शनिवार, 20 फ़रवरी 2016


घरेलू दुर्घटनाआें की गंभीर स्थिति 
 भारत डोगरा, नई दिल्ली
ब्रिटेन में दुर्घटनाआें को कम करने पर योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने में लगी संस्था रॉयल सोसायटी फॉर प्रीवेन्शन ऑफ एक्सीडेंट्स (रोस्पा) ने वहां के आंकड़ों के आधार पर स्पष्ट कहा है, किसी भी अन्य स्थान की अपेक्षा सबसे अधिक दुर्घटनाएं घर पर ही होती है । 
इस तरह की घरेलू दुर्घटनाआें के बारे में ब्रिटेन के संदर्भ में उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर रोस्पा ने बताया है कि इस कारण एक वर्ष में ५००० मौतें हुई व २७ लाख चोट लगने या घायल होने के केसों को अस्पताल (एक्सीडेंट व इमरजेंसी विभाग) में ले जाना पड़ा । दूसरी ओर पिछले वर्ष सड़क दुर्घटनाआें की अपेक्षा घरेलू दुर्घटनाआें में लगभग ढाई गुना अधिक मौतें हुई और १४ गुना अधिक लोग घायल हुए । 
इसके अतिरिक्त घरेलू दुर्घटनाआें का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इससे प्रभावित होने वालों में बच्चें की संख्या बहुत अधिक है । ब्रिटेन के आंकड़े बताते हैं कि एक वर्ष में १५ वर्ष से कम आयु वर्ग में १० लाख बच्च्ें घरेलू दुर्घटनाआें से इस हद तक प्रभावित होते हैं कि उन्हें अस्पताल तक ले जाना पड़ता है । १४ वर्ष से कम आयु वर्ग में ७६००० बच्चें को इस कारण अस्पताल में भर्ती भी करवाना पड़ता है । इनमें से ४० प्रतिशत से अधिक बच्च्े ५ वर्ष से कम आयु वर्ग के होते हैं । 
ब्रिटेन के इन आंकड़ों से पता चलता है कि सबसे अधिक दुर्घटनाएं गिरने से संबंधित होती है । घरेलू दुर्घटनाआें के कारण होने वाली आर्थिक क्षति का अनुमान लगाया जाए तो एक वर्ष में लगभग ४६ अरब डॉलर की क्षति इस कारण अकेले ब्रिटेन में होती है । 
घरेलू हिंसा के इस तरह के विस्तृत व प्रामाणिक आंकड़े भारत के संदर्भ में उपलब्ध नहीं है, पर जो सीमित जानकारी उपलब्ध है उसका संकेत भी इस ओर ही है कि घरेलू दुर्घटनाआें से काफी अधिक क्षति होती है पर इन दुर्घटनाआें का ठीक से आकलन न होने के कारण घरेलू दुर्घटनाएं उपेक्षित रह जाती है । डॉ. सुधीर, दीपा कृष्णा व अन्य विशेषज्ञों ने दक्षिण भारत में ३५०० की जनसंख्या पर एक अध्ययन एक वर्ष तक किया था । इस दौरान लगभग ३३० घरेलू दुर्घटनाआें की संख्या प्राप्त् हुई अथवा जनसंख्या की तुलना में दुर्घटनाएं लगभग १० प्रतिशत पाई गई । इनमें से २१० दुर्घटनाएं गिरने से हुई । २२५ दुर्घटनाआें ने महिलाआें या बालिकाआें को प्रभावित किया । दूसरे शब्दों में, जहां सड़क दुर्घटनाआें में पुरूष अधिक प्रभावित होते हैं, घरेलू दुर्घटनाआें में महिलाएं कहीं अधिक प्रभावित होती   है ।                                
सम्पादकीय
गांव से भी बदहाल है, शहर के गरीब
 खेती पर बढ़ते संकट और रोजगार के अभाव के कारण गांवोें की स्थिति खराब है, लेकिन शहर के गरीबों का हाल और भी बुरा है । शहरों में १० प्रतिशत गरीब परिवार के पास औसतन मात्र २९१ रूपये की संपत्ति है । इन परिवारों की स्थिति गांव के गरीबों से भी बदतर है । शहर में गरीब और अमीर परिवारों की संपत्ति के बीच अंतर भी ५० हजार गुना से ज्यादा है । नेशनल सैपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार के पास औसतन १० लाख रूपये तथा शहरों में २३ लाख रूपये की संपत्ति है । हालांकि, गरीब परिवारों की संपत्ति इससे काफी कम है । 
पारिवारिक परिसंपत्तियां और देनदारियां शीर्षक ने जारी रिपोर्ट के अनुसार गांव में ३१.४ प्रतिशत परिवार ऐसे है जिन पर कुछ न कुछ कर्ज  है । वहीं शहरों में कर्ज के बोझ से दबे परिवारों का अनुपात २२.४ प्रतिशत है । कर्ज के बोझ से दबे परिवारों पर गांव में औसतन १ लाख ३ हजार ४५७ रूपए तथा शहर में ३ लाख ७८ हजार २३८ रूपये कर्ज है । गांव में ४२ प्रतिशत किसानों के परिवार कर्ज में डूबे है । 
शहरों में १० प्रतिशत गरीब परिवार ऐसे है जिनके पास औसतन २९१ रूपये की संपत्ति है । ऐसे परिवारों के पास न घर है, न जमीन । वहीं गांव में १० प्रतिशत गरीब परिवारों के पास औसतन २५.०७१ रूपये की संपत्ति है । 
जहां तक धनाढ्य परिवारों का प्रश्न है तो शहरों में सबसे अमीर १० प्रतिशत परिवारों के पास औसतन १.४५ करोड़ रूपये की संपत्ति है । उनकी यह संपत्ति १० प्रतिशत गरीब परिवारों के मुकाबले ५० हजार गुना ज्यादा है । 
अमीर और गरीब के बीच खाई गांव में भी है लेकिन वहां यह अंतर अधिक नहीं है । गांव में दस फीसदी अमीरों की औसत संपत्ति अति गरीबों के मुकाबले २२६ गुनी ज्यादा है । 
सामयिक
साल २०१६, हाथी वर्ष हो  
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैसे एशियाई हाथी को जीनोम कई अनूठे (और अक्सर मोहक) गुणों से सम्बंधित होता है, यह बहुत ही स्फूर्तिदायक शोध का विषय है । 
चीनी परम्परा में २०१५-१६ को रैम यानी भेड़ वर्ष घोषित किया गया है । हिन्दू कैलेण्डर में इसे मन्मथ कहा है । लेकिन, मैं २०१६ वर्ष को हाथी वर्ष कहना चाहता हॅू । इस बात के सम्मान में कि हमने २०१५ के खत्म होने तक हाथी के बारे में क्या कुछ किया है।
यह बात २०१५ के शुरूआत की है । डॉ. वी.जे. लिन्च और उनके सहयोगियों ने एशियाई हाथी के जीनोम का विश्लेषण प्रकाशित किया, और मैमथ हाथी से उसकी तुलना  की । फिर दिसम्बर २०१५ की शुरूआत में एक संयुक्त शोध परियोजना के तौर पर बायोसाइंस पत्रिका में एशियाई हाथी की जीनोम की श्रृंखला पर एक पर्चा प्रकाशित हुआ जिसमें बताया गया था कि एशियाई हाथी के कितने जीन्स की अभिव्यक्ति होती है । इसे भारतीय विज्ञान शिक्षा व अनुसंधान संस्थान (आइसर), पूणे के डॉ. संजीव गालान्डे और भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरू के प्रोफेसर आर. सुकुमार और उनके साथियों ने लिखा है । उन्होंने एशियाई हाथी में १८१ अनूठे प्रोटीन्स और १०३ अनूठी आरएनए प्रतिलिपियां खोजी हैं । 
लगभग इसी समय, यूएस के दो समूहों (ऊटा विश्वविघालय के डॉ. शिफमैन और शिकैगो विश्वविघालय के डॉ. लिन्च) ने रिपोर्ट किया कि हम मनुष्यों के पास ट्यूमर से लड़ने वाले जीन पी-५३ की केवल एक ही प्रतिलिपि होती है जबकि हाथी में इसकी २० से ज्यादा प्रतिलिपियां होती है । इस प्रकार हाथी में कैंसर के खिलाफ प्रतिरोध हम मनुष्यों से कहीं ज्यादा है । ( इसकी बहुत ही अच्छी समीक्षा बी. संध्या रानी द्वारा लिखी गई है) ।
