सामयिक
हिमालय के पर्यावरण की अनदेखी
सुरेश भाई
हिमालय के खूबसूरत दृृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते है । हिमालयी राज्यों से निकल रही हजारों जल धारा, नदियां, ग्लेश्यिर के कारण, इसे एक जल टैंक के रूप में देखा जाता है ।
हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । आधुनिक विकास की अवधारणा में इस समाज की कोई हैसियत नहीं बची है । ऐसे में समूचे पर्यावरण को बचाये रखने की महती जिम्मेदारी निभा रहे इस समाज की हम सब को परवाह करनी चाहिए ।
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (३२,८७२६३ वर्ग किमी) में से १६.३ प्रतिशत (५,३७,४३ वर्ग किमी) में फैले ११ हिमालयी राज्यों में अभी तक ४५.२ प्रतिशत क्षेत्र में जंगल मौजूद है । देश में केवल २२ प्रतिशत भू-भाग में ही जंगल है, जो स्वस्थ पर्यावरण मानक ३३ प्रतिशत से भी काफी कम है । भारतीय हिमालयी राज्यों की ओर देखा जाए तो यहां से निकल रही हजारों जल धारा, नदियां, ग्लेश्यिर के कारण, इसे एक जलटैंक के रूप में देखा जाता है, जिससे देश की लगभग ५० करोड़ की आबादी को पानी मिलता है ।
मैदानी भू-भाग से भिन्न हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली बढ़ी है । यहां का स्थानीय समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करता है । अधिकांश गांव ने अपने जंगल बचाकर, उस पर अतिक्रमण और अवैध कटान रोकने के लिये चौकीदार रखे हुए है । ये वन चौकीदार अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न नामों से पुकारे जाते है, जिसका भरण-पोषण, निर्वाह गांव के लोग करते है । कई गांव के जंगलों में तराजू लगे हुए हैं, जिसमें जंगल से आ रही घास, लकड़ी का अधिकतम भार ५०-६० किलोग्राम तक लाना ही मान्य है । जिसकी जांच वन चौकीदार करते है ।
हिमालय के लोगांे की इस पुश्तैनी वन व्यवस्था को तब झटका लगा जब अंगे्रजों ने वनों के व्यावसायिक दोहन के लिये १९२७ में वन कानून बनाया । इसके अनुसार जंगल सरकार के आंकडों में आ गये थे । इसी के परिणाम स्वरूप हिमालय क्षेत्र के राज्यों की ओर देखें तो पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा करने वाले वन और स्थानीय समाज की हैसियत अब उनके पास नहीं बची है । राज्य की व्यवस्था है कि वे जब चाहें किसी भी जंगल को विकास की बलिवेदी पर चढ़ा सकते हैं।
लेकिन यहां सरकारी आंकडांे के आधार पर हिमाचल प्रदेश में ६६.५२, उत्तराखण्ड में ६४.७९, सिक्कि\R में ८२.३१, अरूणाचल प्रदेश ६१.५५, मणिपुर में ७८.०१, मेघालय में ४२.३४, मिजोरम में ७९.३०, नागालैण्ड में ५५.६२, त्रिपुरा में ६०.०२, आसाम में ३४.२१ प्रति ात वन क्षेत्र मौजूद है । वनों की इस मात्रा के कारण जलवायु पर भारतीय हिमालय का नियंत्रण है ।
सन् २००९ में कोपनहेगन में हुए जलवायु सम्मेलन से पहले विभिन्न जन सुनवाई के द्वारा लोगों ने हिमालय की विशिष्ट भू -भाग, प्राकृतिक संसाधन और इससे आजीविका चलाने वाले समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिये ग्रीन बोनस की मांग की है। भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस दिये जाने को सैद्धान्तिक स्वीकृति दी थी । वैसे चिपको, रक्षासूत्र, मिश्रित वन संरक्षण से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षो से हिमालय के लोगों को ऑक्सीजन रॉयल्टी की मांगकर रहे थे । इसमें जगतसिंह जंगली आदि कई लोगों ने अभियान भी चलाये है ।
सरकारी व्यवस्था के मन में भी हिमालय के जंगलों की कीमत पैसे के रूप में दिखाई देने लगी । जबकि पर्यावरण की सेवा सबसे अधिक जंगल करते है । इसके अलावा हिमालय का खूबसूरत दृश्य दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है । अत: मांग केवल इतनी थी कि ऑक्सीजन की रॉयल्टी के रूप में रसोई गैस लोगों को नि:शुल्क दिया जाये ।
इसी सिलसिले में विकसित देशों के सामने कार्बन उत्सर्जन की कीमत वसूलने की दृष्टि से भी प्रो. एसपी सिंह द्वारा एक आंकडा सामने आया । जिसमें कहा गया कि भारतीय हिमालय राज्यों के जंगल प्रतिवर्ष ९४४.३३ बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण की सेवा करते है । अत: कार्बन के प्रभाव को कम करने मेें वनों का एक बड़ा महत्व है। इसमें हिमालयी राज्यों के वन जैसे जम्मू कश्मीर में ११८.०२, हिमाचल में ४२.४६, उत्तराखण्ड में १०६.८९, सिक्कि में १४.२, अरूणाचल में ३२.९५, मेघालय में ५५.१५, मणिपुर में ५९.६७, मिजोरम में ५६.६१, नागालैण्ड में ४९.३९, त्रिपुरा में २०.४० बिलियन मूल्य के बराबर पर्यावरण सेवा देते है ।
अब हिमालय राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही है । अकेले उत्तराखण्ड सरकार केन्द्र से २ हजार करोड़ रूपये की मांग कर रही है । इसका औचित्य तभी है, जब स्थानीय लोगों को वनभूमि पर मालिकाना हक मिले । महिलाओं को रसोई गैस में ५० प्रतिशत की छूट मिलनी चाहिये । जलसंरक्षण में पाणी राखों के प्रणेता सच्चिदानंद भारती का मॉडल और छोटीपन बिजली के विकास में समाज सेवी बिहारीलालजी के मॉडल का क्रियान्वयन हो ।
गांव में भूक्षरण रोका जाये । वनों में आग पर नियंत्रण और वृक्षारोपण के बाद लम्बे समय तक पेड़ों की रक्षा करने वाले लोगों को आर्थिक मदद मिलना चाहिये । गांव में जहां लोगों ने जंगल बचाये है, उन्हें सहायता दी जाये । पहाड़ी शैली की सीढ़ीनुमा खेतों का सुधार किया जाना आवश्यक है । महिलाओं को घास, लकड़ी, पानी सिर और पीठ पर ढुलान करने के बोझ से निवृत्ति मिलनी चाहिये । हिमालय की पहरेदारी करने वाले पेड़ों और लोगों की जीविका बेहतर हो सकती है ।
चिन्तनीय है कि यदि जीएसटी एवं नोटबंदी से आमदनी पर पडे असर की पूर्ति के लिये राज्य सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही है तो हिमालय की पर्यावरण सेवाओं के घटक जल, जंगल, पहाड़ तो और मुश्किलों में पड़ सकते है ।
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