रविवार, 7 सितंबर 2014

प्रसंगवश
राष्ट्र भाषा की अनदेखी शर्मनाक
    भारतीय भाषाआें के पिछड़ने के लिए हमारी शासन व्यवस्था और सरकारें भी जिम्मेदार हैं । लेकिन भारतीय भाषाआें के विकास में सबसे बड़े बाधक सरकारी नौकरशाह है । भारतीय भाषाआें के प्रश्रय और संरक्षण के लिए नियम और कानून बने हुए हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है । जिसके लिए नौकरशाही ज्यादा जिम्मेदार है ।
    अब यह सब केन्द्र सरकार की नाक के नीचे राजधानी दिल्ली में भी चल रहा है । संविधान के अनुच्छेद ३५१ के अनुसार हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना संघ का कर्तव्य होगा और अनुच्छेद ३४४ के अनुसार अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने और अंग्रेजी के प्रयोग पर बंधन लगाने का भी खुला विरोध किया गया है । राष्ट्रभाषा हिन्दी के संबंध में १८ जनवरी १९६८ को एक संसदीय संकल्प पारित किया गया जिसका पालन करना अनिवार्य है । सरकार की नाक के नीचे ही इस कानून की धज्जियां उड़ रही है । संसदीय संकल्प का पालन कड़ाई से होना चाहिए । कानूनों का पालन न करना राष्ट्रदोह की श्रेणी में आता है जिसके लिए कठोर सजा हो सकती है।  शासन को इस बात का अहसास कराने की जरूरत है ।
    हमारे अखिल भारतीय अंगे्रजी अनिवार्यता विरोधी मंच का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाआें को सम्मान दिलाना है । हमारा मानना है कि भर्ती परीक्षाआें में अंग्रेजी विकल्प समाप्त् किया जाना चाहिए । जब नौकरी के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त् हो जाएगी  और अपनी भाषाआें का प्रचलन बढ़ेगा तो लोग खुद ही राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषाआें को अपनाएंगे । भर्ती परीक्षाआें में अंग्रेजी की समािप्त् के बाद ही भारतीय भाषाआें का प्रसार संभव है । इसीलिए हमारा जोर भर्ती परीक्षाआें से अंग्रेजी का समाप्त् करने को है । कई विदेशी ताकते भारत मेंअंगेे्रजी को बढ़ावा देने में सक्रिय है, इसे रोकने के लिये समाज और सरकार दोनों को ही मिलकर रणनीति बनानी होगी ।
मुकेश जैन, अ.भा. अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच, दिल्ली

कोई टिप्पणी नहीं: