मंगलवार, 18 दिसंबर 2018



सम्पादकीय
दिल्ली सरकार पर २५ करोड़ जुर्माना 
 देश की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण पर लगाम लगानेमें नाकाम रहनेपर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) नेदिल्ली सरकार पर २५ करोड़ रूपए  का जुर्माना लगाया है । यह रकम सरकारी खजाने से नहीं, बल्कि दिल्ली सरकार के अधिकारियों के वेतन और प्रदूषण फैलाने वाले लोगोंसे वसूली जाएगी । अगर दिल्ली सरकार यह राशि देनेमें नाकाम रहती है तोउससेहर महीने१० करोड़ रूपए का जुर्माना वसूला जाएगा । एनजीटी अध्यक्ष जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अगुवाई वाली पीठ नेदिल्ली सरकार को२५ करोड़ रूपए की अनुपालन गांरटी (परफॉरमेंस गारंटी) देनेका भी आदेश दिया है, ताकि इस संबंध में और चूक न हो। 
एनजीटी दिल्ली के मुडंका गांव के निवासी सतीश कुमार और टिकरी कालान के निवासी महावीर सिंह की याचिकाआें पर सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया । एनजीटी नेइनके अलावा प्रदूषण सेजुड़ी तकरीबन आधा दर्जन ऐसी याचिकाआें को भी इसमें शामिल कर लिया जिसमें पिछले आदेशों का पालन नहीं किया गया है । सतीश कुमार और महावीर की याचिकाआें में आरोप था कि मुंडका और नीलवाल गांवों में अवैध औद्योगिक इकाइयां बेरोकटोक चल रही हैं । 
इनमें प्लास्टिक, चमड़े, रबड़, मोटर इंजन तेल और अन्य अपशिष्ट पदार्थोंा को जलाने के कारण भारी प्रदूषण फैल रहा है । इन मामले में न्यायाधिकरण  ने दिल्ली के मुख्य सचिव को संबंधित नगर पालिकाआें, पुलिस और अन्य जिम्मेदार अधिकारियों के साथ समन्वय कर एनजीटी के आदेशोंका अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था। आदेश के अनुसार मुख्य सचिव को माह में कम से कम एक बार समन्वय बैठक आदेशों के अनुपालन तक करनी थी । 
इससे पहले अक्टूबर में भी एनजीटी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण पर रोक लगाने में कामयाब नहीं होने पर दिल्ली सरकार पर ५० करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया था । 
प्रसंगवश
२८ फीसदी अधिक है गैस पीड़ितों की बीमारियों से मौत का आंकड़ा
सन् १९८४ में २-३ दिसम्बर की दरमियानी रात जोजख्म भोपाल गैस त्रासदी सेलाखों लोगों कोमिलेवह आज भी हरेहै । बीमारियों सेमौतें, शुद्ध पानी नहीं मिलना, छोटे बच्चें में होरही जन्मजात बीमारियां जैसी कई समस्याएं आज भी हैं । हाल ही में तैयार की गई संभावना ट्रस्ट की रिपोर्ट भी चौकानेवाली  है । इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हर साल आम लोगों की अपेक्षा गैस पीड़ितों की बीमारियों के कारण मौत का आंकड़ा २८ प्रतिशत अधिक है । 
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सामान्य लोगों की अपेक्षा गैस पीड़ित लोगों में ६३ प्रतिशत अधिक बीमारियों है । इसमें सबसेज्यादा सांस की तकलीफ, घबराहट, सीनेमें दर्द, चक्कर, जोड़ों में दर्द जैसी तकलीफे हैं । इसमें से सिर्फ ३० प्रतिशत कोही इलाज मुहैया होपाता है । कैंसर, टीबी, फेफड़ों से संबधित बीमारियों की अपेक्षा किडनी की बीमारी  से तीन गुना ज्यादा मौत होरही है । 
रिपोर्ट तैयार करने का काम वर्ष २००२ में शुरू हुआ । इसमें गंभीर रूप से प्रभावित बस्तियों के २,२०० सेअधिक और गैर प्रभावित क्षेत्रों के ९५२ व्यक्तियों पर अध्ययन किया गया । हर साल इनके आंकड़े जुटाए गए । इसके साथ ही गैस पीड़ितों के बच्चेंपर भी शोध किया गया । हर तीन माह में इनका स्वास्थ्य परीक्षण किया गया । इस आधार पर मौतें व बीमारियों का आंकड़ा तैयार किया गया । 
गैस त्रासदी का असर तीसरी पीढ़ियों पर भी दिखाई दे रहा है । सर्वे में ५ से१९ साल तक के बच्चें का भी आकलन किया गया । इसमें पाया गया कि सामान्य बच्चें की अपेक्षा गैस पीड़ितों के बच्चें के कपाल परिधि (सिर का व्यास) भी छोटा है । जो गंभीर बीमारियां का भी कारण होता है । साथ ही धड़ की लंबाई भी कम और पैरों की लंबाई भी स्वस्थ बच्चें की अपेक्षा अधिक पाई गई । शोधकर्ता तस्मीन जैदी ने बताया कि गैस पीड़ितो के परिवार पर अब अनुवांशिक असर भी पड़ने लगा है, जो चिंताजनक है । 
गैस त्रासदी के दौरान यूनियन कार्बाइड से निकले जहरील कचरे का निष्पादन नहींहुआ है । सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इंडियन इंस्टीट्युट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च को रिपोर्ट तैयार करनेका आदेश दिया था । इसमें खुलासा हुआ है कि जहरीले कचरे के कारण प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है । इसमें ऐसे खतरनाक तत्व है जो गूर्दे, जन्मजात विकलांगता, कैंसर  जैसे अन्य गंभीर बीमारी का कारण है। शोधकर्ता संतोष क्षोत्रिय ने बताया कि आंकड़े स्पष्ट करते है कि आज भी त्रासदी से प्रभावित लोगों की मौत का सिलसिला जारी है ं । लेकिन, इनकी मौतों के पंजीयन को लेकर सरकार ने कोई व्यवस्था हीं नहीं की है । जबकि इनके इलाज की व्यवस्था और समीक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है । 
सामयिक
हिमालय के पर्यावरण की अनदेखी
सुरेश भाई
हिमालय के खूबसूरत दृृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित  करते है । हिमालयी राज्यों से निकल रही हजारों जल धारा, नदियां, ग्लेश्यिर के कारण, इसे एक जल टैंक  के रूप में देखा जाता है । 
हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । आधुनिक विकास की अवधारणा में इस समाज की कोई हैसियत नहीं बची है । ऐसे में समूचे पर्यावरण को बचाये रखने की महती जिम्मेदारी निभा रहे इस समाज की हम सब को परवाह करनी चाहिए । 
  भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (३२,८७२६३ वर्ग किमी) में से १६.३ प्रतिशत (५,३७,४३ वर्ग किमी) में फैले ११ हिमालयी राज्यों में अभी तक ४५.२ प्रतिशत क्षेत्र में जंगल मौजूद है । देश में केवल २२ प्रतिशत भू-भाग में ही जंगल है, जो स्वस्थ पर्यावरण मानक ३३ प्रतिशत से भी काफी कम है । भारतीय हिमालयी राज्यों की ओर देखा जाए तो यहां से निकल रही हजारों जल धारा, नदियां, ग्लेश्यिर के कारण, इसे एक जलटैंक के रूप में देखा जाता है,  जिससे देश की लगभग ५० करोड़ की आबादी को पानी मिलता है । 
मैदानी भू-भाग से भिन्न हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । अधिकांश गांव ने अपने जंगल बचाकर, उस पर अतिक्रमण और अवैध कटान रोकने के लिये चौकीदार रखे हुए है । ये वन चौकीदार अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न नामों से पुकारे जाते है, जिसका भरण-पोषण, निर्वाह गांव के लोग करते है । कई गांव के जंगलों में तराजू लगे हुए हैं, जिसमें जंगल से आ रही घास, लकड़ी का अधिकतम भार ५०-६० किलोग्राम तक लाना ही मान्य है । जिसकी जांच वन चौकीदार करते   है ।
हिमालय के लोगांे की इस पुश्तैनी वन व्यवस्था को तब झटका लगा जब अंगे्रजों ने वनों के  व्यावसायिक दोहन के लिये १९२७ में वन कानून बनाया । इसके अनुसार जंगल सरकार के आंकडों में आ गये थे । इसी के परिणाम स्वरूप हिमालय क्षेत्र के  राज्यों की ओर देखें तो पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा करने वाले वन और स्थानीय समाज की हैसियत अब उनके पास नहीं बची है । राज्य की व्यवस्था है कि वे जब चाहें किसी भी जंगल को विकास की बलिवेदी पर चढ़ा सकते हैं।
लेकिन यहां सरकारी आंकडांे के आधार पर हिमाचल प्रदेश में ६६.५२, उत्तराखण्ड में ६४.७९, सिक्कि\R में ८२.३१, अरूणाचल प्रदेश ६१.५५, मणिपुर में ७८.०१, मेघालय में ४२.३४, मिजोरम में ७९.३०, नागालैण्ड में ५५.६२, त्रिपुरा में ६०.०२, आसाम में ३४.२१ प्रति ात वन क्षेत्र मौजूद है । वनों की इस मात्रा के कारण जलवायु पर भारतीय हिमालय का नियंत्रण है ।
सन् २००९ में कोपनहेगन में हुए जलवायु सम्मेलन से पहले विभिन्न जन सुनवाई के द्वारा लोगों ने हिमालय की विशिष्ट भू -भाग, प्राकृतिक संसाधन और इससे आजीविका चलाने वाले समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिये ग्रीन बोनस की मांग की है। भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस दिये जाने को सैद्धान्तिक स्वीकृति दी थी । वैसे चिपको, रक्षासूत्र, मिश्रित वन संरक्षण से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षो से हिमालय के लोगों को ऑक्सीजन रॉयल्टी की मांगकर रहे थे । इसमें जगतसिंह जंगली आदि कई लोगों ने अभियान भी चलाये है । 
सरकारी व्यवस्था के मन में भी हिमालय के जंगलों की कीमत पैसे के रूप में दिखाई देने लगी । जबकि पर्यावरण की सेवा सबसे अधिक जंगल करते है । इसके अलावा हिमालय का खूबसूरत दृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है । अत: मांग केवल इतनी थी कि ऑक्सीजन की रॉयल्टी के रूप में रसोई गैस लोगों को नि:शुल्क दिया जाये । 
इसी सिलसिले में विकसित देशों के सामने कार्बन उत्सर्जन की कीमत वसूलने की दृष्टि से भी प्रो. एसपी सिंह द्वारा एक आंकडा सामने आया । जिसमें कहा गया कि भारतीय हिमालय राज्यों के जंगल प्रतिवर्ष ९४४.३३ बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण की सेवा करते है । अत: कार्बन के प्रभाव को कम करने मेें वनों का एक बड़ा महत्व है। इसमें हिमालयी राज्यों के वन जैसे जम्मू कश्मीर में ११८.०२, हिमाचल में ४२.४६, उत्तराखण्ड में १०६.८९, सिक्कि   में १४.२, अरूणाचल में ३२.९५, मेघालय में ५५.१५, मणिपुर में ५९.६७, मिजोरम में ५६.६१, नागालैण्ड में ४९.३९, त्रिपुरा में २०.४० बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण सेवा देते है ।
अब हिमालय राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही  है । अकेले उत्तराखण्ड सरकार केन्द्र से २ हजार करोड़ रूपये की मांग कर रही  है । इसका औचित्य तभी है, जब स्थानीय लोगों को वनभूमि पर मालिकाना हक मिले । महिलाओं को रसोई गैस में ५० प्रतिशत की छूट मिलनी चाहिये । जलसंरक्षण में पाणी राखों के प्रणेता सच्चिदानंद भारती का मॉडल और छोटीपन बिजली के विकास में समाज सेवी बिहारीलालजी के मॉडल का क्रियान्वयन हो । 
गांव में भूक्षरण रोका जाये । वनों में आग पर नियंत्रण और वृक्षारोपण के बाद लम्बे समय तक पेड़ों की रक्षा करने वाले लोगों को आर्थिक मदद मिलना चाहिये । गांव में जहां लोगों ने जंगल बचाये है, उन्हें सहायता दी जाये । पहाड़ी शैली की सीढ़ीनुमा खेतों का सुधार किया जाना आवश्यक है । महिलाओं को घास, लकड़ी, पानी सिर और पीठ  पर ढुलान करने के बोझ से निवृत्ति मिलनी चाहिये । हिमालय की पहरेदारी करने वाले पेड़ों और लोगों की जीविका बेहतर हो सकती है । 
चिन्तनीय है कि यदि जीएसटी एवं नोटबंदी से आमदनी पर पडे  असर की पूर्ति के लिये राज्य सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही है तो हिमालय की पर्यावरण सेवाओं के  घटक जल, जंगल, पहाड़ तो और मुश्किलों में पड़ सकते है । 
हमारा भूमण्डल
भोपाल गैस त्रासदी की चौतीसवीं बरसी
अब्दुल जब्बार/एनडी जयप्रकाश

