चिन्ता का विषय है ।
    ममतामयी प्रकृतिकी छत्र छाया में फलने-फूलनेे, प्रकृति के सानिध्य मेंरहकर जीवन की उत्कृष्टताहआें एवं असमिति आनंद की प्रािप्त् की बजाए उससे विमुख होते मानव की दशा ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार एक बच्च अपनी मॉ से विलग होकर बड़ा तो हो जाता है परन्तु मातृत्व सुख एवं संस्कार के अभाव में संवेदनाआें एवं मूल्यों से शून्य हो जाता है ।
    हमने, अतिमहत्वाकांक्षा युक्त साहस प्रवृत्ति, भौतिकवादी बौद्धिकता, स्वार्थलोलुप कामनाआें एवं दिखावे की मायावी संस्कृतिमें अपने स्वरूप तथा आकार का फौलाव तो कर लिया है परन्तु हमें यह कदापि नहीं भुलना चाहिए कि अपनी जड़ों से कटने के पश्चात् हमारी वह गति होनी है जो कि नींव कमजोर होने पर विशालकाय एवं भव्य इमारत के विध्वन्स का सबब बनती है ।
    निरन्तर गर्म होती पृथ्वी, अमृत जल के स्थान पर कल-कारखानों द्वारा रात-दिन उत्सर्जित हलाहल विष रूपी रसायनों को अपने अंतर में समाए विनाशिका की पर्याय बनती जा रही जल वाहिनियाँ, अपनी मर्यादाआें को लांघता समुद्र, सतत विश्व पटल पर उभरती प्राकृतिक आपदाआें की नीत नई इबारतें, परिवर्तनशील जलवायु, सौगंधिक निर्मल एवं स्वच्छ प्राणवायु के स्थान पर पृथ्वी पर रेंगते यातायात साधनों से निकलती प्राणघातक हवाएँ, वातावरण में बढ़ती विकिरणों की मात्रा, विभिन्न देशों द्वारा युद्ध संबंधी वैचारिक भय से उत्पन्न विनाशकारी शस्त्रों का सतत निर्माण एवं परीक्षण तथा इससे जर्जारीत होता प्राकृतिक संतुलन, इस सृष्टि को चित्ताकर्षक बनाने वाले वन्य जीवों, पक्षियों एवं वनस्पतियों की खत्म होती प्रजातियां, मीठे पानी के स्त्रोतों का ह्वास भविष्य के मानव जीवन पर प्रश्न चिन्ह       हैं ।
    पिछले कुछ दशकों में हमारे द्वारा किए गए दुष्कृत्यों का फल उपरोक्त लिखी इन विविध प्रताड़नाआें के रूप में हम भुगत रहे हैं । अब भी समय है, स्वयं से प्रश्न करने का, इस तरह हम हमारी आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में क्या देने जा रहे  हैं ? अब भी समय है भौतिकवादी मायावी तंद्रा से निकलकर जागृत होने का जिससे हम इस गृह की खुबसुरत छवि को फिर से लौटा सकते हैं ।
    हमें पर्यावरण के द्वारा दिए गए अनेक जीवनोपयोगी उपहारों हेतु कृतज्ञ होना चाहिए । हमेंचाहिए कि हम बच्चें में प्रकृतिप्रेम एवं संरक्षण रूपी संस्कारों का बीजारोपण कर सकें । उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि प्रकृति हमारी माँ है, उसकी ममतामयी छांव में जीवन पोषण होता है । इसमें कोई शक नहीं पिछले कुछ वर्षो में हमारा ध्यान विविध पर्यावरणीय समस्याआें एवं उनके समाधनों की तरफ गया    है । पर्यावरण संरक्षण हेतु कुछ उपाय एवं जनचेतना कार्य जो किए जा सकते हैं, वे निम्न हो सकते हैं -
    (१) सिर्फ भाषण व्याख्यानों के स्थान पर क्रियान्वयन का बढ़ावा देना ।
    (२) पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन रैलियों का आयोजन शहरों व कस्बों तक ही सीमित ना होकर  गॉवों, सुदूर ढाणियों एवं फलों तक करना ।
    (३) सरकारी व गैर सरकारी संगठनों द्वारा सतत जन चेतना कार्यक्रमोंका आयोजन एवं मुहिम चलाना ।
    (४) शहरों की सड़कों पर लगे विज्ञापन बोर्ड, विभिन्न-पत्र-पत्रिकाआें में पर्यावरण संरक्षण हेतु जागरूकता विज्ञापन समय-समय पर देना ।
    (५) विभिन्न धर्मोे के धर्मगुरूआें द्वारा अपने प्रवचनों में पर्यावरण संरक्षण आधारित श्रुतिलेखों, परम्परागत विधियाँ इत्यादि का समावेश कर जागृति लाना ।
    (६) विभिन्न कक्षाआें के पाठ्यक्रमों में नए, लेख, कहानियों, कविताआें, नाटकों तथा निबन्धों को जोड़ना जो विद्यार्थियों के कोमल    मन में प्रकृतिप्रेम का अंकुरण कर सकें ।
    (७) बड़ी कक्षाआें के विद्यार्थियों को प्रोजेक्ट के रूप में विविध पर्यावरणीय समस्याआें पर कार्य देना एवं विभिन्न विद्यालयों द्वारा वर्ष में २ बार समायोजित कार्यक्रम (सेमीनार प्रदर्शनी) इत्यादि का आयोजन करना  ।
    (८) अभिभावकों द्वारा अपने बच्चें को उनके जन्म दिवस पर एक पौधा रोपने एवं उसकी सार संभाल कर बड़ा करने हेतु प्रेरित करना ।
    (९) वर्तमान में बढ़ता कागज प्रदूषण सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है, कम से कम कागज का अधिक से अधिक सदुपयोग करना ।
    (१०) प्लास्टिक/पॉलीथीन की थैलियों का उपयोग अत्यन्त सीमित मात्रा में करना  ।
    (११) जल की एक बंूद भी व्यर्थ ना बहाएं - स्वच्छ जल का दुरूपयोग ना करें ।
    समाज के आयु वय में बड़े व्यक्तियों को चाहिए कि वे स्वयं कठोर अनुशासन द्वारा युवा पीढ़ी के समक्ष  उदाहरण प्रस्तुत करें जैसे -
    (१) कचरा डालने हेतु कचरा पात्र का उपयोग करना ।
    (२) किराने का सामान अथवा सब्जियाँ खरीदने हेतु कपड़े का थैला घर से लेकर जाना ।
    (३) वाहनों को धोने हेतु घर में अन्य कार्यो में उपयोग में लिए गए जल को निस्तारित कर उपयोग में लेना ।
    (४) वाहनों को अनावश्यक उपयोग टालना ।
    (५) वर्षा के मौसम में वर्षा जल संरक्षण तकनीक का उपयोग कर वर्षा जल को व्यर्थ बहने से रोकना ।
    किसी भी स्थान विशेष का जैव विविधता अर्थात् पाए जाने वाले विभिन्न जीवधारी एवं उनकी विविध जातियाँ प्रधान रूप से उसकी जलवाययीय विविधता पर निर्भर करती है । हमें गर्व होना चाहिए कि संसार में विद्यमान समस्त प्रकार की जलवायुवीय एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ भारत में विद्यमान हैं । फलस्वरूप हम इस क्षेत्र में सदैव समृद्ध रहे हैं । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिके साथ खिलवाड़ एवं दोहन को रोका नहीं गया तो भविष्य में इस विरासत कोे हमें हमेशा के लिए हमें खो देना पड़ेगा । 

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