मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

ज्ञान विज्ञान
उजड़े वनों में हरियाली लौट सकती है 
हमारे देश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके है । बहुत-सा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वन-भूमि के रूप में वर्गीकृत है, पर वहां वन नाम मात्र को ही है । यह एक चुनौती है कि इसे हरा-भरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए । दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे वन क्षेत्र के पास रहने वाले गांववासियों, विशेषकर आदिवा-सियों, की आर्थिक स्थिति को टिकाऊ तौर पर सुधारना है । इन दोनों चुनौतियों को एक-दूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएं तो बड़ी सफलता मिल सकती है ।
ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हरा-भरा करने का काम स्थानीय वनवासियों-आदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है । सहयोग को प्राप्त् करने का सबसे सार्थक उपाय यह  है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त् हो । वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने की भूमिका निभाएं और इस हरे-भरे हो रहे वन से ही उनकी टिकाऊ  आजीविका सुनिश्चित हो ।
आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नजदीकी का रिश्ता रहा है । कृषि भूमि पर उनकी हकदारी व भूमि सुधार सुनि-श्चित करना जरूरी है, पर वनों का उनके  जीवन व आजीविका में विशेष महत्व है । 
     प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मजदूरी दी जाएगी । साथ ही वे रक्षा-निगरानी के लिए अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएंगे । जल संरक्षण व वाटर हारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व हरियाली भी । साथ-साथ कुछ नए पौधों से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी ।
अत: यह बहुत जरूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मजबूत कानूनी आधार दिया जाए । 
अन्यथा वे मेहनत वर पेड़ लगाएंगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा । आदिवासी समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है । अत: उन्हें  लघु वन उपज प्राप्त् करने के पूर्ण अधिकार दिए जाएं । ये अधिकार अगली पीढ़ी को विरासत में भी मिलने चाहिए । जब तक वे वन की रक्षा करेंे तब तक उनके ये अधिकार जारी रहने चाहिए । जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त् लघु वनोपज प्राप्त् नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उन्हें पर्याप्त् आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें ।
प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़-पौधों की उन किस्मों को महत्व देना जरूरी है जिनसे आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आंवला, चिरौंजी, शहद जैसी लघु वनोपज मिलती रही है । औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त् हो सकती है । ऐसी परियोजना की एक अन्य व्यापक संभावना रोजगार गारंटी के संदर्भ में है । एक मुख्य मुद्दा यह है कि रोजगार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मजदूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह गांवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे । प्रस्तावित टिकाऊ रोजगार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक प्रयास संभव हैं। 
 स्थान पर स्थापित है। 
नकली चांद की चांदनी से रोशन होगा चीन
चांद मानव कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है । भला चांद की चाहत किसे नहीं है ? विश्व की लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा के मनोहरी रूप पर काव्य -सृष्टि की है । मगर नकली चांद ? इस लेख का शीर्षक  पढ़कर आप हैरान रह गए होंगे । मगर यदि चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है, तो चीन के आसमान में २०२० तक यह चांद चमकने लगेगा । यह नकली चांद चेंगडू शहर की सड़कों पर रोशनी फैलाएगा और इसके बाद स्ट्रीटलैंप की जरूरत नहीं रहेगी ।  