दुनियाभर में सर्वाधिक भीषण मानी जाने वाली औद्योगिक त्रासदी को चार दिन बाद चौंतीस साल हो जाएंगे । 
इस त्रासदी में मारे गए हजारों निरपराधों, अब तक उसके प्रभावों को भुगत रहे लाखों प्रभावित और तत्कालीन भोपाल की करीब आधी आबादी को अपनी चपेट में लेने वाली इस वीभत्स दुर्घटना ने कम-से-कम एक समाज, सरकार और सेठों की हैसियत से हमें कुछ सिखाया, समझाया हो, ऐसा नहीं लगता । बानगी के लिए हाल के  राज्य विधानसभा के चुनावों को देखें जिसमें 'आम आदमी पार्टी` और 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी` (सीपीआई) को छोड़कर किसी राजनीतिक दल को इस त्रासदी की कोई याद तक नहीं आई । क्या ऐसा आत्महंता समाज किसी भी तरह खुद को बचा पाएगा ?  
सन् १९८४ में २-३ दिसम्बर १९८४ की रात को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने क ेटैंक से रिसी ४० टन मिथाइल आयसोसायनेट (एम.आई.सी.) गैस (जो एक गम्भीर रूप से घातक जहरीली गैस है) के कारण एक भयावह हादसा हुआ था । ये गैस हवा से भारी थी और शहर के करीब ४० कि. मी. इलाके में फैली थी । नतीजे में ५६ वार्डोंा में से ३६ वार्डों में इसका गंभीर असर हुआ, कई सालों में २०,००० से ज्यादा लोग तिल-तिलकर मारे गए और लगभग ५.५ लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा । उस समय भोपाल की आबादी लगभग ९ लाख थी । हादसे के करीब साढ़े तीन दशक बाद भी ना तो राज्य सरकार ने और ना ही केन्द्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई समग्र आकलन करने की कोशिश की है, ना ही उसके लिए कोई उपचारात्मक कदम उठाए हैं। 
फरवरी १९८९ को केन्द्र सरकार और कम्पनी के बीच हुआ समझौता पूरी तरह से धोखा था और उसके  तहत हरेक गैस प्रभावित को मिली रकम समझौते की तुलना में पाँचवें हिस्से से भी कम थी। नतीजतन, गैस प्रभावितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, मुआवजा, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है । वर्ष २०१८ में भी गैस प्रभावितों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत कम प्रगति होना गम्भीर चिन्ता का विषय रहा है ।
गैस प्रभावितों की स्वास्थ्य जरूरतों के प्रति राज्य और केन्द्र  सरकार की लापरवाही पहले की तरह ही चिन्ताजनक बनी हुई है । स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कई इमारतें और लगभग १००० बिस्तरों वाले अस्पताल तो खोल दिए गए  हैं, परन्तु जाँच, निदान, शोध और जानकारी जैसे मामलों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खराब है। भोपाल के गैस पीड़ितों की स्वास्थ्य स्थिति की निगरानी में आईसी-एमआर और म.प्र. सरकार की हद दर्जे की उदासीनता चौंका देने वाली बनी हुई है। 
चौंतीस साल बाद भी गैस से संबंधित शिकायतों के इलाज का कोई निश्चित तरीका नहीं खोजा गया है। महज लक्षण-आधारित इलाज, निगरानी और जानकारी की कमी के कारण जरूरत से ज्यादा दवाएं दिए जाने और गलत या नकली दवाओं के कारण प्रभावितों में किडनी-फेल होने की घटनाएं बहुत बढ़ गई हैं। इलाज के लिए आने वाले अधिकतर गैस प्रभावितों को अस्थाई क्षति के दर्जे में रखा जाता है ताकि उन्हें स्थाई क्षति के लिए मुआवजा न देना पड़े । शर्मनाक है कि हादसे के साढ़े तीन दशक बाद भी पीड़ितों के सही मेडिकल रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं। 
आईसीएमआर के मुताबिक वर्ष २००० में बनने के बाद से बीएमएचआरसी (भोपाल मेमोरियल हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेंटर) में लगभग एक लाख ७० हजार गैस पीड़ित नियमित इलाज करवा रहे हैं। एक चौंकाने वाली और शर्मनाक घटना सामने आई कि २००४ से २००८ के बीच बीएमएचआरसी में गैस पीड़ितों पर बिना जानकारी के दवाओं के  परीक्षण किए गए । मामला सामने आने के बाद गैस पीड़ित संगठनों ने माँग की है कि गैस पीड़ितों का चूहों की तरह इस्तेमाल करने की इस घटना की बारीकी से जाँच की जाए और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए ।
फरवरी १९८९ के समझौते के २१ साल बाद केन्द्र सरकार एक उपचारात्मक याचिका दायर की  जिसमें समझौते की शर्तों पर सवाल उठाए और कहा कि समझौता मृतकों और पीड़ितों की बहुत कम आँकी  गई संख्या पर आधारित था । केन्द्र सरकार ने मुआवजांे में अतिरिक्त ७७२८ करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की मांग की है जबकि १९८९ की समझौता राशि मात्र ७०५ करोड़ रुपए की थी । याचिका स्वीकृत हो  गई है पर सुनवाई शुरू नहीं हुई है। 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन` और 'भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति` सैद्धांतिक स्तर, कुल पीड़ितों की संख्या (मृत और बीमार मिलाकर ५,७३,५८६ प्रभावित) और मुआवजा बढ़ाने के तरीकों (यानी यह किस समझौता राशि उस समय के डॉलर-रुपया विनिमय की दर पर आधारित होना चाहिए) से सहमत हैं। परन्तु मृतकों की संख्या (मात्र ५२९५), गंभीर रूप से बीमारों की संख्या (मात्र ४९४४) और राहत और पुनर्वास तथा पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के लिए बहुत कम माँग पर गैस पीड़ित संगठनों की केन्द्र सरकार से घोर असहमति है। मृतकों की संख्या (२०,००० से ऊपर) और गम्भीर रूप से बीमार प्रभावितों की संख्या (१,५०,००० से अधिक) के बारे में पहले ही बताया जा चुका है । 
यूनियन कार्बाइड कारखाने के अहाते में और आसपास जहरीला कचरा जमा होता रहा था, जिससे यहाँ की जमीन और पानी बहुत  दूषित हो गया है। आज तक राज्य या केन्द्र सरकार ने इसके कारण होने वाली क्षति के आकलन के लिए कोई समग्र अध्ययन नहीं करवाया है। इसके उलट इस समस्या को कम आँकते हुए यह दिखाया जा रहा है कि मामला केवल कारखाने में जमा ३४५ टन ठोस कचरे के निपटारे का ही है। इन्दौर के पास इस कचरे को गाड़ देने या जला देने का मौजूदा प्रस्ताव एकदम गलत है और इससे  तो समस्या को भोपाल से हटाकर इंदौर ले जाने का ही काम होगा। इसके विपरीत २००९-१० में नेशनल इंवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर और नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, हैदराबाद द्वारा किए गए एक अध्ययन से यह पता चला था कि जहरीले कचरे से प्रभावित कुल मिट्टी  ११,००,००० मीट्रिक टन है ।
'दूषित करने वाला ही हर्जाना भरेगा` इस सिद्धांत के  आधार पर डाव कम्पनी की जिम्मेदारी है कि वह यूनियन कार्बाइड के आसपास प्रभावित पर्यावरण की आधुनिक टेक्नोलॉजी की मदद से क्षतिपूर्ति का खर्च उठाए । इसी तरह कारखाने के आसपास रहने वाले प्रभावित लोगों को साफ पीने का पानी मुहैया कराने का खर्च भी डाव को उठाना पड़ेगा । हालाँकि लोगों तक साफ पीने का पानी पहुँचाने की जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्य सरकार की है। राज्य सरकार अब भी अपने इस दायित्व को निभाने में नकारा साबित हुई है । 
अभी भी भूजल प्रदूषण क्षेत्रों में है और राज्य सरकार और नगर निगम भोपाल इसमें उचित वैज्ञानिक निगरानी नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर दूषित पानी के कारण बीमार हो रहे प्रभावितों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिल पा रही है। अनुमानित ११००० मीट्रिक टन दूषित जमीन या मिट्टी को ठीक करना ही सबसे कठिन कार्य है। 'सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरनमेंट,` (सीएसई) दिल्ली की अगुवाई में अप्रैल २०१३ में 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन` व 'भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति` समेत सभी हित-धारकों और विशेषज्ञों को एक मंच पर लाकर एक कार्य योजना बनाने की कोशिश की गई थी । इस एक्शन-प्लान का एक मसौदा तो बनाया गया है, परन्तु इसमें म.प्र. सरकार सहित अन्य हित- धारकों और विशेषज्ञों को जोड़ने की आवश्यकता है। म.प्र. सरकार ने सी.ई.सी. द्वारा आयोजित कार्यशाला में शामिल होने से मना कर दिया था ।
लम्बे अरसे से बीमार लोगों, बुजुर्गो, निशक्तों, विधवाओं और समाज के अन्य अतिसंवेदनशील तबकों द्वारा सामना की जा रही तमाम सामाजिक-आर्थिक समस्-याओं का समुचित निदान करने में राज्य सरकार नाकाम रही है। वर्कशेड जहाँ प्रशिक्षण व रोजगार कार्यक्रम चलाये जाने थे, मात्र ४ या ५ स्थानों को छोड़कर सभी बंद है तथा आर्थिक मद में केन्द्र सरकार से २०१० में प्राप्त १०४ करोड़ रूपये की राशि का उपयोग अब तक नहीं हुआ है । कुछ वर्कशेड चल रहे हैं, जिन्हें संस्थाएं ही संचालित कर रही हैं । मुआवजे के नाम पर इन्हंे जो थोड़ा पैसा मिला   था वो इनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी काफी नहीं है। 
काम करने की क्षमता में आई कमी के साथ इनके लिए उपयोगी काम मिलना और सम्मानजनक जीवन-यापन करना भी एक चुनौती बन गई हैं। राज्य सरकार को इन अतिसंवे-दनशील गैस प्रभावितों की ओर पहले की तुलना में और अधिक ध्यान व और सहायता मुहैया कराने की सख्त जरूरत है। इसी प्रकार गैस विधवाओं तथा गैस से अपाहिज हुए प्रभावितों को आजीविका पेंशन दिए जाने पर आंशिक कार्य ही राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा किया गया है ।      
विशेष लेख
नवग्रह वाटिका 
डॉ. दीपक कोहली 
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों को नक्षत्र और स्थिति बदलते रहने वाले पिण्डों को ग्रह कहते हैं । ग्रह का अर्थ है पकड़ना । सम्भवत: अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को धरती पर पहुँचने से पहले ये पिण्ड उन्हें आकर्षित कर ग्राहय कर लेते हैं या पकड़ लेते हें और पृथ्वी के  जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करते हैं । इसलिए ग्रहों को बहुत महत्व दिया गया है । 
भारतीय ज्योतिष मान्यता में ग्रहों की संख्या ०९ मानी गयी है, जिसे नवग्रह भी कहा जाता है। संस्कृत के  निम्न श्लोक में नवग्रह वर्णित हैं :-
`सूर्यचन्द्रों मंगलश्च बुधश्चापि बृहस्पति:।
शुक्र: शनेश्चरो राहु: केतुश्चेति नव ग्रहा:।।`
अर्थात सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति,शुक्र, शनि, राहु और केतु ये नवग्रह  हैं । ऐसी मान्यता है कि इन ग्रहों की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति का विभिन्न मनुष्यों पर विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है, ये प्रभाव अनुकूल और प्रतिकूल दोनों होते हैं । 
यज्ञ द्वारा ग्रह शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिए अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा (हवन प्रकोष्ठ) प्रयोग की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक  में वर्णित है :-
`अर्क: पलाश: खदिरश्चापामार्गोथ पिप्पल:।
औडम्बर: शमी दूर्व्वा कुशश्च समिघ: क्रमात। ।`
ग्रहशान्ति के यज्ञीय कार्यों में सही पहचान के अभाव में अधिकतर लोगों को सही वनस्पति नहीं मिल पाती, इसलिए नवग्रह वनस्पतियों को धार्मिक स्थलों के पास रोपित करना चाहिए ताकि यज्ञ कार्य के लिए लोगों को शुद्ध सामग्री मिल सके । यही नहीं, यह विश्वास किया जाता है कि पूजा-अर्चना के लिए इन वृक्षों/वनस्पतियों के सम्पर्क में आने पर भी ग्रहों के कुप्रभावों की शान्ति होती है । अतएव नवग्रह वनस्पतियों के रोपण की महत्ता और बढ़ जाती है ।
नवग्रह मंडल में ग्रहानुसार वनस्पतियों की स्थापना करने पर वाटिका की स्थिति निम्नवत् होगी:-
रोपण स्थल पर इन पौधों की दूरी इनके छत्र के अनुसार तथा उपलब्ध स्थान के अनुसार रखी जा सकती है । नवग्रहों वनस्पतियों की पहचान स्वरूप  विशिष्ट गुण निम्न प्रकार है :- 
(१) आक (मदार) - यह ४ से ८  फीट ऊँचाई वाला झाड़ीनुमा पौधा है। यह प्राय: निर्जन बंजर भूमि पर पाया जाता है। इसके किसी भाग को तोड़ने पर सफेद रंग का पदार्थ निकलता है। इसका फूल लालिमा लिए सफेद होता है। फल मोटी फली के रूप में होता है। बीज रोंयेदार होते हैं । 
(२) ढाक (पलाश)- यह मध्यम ऊँचाई का वृक्ष है। इसकी विशिष्ट पहचान इसके तीन पत्रकों वाले पत्ते  हैं । जिसका उपयोग पत्तल व दोना बनाने में किया जाता है। जिसकी ऊपरी सतह चिकनी होती है। पुष्प केसरीया लाल रंग के होते हैं, जो फरवरी/मार्च में वृक्ष पर लगते हैं। इसके आकर्षक पुष्पों के कारण इसे 'जंगल की आग' भी कहते हैं ।
(३) खादिर (खैर) - यह सामान्य ऊँचाई का रूक्ष-प्रकृति का वृक्ष है। सामान्यत: नदियों के किनारे की रेतीली शुष्क भूमि पर प्राकृतिक रूप से उगता है । पत्तियाँ बबूल सदृश छोटे-छोटे पत्रकों से बनी होती हैं । फल शीशम सदृश फली के रूप में होते हैं। 
(४) अपामार्ग (लटजीरा / चिचिड़ा) - यह लगभग ३ फीट ऊँचाई का छोटा झाड़ीनुमा पौधा है। इसके पुष्प व फल एक २०-२२ इंच लंबी शाख पर चारों तरफ स्थापित होते हैं। फल काँटेदार होते हैं तथा सम्पर्क में आने पर वस्त्रों पर चिपक जाते हैं । ऊर्ध्व शाख पर लगे पुष्प शीर्ष पर लालपन लिए तथा नीचे की तरफ हरापन लिए सफेद होते हैं।
(५) पिप्पल (पीपल)- यह अतिशय ऊँचाई का विशालकाय वृक्ष है। पत्ते हृदयाकार चिकने होते हैं। आघात करने पर घाव से दूधिया स्त्राव निकलता है। इसके फल गुप्त रहते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं । 
(६) औडम्बर (गूलर)- यह अच्छी ऊँचाई का वृक्ष है। पत्ते चारा के रूप में प्रयुक्त होते हैं । फल गोल एवं वृक्ष पर गुच्छों के रूप में लगते हैं। कच्च्े फल हरे तथा पकने पर गुलाबी लाल रंग के हो जाते हैं। जिन्हें पशु-पक्षी बहुत चाव से खाते हैं।
(७) शमी (छयोकर)- यह एक मध्यम ऊँचाई का बबूल सदृश्य वृक्ष है। परन्तु इसके काँटे बबूल से छोटे होते हैं। सामान्यत: यह वृक्ष शुष्क बीहड़ भूमि पर पाया जाता है। फलियाँ गुच्छों के रूप  में लगती हैं ।
(८) दूर्वा (दूब)- यह सबसे सामान्य रूप से पायी जाने वाली घास है, जो प्राय: अच्छी भूमि पर उगती है तथा 'लॉन ग्रास' के नाम से प्रसिद्ध है। हवन-यज्ञादि में इस घास का प्रयोग होता है ।
(९) कुशा (कुश)- यह शुष्क बंजर भूमि में उगने वाली घास है। यह एक अति पवित्र घास है, जिससे पूजा की 'आसनी' बनती है तथा यज्ञीय कार्यों में इसकी 'पवित्री' पहनते हैं ।  उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु को वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है ।
नवग्रह वाटिका में पौधे लगाते समय विभिन्न कोणों का भी ध्यान रखा जाता है । उत्तर दिशा में पीपल, ईशान कोण में लटजीरा, पूर्व में गूलर, आग्नेय कोण में ढाक तथा दक्षिण में खैर लगाया जाता है।               
ऊर्जा जगत
क्या विकास का मतलब लूट है ?
राजेश कुमार/गौरव द्विवेदी

अधोसंरचना, खासकर ऊर्जा के नाम पर हमारे देश में जो हो रहा है उसे सार्वजनिक सम्पत्ति की खुल्लम-खुल्ला लूट के अलावा क्या कहा जा सकता है ? 
मध्यप्रदेश सरीखे राज्य में जहां खुद सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक जरूरत से दो-ढाई गुनी बिजली पैदा हो रही है, राज्य सरकार छह निजी कंपनियों से बिजली आपूर्ति के लिए २५-२५ साल का अनुबंध कर रही है। यह अनुबंध इस शर्त के साथ किया जा रहा है कि राज्य में बिजली की मांग हो, न हो यानि बिजली खरीदी जाए या नहीं, कंपनियों को निर्बाध भुगतान किया जाता रहेगा । मांग नहीं होने के  कारण बगैर बिजली खरीदे २०१४, २०१५ और २०१६ में निजी कंपनियों को कुल ५५१३.०३ करोड़ रूपयों का भुगतान किया गया है । जाहिर है, यह भुगतान आम जनता की जेबों से किया गया है।           
पिछले कुछ दशकों से भारत सरकार देश के विकास के नाम पर विशालकाय ढांचागत परियोज-नाओं के निर्माण पर जोर दे रही है । 'सकल घरेलू उत्पाद` (जीडीपी) में वृद्धि से जोड़कर देखी जा रही इन परियोजनाओं में मुख्य रूप से विद्युत, बडे बांध, सड़कें, शहरी-विकास, औद्योगिकगलियारे, 'स्मार्ट सिटी` और अन्य परियोजनाएं शामिल हैं। इन परियोजनाओं को बनाने और फिर बनाए रखने में जल, जंगल, जमीन के अलावा इनकी रीढ़-ऊर्जा या बिजली की भी भारी जरूरत होती है।
इन विशालकाय ढांचागत परियोजनाओं में लगने वाली भारी-भरकम आर्थिक लागत के अलावा पीढ़ियों से अपने-अपने ठिकानों पर बसी, भरी-पूरी आबादी को अपने संसाधनों को छोड़कर विस्थापित होना पड़ रहा है। दुनियाभर में अपनाए जा रहे विकास के इस मॉडल ने इसीलिए शहरीकरण को तेज कर दिया है और अब यही इसकी बुनियादी समस्या बनता जा रहा है। शहरों की संख्या में तेजी से इजाफा होता जा रहा है और शहर-गांव के बीच की खाई बहुत तेज गति से बढ़ी है। अ-समान विकास ने तमाम आर्थिक गतिविधियों को शहर केन्द्रित कर दिया है, परिणामस्वरूप गांव की कार्यशील युवा श्रमशक्ति शहरांेकी ओर पलायन कर रही है ।
वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या का लगभग ३१ प्रतिशत शहरों में बसा है और इसका 'जीडीपी` में ६३ प्रतिशत का योगदान है। ऐसी उम्मीद है कि वर्ष २०३० तक देश की आबादी का ४० प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रहने लगेगा और भारत के 'जीडीपी` में इसका योगदान ७५ प्रतिशत तक हो जाएगा । जाहिर है, इस विशाल आबादी के  लिए बुनियादी भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक ढांचे के व्यापक विकास की आवश्यकता होगी, लेकिन शहरों की बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में घटती, अपर्याप्त सुविधाओं के कारण समस्या दिन-ब-दिन जटिल होती जा रही है। 
सड़क, पानी, बिजली, सीवेज, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य की कमी या वितरण में गैर-बराबरी ने एक असंतोष को जन्म दिया है, शहर नर्क कहलाने लगे हैं। शहरों की ३० प्रतिशत आबादी को पानी, ६५ प्रतिशत को पर्याप्त बिजली, ७१ प्रतिशत को सीवेज और ४० प्रतिशत को परिवहन की व्यवस्था उपलब्ध नहीं हैं । एक बड़ी आबादी के पास घर का मालिकाना हक तक नहीं है। 
इन परिस्थितियों के  मद्देनजर शहरी आबादी को रहन-सहन, परिवहन और अन्य अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस करने के इरादे से भारत सरकार ने तीन महत्वाकांक्षी योजनाओं-'स्मार्ट सिटी,` 'अटल मिशन फॉर रिजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉ-र्मेशन`(अमृत) और 'सभी को आवास योजना` की शुरुआत की है। इन परियोजनाओं में 'स्मार्ट सिटी,` जिसके तहत देश के १०० शहरों को 'स्मार्ट` बनाने का लक्ष्य है, सबसे अधिक चर्चा में है। इसमें मध्यप्रदेश के सात शहरों-भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, उज्जैन, सतना व सागर को शामिल किया गया है।
हालांकि 'स्मार्ट सिटी` की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, लेकिन दावा किया जा रहा है कि यह 'डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी` (आईटी) पर आधारित होगी, जहाँ आम जनता को हर सुविधा पलक झपकते मिल जाएगी । एक तरफ, इन दावोंकी सच्चई भविष्य के गर्भ में छुपी हुई है। अंतत: इससे किसको फायदा होगा, यह प्रश्न भी हम सभी के सामने खडा है। 
दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री समेत अनेक केन्द्रीय मंत्रियों और सरकारी विशेषज्ञों  द्वारा लगातार 'स्मार्ट सिटी` को 'आर्थिक समृद्धि का केन्द्र,` 'भारत का भविष्य` और 'विकास की रफ्तार` बताया जा रहा है । ढाई-तीन साल से दिखाए जा रहे ऐसे 'सपनों` को क्या वास्तव में जमीन पर उतारा जा सकेगा ? इसके पहले भी शहरों के आधारभूत संरचनात्मक विकास के लिए 'जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन`(जेएनएन-यूआरएम) और 'अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट स्कीम फॉर स्माल एंड मीडियम टाउन्स` (यूआईडीएस एसएमटी) जैसी योजनाओं को लाया गया था। शहरी आबादी के भले के  लिए केन्द्र की पिछली 'यूपीए` सरकार द्वारा लाई गई इन परियोजनाओं के बदहाल नतीजे इसी से उजागर हो जाते हैं कि अब मौजूदा सरकार को, लगभग उन्हीं सुविधाओं की खातिर नई 'स्मार्ट सिटी` जैसी योजनाओं को लाना पड़ रहा है।
ऊर्जा की ही बात करें तो एक तरफ, उसके नाम पर प्राकृतिक संसाधन निजी कम्पनियों के नियंत्रण में आते जा रहे हैं, दूसरी तरफ, वे ही कंपनियां जनता का पैसा, जनता से लेकर विकास के नाम पर लूट रही हैं। चाहे फिर वो कम्पनियों द्वारा बैकों से लिया गया कर्ज हो या बिजली बिल, परियोजना हेतु उपकरण खरीदने के बिल को बढ़ा कर दिखाना हो या कोयला खदान और कोयला आयात, कम्पनियां चारों ओर आम जनता का पैसा लूटने में लगी हैं। 
बिजली परियोजनाओं का विस्तार न केवल पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को बदहाल करता है, बल्कि इन महंगी परियोजनाओं के लिए बैंकों से भारी-भरकम कर्ज लिया जाता है । बाद में ये कंपनियां घाटे से निकाले जाने के लिये सरकार से गुहार लगाती हैं। सार्वजनिक धन की यह चोरी केवल बिजली क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। भारतीय बैंकों को तनावग्रस्त परिसंपत्तियों, डूबत खातों(एनपीए) में गहरे वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक ३१ मार्च २०१८ तक भारतीय बैंकों की सकल गैर-निष्पादित संपत्ति, डूबत खाते या बुरे ऋण १०.२५ लाख करोड़  रुपये के थे ।  
बिजली क्षेत्र में एनपीए की समस्या वर्ष २०१७ में 'टाटा पावर` के 'तटीय गुजरात पावर लिमिटेड` (४००० मेगावॉट) और अदानी के 'मुंद्रा थर्मल पावर प्रोजेक्ट` (४६६० मेगावॉट) के स्वामित्व वाली परियोजनाआंे के माध्यम से उजागर हुई थीं। ये परियोजनाएं भारी नुकसान उठा रही थीं और इसकी भरपाई के लिए राज्य सरकार से जमानत मांग रही थीं। जाहिर है, सार्वजनिक धन से निजी कंपनियों को संकट-मुक्त करने वाली सरकार की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। 
मार्च २०१८ में, बिजली क्षेत्र में गैर-निष्पादित यानि कर्ज वापसी ना होने वाली संपत्ति पर संसद की स्थायी समिति द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी । इस समिति ने ३४ थर्मल पावर परियोजनाओं की पहचान की थी जिनमें से ३२ निजी क्षेत्र से संबंधित थे जबकि केवल दो सार्वजनिक क्षेत्र से थे। समिति के अनुसार लगभग १.७४ लाख करोड़ रुपये एनपीए में तब्दील होने की कगार पर हैं और थर्मल पावर सेक्टर में कुल डूबत खाते की संपत्ति १७.६७ प्रतिशत यानि ९८,७९९ करोड़ रुपये है ।
मध्यप्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। वर्ष २००० में म.प्र. विद्युत मंडल का घाटा २१०० करोड़ तथा दीर्घकालीन कर्ज ४८९२.६ करोड़ रुपये था जो २०१४-१५ में ३० हजार २८२ करोड़ तथा सितम्बर २०१५ तक ३४ हजार  ७३९ करोड़ हो गया था। दूसरी तरफ, इन भारी-भरकम कर्जों के बावजूद, ऊर्जा सुधार के १८ साल बाद भी ६५ लाख ग्रामीण उपभोक्ताआें में से ६ लाख परिवारों के पास बिजली नहीं है। २० हजार छोटे गांवों में तो अब तक खंभे भी खङे नहीं हुए हैं। 
मध्यप्रदेश सरकार ने छ: निजी बिजली कम्पनियों से २५ साल के लिए १५७५ मेगावाट बिजली खरीदने का अनुबंध इस शर्त के साथ किया है कि राज्य बिजली खरीदे या नहीं, कंपनी को २१६३ करोड़ रुपये देने ही होंगे । राज्य में बिजली की मांग नहीं होने के कारण बगैर बिजली खरीदे विगत तीन साल में (वर्ष २०१६ तक) निजी कंपनियों को ५५१३.०३ करोड़ रूपयों का भुगतान किया गया है। 
प्रदेश में अतिरिक्त बिजली होने के बावजूद मप्र पावर मैनेजमेंट कंपनी ने २०१३-१४ में रबी में मांग बढ़ने के  दौरान गुजरात की 'सूजान-टोरेंट पावर` से ९.५६ रूपये की दर से बिजली खरीदी थी । 'मप्र विद्युत नियामक आयोग` ने इस पर सख्त आपत्ति भी जताई थी, लेकिन कुछ नहीं किया जा सका । वर्तमान में बिजली की उपलब्धता १८३६४ मेगावाट है जबकि साल भर की औसत मांग लगभग ८ से ९ हजार मेगावाट है। बिजली की लगभग दुगुनी उपलब्धता के चलते सरकारी ताप विद्युत संयंत्रों को रख-रखाव, सुधार आदि के नाम पर बंद रखा जा रहा है। 
जरूरत से कई गुना अधिक बिजली की उपलब्धता के बावजूद बिजली कम्पनियों द्वारा अपनी परियोजनाओं के विस्तार के कारण बैंकों द्वारा वसूल ना की जा सकने वाली तनावग्रस्त संपत्तियां बढ़ रही हैं, जिन्हें अंतत: सार्वजनिक धन के माध्यम से सरकार मुक्त करवा रही है। एक ओर निजी कंपनियां सार्वजनिक धन लूट रही हैं और दूसरी तरफ वे इन परियोजनाओं के  सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को अनदेखा कर रही हैं। बिजली परियोजनाओं के नाम पर गांवों से और 'स्मार्ट सिटी` के नाम पर शहरों से आम जनता को उजाड़ने का काम किया जा रहा है।
स्वास्थ्य
वायरस से लड़ने में मददगार गुड़ और अदरक 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
हाल ही में मुझे भयानक सर्दी-जुकाम हुआ था । दवाओं (एंटीबायोटिक, विटामिन सी) से कुछ भी आराम नहीं मिल रहा था। तो मेरी पत्नी ने घरेलू नुस्खा-गुड़ और अदरक मिलाकर - दिन में तीन बार लेने की सलाह दी । 
बस एक-दो दिन में ही सर्दी-खांसी गायब थी! यह कमाल गुड़ का था या अदरक का, यह जानने के लिए मैंने आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य खंगाल ा। मैंने पाया कि सालों से चीन के लोग भी सर्दी-जुकाम तथा कुछ  अन्य तकलीफों से राहत पाने के लिए इसी तरह के एक पारंपरिक नुस्खे - जे जेन तांग - का उपयोग करते आए हैं । इसमें अदरक के साथ एक मीठी जड़ी-बूटी (कुदॅजू की जड़) का सेवन किया जाता है ।
अदरक के औषधीय गुणों से तो सभी वाकिफ है। कई जगहों, खासकर भारत, चीन, पाकिस्तान और ईरान में इसके औषधीय गुणों के अध्ययन भी हुए हैं । ऐसा पाया गया है कि इसमें दर्जन भर औषधीय रसायन मौजूद होते हैं। १९९४ में डॉ. सी. वी. डेनियर और उनके साथियों ने अदरक के औषधीय गुणों पर हुए १२ प्रमुख अध्ययनोंकी समीक्षा नेचुरल प्रोडक्ट्स पत्रिका में की थी। 
ये अध्ययन अदरक के ऑक्सीकरण-रोधी गुण, शोथ-रोधी गुण, मितली में राहत और वमनरोघी गुणों पर हुए थे। इसके अलावा पश्चिम एशियाई क्षेत्र के  एक शोध पत्र के मुताबिक अदरक स्मृति-लोप और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों में भी फायदेमंद है। इस्फहान के ईरानी शोधकर्ताओं के एक समूह ने अदरक में स्वास्थ्य और शारीरिक क्रियाकलापों पर असर के अलावा कैंसर-रोघी गुण होने के मौजूदा प्रमाणों की समीक्षा की है।
कई अध्ययनों में अदरक में कैंसर-रोधी गुण होने की बात सामने आई है। औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (अब भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान) के डॉ. योगेश्वर शुक्ल और डॉ. एम. सिंह ने साल २००७ में अपने पर्चे में अदरक के कैंसर-रोधी गुण के बारे में बात की थी । उनके अनुसार अदरक में ६-जिंजेरॉल और ६-पेराडोल अवयव सक्रिय होने की संभावना है। साल २०११ में डॉ. ए. एम. बोड़े और डॉ जेड डोंग ने इस बात की पुन: समीक्षा की । 
अपनी पुस्तक   दी अमेजिंग एंड माइटी जिंजर हर्बल मेडिसिन  में उन्होंने ताजी और सूखी (सौंठ), दोनों तरह की अदरक में मौजूद ११५ घटकों के बारे में बताया, जिनमें जिंजेरॉल और उसके यौगिक मुख्य थे। शंघाई में हाल ही में प्रकाशित पर्चे के अनुसार अदरक कैंसर-रोधी फ्लोरोयूरेसिल यौगिक की गठान-रोधक क्रिया को बढ़ाता है । 
यानी अदरक औषधियों का खजाना है । मगर वापिस सर्दी-खांसी पर आ जाते हैं । कैसे अदरक सर्दी-खांसी में राहत पहुंचाता है? इसक ेबारे में कुछ जानकारी साल २०१३ में जर्नल ऑ एथ्नोमोफार्माकोलॉजी में प्रकाशित प्रो. जुंंग सान चांग के पेपर से मिलती है। पेपर के अनुसार ताज़े अदरक में वायरस-रोधी गुण होते हैं । आम तौर पर सर्दी-जुकाम वायरल संक्रमण के कारण होता है (इसीलिए एंटीबायोटिक दवाइयां सर्दी-जुकाम में कारगर नहीं होती)। संक्रमण के लिए दो तरह के वायरस जिम्मेदार होते हैं। इनमें से एक है ह्यूमन रेस्पीरेटरी सिंशियल वायरस । चांग और उनके साथियों ने कठडत वायरस से संक्रमित कोशिकाओं पर अदरक के प्रभाव का अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि अदरक श्लेष्मा कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्त्राव करने के लिए प्रेरित करता है । 
यह अनुमान तो पहले से था कि अदरक में विभिन्न वायरस से लड़ने वाले यौगिक मौजूद होते हैं। यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि अदरक कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्त्राव करने के लिए प्रेरित करता है । इसके पहले डेनियर और उनके साथियों ने बताया था कि अदरक में मौजूद बीटा-सेस्कवीफिलांड्रीन सर्दी-जुकाम के वायरस से लड़ता है और उसमें राहत पहुंचाता है ।
वर्तमान में प्राकृतिक स्त्रोत से अच्छे  एंटीबायोटिक और एंटीबैक्टीरियल पदार्थों की खोज, पारंपरिक औषधियों की तरफ रुझान, आधुनिक विधियों से उनकी कारगरता की जांच और पारंपरिक औषधियों को समझने के क्षेत्र में काफी काम हो रहा है। चीन इस क्षेत्र में अग्रणी है। चीन ने पेकिंग विश्वविद्यालय में पूर्ण विकसित औषधि विज्ञान केन्द्र शुरू किया है। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। भारत फंडिंग और कैरियर प्रोत्साहन के जरिए इस क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा दे रहा है ।
परंपरा और वर्तमान
भारत में भी आयुष मंत्रालय इसी तरह के काम के लिए है । यह मंत्रालय यूनानी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा, सिद्ध, योग और होम्योपैथी के क्षेत्र में शोध और चिकित्सीय परीक्षण को बढ़ावा देता है । यह एक स्वागत-योग्य शुरुआती कदम है। दरअसल, हमें इस क्षेत्र के (पारंपरिक) चिकित्सकों और शोधकर्ताओं की जरूरत है जो आधुनिक तकनीकों और तरीकों से काम करने वाले जीव वैज्ञानिकों और औषधि वैज्ञानिकों के साथ काम कर सकें ताकि इससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके । वैसे सलीमुज्जमन सिद्दीकी, टी. आर. शेषाद्री, के. वेंकटरमन, टी.आर. गोविंदाचारी, आसिमा चटर्जी, नित्यानंद जैसे जैव-रसायनज्ञ और औषधि वैज्ञानिक वनस्पति विज्ञानियों और पारंपरिक चिकित्सकों के साथ मिलकर काम करते रहे हैं । 
यदि आयुष मंत्रालय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय और रसायन और उर्वरक मंत्रालय के सम्बंधित विभागों के साथ मिलकर काम करे तो कम समय में अधिक प्रगति की जा सकती है। भारत में घरेलू उपचार की समृद्ध परंपरा रही   है । देश भर में फैली अपनी सुसज्जित प्रयोगशाला के दम पर भारत भी चीन की तरह सफलता हासिल कर सकता है। शुरुआत हम भी चीन की तरह ही प्राकृतिक स्त्रोतों में एंटी-वायरल तत्व खोजने के कार्यक्रम से कर सकते हैं । 
मगर आखिर इस नुस्खे में गुड़ क्या काम करता है। ऐसा लगता है कि तीखे स्वाद के अदरक को खाने के लिए गुड़ की मिठास का सहारा लेते हैं । पर गुड़ में शक्कर की तुलना में १५-३५ प्रतिशत कम सुक्रोस होता है और ज्यादा खनिज तत्व (कैल्शियम, मैग्नीशियम और लौह) होते हैं । साथ ही यह फ्लू के  लक्षणों से लड़ने के लिए भी अच्छा माना जाता है। दुर्भाग्य से गुड़ के जैव रासायनिक और औषधीय गुणों पर अधिक अनुसंधान नहीं हुए हैं । तो शोध के लिए एक और रोचक विषय सामने   है ।
पर्यावरण परिक्रमा
जलवायु परिवर्तन के कारण देश में खेती पर संकट
भारत के १५१ जिलोंकी फसलें, पौधेऔर पशु जलवायु परिवर्तन के कारण अति संवेदनशीाल हालात में पहुंच चुके हैं। यह देश के कुल  जिलों का करीब २० फीसदी है । कृषि मंत्रालय से जुड़े सेजुड़े संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) की वार्षिक समीक्षा बैठक में यह चिंता जताई गई हैं । 
खेती से देश की तकरीबन आधी आबादी कोरोजी-रोटी मिलती हैं, जबकि देश के आर्थिक उत्पादन का १७ फीसदी यहीं सेप्राप्त् होता है । खेती पर जलवायु परिवर्तन का असर इतना ज्यादा पड़ रहा है कि फसलों के उत्पादन के बारे में अनुमान भी गलत साबित होरहेहैं । 
आइसीएआर नेअध्ययन में पाया कि देशभर में करीब २८० लाख हेक्टेयर गेंहू की फसल के अंतर्गत आता है । इनमें से९० लाख हेक्टेयर गेंहू प्रभावित हुआ है । भारत में मौसम में बेतरतीब बदलाव सेऐसेही कुप्रभाव पड़ रहेहैं । 
आइसीएआर के अनुसार हिमाचल प्रदेश में सेब की खेती के लिए अब किसान अधिक ऊंचाई पर जा रहेहैं, ताकि पर्याप्त् ठंडा मौसम मिल सके । मध्य भारत मेंफसलें तूफान सेप्रभावित होरही हैंं । पंजाब में २०१० में अचानक बढ़े तापमान सेगेंहू के उत्पादन में २६ फीसदी कमी आई । 
झारखंड में चावल की खेती करनेवालेकिसान नए कीटों से फसल की रक्षा करते-करते परेशान हो चुके हैं । कीटों से परेशान झारखंड के साहिबगंज जिले का माल्टोस आदिवासी समुदाय दूसरेइलाके में जा रहा हैं, जहां संथाल जनजाति रहती हैं । ऐसेमें संघर्ष की आशंका है । 
डेलवेयर विश्वविद्यालय और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों का इस्तेमाल कर समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि इससेभारत में वार्षिक कृषि आय कम हो रही है । यह औसतन १५-१८ फीसदी हो गई है । देश के ५४ फीसदी खेती वाले इलाकों तक सिंचाई की व्यवस्था ठीक नहीं है । 
इन्दौर में कचरे से रोजाना बन रही ६० टन खाद
देशभर में कचरेकी समस्या विकराल होती जा रही है । कचरेके ढेर बढ़तेजा रहेहैंं, लेकिन इस मसलेपर अब सरकार नेगंभीरता दिखाई है और सालों सेचली आ रही प्लानिंग पर अब तेजी सेकाम शुरू होगया है । देश में दोबार स्वच्छता का ताज हासिल करनेवाला इंदौर कचरेके निपटान में भी आदर्श बन गया है । यहां थ्री आर पर फोकस किया जा रहा है । 
कचरे से बन रही अच्छी गुणवत्ता की खाद को दोऔर तीन रूपए किलोबेचा जा रहा है । यह खाद देवगुराड़िया स्थिति ट्रेंचिंग ग्राउंड में बनाई जा रही है, जिसमें डिमांड भी है । खाद बेचनेके लिए एनजीओकी मदद भी ली जा रही है । स्वच्छ भारत मिशन के तहत नगर निगम द्वारा डोर-टू-डोर कचरा संग्रहण का काम किया जा रहा है । इसमें गीला व सूखा कचरा अलग-अलग लिया जा रहा है । इस जैविक कचरे को देवगुराड़िया स्थित प्रोसेसिंग प्लांट पर ले जाया जाता है । जहां पर कचरे से खाद बनाने का कार्य वैज्ञानिक पद्धति से किया जा रहा है । इसमें प्रतिदिन ५० से६० टन उच्च् गुणवत्ता की जैविक खाद बनाई जा रही है । निगम द्वारा जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जैविक खाद का विक्रय इंदौर जिलेके किसानोंको किए  जाने के नगर निगम ट्रेंचिंग ग्राउंड में रोजाना ५० से६० टन खाद बन रही है । इसकी खपत नहीं होनेके कारण बार-बार प्लांट कोबंद करना पड़ता था, लेकिन अब खाद को दो रूपए किलो में बेचा जा रहा है, जिससे डिमांड भी बढ़ गई है । इससे शहर की जनता को भी पता चलेगा तो वो सस्ती खाद लेजा सकेंगे और अपने उद्यानों व घरों के अंदर लगे पेड़-पौधों में इसका इस्तेमाल कर सकेंगे ।  इससे खाद की खपत भी शुरू होजाएंगे । यही कारण है कि अब एनजीओ को भी जोड़ा जा रहा है, जिनकी मदद से किसानों तक दो रूपए  किलो खाद पहुंचाइ  जाएगी  ।
संकट में है भारतीय कागज उद्योग
देश में कागज उद्योग पर संकट के बादल मंडरा रह हैं । अंतरराष्ट्रीय बाजार में वुड पल्प (लकड़ी की लुगदी) की कमी का असर देश के बाजार पर दिखई देनेलगा हैं । अंतरराष्ट्रीय बाजार में आनेवाली पूरी लुगदी चीन उठा रहा है । इससेदेश में इसका आयात जरूरत मुताबिक नहीं होपा रहा  है । कच्च माल न मिलनेके कारण कागज की कीमतों में गत दोमहीनेमें पचार फीसदी वृद्धि होगई है । 
कागज निर्माण में लगे कुटीरउद्योगों पर भी असर पड़ रहा  है । इससे जुड़े तमाम लोगों की रोजी-रोटी पर खतरा उत्पन्न होगया है । देश में वुड पल्प का बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है । चीन में कुछ समय पहलेतक रद्दी कोरीसाइकिल कर पल्प तैयार किया जाता था लेकिन वहां इस पर प्रतिबंध लगनेके बाद चीन अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़ी मात्रा में वुड पल्प खरीद रहा है, जिसका सीधा असर भारतीय कागज उद्योग पर भी पड़तेदिख रहा है । 
उत्तर प्रदेश का बरेली कागज की बड़ी मंडी है । यहां हर महीनेकरीब पांच सौ टन कागज की खपत होती   है । यह सारा कागज ब्रोकरों के जरिए मिलों सेजिलेके व्यापारियों के पास पहुंचता है । जिलेमें करीब दोसौ बड़े व्यापारी समेत पांच सौ सेअधिक छोटे व्यापारी स्टेशनरी कारोबार में लगेहैं । इसके साथ ही यहां हजारों लोगों के रोजगार का साधन कुटीर उद्योग के रूप में कागज का काम है । बंडल या रोल के रूप में कागज का काम है । बंडल या रोल के रूप में सादा कागज आनेके बाद यहां कारखानों में बाइडिंग, रूलिंग, कवर, पैंकिंग आदि का काम होता   हैं । 
पिछले२० साल की बात करें तोकागज के दामों में अमूमन एक या दोरूपए प्रति किलोतक की तेजी आती थी । इस बार दोमहीनेमें करीब ३० से४० रूपए प्रति किलोके दाम बढ़ गए हैं । कागज का एक रिम जोडेढ़ सौ रूपए का आता था, आज उसकी कीमत करीब २२० रूपए होगई हैं । इस तरह करीब ५० फीसदी तक दामों में बढ़ोतरी हुई है ।
कागज का काम करने वाले व्यापारी अमूमन एक साथ ही माल का सौदा कर लेतेथे, फिर मिल से थोड़ा-थोड़ा मल मंगवातेथे। इस बार व्यापारी कोदेनेके लिए मिलों के पास माल ही नहीं रहा है । कारखानों में स्टॉक खत्म होगया  है । व्यापारी नुकसान के डरसेखरीद नहीं रहा है । कारखानों में कारीगर बैठे हुए हैं । स्टेपलर, पेस्टिंग, मिशिल उठाना, रूलिंग करनेवालेकारीगरों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गई है । व्यापारी परेशान हैं कि जनवरी सेशुरू होने वाले सीजन के लिए अभी से तैयारी करनी होती है लेकिन कच्च माल नहीं मिल रहा है । 
बदल जाएगा किलोग्राम तौलने का तरीका
किलोग्राम मापने का तरीका बदल गया है । अभी तक इसे प्लैटिनम-इरिडियम के अलॉय से बने जिस सिलेण्डर से मापा जाता था, उसे रिटायर कर दिया गया है । साल १८८९ से इसी को माप माना जाता था । हालांकि अब वैज्ञानिक माप के जरिए किलोग्राम तय होगा । इस बारे में पेरिस में हुई दुनियाभर के वैज्ञानिकों की मीटिंग में एकमत से फैसला किया गया है । हालांकि माप का तरीका बदलने से मार्केट में होने वाले माप में फर्क नहीं पड़ेगा । २० मई से नई परिभाष लागू हो जाएगी । किलोग्राम को एक बेहद छोटे मगर अचल भार के जरिए परिभाषित किया जाएगा । इसके लिए प्लैंक कॉन्स्टेंट का इस्तेमाल किया जाएगा । नई परिभाषा के लिए वजन मापने का काम किब्बल नाम का एक तराजू करेगा । अब इसका आधार प्लेटिनम इरीडियम का सिलिंडर नहीं होगा । इसकी जगह यह प्लैंक कॉन्स्टेंट के आधार पर तय किया जाएगा । क्वांटम फिजिक्स में प्लैंक कॉन्स्टेंट को ऊर्जा और फोटॉन जैसे कणों की आवृत्ति के बीच संबंध से तैयार किया जाता है । 
वैज्ञानिक चाहते थे कि किलोग्राम के बाट की पैमाइश के लिए किसी चीज का इस्तेमाल न हो जैसा कि अभी तक होता था । इसकी जगह वे भौतिकी में इस्तेमाल होने वाले प्लैंक के स्थिरांक को पैमाना बनाना चाहते था । जिस तरह दूरी का पैमाइश के लिए मीटर को स्टैंडर्ड इकाई निर्धारित किया गया, उसी तरह किलोग्राम निर्धारित करने के बारे में भी सोचा जा रहा है । फिलहाल मीटर प्रकाश द्वारा एक सेंकण्ड के ३०० वें मिलियन में तय की गई दूरी के बराबर है । अब बहुमत के बदलाव के पक्ष में वोट करने से किलोग्राम को निर्धारित करने के लिए प्लैंक के स्थिरांक का इस्तेमाल किया   जाएगा । 
पिछले दिनों १६ नवम्बर २०१८ को दुनियाभर के वैज्ञानिकों  ने  वजन तौलने वाले किलोग्राम के बाट को बदलने के लिए वोट किया । बहुत बदलाव के पक्ष में है । इसके बाद आप किलोग्राम के बाट को तौलने का तरीका बदल गया है । पहले दुनियाभर के किलोग्राम का वजन तय करने के लिए सिलेंडर के आकार के एक बाट का इस्तेमाल किया जाता था । यानी उसका वजन जितना होता था, उतना ही किलोग्राम का स्टैंडर्ड वजन होता । यह सिलेंडर प्लेटिनियम और झरिडियम से बना था इसका उपनाम ले ग्रैंड के है। 
प्रदेश चर्चा 
हिमाचल : चीड़ की पत्तियो से रोजगार 
कुलभूषण उपमन्यु

