गांधी के १५० वें वर्ष पर विशेष
गांधीवादी संस्थाए और गांधी विचार
अशोक शरण
अपनी मृत्यु के ठीक पहले गांधी ने कांग्रेस को राजनीति छोड़कर सामाजिक कार्यों में लगने की तजबीज दी थी, लेकिन उस समय की देश की हालातों और नव-निर्माण की जिम्मेदारियों ने तत्कालीन नेतृत्व को सत्ता संभालने के लिए प्रेरित किया । उसी दौर में कई गांधीवादी संस्थाएं भी सक्रिय थीं, लेकिन धीरे-धीरे वे भी निस्तेज होती गईं ।
सरकारी, गैर-सरकारी स्तर पर हम कितना भी गांधी को याद रखने का कर्मकांड निभाएं, आज की विषमता देख कर स्पष्ट समझा जा सकता है कि देश ने गांधी के बताए मार्ग पर चलने का इरादा पूरी तरह से त्याग दिया है । देश में अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब । जहां एक वर्ष में कुल आबादी में ७३०० अरबपति पैदा हो गए जिनकी कुल संपत्ति ६००० अरब डॉलर यानी चार खरब ४० अरब रुपये आंकी गई है, वहीं विश्व के भूखे देशों में हम एक वर्ष में १०० से १०३ वें पायदान पर आ गए । यहां यह भी समझ लीजिये की वर्ष २०१४ में भुखमरी के इंडेक्स में हम ५५ वें पायदान पर थे और २०१८ में १०३ वें पर । गांधी जी ने कहा था कि जब तक हमारा गांव अपने पैरों पर खड़ा नहीं होगा, सामाजिक रूप से जागरूक नहीं होगा और आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होगा तब तक देश की आजादी का कोई अर्थ नहीं है ।
अंग्रेजों के देश छोड़कर चले जाने से वास्तविक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, बल्कि इसी प्रकार शासन चलाने वाले दूसरे लोग आ जायेंगे और हम गुलामी की जंजीरों में ही जकड़े रहेंगे । देश के मौजूदा असमान विकास के लिए जितना राजनेता, राजनैतिक दल और सरकारें जिम्मेदार हैं उससे अधिक तथाकथित गांधी विचारक भी जिम्मेदार हैं । हमने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को भुला दिया ।
गांधी अपने द्वारा गठित संस्थाओं और रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से परिवर्तन लाए थे और लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक किया था । उनके अठारह रचनात्मक कार्यक्रमों में खादी, ग्रामोद्योग, महिलाएं, किसान, आदिवासी, अस्पृश्यता-निवारण आदि थे। संस्थाओं में 'अखिल भारत चरखा संघ,` 'अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ,` 'गुजरात विद्यापी ,` 'नई तालीम समिति,` 'हरिजन सेवक संघ,` 'कस्तूरबा सेवा संघ` आदि थे । इसके अतिरिक्त गांंधी की अनिच्छा के बावजूद कि उनके नाम से कोई संस्था न बनाई जाए, 'गांधी सेवा संघ` और 'श्री गांधी आश्रम` की स्थापना भी की गई । गांधी की शहादत के बाद उनके विचारों के माध्यम से कार्य करने के लिए दो प्रमुख संस्थाएं बनाई गईं ।
इनमें एक थी, 'अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति` के प्रस्ताव पर गति 'राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि` जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और मंत्री आचार्य कृपलानी थे। इसके सदस्यों में पं. जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जगजीवन राम, राजकुमारी अमृत कौर शामिल थे । दूसरी प्रमुख संस्था 'सर्व सेवा संघ` की स्थापना गांधी की मृत्यु के तुरंत बाद १९४८ में ही सेवाग्राम में तीन दिन चली बैठक में हुई थी । इस संस्था में गांधी द्वारा बनाई गयी 'चरखा संघ,` 'ग्रामोद्योग संघ` आदि संस्थाएं समाहित कर दी गईं । 'सर्व सेवा संघ` में उपर्युक्त लगभग सभी व्यक्तियों, जिन्होंने 'राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि` की स्थापना की थी, के साथ सर्वोदय कायकंर्ता, प्रमुख रूप से विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशोरीलाल मश्रुवाला, दादा धर्माधिकारी, आर्यनायकम और सुशीला पाई आदि शामिल थे ।