प्रोफेसर आर. सुकुमार (भारतीय विज्ञान संस्थान, बैगलुरू) और उनकी साथ डॉ. टी.एन.सी. विद्या  (जवाहरलाल नेहरू प्रगत अनुसंधान केन्द्र, बैंगलुरू) जैसे हाथी विशेषज्ञों ने नीलगिरी और कर्नाटक के नागरहोल-बांदीपुर नेशनल पार्क के हाथियों पर अध्ययन किया । उनका अध्ययन यह समझने पर केन्द्रित है कि इकॉलाजी और पर्यावरणीय कारकों का अकेले हाथी और हाथियों के झंुड के व्यवहार से क्या संबंध है । उन्होनें कई वर्ष इसको करने में व्यतीत किए हैं । और तो और, स्थानीय लोगों के बीच डॉ. सुकुमार यात्रई (हाथी) डॉक्टर के नाम से मशहूर है । 
यह बात तो काफी लम्बे समय से पता रही है कि हाथी बहुत ही बुद्धिमान और नवाचारी जन्तु है । भारत के कई हिस्सों के लोक-साहित्य, कविता-कहानियों, पंचतंत्र और पुराणों की कथाआें और सुकुमार,  विद्या और अन्य वैज्ञानिकों के वास्तविक अवलोकनों से पता चलता है कि हाथियों में मात्र कुदरती बुद्धि ही नहीं होती, बल्कि वे नवाचार कर सकते हैं और कदम-कदम पर सोचते हैं । 
यह तो सर्वविदित है कि वे आइने में अपना अक्स पहचानते हैं (वैसे ही जैसे प्रायमेट्स करते हैं) ।
औजार बनाना और किसी खास उद्देश्य के लिए अपने आसपास की चीजों का इस्तेमाल करना मात्र संज्ञान क्षमता का उदाहरण नहीं है बल्कि इसमें नवाचार भी झलकता  है । चिम्पैंजी जैसे प्रायमेट्स हमारे सबसे करीबी रिश्तेदार हैं, जो औजार बनाने और उनका इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं, और यहां तक कि जड़ी-बूटी के लिए सही पेड़-पौधों के चयन करने में भी । हाथी भी औजार  औजार  निर्माता और उपयोगकर्ता हैं इस बात को आप नीचे दिए गए दो उदाहरणों में देख सकते हैं ।
एक लिंक पर देखा कि कैसे एक हाथी भोजन प्राप्त् करने के लिए पास मेंपड़ी छड़ी को पेड़ पर मारता है ।
इसी तरह देखे कि कैसे हाथी पास मेंपड़े टायर पर पैर रखकर भोजन तक पहुंचने की कोशिश करता है । 
ये उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि हाथी कितने बुद्धिमान और नवाचारी होती हैं । डॉ. विद्या ने पिछले साल अपने शोध पत्र में रिपोर्ट किया था कि एक एशियाई हाथी ने पर-ममत्व का अनोखा व्यवहार प्रदर्शित किया । पर ममत्व का मतलब है किसी पराए शिशु की परवरिश करना । यह बहुत ही उल्लेखनीय और चमत्कारी है जिसने हमारे मन में हाथियों की प्रति आदर को और बढ़ा दिया है । इसमें बताया गया है कि कैसे वयस्क मादा हाथी जेनेटी (जी हां, डाँ विद्या झुंड में प्रत्येक हाथी को पहचानती है और उन्हें नाम से पुकारती है), जो खुद अभी गर्भधारण के लिए परिपक्व नहीं है, अपनी सूंड का सहारा अपनी दोस्त दाना के बच्च्े को देती है । यह बच्च बहुत थका हुआ और भूखा है लेकिन उसकी मां दाना कहींऔर व्यस्त है । बच्च अपनी मां के थन से दूध पीना चाहता है । बच्च जेनेटी के स्तन को चूसने की कोशिश करता है । जेनेटी पहले तो उसे झिड़क देती है मगर वह हार नहीं मानता । 
इसके बाद वह कुछ अनोखा काम करती है - वह अपनी सूंड उस बच्च्े को देती है और बच्च सूंड की नोक को वैसे ही चूसता है जैसे मनुष्य के बच्च्े अंगूठा चूसते हैं और उसके बाद वह बच्च सहज महसूस करने लगता है । 
यह वाकया एक बार नहीं कई बार हुआ जब जेनेटी शिशु हाथी को पालती । इस प्रकार किसी और के बच्च्े को सहज महसूस कराना । डॉ. विद्या का कहना है कि यह उदाहरण दिखाता है कि हाथियों के पास दिमाग और सहानुभूति का सिद्धांत होता है । 
ये यह भी बताती है कि अपनी सूंड के जरिए कई कामों को अंजाम देना हाथियों में संज्ञान की अनुभूति में मददगार हो सकता है । दुख कि बात है कि डॉ. विद्या का हाथी से संबंधित यह महत्वपूर्ण शोध पत्र किसी खुली पहुंच वाली शोध पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुआ । 
हमारा भूमण्डल 
जैव इंर्धन और जलवायु परिवर्तन 
सेन्साट अगुवा - वीवा

पिछले कुछ वर्षो से जैव इंर्धन को जलवायु परिवर्तन को रोकने और ग्रीनहाउस गैसों में कमी का पर्याय मानकर प्रोत्साहित किया जा रहा है । जबकि इन फसलों की वजह से खाद्यसंकट खड़ा होने के  अलावा वन विनाश, नदियों का प्रदूषण जैसी समस्याओं में इजाफा हुआ है । ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि मानव सभ्यता अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाए ।
वैश्विक जलवायु संकट से मुक्ति के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के फार्मूले को व्यापक प्रचारित किया जा रहा है । इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत पिछले २० वर्षों से हो रहे समझौतों के चलते प्रदूषण के उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी हो रही है । वहीं दूसरी ओर वैश्विक दक्षिण (विकासशील) में जीवाश्म (फासिल) ईंधन बड़ी रफ्तार से निकाला जा रहा है जबकि वैश्विक उत्तर (विकसित) से ऊर्जा के बढ़ते उपभोग को लेकर सवाल जवाब नहीं किए जा रहे हैं। जलवायु समझौतों की एकमात्र उपलब्धि झूठे समाधान भर है । 
पर्यावरण संकट से ''निपटने'' के लिए ऐसा ही एक झूठा समाधान जैव इंर्धन (बायोयूल) के  नाम से सामने आया है । इसे विश्वभर में इन तर्कों के आधार पर प्रोत्साहित किया जा रहा है कि यह ऊर्जा संकट और ईंधन की कमी से निपटने का एक ''टिकाऊ'' माध्यम है, इससे ग्रीन हाउस गैसों में कमी आती है और यह विश्वभर के ग्रामीण समुदायों विशेषकर उष्णकटिबंधीय देशों एवं वैश्विक दक्षिण को विकास के अवसर प्रदान करता है । इसके अलावा कोलंबिया में जैव ईंधन को सार्वजनिक नीतियों के तंत्र, कृषि व्यापार (एग्रीबिजनेस) के पक्ष में सब्सिडी एवं कर छूट और हाइड्रोकार्बन (पेट्रोल आदि) में अनिवार्य मिलावट (ब्लेंडिग) के माध्यम से प्रोत्साहित किया जा रहा है ।
कोलंबिया में कृषि इंर्धन (एग्रोयूल) को पाम एवं गन्ने की एकल खेती के विस्तार से प्रोत्साहित किया जा रहा है । कुछ इलाकों में तो एक दशक में ही इनका उत्पादन क्षेत्र दुगना हो गया है और इस वजह से कोलंबिया लेटिन अमेरिका में जैव इंर्धनका दूसरा सबसे बड़ा निर्माता बन गया है। सन् २०१४ में तो कोलंबिया में जैसे गन्ने की खेती का विस्फोट सा हो गया और इसके अन्तर्गत २,३०,००० हेक्टेयर का क्षेत्र आ गया । इसमें से ४५००० हेक्टेयर एथनाल के लिए आबंटित हुआ जिससे कि प्रतिदिन १.१४५ मिलियन (करीब १.१ करोड़) लिटर एथनाल तैयार होता था । इसके अतिरिक्त ४७०००० हेक्टेयर में आइल पाम का रोपण किया गया । इसमें से २,९०,००० हेक्टेयर क्षेत्र उत्पादन हेतु तैयार हो गया है और इससे अन्य उत्पादों के अलावा करीब १.५ मिलियन (१५ लाख) लिटर एग्रोडीजल तैयार होता  है ।