सामुदायिक प्राकृतिक संसाधनों पर आजकल आग का खतरा मंडराने लगा है । अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों समेत दुनियाभर के जंगलों में लगी आग की एक वजह चीड़ की पत्तियां भी होती हैं । हमारा उत्तंराखंड भी जंगलों की इस आग से अछूता नहीं है।  
चीड़ की पत्तियां वनों में आग लगने का हमेशा से एक बड़ा कारण रहे हैं । वनों को आग से बचाने और स्थानीय आजीविकाओं के प्रति चिंता रखने वाला हर आदमी इस विषय में भी चिंता रखता है और चाहता है कि चीड़ की पत्तियों के निपटारे का कोई व्यावहारिक समाधान निकल आये ताकि वनों को आग से बचाने का काम आसान हो और वनों में घास और अन्य वनस्पतियों के पनपने के लिए भी स्थान हो जाए । 
चीड़ की पत्तियां  सड़ती नहीं हैं इस कारण सालों तक वनों में पड़ी रह सकती हैं। इसी वजह से उनके नीचे कुछ भी उग नहीं सकता । बारबार आग लगने के कारण अन्य वनस्पतियां चीड़ के वनों से लुप्त हो जाती हैं, जिसका वानस्पतिक विविधता पर बुरा प्रभाव पड़ता है, और वानस्पतिक विविधता के नष्ट होने के कारण जैव विविधता भी नष्ट होती है। इसके कारण वनों पर निर्भर व्यवसाय विशेष कर पशुपालन और कृषि भी बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। जड़ीबूटी व्यवसाय भी बुरी तरह प्रभावित हुआ  है । 
चीड़ वनों का प्रचार एक पर्यावरणीय गलती थी जिसका उपचार करना समय की जरूरत बन गई है। धीरे - धीरे चीड़ वनों को मिश्रित वनों में बदल कर चारे की कमी और कृषि जरूरतों को पूरा करने के साथ - साथ अन्य आजीविका स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है । यह दीर्घकालीन योजना के अंतर्गत आरंभ किया जाना चाहिए, किन्तु चीड़ की पत्तियांे से तात्कालिक रूप से निपटने की कोई व्यवस्था बनती है तो यह बड़ी राहत की बात होगी ।
इस दृष्टि से आई. आई. टी. मंडी से शुभ समाचार आया है । आई. आई. टी. मंडी (हि.प्र.) के `हिमालय क्षेत्रीय नवाचारी-तकनीक विकास  केन्द्र` ने पिछले तीन वर्ष की मेहनत के बाद चीड़ की पत्तियोंसे ब्रिकेट, और पेलेट, बनाने की तकनीक और प्लांट विकसित कर लिया है। चीड़ की पत्तियों से ब्रिकेट बनाने की बात और संभावना तो कई वर्षों से जताई जा रही थी, किन्तु व्यवहारिक समाधान के साथ समस्या को हल करने की व्यवस्था खड़ी करने के लिए आई.आई.टी. मंडी बधाई का पात्र है। भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देने के  लिए सेंसर विकसित करके इस बरसात में कोटरोपी में पिछले वर्ष जैसी दुर्घटना की संभावना को रोककर कर पहले भी यह संस्थान प्रदेश के लिए अपनी उपादेयता सिद्ध कर चुका है । 
प्रदेश को ऐसी ही तकनीकी शोध दृष्टि की जरूरत है जो वास्तविक समस्याओं को हल करने के रास्ते बना सके । संस्थान ने अपने परिसर में एक प्लांट भी ब्रिकेट बनाने के लिए स्थापित कर लिया है। चीड़ की पत्तियों के ये ब्रिकेट (गुटके) कई छोटे बड़े उद्योगों में इंर्धन के रूप मेंप्रयोग किए जा सकते हैं । खाना पकाने के  लिए इंर्धनके लिए भी प्रयोग किए जा सकते हैं । इससे उद्योगों में कोयले या लकड़ी का ईंधन जलाने का विकल्प उपलब्ध होगा और ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा ।
हिमाचल सरकार ने चीड़ की पत्तियों से ब्रिकेट बनाने के लिए आगे आने वाले उद्योगों को पचास प्रतिशत उपदान देने का फैसला करके  सराहनीय कार्य किया है। वन विभाग मंडी ने भी इस प्रक्रिया में अपने हिस्से का योगदान देने का वादा करके इस समस्या के समाधान का रास्ता साफ करने का काम किया है। अब जरूरत यह है कि वन विभाग प्रदेश स्तर पर भी इस तरह के सहयोग का निर्णय करे । प्लांट स्थापित करने की जानकारी तो आई.आई.टी. मंडी में उपलब्ध होगी, किन्तु अगला महत्वपूर्ण कदम ब्रिकेट के लिए खरीददारों से संपर्क करवाने का है। 
सरकार को चाहिए कि ब्रिकेट बिक्री व्यवस्था खड़ी करने में भी सहयोग करे । हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, बिलासपुर, हमीरपुर, काँगड़ा, ऊना, चंबा और मंडी जिलों में चीड़ की भारी मात्रा में उपलब्धता है। अत: इन जिलों में चीड़ की पत्तियां हटाए जाने से घास, चारे और जैव विविधता के बढ़ने से जो आजीविका के अवसर  पैदा होंगे उसके अतिरिक्त चीड़ के ब्रिकेट बनाने के उद्योगों में भी काफी बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करने की क्षमता खड़ी होगी । 
यह तकनीक हमारे पड़ोसी राज्यों जम्मू-काश्मीर, और उत्तरांखंड के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी । शुभ काम में देर नहीं होनी चाहिए अत: जितनी जल्दी हो सके तमाम व्यवस्थाओं को यथा स्थान संयोजित करके कार्य धरातल पर उतारा जाना चाहिए । हिमाचलप्रदेश निसंदेह इस तकनीक और उद्योग से लाभान्वित होगा।  
कविता
वन, जग के आधार
डॉ. पुष्पा चौरसिया