चीन इससे अंतरिक्ष में बड़ी ऊंचाई पर पहुंचने की तैयारी में है । वह इस प्रोजेक्ट को २०२० तक लॉन्च करना चाहता है । इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नॉलौज माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉर्पोरेशन नामक एक निजी संस्थान पिछले कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार अब यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। 
चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के  निदेशक  वुचेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि चीन सड़कों और गलियों को रोशन करने वाले बिजली खर्च को घटाना चाहता है । नकली चांद से ५० वर्ग कि.मी. के इलाके में रोशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में से १७.३ करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं । और आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैक आउट की स्थिति में राहत के कामों में भी सहायता मिलेगी । वु कहते हैं कि अगर पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल २०२२ तक चीन ऐसे तीन    और चांद आसमान में स्थापित सकता है । 
सवाल उठता है कि यह नकली चांद काम कैसे करेगा ? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा । यह चांद हूबहू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा मगर, इसकी रोशनी असली चांद से आठ गुना अधिक होगी । नकली चांद की रोशनी को नियंत्रित किया जा सकेगा । यह पृथ्वी से ५०० कि.मी. की दूरी पर स्थित होगा । जबकि असली चांद की पृथ्वी से दूरी ३,८०,००० कि.मी. है ।
चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम से अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है और इसके लिए उसने ऐसी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई है । हालांकि चीन पहला ऐसा देश नहीं है जो नकली चांद बनाने की कोशिश में जुटा है, इससे पहले नब्बे के  दशक में रूस और अमेरिका नकली चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं लेकिन नकली चांद स्थापित करने की राह अभी भी इतनी आसान नहीं है क्योंकि पृथ्वी के एक खास इलाके में रोशनी करने के लिए इस मानव निर्मित चांद को बिल्कुल निश्चित जगह पर रखना होगा, जो इतना आसान नहीं है । 
मंगल पर मीथेन का रहस्य
नासा द्वारा मंगल पर भेजे गए क्यूरोसिटी रोवर ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन की सबसे अधिक मात्राउत्तरी गोलार्ध की गर्मियों के दौरान दर्ज की है। हाल ही में की गई गणनाओं की मदद से मीथेन की अधिक मात्रा को समझने में मदद मिल सकती है। कनाडा स्थित यॉर्क युनिवर्सिटी के ग्रह वैज्ञानिक जॉन मूर्स ने प्लेनेटरी साइंस की हालिया बैठक में बताया कि जैसे ही मौसम सर्दी से वसंत की ओर जाता है, सूर्य की गर्मी से मिट्टी गर्म होने लगती है, जिससे मीथेन गैस जमीन से निकलकर वायुमंडल में पहुंचने लगती है । 
सन् २०१२ में मंगल की विषुवत रेखा के नजदीक गेल क्रेटर पर रोवर से प्राप्त् जानकारी के अनुसार उत्तरी वसंत में वायुमंडलीय मीथेन की काफी अधिक मात्रा दर्ज की गई । इस साल की शुरूआत  में, टीम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ मीथेन के स्तर बढ़ते-घटते नजर आए । इसका सबसे अधिक स्तर    उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों में दर्ज किया  गया ।
मंगल के वायुमण्डल में मीथेन का मिलना एक पहेली है । ग्रह पर हो  रही रासायनिक अभिक्रियाओं के  चलते लगभग ३०० वर्षों में यह गैस नष्ट हो जाना चाहिए थी । लेकिन आज भी इसकी उपस्थिति दर्शाती है कि ग्रह पर आज भी कोई ऐसा स्त्रोत है जो वायुमंडल में लगातार गैस भेज रहा है । यह स्त्रोत भूगर्भीय प्रक्रियाएं हो सकती हैं या फिर सतह के नीचे दबे सूक्ष्मजीव या जीवन के कोई अन्य रूप भी हो सकत े हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में अधिकांश मीथेन सजीवों से आती है ।
शोधकर्ताओं ने समय - समय पर दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों की मदद से मंगल पर मीथेन के एक-एक कतरे पर नजर रखी है और इसमें उतार-चढ़ाव देखे हैं । 
२००९ में मंगल पर मीथेन के स्तर में जबरदस्त उछाल भी देखा गया था । उम्मीद थी कि रोवर इस गुत्थी को सुलझाएगा किन्तु उसने तो समस्या को उलझा दिया है । अब, ऐसा प्रतीत होता है कि जवाब मंगल की सतह के नीचे दफन है । मंगल पर मौसम पेचीदा होते हैं खासकर विषुवत रेखा के आसपास जहां रोवर स्थित है।         

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