गांधी के नाम पर इतनी सारी संस्थाएं, जो विभिन्न विषयों पर काम करने के लिए खड़ी की गईं थीं अगर स्वतंत्रता के बाद उत्साह, समझ, समर्पण और लगन से काम कर रही होतीं तो देश की हालत आज ऐसी विषम नहीं होती । लोकहित में सरकार की नीतियों को बनाने के लिए इन संस्थाओं के माध्यम से एक विशाल जनाधार था, परन्तु १९४८ के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया इन संस्थाओं को चलाने वाले अपने-अपने दायरे में सिमटते गए ।
देश की तो छोड़िये, अपनी सहोदर संस्थाओं से भी कटते गए और अब तो इन संस्थाओं के पदाधिकारी और कार्यकर्ता एक-दूसरे का मुंह देखना भी पसंद नहीं करते । गांधीवादी संस्थाआंे में विचारों की एक गहरी खाई है। पिछले कई वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि केन्द्रीय संस्थाओं की बात तो छोड़िए, राज्यों में सर्वोदय मंडलों और खादी संस्थाओं के मध्य संपर्क नहीं के बराबर रह गया है। ऐसी ही स्थिति सर्वोदय और खादी कार्यकर्ताआें की भी है। ऐसा नहीं है कि खादी रक्षा अभियान से जुड़ने की गांधीवादी संस्थाओं ने पहल नहीं की।
इसमें 'सर्व सेवा संघ` प्रमुखता से जुड़ा, परन्तु सभी गांधीवादी संस्थाओं के इस अभियान में एक साथ न आने के कारण 'खादी रक्षा अभियान` का प्रभाव उतना नहीं हो रहा है जितना होना चाहिए था। हाल में गांधी के नाम पर सभी को जोड़ने का एक और प्रयास हुआ है -गांधी का १५० वां जयन्ती-वर्ष सबके एक साथ मिलकर मनाने का, परन्तु फिर भी सभी एक नहीं हो पाए और अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाली कहावत चरितार्थ करते चले ।
गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम, जो सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं, जैसे-'स्वच्छ भारत मिशन` आदि का मूल्यांकन विपक्षी दलों के लिए छोड़ दें तो भी गांधीवादियों के लिए स्थिति इतनी बुरी नहीं है कि सब कुछ समाप्त हो गया है । कुछ निर्भीक, अपने धुन के पक्के, स्वतंत्र सोच रखने वाले युवा गांधीवादी कार्यकर्ताआें ने अपनी एक नयी राह निकाली है। ये युवा 'एकता परिषद्` के नाम से गांवों के भूमिहीनों, आदिवासियों, मजदूरों, महिलाओं की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके 'जनादेश सत्याग्रह` पदयात्रा का रूप और प्रभाव देखकर पुन: गांधी की याद आने लगती है।
एक लाख सत्याग्रही जल, जंगल, जमीन के मुद्दों को लेकर सैकड़ों मील सतत पैदल मार्च करते हैं और सरकार से वंचितों की मांग मनवाने में आंशिक रूप से सफल भी होते हैं। पहले इसी तरह की पदयात्रा २ अक्टूबर २००७ को ग्वालियर से दिल्ली के लिए हुई थी, जिसमें २५००० लोगों ने भाग लिया था । इसके बाद ७ मार्च २०११ को चेतावनी यात्रा निकली थी जिसमें दस हजार गांवों के लोग संसद मार्ग थाने पर बैठे थे । यहां भारत सरकार के अधिकारी ने आकर उनका ज्ञापन लिया था और आश्वासन दिया था कि इस पर शीघ्र कार्यवाई कर निर्णय लिया जायेगा ।
गांधीवादियों द्वारा गांधीवादी मार्ग अपनाकर देश की आजादी के बाद किसी विषय को लेकर इतना बड़ा आन्दोलन नहीं हुआ, बल्कि किसी भी राजनीतिक पार्टी या संगठन द्वारा इतना बड़ा शांतिपूर्ण तरीके से आन्दोलन नहीं किया गया । आदिवासियों के इस भूमि अधिकार के मुद्दे से यदि गांधीजी का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम खादी और ग्रामोद्योग शामिल हो जाता तो 'खादी रक्षा अभियान` को और शक्ति मिलती तथा एक साथ कई मुद्दे सुलझ जाते ।
आदिवासियों, मजदूरों, किसानों को भूमि तो मिल जाएगी पर उनको वहीं गांव में रोजगार भी मिल जाये तो उनको अतिरिक्त आय का साधन भी मिल जाता । आज की परिस्थिति में केवल खेती पर रह कर घर नहीं चलाया जा सकता । यह खादी ग्रामोद्योगों के माध्यम से ही संभव है ।
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