बड़, पीपल, अरू नीम की, लग त्रिवेणी द्वार । 
आक्सीजन की दूर तक,फैले शुुद्ध बयार ।। 

वन  सेऔषधियाँ मिलें, वन से लाभ  हजार । 
अब  तो जागा ेसाथियों, कर पेड़ों से प्यार ।। 

वन उपवन गर मिट गये, कैसे आए  बसन्त । 
पर्यावरण  सम्हालिये, खुशियाँ पाएँ अनन्त ।। 

वृक्ष अगर कटते रहे, तब विनाश है द्वार । 
जंगल  होते  सर्वदा, जग  के  प्राणाधार ।। 

जंगल  से मंगल बँधा, वर्षा के आधार । 
बलखाती नदियाँबहें, हर दिन होत्यौहार ।। 

करें प्रदूषण दूर वन, इनकी करें सम्हाल । 
वृक्ष कटाई बंद हो, जीवन होखुशहाल ।। 

वर्षा, खेती, शुद्ध जल, पाए  जग  उपहार । 
रहे सुरक्षित वन तभी, हो जाए  उद्धार  ।। 

वन के अंचल मेंबसेपशु-पक्षी वनराज । 
वन कटने से हो रहा, इनका व्यथित समाज ।।

अल्हड़ सी नदियाँ बहे, ऐसा करोउपाय । 
दोनों तट पर दूर तक, हम सब पेड़ लगाएँ ।। 

आक्सीजन कम होरही, संकट में जलधार । 
वृक्ष लगा देना हमें, धरती कोउपहार ।। 

वर्षा, खेती, वन, उपज मिलती शुद्ध बयार । 
फिर सेजंगल होघने, जगती का उद्दार ।। 
ज्ञान विज्ञान
उजड़े वनों में हरियाली लौट सकती है 
हमारे देश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके है । बहुत-सा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वन-भूमि के रूप में वर्गीकृत है, पर वहां वन नाम मात्र को ही है । यह एक चुनौती है कि इसे हरा-भरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए । दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे वन क्षेत्र के पास रहने वाले गांववासियों, विशेषकर आदिवा-सियों, की आर्थिक स्थिति को टिकाऊ तौर पर सुधारना है । इन दोनों चुनौतियों को एक-दूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएं तो बड़ी सफलता मिल सकती है ।
ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हरा-भरा करने का काम स्थानीय वनवासियों-आदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है । सहयोग को प्राप्त् करने का सबसे सार्थक उपाय यह  है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त् हो । वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने की भूमिका निभाएं और इस हरे-भरे हो रहे वन से ही उनकी टिकाऊ  आजीविका सुनिश्चित हो ।
आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नजदीकी का रिश्ता रहा है । कृषि भूमि पर उनकी हकदारी व भूमि सुधार सुनि-श्चित करना जरूरी है, पर वनों का उनके  जीवन व आजीविका में विशेष महत्व है । 
     प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मजदूरी दी जाएगी । साथ ही वे रक्षा-निगरानी के लिए अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएंगे । जल संरक्षण व वाटर हारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व हरियाली भी । साथ-साथ कुछ नए पौधों से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी ।
अत: यह बहुत जरूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मजबूत कानूनी आधार दिया जाए । 
अन्यथा वे मेहनत वर पेड़ लगाएंगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा । आदिवासी समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है । अत: उन्हें  लघु वन उपज प्राप्त् करने के पूर्ण अधिकार दिए जाएं । ये अधिकार अगली पीढ़ी को विरासत में भी मिलने चाहिए । जब तक वे वन की रक्षा करेंे तब तक उनके ये अधिकार जारी रहने चाहिए । जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त् लघु वनोपज प्राप्त् नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उन्हें पर्याप्त् आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें ।
प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़-पौधों की उन किस्मों को महत्व देना जरूरी है जिनसे आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आंवला, चिरौंजी, शहद जैसी लघु वनोपज मिलती रही है । औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त् हो सकती है । ऐसी परियोजना की एक अन्य व्यापक संभावना रोजगार गारंटी के संदर्भ में है । एक मुख्य मुद्दा यह है कि रोजगार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मजदूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह गांवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे । प्रस्तावित टिकाऊ रोजगार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक प्रयास संभव हैं। 
 स्थान पर स्थापित है। 
नकली चांद की चांदनी से रोशन होगा चीन
चांद मानव कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है । भला चांद की चाहत किसे नहीं है ? विश्व की लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा के मनोहरी रूप पर काव्य -सृष्टि की है । मगर नकली चांद ? इस लेख का शीर्षक  पढ़कर आप हैरान रह गए होंगे । मगर यदि चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है, तो चीन के आसमान में २०२० तक यह चांद चमकने लगेगा । यह नकली चांद चेंगडू शहर की सड़कों पर रोशनी फैलाएगा और इसके बाद स्ट्रीटलैंप की जरूरत नहीं रहेगी ।  
चीन इससे अंतरिक्ष में बड़ी ऊंचाई पर पहुंचने की तैयारी में है । वह इस प्रोजेक्ट को २०२० तक लॉन्च करना चाहता है । इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नॉलौज माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉर्पोरेशन नामक एक निजी संस्थान पिछले कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार अब यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। 
चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के  निदेशक  वुचेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि चीन सड़कों और गलियों को रोशन करने वाले बिजली खर्च को घटाना चाहता है । नकली चांद से ५० वर्ग कि.मी. के इलाके में रोशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में से १७.३ करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं । और आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैक आउट की स्थिति में राहत के कामों में भी सहायता मिलेगी । वु कहते हैं कि अगर पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल २०२२ तक चीन ऐसे तीन    और चांद आसमान में स्थापित सकता है । 
सवाल उठता है कि यह नकली चांद काम कैसे करेगा ? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा । यह चांद हूबहू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा मगर, इसकी रोशनी असली चांद से आठ गुना अधिक होगी । नकली चांद की रोशनी को नियंत्रित किया जा सकेगा । यह पृथ्वी से ५०० कि.मी. की दूरी पर स्थित होगा । जबकि असली चांद की पृथ्वी से दूरी ३,८०,००० कि.मी. है ।
चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम से अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है और इसके लिए उसने ऐसी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई है । हालांकि चीन पहला ऐसा देश नहीं है जो नकली चांद बनाने की कोशिश में जुटा है, इससे पहले नब्बे के  दशक में रूस और अमेरिका नकली चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं लेकिन नकली चांद स्थापित करने की राह अभी भी इतनी आसान नहीं है क्योंकि पृथ्वी के एक खास इलाके में रोशनी करने के लिए इस मानव निर्मित चांद को बिल्कुल निश्चित जगह पर रखना होगा, जो इतना आसान नहीं है । 
मंगल पर मीथेन का रहस्य
नासा द्वारा मंगल पर भेजे गए क्यूरोसिटी रोवर ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन की सबसे अधिक मात्राउत्तरी गोलार्ध की गर्मियों के दौरान दर्ज की है। हाल ही में की गई गणनाओं की मदद से मीथेन की अधिक मात्रा को समझने में मदद मिल सकती है। कनाडा स्थित यॉर्क युनिवर्सिटी के ग्रह वैज्ञानिक जॉन मूर्स ने प्लेनेटरी साइंस की हालिया बैठक में बताया कि जैसे ही मौसम सर्दी से वसंत की ओर जाता है, सूर्य की गर्मी से मिट्टी गर्म होने लगती है, जिससे मीथेन गैस जमीन से निकलकर वायुमंडल में पहुंचने लगती है । 
सन् २०१२ में मंगल की विषुवत रेखा के नजदीक गेल क्रेटर पर रोवर से प्राप्त् जानकारी के अनुसार उत्तरी वसंत में वायुमंडलीय मीथेन की काफी अधिक मात्रा दर्ज की गई । इस साल की शुरूआत  में, टीम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ मीथेन के स्तर बढ़ते-घटते नजर आए । इसका सबसे अधिक स्तर    उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों में दर्ज किया  गया ।
मंगल के वायुमण्डल में मीथेन का मिलना एक पहेली है । ग्रह पर हो  रही रासायनिक अभिक्रियाओं के  चलते लगभग ३०० वर्षों में यह गैस नष्ट हो जाना चाहिए थी । लेकिन आज भी इसकी उपस्थिति दर्शाती है कि ग्रह पर आज भी कोई ऐसा स्त्रोत है जो वायुमंडल में लगातार गैस भेज रहा है । यह स्त्रोत भूगर्भीय प्रक्रियाएं हो सकती हैं या फिर सतह के नीचे दबे सूक्ष्मजीव या जीवन के कोई अन्य रूप भी हो सकत े हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में अधिकांश मीथेन सजीवों से आती है ।
शोधकर्ताओं ने समय - समय पर दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों की मदद से मंगल पर मीथेन के एक-एक कतरे पर नजर रखी है और इसमें उतार-चढ़ाव देखे हैं । 
२००९ में मंगल पर मीथेन के स्तर में जबरदस्त उछाल भी देखा गया था । उम्मीद थी कि रोवर इस गुत्थी को सुलझाएगा किन्तु उसने तो समस्या को उलझा दिया है । अब, ऐसा प्रतीत होता है कि जवाब मंगल की सतह के नीचे दफन है । मंगल पर मौसम पेचीदा होते हैं खासकर विषुवत रेखा के आसपास जहां रोवर स्थित है।         
गांधी के १५० वें वर्ष पर विशेष
गांधीवादी संस्थाए और गांधी विचार 
अशोक शरण

