रविवार, 7 सितंबर 2014

ज्ञान विज्ञान
परजीवी लताएं पेड़ों को आसमानी बिजली से बचाती हैं
    उष्ण कंटिबंध के जंगलों में पेड़ों पर लताएं लिपटी होती हैं और इनकी तादाद बढ़ती जा रही है । खास तौर पर पनामा के जंगलों में लियाना नामक लताआें की तादाद तेजी से बढ़ी   है । ये लताएं पेड़ों पर सहारे के लिए परजीवी हैं । ये पेड़ों के सहारे ऊपर चढ़कर जंगल के ऊपरी हिस्से को ढंक देती हैं । इसके चलते पेड़ों को पर्याप्त् रोशनी नहीं मिल पाती । 
     मगर कुछ शोधकर्ताआें का मत है कि ये लताएं पेड़ों को सिर्फ नुकसान नहींपहुंचाती बल्कि उनकी रक्षा भी करती हैं । खास तौर से जब बिजली गिरती है तो लताएं तड़ित चालक की तरह काम करते हुए पेड़ को जलने से बचा लेती हैं क्योंकि सारी बिजली लताआें में होकर जमीन में चली जाती है । हालांकि अभी इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है मगर एक बात जरूर देखी गई है । इन लताआें की विद्युत चालकता उन पेड़ों से कम होती है जिन पर ये लिपटती हैं ।
    जुलाई में लुई विले विश्वविद्यालय के इकॉलॉजीविद स्टीव यानोविएक के नेतृत्व में एक दल पनामा के बारो कोलेरेडो द्वीप पर इसी बात का अध्ययन करने को रवाना होने वाला    है ।
     ऐसा देखा गया है कि जब सम-शीतोष्ण इलाकोंके जंगलोंमें बिजली गिरती है तो जंगल में आग लग जाती है और काफी बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाता है । मगर उष्ण कटिबंध के बरसाती जंगलों में आम तौर पर काफी नमी होती है और वहां आग नहीं लगती, सिर्फ कोई एक पेड़ तबाह हो जाता है । मगर ऐसा माना जा रहा है कि धरती के गर्म होने के साथ आसमानी बिजली का असर ज्यादा होगा । जैसे, नासा द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक यदि धरती का तापमान ४.२ डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो बिजली गिरने की घटनाआें में ३० प्रतिशत की वृद्धि होगी । इसके अलावा धरती गर्माने की वजह से सूखे की स्थिति भी विकट होगी और बिजली गिरने के असर कहींज्यादा भयानक होंगे ।
    ऐसी बदली हुई परिस्थिति में यदि लियाना पेड़ों को आसमानी बिजली से सुरक्षा प्रदान करती है तो यह एक बड़ी बात होगी । पिछले वर्षो में बारो कोलेरेडो द्वीप के पेड़ों पर लियाना की तादाद खूब बढ़ी है । जहां १९६८ में मात्र ३२ प्रतिशत पेड़ों पर लियाना लिपटी थीं, वहीं २००७ में ७५ प्रतिशत पेड़ लियाना को सहारा दे रहे थे ।
    यानोविएक ने ही यह पता लगाया है कि पेड़ों की शाखाआें और तने की बनिस्बत लियाना के तने विद्युत के बेहतर चालाक होते हैं । इसलिए अब वे अध्ययन करना चाहते हैं कि क्या चालकता में इस अंतर का पेड़ों को कोई लाभ मिलता है । वे यह करने जा रहे हैं कि पेड़ों और लियाना पर बिजली गिराएंगे । इसके लिए उन्होंने एक उपकरण बनाया है जिसकी मदद से वे आसमान से गिरती बिजली को किसी पेड़ या किसी लियाना की ओर मोड़ सकते हैं । वैसे कई लोगों का मानना है कि पेड़ों और लियाना की विद्युत चालकता में इतना अंतर नहीं है कि बिजली गिरने पर कोई फर्क पड़े मगर यानोविएक को लगता है कि करके देखने मेंक्या बुराई है ।

घोंघे गोवा में समुद्री प्रदूषण के संकेतक हैं

    हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि गोवा के समुद्र में कई विषैले प्रदूषकों की स्थायी छाप समुद्री जीवों के डीएनए पर देखी जा रही है । वैज्ञानिकों का मत है कि इनमें से कुछ प्रजातियों का उपयोग पानी में प्रदूषकों की निगरानी के लिए किया जा सकता है ।
    गोवा के समुद्र मेंआसपास के शहरों का मल-जल, उद्योगों का अपशिष्ट जल और मालवाहक जहाजों तथा मोटर बोटों से काफी मात्रा में रिसने वाला तेल पहुंचता है । इनमें पोलीसायक्लिक एरोमैटिक हायड्रो-कार्बन (पीएएच) और भारी धातुएं होती हैं । खासतौर से पीएएच डीएनए को क्षति पहुंचाते हैं । 
     गोवा में करंजलेम स्थित एन्वायरो-केयर के अनुपम सरकार और उनके साथियों ने गोवा के ९ तटों- अरम्बोल, अंजुना, सिंकेरिम, दोना पौला, होलांट, वेलसाओ, बेतुल और पेलोलेम - से कई सारे घोंघे (मॉरूला ग्रेनुलेटा) एकत्रित किए । प्रयोगशाला में इनमें से डीएनए निकाला गया और उसका अध्ययन किया गया ताकि जेनेटिक क्षति के स्तर का अंदाज लग सके । इसके साथ ही टीम ने हर जगह के पानी की गुणवत्ता को भी नापा । इसके अन्तर्गत पानी का तापमान, अम्लीयता, लवणीयता, पीएएच और नाइट्रेट व फॉस्फेट लवणों की मात्रा का मापन किया गया ।
    इकोटॉक्सिकोलॉजी एण्ड एन्वायमेंटल सेफ्टी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन से पता चला कि उन तटों के घोंघों में ज्यादा जेनेटिक क्षति हुई थी । जहां के तलछट में कैंसरकारी पीएचए की सांद्रता ज्यादा थी । दो तटों-सिंकेरिम और होलांट - के घोंघों में जेनेटिक क्षति सबसे अधिक पाई गई । ये वे तट हैं जहां मालवाहक जहाजों, मत्स्य ट्रालर्स, पर्यटक नौकाआें से रिसने वाले तेल के अलावा उद्योगों का कचरा भी सबसे ज्यादा मात्रा में पहुंचता है । ये सभी पीएएच के स्त्रोत हैं । देखा गया कि जेनेटिक क्षति का संबंध लवणीयता और नाइट्रेट फॉस्फेट की सांद्रता से भी है ।
    अनुपम सरकार के मुताबिक इस तरह के अध्ययन निरन्तर होते रहने चालिए ताकि समुद्री जीवों पर बदलते पर्यावरण के असर का आकलन किया जा सके । इसके अलावा ये मानते हैं कि समुद्री घोंघों में होने वाली जेनेटिक क्षति एक प्रकार का संकेतक है जिसके आधार पर हम समुद्री प्रदूषण का आकलन कर सकते हैं ।

एंटीबायोटिक युग का अवसान

    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि एंटीबायोटिक युग समाप्त् होने को है और हम एंटीबायोटिक पश्चात युग की दहलीज पर खड़े हैं । संगठन ने इसे एक एक वैश्विक संकट निरूपति करते हुए एक विश्व व्यापी निगरानी नेटवर्क स्थापित करने की जरूरत जताई है ।
    १२९ सदस्य देशों से प्राप्त् आंकड़ों के अ?ाधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में संगठन ने बताया है कि दुनिया के हर इलाके में एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध पैदा हो चुका है । इसके लिए मुख्य रूप से एंटीबायोटिक औषधियों का अंधाधुंध इस्तेमाल जिम्मेदार है । 
     सूक्ष्मजीवों में एंटीबायोटिक औषधियों के खिलाफ प्रतिरोध पैदा होने का मतलब यह है कि साधरण से संक्रमण और छोटी-मोटी चोटें भी जानलेवा साबित हो सकती है । एंटीबायोटिक औषधियां इन संक्रमणों को आसानी से संभालती रही हैं । रिपोर्ट के मुताबिक खास चिंता का विषय यह है कि कार्बनपेनीम नामक एंटीबायोटिक के खिलाफ भी प्रतिरोध पैदा हो गया है । रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के कुछ इलाकों में कई रोगों के जनक ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया के आधे संक्रमण कार्बनपेनीम के प्रतिरोधी हो चुके हैं ।
    दिक्कत यह है कि कार्बपेनीम फिलहाल हमारे पास आखरी हाथियार है और इसका कोई विकल्प नहीं है । विकल्प की खोज के लिए जिस तरह के संसाधनों की जरूरत है, उनका अभाव है । जैसे कंपनियों को नए एंटीबायोटिक की खोज के अनुसंधान पर धन लगाने का कोई उत्साह या प्रलोभन नहीं है । वैसे भी शोधकर्ताआें के लिए ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया के खिलाफ औषधि विकसित करना मुश्किल रहा है ।
    संगठन के मुताबिक सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि अधिकांश देशों के पास एंटीबायोटिक प्रतिरोध संबंधी व्यवस्थित जानकारी भी नहीं है और न ही ऐसी जानकारी जुटाने की व्यवस्था है । वैसे एंटीबायोटिक प्रतिरोध पिछले एक दशक से एक समस्या रहा है मगर कोई विश्व व्यापी निगरानी तंत्र विकसित नहीं हो पाया है । मात्र २२ देशों के पास ९ ऐसी एंटीबायोटिक-बैक्टीरिया जोड़ियों के बारे में जानकारी थी जो आज सबसे अधिक चिंता के सबब है और निकट भविष्य में भी ऐसे किसी निगरानी तंत्र की स्थापना के आसार नहीं है क्योंकि इसके लिए जरूरी धन नहीं है और न ही किसी ने इसका वायदा किया है ।

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