सन् २०१२ में खनिज एवं ऊर्जा और कृषि मंत्रालयों ने घोषणा की थी कि अगले १० वर्षों में ३ करोड़ हेक्टेयर में ऊर्जा फसल लगाने का लक्ष्य है । इसमें से १ करोड़ हेक्टेयर एथनाल के निर्माण हेतु कच्च माल तैयार करने एवं बीस लाख हेक्टेयर एग्रोडीजल हेतु कृषि उत्पाद में इस्तेमाल किया जाएगा । उम्मीद है इस कृषि-उद्योग मॉडल को आगामी वर्षों में और भी बढ़ाया जाएगा । हालांकि कोलंबिया के कानूनों में भूमि की खरीदी की अधिकतम सीमा तय है । इसकी वजह है भूमि वर्ग विशेष के पास इकट्ठा न हो पाए और अपने सामाजिक सरोकारों को संरक्षित बनाए रखना । लेकिन कृषि व्यापार की वृद्धि में भूमि हड़प का प्रमुख योगदान है। पेसिफिक रुबिअलेस, मानुइलिटा, रिओपैला-केस्टीला, इंडुपाल्मा, बायोएनर्जी-ईकोपेट्रोल जैसी तमाम बड़ी कंपनियों ने अवैधानिक गतिविधियों के माध्यम से आल्टिल्लनुआरा क्षेत्र (पूर्वी मैदानी क्षेत्र) में १० लाख हेक्टेयर जमीन हथिया ली है । इन कंपनियों में सबसे ज्यादा नुकसान बायोएनर्जी नामक कंपनी पहुंचा रही है जो कि गन्ने के साथ ही साथ रबड़ का रोपण भी करती है । इसके अलावा यहां पर ला-फाझेण्डा जैसे अन्य क्षेत्रों में ढेरों प्रसंस्करण संयंत्र हैं । इस इलाके में अब गायें दिखती ही नहीं, केवल बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और छुट्टा मुट्टा चावल का क्षेत्र दिखाई देता है। इस ''प्रगति'' के चलते नदियां तो पहले ही प्रदूषित हो चुकी हैं ।  
भूमि हड़पने के अलावा ये कंपनियां भूमि और पानी पर नियंत्रण के माध्यम से गंभीर पारिस्थितिकीय संकट भी पैदा कर रही हैं । ऊर्जा फसलों के कारण क्षेत्र का विकास तो तेजी से हुआ है लेकिन स्थानीय कृषि प्रणाली कमजोर पड़ गई है और उपज में परिवर्तन आने से खाद्य सार्वभौमिकता समाप्त हो गई है। इसके परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थांे के लिए दूसरे क्षेत्रों पर निर्भर रहने से मूल खाद्य पदार्थोके मूल्यों में भारी वृद्धि हुई है । सूखे की वजह से पाम के  क्षेत्र में पानी के नियंत्रण को लेकर हो रहे विवाद का असर स्थानीय समुदायों पर पड़ रहा है । अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा समिति के अनुमानों को ठीक मानें तो सन् २०३० तक ऊर्जा के कुल बाजार में जैव ईंधन की हिस्सेदारी ४ प्रतिशत तक हो जाएगी । इसी के  साथ खाद्य उत्पादन के लिए भूमि की कमी और बड़ी मात्रा में वनों का एवं जैवविविधता के विनाश भी हमारे सामने आएंगे ।
गंभीर पर्यावरणीय विश्लेषण बताते हैं कि यातायात प्रणाली में हेतु बड़े पैमाने पर बायोमास को प्रोत्साहन देना दक्षिण में (विकासशील देशों) कृषि व्यापार बढ़ाने की नीति का हिस्सा है। गौरतलब है भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस हेतु बीज, कीटनाशक आदि उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  जाहिर सी बात है इस रणनीति का क्रियान्वयन कृषि एवं पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन, क्षेत्रों पर कब्जा एवं समुदायांे और संस्कृति की लूट, भूमि की हड़प एवं कीटनाशक तथा पानी को प्रदूषित कर एकल कृषि को स्थापित कर, स्थानीय प्रजातियों के पारिस्थितिकीय चक्र एवं रहवास में बाधा डालकर तथा भूमि उपयोग एवं दृष्यबंध में परिवर्तन कर किया जा सकता है । इसकी वजह से पदार्थ एवं ऊर्जा का प्रवाह अनेक स्थानों से होने लगता है जिसके कि नकारात्मक सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव पड़ते हैं । अतएव विशिष्ट क्षेत्र पर गंभीर परिणाम डालने के साथ ही साथ कृषि ईंधन वनों के विनाश और भूमि के उपयोग में परिवर्तन के  कारण ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन का कारण भी बनता है। वे पर्यावरणीय समझौते के अन्तर्गत उत्सर्जन मंे कमी का अपना दायित्व पूरा नहीं करते और जलवायु संकट के किसी भी समाधान पर नहीं  पहुंचते ।
झूठे समाधान वैश्विक पर्यावरणीय संकट के वास्तविक विकल्पों से ध्यान हटाने का एक रास्ता है इसका सही रास्ता पेट्रोल की लत के शिकार समाज के रूपांतरण, कारों के उपयोग में विश्वव्यापी कमी, ऊर्जा का अत्यधिक इस्तेमाल करने वाले वैश्विक उत्तर से सवाल-जवाब एवं वैश्विक उत्सर्जन को लेकर उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से निकलता है । दुर्भाग्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इसकी झलक नहीं दिखाई दी । वास्तविक समाधान तो कहीं और पाये जा रहे हैं और इन्हें तमाम तरीकों से अभिव्यक्त भी किया जा रहा है। इन्हें समुदायों, सामाजिक आंदोलनों, प्रचार अभियानों, संगठनों व पर्यावरणविदों एवं छात्रों के बीच पाया जा सकता    है । 
ये सब स्थानीय कृषि प्रणाली, खाद्य एवं ऊर्जा सार्वभौमिकता, समुदाय एवं जल प्रबंधन तथा वनों के माध्यम से पर्यावरणीय संकट के समाधान खोज रहे हैं । इसी के माध्यम से हम एक ऐसे विश्व को प्राप्त कर सकते हैं जो अधिक न्यायपूर्ण और आनंद देने वाला   होगा । ऐेसे प्रस्ताव लगातार सामने आएंगे और मानवता की बेहतरी के लिए कार्य करते रहेंगे भले ही जलवायु समझौते अपने झूठे समाधानों की रट लगाते रहें । 
विशेष लेख
हमारा शरीर : कितना हमारा, कितना पराया 
डॉ. सुशील जोशी 

पिछले कुछ वर्षोमें जीव विज्ञान व चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन की एक नई शाखा ने महत्व अख्तियार किया है । इसे माइक्रोबायोमिक्स कहते हैं । यह हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में बसने वाले सूक्ष्मजीवों और उनके हमारे शरीर पर प्रभाव का अध्ययन है । 
पिछले दो दशकों में ऐसे शोध पत्रों की बाढ़ सी आ गई है जिनमें यह बताया गया है कि यह सूक्ष्मजीव जगत हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों की शरीर क्रियापर क्या प्रभाव डालता है और इसका स्वास्थ्य व बीमारियों से क्या संबंध है । इस संदर्भ में यह आंकड़ा सबसे प्रचलित रहा है कि मानव शरीर में उसकी अपनी कोशिकाआें के मुकाबले सूक्ष्मजीवों की कोशिकाआें की संख्या १० गुना या उससे भी ज्यादा होती है । यानी यदि आपके शरीर में गिनती की जाए, तो शायद आपकी कोशिकाआें की संख्या मात्र १० प्रतिशत या, दूसरे शब्दों में, नगण्य निकले । मगर हाल के एक शोध पत्र में इस आंकड़े पर सवाल उठाए गए हैं । 
इस्त्राइल में रोहोवोत स्थित वाइजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स के रॉन मिलो व उनके साथियों ने अपने ताजा शोध पत्र में सबसे पहले तो यह जानने का प्रयास किया है कि आखिर बैक्टीरिया और मानव कोशिकाआें का १०:१ का अनुपात आया कहां से । फिर उन्होनें नए सिरे से गणना करने की कोशिश की है कि वास्तव में मानव शरीर में बैक्टीरिया कोशिकाआें की संख्या कितना होती है और खुद मानव की कोशिकाएं कितनी होती हैं । 
यह जानना दिलचस्प होगा कि आखिर इन कोशिकाआें की गिनती कैसे की जाती है । 
मिलो व उनके साथियों ने यह जानने के लिए वैज्ञानिक साहित्य की गहन पड़ताल की कि मानव शरीर में बैक्टीरिया और मानव कोशिकाआें के १०:१ के अनुपात का स्त्रोत क्या है । उन्होंने पाया कि जिस आंकड़े का हवाला कई वर्षो से विभिन्न शोध पत्रों में दिया जा रहा है वह १९७२ में टी. लकी ने एक मोटी-मोटी गणना के आधार पर निकाला था जिसे बैक ऑफ दी एन्वेलप केल्कुलेशन कहते हैं । बाद में इसे डी.सेवेज ने १९७६ में एनुअल रिव्यू ऑफ माइक्रोबायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में अपने शोध पत्र में उद्धरित करके लगभग अमर कर दिया । उसके बाद से माइक्रोबायोम संबंधी सारे पर्चोमें इसी आंकड़े को दोहराया जाता रहा है। 
चंूकि इंसान के शरीर मेंअधिकांश सूक्ष्मजीव बैक्टीरिया होते हैं इसलिए इन्हें सूक्ष्मजीव की बजाय बैक्टीरिया कहना अनुपयुक्त नहीं है । बहरहाल, लकी ने अपने १९७२ के शोध पत्र में बहुत ही मोटी-मोटी गणनाएं की थी और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एक संदर्भ व्यक्ति के शरीर की आहार नाल में करीब १०१४ बैक्टीरिया का निवास होता है । इसके बाद बैक्टीरिया की दूसरी बड़ी आबादी त्वचा पर होती है (करीब १०१२) । ध्यान दें कि १०१४ (१० घात १४) का मतलब होता है १ के बाद १४ शून्य लगाई जाएं । संदर्भ व्यक्ति से आशय है : २०-३० वर्ष उम्र का पुरूष जिसकी ऊंचाई १७० से.मी. और वजन ७० किलोग्राम है । 
मिलो की टीम का मत है कि लकी ने यह गणना एक मोटा अनुमान पाने के लिए की थी, और उन्होनें शायद सोचा भी नहीं था कि अगले तीन दशकों तक यह एक मानक संख्या के रूप में उद्धरित की जाएगी । वैसे मिलो का मत है कि लकी का यह प्रयास मोटा-मोटा अनुमान पाने के लिहाज से एक सराहनीय व परिष्कृत प्रयास था । तो लकी ने यह गणना कैसे की थी ?
उदाहरण के लिए, लकी ने मनुष्य की आहार नाल में बैक्टीरिया की संख्या का अनुमान लगाने के लिए आहार नाल का आयतन १ लीटर माना । यानी यदि उसमें उपस्थित पदार्थ का घनत्व १ ग्राम प्रति मिली लीटर हो, तो बड़ी आंत (कोलन) में कुल पदार्थ १ किलोग्राम होगा । अब उन्होनें विभिन्न अध्ययनों से प्राप्त् आंकड़ों का उपयोग किया । खास तौर से मल में बैक्टीरिया की गिनती के प्रायोगिक आंकड़ों का उपयोग किया गया । विभिन्न अध्ययनों में पता चला था कि प्रति ग्राम गीले मल में लगभग १०११ बैक्टीरिया होते हैं । यह आंकड़ा वास्तविक गिनती पर आधारित है । 
चूंकि १ ग्राम गीले मल में १०११ बैक्टीरिया हैं, तो आसानी से बताया जा सकता है कि १ किलोग्राम में १०१४ (१०११  १०००) बैक्टीरिया होंगे । इसमें मान्यता यह है कि मल में बैक्टीरिया उसी अनुपात में निकलते हैं जितने कि वे आंत में हैं । 
गणना का यह तरीका बहुत ही परिष्कृत है किन्तु इसमें जो मान्यताएं ली गई हैं वे थोड़ी विवादास्पद हैं । पहली बात तो यह है कि आहार नाल में लगभग सारे बैक्टीरिया मात्र बड़ी आंत (कोलन) में ही पाए जाते हैं । कोलन का आयतन १ लीटर नहीं बल्कि मात्र ४०० मि.ली. के लगभग होता है । कोलन का आयतन निकालने की कई विधियां हैं । जैसे उसमें से पदार्थो के प्रवाह का मापन, बेरियम भोजन खिलाकर एक्सरे निकालना और पोस्ट मॉर्टम से प्राप्त् आंकड़े । ऐसे कई अध्ययनों के आधार पर संदर्भ व्यक्ति में कोलन का औसत आयतन ४०९ मि.ली. निकला है । 
तो हमें यह तो पता चल गया कि कोलन में पदार्थ की मात्रा ४०९   १.०२ = ४१७ ग्राम होती है । अब यह देखना है कि प्रति गा्रम पदार्थ में कितने बैक्टीरिया होते हैं । इसका सबसे प्रचलित तरीका है कि मल के नमूने में बैक्टीरिया की गिनती कर ली जाए । मान्यता यह है कि मल का नमूना कोलन में उपस्थित पदार्थ का सही प्रतिनिधित्व करता है । 
सन् १९६० व १९७० के दशक में शोधकर्ताआें ने कई मरीजों के मल के नमूने लिए और उनके पतले घोल बनाकर सूक्ष्मदर्शी में देखकर बैक्टीरिया की गिनती कर ली । फिर उल्टी तरफ से गणना करके पता किया कि मल में प्रति ग्राम कितने बैक्टीरिया हैं । 
इन प्रयोगों के आंकड़े प्राय: बैक्टीरिया प्रति ग्राम शुष्क मल के रूप में दिए जाते हैं । मगर यदि कोलन में बैक्टीरिया की गणना करना है तो शुष्क मल के भार से काम नहीं चलेगा । आपको तो गीले मल में बैक्टीरिया का घनत्व   चाहिए । इसकी गणना के लिए करना यह पड़ेगा कि यह पता लगाया जाए कि मल को सुखाने की प्रक्रिया में कितना वजन घटता है और फिर उसकी मदद से गीले मल में बैक्टीरिया घनत्व निकालना होगा । 
जब इन सुधारों के बाद प्रति ग्राम मल में बैक्टीरिया की संख्या निकाली गई तो वह आई ०.९२   १०११ ।
अब कोलन में कुल बैक्टीरिया की गणना की जा सकती है । प्रति गा्रम गीले में ०.९२   १०११ बैक्टीरिया हैं और कोलन में भरे पदार्थ का वजन ४१७ ग्राम है तो कोलन में कुल बैक्टीरिया संख्या ३.९   १०१३ आती है । यह तो हुई कोलन में बैक्टीरिया की संख्या । शेष सारे अंगो में बैक्टीरिया की संख्या कई अलग-अलग विधियों से ज्ञात की गई है और वह अधिकतम १०१२ आती है । इन्हें जोड़ने पर हमें जो संख्या मिलेगी वह १०१३ के आसपास ही होगी । 
यह भी रोचक है कि हम कैसे जानते हैं कि मनुष्य के शरीर में कितनी कोशिकाएं होती हैं । वैज्ञानिक साहित्य में इसका आंकड़ा १०१२ से लेकर १०१४ के बीच मिलता है । 
एक तरीका यह है कि १०० (१०२) किलोग्राम के एक व्यक्ति को लेंऔर इस वजन मे एक औसत स्तनधारी कोशिका के वजन से भाग दे दें । स्तनधारी कोशिका का औसत वजन १०-१२ से  १०-११ किलोग्राम माना जाता है । (अर्थात ०.०००००००००१ किलोग्राम) । इस आधार पर गणना करें तो १०० किलोग्राम के व्यक्ति में कोशिकाआें की संख्या १०१३ और १०१४ के बीच निकलती है । अब इस गणना में एक चीज को छोड़ दिया गया है - मनुष्य के शरीर का सारा वजन कोशिकाआें में नहीं होता बल्कि कुछ वजन कोशिकाआें के बीच के पदार्थ में भी होता है । अलबत्ता, ऐसी मोटी-मोटी गणनाआें में इस तरह की चीजों को छोड़ना लाजमी है । 
एक अध्ययन में डीएनए आधारित विधि का उपयोग भी किया गया है । डीएनए सजीवों के गुणधर्मो का निर्धारण करने वाला पदार्थ है जो कोशिकाआें के केन्द्रक में पाया जाता है । सबसे पहले २५ ग्राम के एक चूहे में उपस्थित कुल डीएनए (लगभग २० मि.ग्रा.) में एक कोशिका में अनुमानित डीएनए की मात्रा (६ १०-१२ ग्राम  प्रति कोशिका) से भाग दे दिया गया । इस तरीके से २५ ग्राम के चूहे में कोशिकाआें की संख्या निकली ३ १०९ कोशिकाएं । अब चूहा तो २५ ग्राम का है । मगर इसके आधार पर गणना करके १०० कि.ग्रा. के एक मनुष्य में कोशिकाआें की संख्या निकाली जा सकती है - लगभग १०१३ कोशिकाएं । मगर इस विधि की एक दिक्कत है । स्तनधारियों के शरीर में कोशिकाआें की एक बड़ी तादाद (वास्तव में सबसे बड़ी तादाद) ऐसी है जिनमें डीएनए तो क्या केन्द्रक ही नहीं होता । जैसे, लाल रक्त कोशिकाएं और रक्त प्लेटलेट्स । 
एक अन्य विधि में कोशिकाआें के विभिन्न समूहों को व्यवस्थित रूप से गिना जाता है । किया यह जाता है कि कोशिकाआें के समूह बनाए जाते हैं । ऐसे एक प्रयास में समूहीकरण या तो ऊतक के आधार पर (जैसे ग्लियल कोशिकाएं) किया गया अथवा उनके पाए जाने के स्थान के आधार पर (जैसे अस्थि मज्जा की केन्द्रयुक्त कोशिकाएं) किया गया । ग्लियल कोशिकाएं तंत्रिका तंत्र की संयोजी कोशिकाएं होती हैं । इसके लिए प्रत्येक समूह की कोशिकाआें की संख्या का अंदाज लगाने के लिए आप चाहे तो शोध साहित्य में दिए गए आंकड़ों का उपयोग कर सकते हैं या फिर प्रत्येक ऊतककी पतली स्लाइस (अनुप्रस्थ काट) में कोशिकाआें की संख्या गिन सकते है और इस संख्या को उस ऊतक की मोटाई से गुणा करके कुल कोशिकाआें की संख्या निकाल सकते हैं । ऐसे एक प्रयास में मनुष्य शरीर में कोशिकाआें की संख्या निकली थी ३   १०१३ ।
मिलो व उनके साथियों ने थोड़ा अलग रास्ता अपनाया । उन्होंने सारी कोशिकाआें पर ध्यान न देकर मात्र ६ किस्म की कोशिकाआें पर ध्यान दिया जिनके बारे में पता है कि वे कुल कोशिकाआें में ९७ प्रतिशत होती है : लाल रक्त कोशिकाएं (७० प्रतिशत), ग्लिअल कोशिकाएं (८ प्रतिशत), एंडोथीलियल कोशिकाएं (७ प्रतिशत), त्वचा की फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएं (५ प्रतिशत), प्लेटलेट्स (४ प्रतिशत) और अस्थि मज्जा की कोशिकाएं (२ प्रतिशत) । 
मनुष्य के शरीर में कोशिकाआें की सबसे बड़ी संख्या लाल रक्त कोशिकाआें की होती है । एक औसत व्यक्ति के शरीर में खून का आयतन ४.९ लीटर होता है । प्रयोगों से प्राप्त् आंकड़े बताते हैं कि पुरूषों में प्रति लीटर खून में कोशिकाआें की संख्या ४.६-६.१  १०१२ तथा महिलाआें में ४.२-५.४  १०१२ होती है । इस हिसाब से कुल ४.९ लीटर खून में लाल रक्त कोशिकाआें की संख्या २.६   १०१३ निकलती है । 
पहले की गणनाआें के आधार पर ग्लिअल कोशिकाआें की संख्या ३ १०१२ बताई गई थी । यह आंकड़ा इस मान्यता के आधार पर निकला था मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाआें और ग्लिअल कोशिकाआें का अनुपात १०:१ का होता है । मगर हाल में जब मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों की छानबीन की गई तो पता चला है कि यह अनुपात वास्तव में १:१ के ज्यादा करीब है । तो संभवत: मस्तिष्क में ग्लिअल कोशिकाआें और तंत्रिका कोशिकाआें की संख्या बराबर-बराबर होती है (८.५  १०१० ) ।
अब आते है एंडोथीलियल कोशिकाआें पर । ये वे कोशिकाएं हैं जो हमारे सारे अंगों (आंत, फेफड़े, रक्त वाहिनियां वगैरह) का अस्तर बनाती हैं । पहले इनकी संख्या का अनुमान २.५ १०१२ माना गया था । यह इस आधार पर निकाला गया था : एक एंडोथीलियल कोशिका की सतह का क्षेत्रफल लेकर उससे रक्त वाहिनियों की सतह के क्षेत्रफल में भाग दे दिया गया । शरीर में महीन रक्त वाहिनियों यानी कोशिकाआें की कुल लम्बाई ८   १०९ से.मी. मानी गई थी । मगर इसी गणना को थोड़ा अलग ढंग से किया जा सकता है । प्रत्येक किस्म की रक्त वाहिनी में खून की मात्रा के अनुमान उपलब्ध हैं । विभिन्न रक्त वाहिनियों के औसत व्यास के आंकड़े के आधार पर हर प्रकार की वाहिनी की लंबाई पता की जा सकती है । इसके आधार पर उनकी अंदरूनी सतह का क्षेत्रफल निकाला जा सकता है । अब इस कुल क्षेत्रफल में एक एंडोथीलियल कोशिका के क्षेत्रफल से भाग देने पर पता चलता है कि रक्त वाहिनी की एंडोथीलियल कोशिकाआें की संख्या ६   १०११ है । 
फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएं शरीर के संयोजी ऊतक की कोशिकाएं होती हैं । पहले त्वचा की फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाआें की संख्या १.८५ १०१२ निकाली गई थी । इस अनुमान के लिए मानव शरीर की सतह के कुल क्षेत्रफल (१.८५ वर्ग मीटर) में फाइब्रोब्लास्ट कोशिका के औसत क्षेत्रफल से भाग किया गया था । मगर इसमें त्वचा की मोटाई का ध्यान नहीं रखा गया था । त्वचा की विभिन्न परतों में कोशिकाआें का घनत्व बराबर-बराबर नहीं होता । जब इस बात को भी गणना में शामिल किया गया तो पता चला कि त्वचा की फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाआें की संख्या २.६ १०१०है ।  
कुल मिलाकर मानव शरीर में गैर रक्त कोशिकाआें की अनुमानित संख्या ९ १०११ आती    है । इसमें अन्य गैर रक्त कोशिकाआें की संख्या को भी जोड़ दे तो भी ऐसी कोशिकाआें की कुल संख्या ३   १०१२ ही होती है । इसका मतलब है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाआें में से रक्त कोशिकाएं ९० प्रतिशत हैं और शेष कोशिकाएं मात्र १०   प्रतिशत । 
अपने शरीर को देखे तो विश्वास नहीं होता कि कोशिकाआें की ९० प्रतिशत संख्या सिर्फ खून में बहती केन्द्रक विहीन लाल रक्त कोशिकाआें और प्लेटलेट्स के रूप में है । आखिर वजन के हिसाब से देखे तो कहां मात्र ५ लीटर खून और कहां भारी भरकम हडि्डयां और मांसपेशियां । इस विरोधाभास को समझने के लिए हमें कोशिकाआें के वजन पर गौर करना होगा । हमें देखना होगा कि विभिन्न कोशिकाआें की अनुमानित संख्याआें में उनके वजन का गुणा किया जाए तो क्या हमारे शरीर के भार के बराबर हो जाता है । यहां यह पहले ही बता देना मुनासिब है कि व्यक्ति के कुल भार का लगभग २५ प्रतिशत कोशिकाआें से बाहर तरल रूप में और ७ प्रतिशत हिस्सा कोशिकाआें के बाहर ठोस रूप में होता है । यानी किसी व्यक्ति का वजन ७० किलोग्राम हो, तो कोशिकाआें के आधार पर हमें सिर्फ ४७ किलोग्राम का हिसाब मिलाना  है । 
इसकी गणना एक रिपोर्ट के नतीजों के आधार पर की जा सकती है - रिपोर्ट ऑफ दी टास्क ग्रुप ऑन रेफरेंस मैन (संदर्भ व्यक्ति पर टास्क समूह की रिपोर्ट) । इस रिपोर्ट में मानव शरीर के विभिन्न ऊतकों के वजन दिए गए हैं और इसमें कोशिकाआें में समाहित व कोशिकाआें से बाहर मौजूद वजन अलग-अलग दिए गए हैं । दरअसल इसका अंदाज लगाने के लिए पोटेशियम सांद्रता का उपयोग किया जाता है । 
इस गणना से स्पष्ट है कि कोशिकाआें की संख्या और ऊतक के भार के बीच सीधा संबंध नहीं है । कोशिकाआें की संख्या की दृष्टि से लाल रक्त कोशिकाआें का बोलबाला (८४ प्रतिशत है) है जो हमारे शरीर की सबसे कम आयतन की कोशिकाआें में से है - लाल रक्त कोशिका का आयतन मात्र १०० घन माइक्रोमीटर होता है । इसके विपरीत भार की दृष्टि से देखे तो कुल कोशिका भार में से ७५ प्रतिशत मात्र दो प्रकार की कोशिकाआें से बना होता है - वसा कोशिकाएं और मांसपेशीय कोशिकाएं । ये बड़ी-बड़ी कोशिकाएं होती है जिनका आयतन आम तौर पर १०,००० घन माइक्रोमीटर से ज्यादा होता है । मगर कुल कोशिकाआें में से इनकी संख्या बहुत कम (०.१ प्रतिशत) होती है ।
अब हमने बैक्टीरिया की संख्या का भी अनुमान लगा दिया है और अपनी कोशिकाआें का भी । अब कह सकते है कि यह अनुपात अधिकतम १:१:३ का है । दूसरे शब्दों में हमारे शरीर में हमारी अपनी कोशिकाएं और बैक्टीरिया कोशिकाएं लगभग बराबर-बराबर है । हां, यदि हम मानव शरीर में बैक्टीरिया कोशिकाआें की संख्या और केन्द्रक युक्त कोशिकाआें की संख्या का अनुपात निकालें, तो वह बेशक १०:१ का आता है । मगर नई गणनाआें के आधार पर इस आंकड़े को त्यागकर नए आंकड़े को अपना लेना चाहिए । क्या इस नए आंकड़े की वजह से माइक्रोबायोमिक्स का महत्व कम हो जाता है ? ऐसा नहीं है । यह सवाल मात्र संख्याआें का नहीं बल्कि बैक्टीरिया और हमारे शरीर की आपसी अंतर्क्रिया का है । 
विज्ञान वर्र्ष २०१५ 
जलवायु परिवर्तन में नवाचार को प्रोत्साहन
चक्रेश जैन 

विदा हो चुका वर्ष २०१५ विज्ञान के लिहाज से नई उपलब्धियों और नवाचारों का रहा । मनुष्य और मशीन के संगम का दौर तो पहले ही शुरू हो चुका है । गुजरे साल में इस दिशा में कुछ और उन्नति हुई । नई खोजों, नए आविष्कारों और अनुसंधानों ने कई वैज्ञानिक रहस्यों का उद्घाटन किया । बीते वर्ष में रोबोट विज्ञान के अध्येताआें ने ऐसे रोबोट बना लिए जो मौसम रिपोर्टर और आर्थिक संवाददाता की भूमिका में दिखाई दिए । पत्रकारिता के चुनौतीपूर्ण मैदान में रोबोट के बढ़ते हस्तक्षेप से यह प्रश्न भी उठा कि क्या आगे चलकर साहित्य में कविता और कहानी जैसी विधाआें में मौलिक लेखन करने वाले रोबोट का सृजन कर लिया जाएगा । यह सच है कि कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में अनुसंधानों ने रोबोट को मनुष्य की सृजनात्मकता को टक्कर देने की दहलीज तक पहुंचा दिया है । गुजरे साल भी प्रौघोगिकी का बोलबाला दिखाई दिया । जीन संपादन यानी डीएनए के सम्पादन की नई तकनीक से नए जीवों के सृजन और नई औषधियों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो चुका है । 
इस वर्ष ड्रोन भी चर्चा के केन्द्र में रहा । ड्रोन का नाम लेते ही दिमाग में एक ऐसे हवाई यंत्र का चित्र उभरने लगता है, जो हवा में उड़कर फोटोग्राफी करता है । अब यह यंत्र घरों में सामान पहुंचाने से लेकर आसमान में निगरानी करने वाला एक आवश्यक गैजेट बन चुका है । ड्रोन अंग्रेजी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है परजीवी या नर मधुमक्खी । अभी ड्रोन का उपयोग फोटोग्राफी, गली-मोहल्लों की निगरानी, विज्ञापन आदि कार्यो में हो रहा है । भविष्य में इसका उपयोग प्राकृतिक आपदाआें के दौरान राहत पहुंचाने, देहातों में इंटरनेट सेवाएं उपलब्ध कराने आदि के लिए होगा ।
वर्ष २०१५ अंतर्राष्ट्रीय प्रकाश वर्ष के रूप में मनाया गया । विश्वविघालयों और वैज्ञानिक संस्थानों में विचारोत्तेजक गोष्ठियां हुई, शोध पत्र पढ़े गए । प्रकाश वर्ष को विराट के रूप में माने का उद्देश्य आम लोगों में प्रकाश और प्रकाश आधारित प्रौघोगिकी के बारे में जागरूकता पैदा करना था । सच तो यह है कि मानव समाज का चेहरा बदलने में प्रकाश की अहम भूमिका रही है । चिकित्सा, अंतरिक्ष, दूरसंचार ओर मनोरंजन के विविध रूपों में प्रकाश का लाभ समाज को मिल रहा है । यही वह वर्ष है, जब महान भौतिकी विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टाइन के सापेक्षतावाद के सामान्य सिद्धांत के सौ साल पूरे हुए । इस प्रसंग पर पूरे विश्व के वैज्ञानिकों ने आइंस्टाइन के ऐतिहासिक योगदान को याद किया । सापेक्षतावाद के सामान्य सिद्धांत ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास की समझ बढ़ाने में हमारी सहायता की है । यही नहीं इस सिद्धांत से उन अनेक प्रश्नों के उत्तर मिले हैं, जो न्यूटन द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत में नहीं दिए गए थे । 
विदा हो चुके वर्ष में पुरातत्वविदों ने दक्षिण अफ्रीका में एक गुफा से प्राप्त् पन्द्रह कंकालों के आधार पर मनुष्य की एक नई प्रजाति होमो नलेडी खोजने की घोषणा     की । जानकारों के अनुसार ये मानव कंकाल दो लाख वर्ष पुराने हो सकते हैं । इसमें प्राचीन और आधुनिक मानव प्रजाति दोनों के मिश्रित लक्षण मिले हैं । वैज्ञानिक शोध में बताया गया है कि होमो नलेडी रीति-रिवाजों के जानकार थे और संकेतों के जरिए विचारों का आदान-प्रदान करते थे । शोधकर्ताआें का मानना है कि यह खोज हमारे पूर्वजों के बारे में विचारों को बदल सकती है । विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस ने इस खोज को वर्ष २०१५ की दस प्रमुख घटनाआें में स्थान दिया है । इस वर्ष जीवाश्म वैज्ञानिकों को चार पैरों वाले सर्प का जीवाश्म मिला, जिसका वैज्ञानिक नाम टेट्रापोडोफिस एम्लेक्टस रखा गया है । वैज्ञानिकों के अनुसार टी.एम्लेक्टस सर्प और छिपकलियों के बीच की कड़ी हो सकती है । 
इसी वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मृदा विज्ञान वर्ष मनाया गया । मृदा वर्ष मनाने का मुख्य उद्देश्य आम लोगों में मिट्टी के वैज्ञानिक महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना था । प्राचीन समय से ही मानव जीवन में मिट्टी का विविध रूपों में उपयोग हो रहा   है । यह वही मिट्टी है जिसस दीया और लुभावने खिलौने बनाए जाते    हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार फसलों की अच्छी पैदावार का आधार मिट्टी है । 
गुजरे साल के उत्तरार्द्ध में पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेन हुआ, जिसमें लगभग २०० देशों के राष्ट्राध्यक्षों और वैज्ञानिकों ने शिरकत की । जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरोंसे पृथ्वी को बचाने पर गंभीर मंथन हुआ । सम्मेलन में वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम रखने पर भी सहमति बनी और नया मसौदा जारी किया गया । वास्तव में, जलवायु परिवर्तन वैज्ञानिक मुद्दा है, जिससे बहुआयामी प्रभावी जुड़े हुए   हैं । 
इसी वर्ष अक्टूबर से जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से नई दिल्ली से साइंस एक्सप्रेस क्लाइमेट एक्शन स्पेशल ट्रेन रवाना हुई । स्कूली बच्चें सहित लाखों लोगों ने प्रदर्शनी को देखा । यह एक चलित विज्ञान प्रदर्शनी थी । कहा जा सकता है, भारत सरकार ने आम लोगों को जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक पहलुआें से परिचित कराने की दृष्टि से सराहनीय प्रयास किया । विज्ञान पत्रिका साइंस की इस वर्ष की टॉप टेन की सूची में जलवायु परिवर्तन को भी स्थान मिला है । मौसमविदों के अनुसार गुजरे साल में जुलाई माह सबसे गर्म रहा, जिसे जलवायु परिवर्तन के शुरूआती संकेत के रूप में देखा जा सकता है । 
बीता वर्ष अंतरिक्ष विज्ञान के लिए ऐतिहासिक सफलताआें का साल रहा । कुछ अभिनव और सुनहरे अध्याय जुड़े । गुजरे साल भी मंगल ग्रह चर्चा में रहा । विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मंगल ग्रह पर बहते जल के प्रमाण मिले हैं । जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में लुजेंद्र ओझा के नेतृत्व में शोधरत वैज्ञानिकों ने नासा से प्राप्त् चित्रों का विश्लेषण किया और बताया कि लाल ग्रह के रेतीले टीलों के ढलान पर बनी धारियां जलधाराआें की हैं, जो गर्मियों में बहती हैं और सर्दियों में जम जाती है । इस खोज से मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाआें को और अधिक बल मिला है । 
वर्ष २०१५ के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का न्यू होराइजन्स लगभग नौ वर्षो की अविराम यात्रा के बाद प्लूटों के समीप से गुजरा । न्यू होराइजन्स में अत्याधुनिक उपकरण लगे हुए है, जिनकी मदद से आगे चलकर नए रहस्यों पर रोशनी डाली जा    सकेगी । वर्ष २००६ में प्लूटो को सौर मण्डल के नवग्रहों में से भले ही बाहर कर दिया गया हो, लेकिन अभी भी यह अनुसंधान का केन्द्र बना हुआ है । इसी वर्ष २४ अप्रैल को अंतरिक्ष में टंगी हबल दूरबीन ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष पूरे किए और रजत जयंती मनाई । अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस अवसर पर नासा को बधाई पत्र भेजा । सच पूछा जाए तो हबल दूरबीन से प्राप्त् चित्रों से हमारी ब्रह्मांड संबंधी समझ का विस्तार हुआ है । हबल दूरबीन से प्राप्त् सूचनाआें के आधार पर अभी तक तेरह हजार वैज्ञानिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके है । 
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने २३ जुलाई को केपलर दूरबीन की सहायता से सौर मण्डल के बाहर एक नए ग्रह केपलर-४५२ बी खोजने की घोषणा की । जानकारों के अनुसार यह ग्रह हमारी पृथ्वी जैसा है और इस पर जीवन की उम्मीद है । इसी वर्ष ६ मार्च को नासा का अंतरिक्ष यान डॉन ४.९ अरब किलोमीटर यात्रा के बाद बौने ग्रह सेेरेस के निकट पहुंचा । डॉन बौने ग्रह सेेरेस की परिक्रमा करने वाला पहला अंतरिक्ष यान है । सेरेस मंगल और बृहस्पति के बीच सौरमण्डल का सबसे बड़ा पिंड है । 
बीता वर्ष भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के लिए नई उपलब्धियों का रहा । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने २८ मार्च को देश का चौथा नौवहन उपग्रह आईआरएन एसएस-१ डी का प्रक्षेपण किया । इसी वर्ष इसरो ने १० जुलाई को पीएसएलवी सी-२८ के जरिए ब्रिटेन के पांच उपग्रहों का सफलतापूर्वक कक्षा में पहुंचाया । भारत ने २७ अगस्त को संचार उपग्रह जीसैट-६ को अंतरिक्ष में स्थापित किया । इसमें देश में ही विकसित क्रायेजेनिक इंंजिन का उपयोग किया गया था । २८ सितम्बर को भारत की प्रथम अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट को सफलतापूर्वक भेजा गया । इसके साथ भारत उन चुनिंदा देशों की बिरादरी में शामिल हो गया, जिनके पास अंतरिक्ष वेधशाला से जुड़े उपग्रह है । इसरो ने ११ नवम्बर को देश के नवीनतम संचार उपग्रह जीसैट-१५ का सफल प्रक्षेपण किया, जिसमें गगन पेलोड भी लगा है । हमने १६ दिसम्बर को पीएसएलवी सी-२९ के जरिए सिंगापुर के छह उपगहों का प्रक्षेपण किया । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठनल इसरो को अंतरिक्ष प्रौघोगिकी के जरिए देश के विकास में विशेष योगदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार प्रदान किया गया । इस पुरस्कार की शुरूआत १९९५ में हुई थी । इससे भारत का पहला सरकारी वैज्ञानिक संगठन है, जिसे यह अति प्रतिष्ठित सम्मान मिला है । 