अपनी मृत्यु के ठीक पहले गांधी ने कांग्रेस को राजनीति छोड़कर सामाजिक कार्यों में लगने की तजबीज दी थी, लेकिन उस समय की देश की हालातों और नव-निर्माण की जिम्मेदारियों ने तत्कालीन नेतृत्व को सत्ता संभालने के लिए प्रेरित किया । उसी दौर में कई गांधीवादी संस्थाएं भी सक्रिय थीं, लेकिन धीरे-धीरे वे भी निस्तेज होती गईं । 
सरकारी, गैर-सरकारी स्तर पर हम कितना भी गांधी को याद रखने का कर्मकांड निभाएं, आज की विषमता देख कर स्पष्ट समझा जा सकता है कि देश ने गांधी के बताए मार्ग पर चलने का इरादा पूरी तरह से त्याग दिया है । देश में अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब । जहां एक वर्ष में कुल आबादी में ७३०० अरबपति पैदा हो गए जिनकी कुल संपत्ति ६००० अरब डॉलर यानी चार खरब ४० अरब रुपये आंकी गई है, वहीं विश्व के भूखे देशों में हम एक वर्ष में १०० से १०३ वें पायदान पर आ गए । यहां यह भी समझ लीजिये की वर्ष २०१४ में भुखमरी के इंडेक्स में हम ५५ वें पायदान पर थे और २०१८ में १०३ वें पर । गांधी जी ने कहा था कि जब तक हमारा गांव अपने पैरों पर खड़ा नहीं होगा, सामाजिक रूप से जागरूक नहीं होगा और आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होगा तब तक देश की आजादी का कोई अर्थ नहीं है । 
अंग्रेजों के देश छोड़कर चले जाने से वास्तविक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, बल्कि इसी प्रकार शासन चलाने वाले दूसरे लोग आ जायेंगे और हम गुलामी की जंजीरों में ही जकड़े रहेंगे । देश के मौजूदा असमान विकास के लिए जितना राजनेता, राजनैतिक दल और सरकारें जिम्मेदार हैं उससे अधिक तथाकथित गांधी विचारक भी जिम्मेदार हैं । हमने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को भुला    दिया ।
गांधी अपने द्वारा गठित संस्थाओं और रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से परिवर्तन लाए थे और लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक किया था । उनके अठारह रचनात्मक कार्यक्रमों में खादी, ग्रामोद्योग, महिलाएं, किसान, आदिवासी, अस्पृश्यता-निवारण आदि थे। संस्थाओं में 'अखिल भारत चरखा संघ,` 'अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ,` 'गुजरात विद्यापी ,` 'नई तालीम समिति,` 'हरिजन सेवक संघ,` 'कस्तूरबा सेवा संघ` आदि थे । इसके अतिरिक्त गांंधी की अनिच्छा के बावजूद कि उनके नाम से कोई संस्था न बनाई जाए, 'गांधी सेवा संघ` और 'श्री गांधी आश्रम` की स्थापना भी की गई । गांधी की शहादत के बाद उनके विचारों के माध्यम से कार्य करने के लिए दो प्रमुख संस्थाएं बनाई गईं । 
इनमें एक थी, 'अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति` के प्रस्ताव पर गति 'राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि` जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और मंत्री आचार्य कृपलानी थे। इसके सदस्यों में पं. जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जगजीवन राम, राजकुमारी अमृत कौर शामिल थे । दूसरी प्रमुख संस्था 'सर्व सेवा संघ` की स्थापना गांधी की मृत्यु के तुरंत बाद १९४८ में ही सेवाग्राम में तीन दिन चली बैठक में हुई थी । इस संस्था में गांधी द्वारा बनाई गयी 'चरखा संघ,` 'ग्रामोद्योग संघ` आदि संस्थाएं समाहित कर दी गईं । 'सर्व सेवा संघ` में उपर्युक्त लगभग सभी व्यक्तियों, जिन्होंने 'राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि` की स्थापना की थी, के साथ सर्वोदय कायकंर्ता, प्रमुख रूप से विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशोरीलाल मश्रुवाला, दादा धर्माधिकारी, आर्यनायकम और सुशीला पाई आदि शामिल थे ।
गांधी के नाम पर इतनी सारी संस्थाएं, जो विभिन्न विषयों पर काम करने के लिए खड़ी की गईं थीं अगर स्वतंत्रता के बाद उत्साह, समझ, समर्पण और लगन से काम कर रही होतीं तो देश की हालत आज ऐसी विषम नहीं होती । लोकहित में सरकार की नीतियों को बनाने के  लिए इन संस्थाओं के माध्यम से एक विशाल जनाधार था, परन्तु १९४८ के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया इन संस्थाओं को चलाने वाले अपने-अपने दायरे में सिमटते गए । 
देश की तो छोड़िये, अपनी सहोदर संस्थाओं से भी  कटते गए और अब तो इन संस्थाओं के पदाधिकारी और कार्यकर्ता एक-दूसरे का मुंह देखना भी पसंद नहीं करते । गांधीवादी संस्थाआंे में विचारों की एक गहरी खाई है। पिछले कई वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि केन्द्रीय संस्थाओं की बात तो छोड़िए, राज्यों में सर्वोदय मंडलों और खादी संस्थाओं के मध्य संपर्क नहीं के बराबर रह गया है। ऐसी ही स्थिति सर्वोदय और खादी कार्यकर्ताआें की  भी  है।  ऐसा नहीं है कि खादी रक्षा अभियान से जुड़ने की गांधीवादी संस्थाओं ने पहल नहीं की। 
इसमें 'सर्व सेवा संघ` प्रमुखता से जुड़ा, परन्तु सभी गांधीवादी संस्थाओं के इस अभियान में एक साथ न आने के कारण 'खादी रक्षा अभियान` का प्रभाव उतना नहीं हो रहा है जितना होना चाहिए था। हाल में गांधी के नाम पर सभी को जोड़ने का एक और प्रयास हुआ है -गांधी का १५० वां जयन्ती-वर्ष सबके एक साथ मिलकर मनाने का, परन्तु फिर भी सभी एक नहीं हो पाए और अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाली कहावत चरितार्थ करते चले ।
गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम, जो सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं, जैसे-'स्वच्छ भारत मिशन` आदि का मूल्यांकन विपक्षी दलों के लिए छोड़ दें तो भी गांधीवादियों के लिए स्थिति इतनी बुरी नहीं है कि सब कुछ समाप्त हो गया है । कुछ निर्भीक, अपने धुन के पक्के, स्वतंत्र सोच रखने वाले युवा गांधीवादी कार्यकर्ताआें ने अपनी एक नयी राह निकाली है। ये युवा 'एकता परिषद्` के नाम से गांवों के भूमिहीनों, आदिवासियों, मजदूरों, महिलाओं की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके 'जनादेश सत्याग्रह` पदयात्रा का रूप और प्रभाव देखकर पुन: गांधी की याद आने लगती है। 
एक लाख सत्याग्रही जल, जंगल, जमीन के  मुद्दों को लेकर सैकड़ों मील सतत पैदल मार्च करते हैं और सरकार से वंचितों की मांग मनवाने में आंशिक रूप से सफल भी होते हैं। पहले इसी तरह की पदयात्रा २ अक्टूबर २००७ को ग्वालियर से दिल्ली के लिए हुई  थी, जिसमें २५००० लोगों ने भाग लिया था । इसके बाद ७ मार्च २०११ को चेतावनी यात्रा निकली थी जिसमें दस हजार गांवों के लोग संसद मार्ग थाने पर बैठे थे । यहां भारत सरकार के अधिकारी ने आकर उनका ज्ञापन लिया था और आश्वासन दिया था कि इस पर शीघ्र कार्यवाई कर निर्णय लिया जायेगा ।
गांधीवादियों द्वारा गांधीवादी मार्ग अपनाकर देश की आजादी के बाद किसी विषय को लेकर इतना बड़ा आन्दोलन नहीं हुआ, बल्कि किसी भी राजनीतिक पार्टी या संगठन द्वारा इतना बड़ा शांतिपूर्ण तरीके से आन्दोलन नहीं किया गया । आदिवासियों के इस भूमि अधिकार के मुद्दे से यदि गांधीजी का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम खादी और ग्रामोद्योग शामिल हो जाता तो 'खादी रक्षा अभियान` को और शक्ति मिलती तथा एक साथ कई मुद्दे सुलझ जाते । 
आदिवासियों, मजदूरों, किसानों को भूमि तो मिल जाएगी पर उनको वहीं गांव में रोजगार भी मिल जाये तो उनको अतिरिक्त आय का साधन भी मिल जाता । आज की परिस्थिति में केवल खेती पर रह कर घर नहीं चलाया जा सकता । यह खादी ग्रामोद्योगों के माध्यम से ही संभव है । 
वातावरण
यह जहर तो हमने ही उपजाया है 
पंकज चतुर्वेदी

देश में बढ़ते औद्योगि-कीकरण ने प्रदूषण, खासकर वायु प्रदूषण को हमारे जीवन पर सदा छाया रहने वाला संकट बना दिया है, लेकिन ठंड के मौसम में इसमें विशेष इजाफा होता है। देश की राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ सालों से यह मौसम भारी खतरे के साथ आता है, लेकिन इससे निपटने के लिए राज्य और केन्द्र की सरकारें और समाज क्या कर रहे हैं ?
दो साल पहले नवंबर में ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर ट्रैफिक जाम ना लगे, यह बात सुनिश्चित की जाए । एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा था कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित हो रही है ।
सारा समाज और सरकार दिल्ली में घुटते दम पर बयानबाजी या चिंता तो जाहिर कर रहे हैं, लेकिन एनजीटी के उक्त महत्वपूर्ण आदेश का कभी गंभीरता से पालन ही नहीं किया गया । जो नवंबर सबसे जहरीला है, उसी नवंबर में दिल्ली के बीचों-बीच कम-से-कम पांच अलग-अलग धर्मों और मत के ऐसे विशाल जुलूस निकाले गए जिनसे समूची दिल्ली की यातायात व्यवस्था तहस-नहस हुई और जाम लगे । इसी नवंबर महीने में सरकार मध्य दिल्ली में ही दो बार मैराथान दौड़ के आयोजन कर सड़कों पर डायवर्सन और जाम को न्यौता दे चुकी है ।
अभी एक दशक पहले तक चीन की राजधानी पेेईचिंग में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में ही था। जब स्थानीय सरकार को समझ आया कि सालभर चलने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों से बीच शहर में जाम लगने लगा है तो शहर से कोई २५ किलोमीटर दूर डांगचेंग में एक विशाल प्रदर्शनी स्थल बनाया गया । उससे पहले वहां मेट्रो सेवा, अंतरराष्ट्रीय होटल, मॉल आदि भी तैयार कर दिए गए । वर्ष २०११ के बाद से सभी अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियां वहीं लगने लगीं ।
इसके विपरीत दिल्ली में पूरी तरह से टूटे-फूटे प्रगति मैदान में 'ट्रेड फेयर` यानि व्यापार मेला लगाया जा रहा है और एनजीटी से कुछ ही दूर स्थित प्रगति मैदान की सड़कें पूरा दिन जाम रहती हैं। भयावह यातायात जाम की संभावना को जानते-परखते  हुए भी बीच शहर में प्रगति मैदान को विस्तार दिया जा रहा है । यह कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि हम राजधानी दिल्ली में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा पर मंडरा रहे भयानक संकट से कितने बेपरवाह हैं ।  
राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा ना आए । रही-बची कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो या ऐसे ही निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसा स्मॉग ना हो, लेकिन हवा का जहर तो जानलेवा  स्तर पर ही है। लोगों की सांस की मानिंद पूरा यातायात व सिस्टम हांफ रहा है । 
यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे । एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट  में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल २०२५ तक दिल्ली में हर वर्ष करीब ३२,००० लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के  मुंह में जाएंगे । सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है । 'नेचर` पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में ३३ लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं ।
यही नहीं सड़कों पर बेवजह घंटों जाम में फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए-दिन सड़कों पर 'रोड रेज` के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद व विदेशी मुद्रा  व्यय कर मंगवाए गए इंर्धन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है सो अलग ।
यह हाल केवल देश की राजधानी के ही नहीं है, देश के सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले ६०० से ज्यादा शहरों-कस्बों के भी हैं । दुखद है कि दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में हर पांचवा आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाईल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया    है। 
यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो । विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई है और निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया है। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी है और अब इंसान दो कदम पैदल चलने की बजाए दुपहिया वाहन लेने में संकोच नहीं करता । असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अंजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के  पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है।
शहर हों या हाईवे, जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है वही दो-तीन सालों में गली बन जाता है । यह विडंबना है कि हमारे महानगर से लेकर कस्बे तक और सुपर हाईवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान व दुकान खोलने व वहीं अपने वाहन या घर का जरूरी सामान रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़े करने का काम उसी लुटियन दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत, हाईकोर्ट, नीति आयोग या साउथ ब्लाक के  बाहर होता है। जाहिर है, जो सड़क वाहन चलने के लिए बनाई गई हो उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही । 
दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बस स्टाप की योजनाएं भी गैर-नियोजित हैं। लाई-ओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टाप जमकर जाम रहते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने लाई-ओवर पर ही बसें खडी रहती हैं। राजधानी में मेट्रो स्टेशन के बाहर बैटरी रिक्शा इन दिनों जाम के बड़े कारण बने हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे ये रिक्शे गलत दिशा में चलने पर कतई नहीं ड़रते और इससे मोटर वाहनों की गति थमती है।
यह भी जानना जरूरी है कि बस या अन्य वाहन चाहे सीएनजी से चलें या और किसी ईंधन से, यदि वह क्षमता से अधिक वजन लादते हैं तो उनकी गति तो कम होती ही है, उससे निकलने वाला उत्सर्जन भी बढ़ता है। राजधानी में बसों में क्षमता से अधिक भीड़ तो आम बात है, तिपहिया में तीन की जगह तेरह लोगों को भरना, पुराने स्कूटरों में तीन पहिए लगा कर उनसे सामान या स्कूली बच्चें को ढोना सामान्य बात है। दस साल पुराने डीजल व  १५ साल  पुराने पेट्रोल वाहनों पर पाबंदी का आदेश कछुआ-चाल को भी मात दे रहा है ।
पूरे देश में स्कूलों व सरकारी कार्यालयों के खुलने व बंद होने के समय लगभग एक समान है। आमतौर पर स्कूलों का समय सुबह है । लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, लेकिन इसका परिणाम हर छोटे-बड़े शहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है  । ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त  में होता है। यह सभी जानते हैं कि नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की गति में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है, लेकिन यदि ये पहले गियर में रैंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर-डाय-आक्साईड व कार्बन -मोनो-ऑक्साईड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। क्या स्कूलों के खुलने व बंद होने के समय में अंतर या बदलाव कर इस जाम के तनाव से मुक्ति  नहीं पाई जा सकती ?  इसी तरह कार्यालयों में भी किया जा सकता है । 
कुछ कार्यालयों की छुट्टी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन की छुट्टी के दिन अलग-अलग किए जाएं तो हर दिन कम-से-कम ३० प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी । कुछ कार्यालयों का समय आठ  या साढ़े आठ  से करने व उनके बंद होने का समय भी साढ़े चार या पांच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा । यही नहीं इससे वाहनों की ओवरलोड़िंग भी कम होगी । सड़क पर जाम से उपज रहे जहर से जूझने के उपाय तो हजारों हैं, बशर्तें उन पर ईमानदारी से क्रियान्वयन की इच्छा-शक्ति हो ।