सितम्बर में भोपाल में दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ, जिसमें पहली बार विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दी पर विचार मंथन हुआ । विश्व हिन्दी सम्मेलन में विज्ञान संचार के अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार से सम्मानित डॉ. नरेन्द्र सहगल ने व्याख्यान दिया । इस अवसर पर दैनिक विज्ञान समाचार पत्र निकालने का विचार भी रखा गया । पूरी तरह विज्ञान पर केन्द्रित सत्र में १९१५ से प्रकाशित हिन्दी की पहली विज्ञान पत्रिका विज्ञान के सम्पादक डॉ. शिव गोपाल मिश्र ने शोधपरक और विचारोत्तेजक व्याख्यान दिया । 
इस वर्ष जुलाई में परग्रहवासियों यानी एलियंस के अध्ययन की एक परियोजना शुरू   हुई । यह परियोजना दस वर्षीय है, जिसका नेतृत्व विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग कर रहे हैं । अपने ढंग की इस वैज्ञानिक परियोजना की रूपरेखा अमेरिकी भौतिकीविद् यूरी मिलर ने बनाई है । एलियंस के विषय में हम सभी जानना चाहते हैं । एलियंस के अध्ययन में अंतरिक्ष दूरबीन की अहम भूमिका होगी । एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने संकेत दिया है है कि २०२५ तक इस रहस्य से पर्दा हट सकता है । 
दिसम्बर में आयोजित एक भव्य समारोह में वर्ष २०१५ के लिए चुने गए आठ वैज्ञानिकों को नोबेल सम्मान प्रदान किया गया । इस बार का चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मलेरिया और गोलकृमिसे होने वाली बीमारियों पर अनुसंधान के लिए विलियम कैम्पबेल, सातोशी ओमुरा और यूयू तू को मिला । यूयू तू प्रथम चीनी महिला वैज्ञानिक हैं, जिन्हें चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया है । अभी तक चिकित्सा विज्ञान में २१० व्यक्तियों को नोबेल सम्मान मिल चुका है, जिनमें बारह महिला वैज्ञानिक भी सम्मिलित है । भोतिकी का नोबेल पुरस्कार न्यूट्रीनों की प्रकृतिकी खोज के लिए तकाकी कजिता और मैकडोनाल्ड को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया । असल में न्यूट्रीनो मायावी कण हैं, जो सूर्य और सुपरनोवा तारे में विद्यमान रहते हैं । इस बार का रसायन शास्त्र का नोबेल सम्मान टॉमस लिंडाल, पॉल मॉन्ड्रिक और अजीज सन्कर को संयुक्त रूप से दिया गया । तीनों अध्येताआें ने डीएनए अणु की मरम्मत की क्रियाविधियों की व्याख्या की । 
वर्ष २०१५ का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका के दो गणितज्ञों जान नैश और लुई नीरेनबर्ग को प्रदान किया गया । यह पुरस्कार नार्वे की सरकार प्रति वर्ष गणितज्ञ नील्स हेनरिक एबेल की स्मृति में प्रदान करती है । एबेल पुरस्कार को गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है । 
इस वर्ष एक जुलाई को हमारे देश में डिजिटल इंडिया कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ । इसके साथ ही भारत में सूचना क्रांति के दूसरे दौर का सूत्रपात हुआ । इस कार्यक्रम का उद्देश्य नागरिकों को तकनीकी दृष्टि से सक्षम बनाना औश्र सरकारी सेवाआें को डिजिटल माध्यम से जनता तक पहुंचाना है । डिजिटल इंडिया परियोजना में मोबाइल और इंटरनेट के प्रयोग को काफी महत्व दिया गया है । 
गुजरे साल के अंत में दिल्ली में पहली बार भारत अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें सबसे बड़े विज्ञान प्रायोगिक सत्र में लगभग दो हजार स्कूली बच्चें ने विश्व रिकार्ड बनाने के लिए दो प्रयोग किए । दोनों ही प्रयोग उत्प्रेरण पर केन्द्रित थे । यह अपने ढंग का ऐतिहासिक आयोजन था, जिसने विज्ञान उत्सव को स्मरणीय बना दिया । 
बैंगलुरू स्थित नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलाजिकल साइंसेज के वैज्ञानिकों की टीम ने तुलसी के जीनोम का अनुक्रमण किया । इस अध्ययन के लिए तुलसी की पांच प्रजातियों को चुना गया था । तुलसी का स्थान भारत की धार्मिक और औषधीय महत्व की वनस्पतियों में   है । निश्चय ही नए शोध से इसमें मौजूद जैव-सक्रिय यौगिकों के बारे में हमारी समझ का विस्तार होगा । 
इसी वर्ष एक जुलाई को भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण के सौ साल पूरे हुए । यह देश की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था है, जिसने बीते वर्षो में देश के जीव-जन्तुआें के संरक्षण में अहम योगदान किया    है । वर्ष २०१५ में भारत में चलित वैज्ञानिक प्रदर्शनी के पचास वर्ष पूरे हुए और स्वर्ण जयंती मनाई गई । 
बीते वर्ष विज्ञान जगत की जिन बड़ी हस्तियों को हमने खो दिया, उनमें मिसाइलमैन और पीपुल्स प्रेसीडेंट के रूप में लोकप्रिय पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम सम्मिलित है । उन्होनें देश के मिसाइल और अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊंचाई तक ले जाने में विशेष योगदान किया । उन्होंने कई किताबें लिखी, जिनमें विंंग्ज ऑफ फायर, इंडिया २०२०, इग्नाइटेड माइंड्स उल्लेखनीय है । उन्होनें १२ जून २०१३ को उज्जैन में मध्यप्रदेश के प्रथम अत्याधुनिक तारामण्डल के लोकार्पण समारोह को संबोधित करते हुए कहा था कि मैं कल्पना करता हॅू कि भविष्य में मंगल ग्रह की यात्रा पर जाने वाला पहला व्यक्ति उज्जैन से होगा । उन्होंने भारत के राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च् पद पर पहुंंच कर यह दिखा दिया कि एक वैज्ञानिक भी राष्ट्रपति बन सकता है। इसी वर्ष अंतरिक्ष वैज्ञानिक और भारतीय मानसून मॉडल के प्रणेता वसंत गोवारीकर का निधन हो    गया । बसंत गोवारीकर प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे । इस वर्ष २० अक्टूबर को समुद्र जीव विज्ञानी डॉ. एस. जेड कासिम नहीं रहे । उन्होनें अंटार्कटिक अनुसंधान में विशेष योगदान किया । डॉ. कासिम ने लेखन और व्याख्यानों के जरिए विज्ञान को लोकप्रिय  बनाया । एक लंबी अवधि से उड़िया भाषा में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के अभियान में जुटे लोकप्रिय लेखक प्रोफेसर बसंत कुमार बिदुरा १६ फरवरी को चल  बसे । 
गुजरे साल २३ मई को मेधावी गणितज्ञ और अर्थशास्त्री डॉ. जॉन नैश की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई । उन्होनें गणित की गेम थ्योरी पर शोध किया और इसे लोकप्रिय बनाया । जॉन नैश ने मस्तिष्क की असाध्य बीमारी शीजोफ्रेनिया से जूझते हुए अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया । उन्हें १९९४ में अर्थशास्त्र के नोबेल सम्मान के लिए चुना गया था । मेसर के आविष्कार और लेसर के सह-आविष्कारक चार्ल्स हार्डटाउन्स का देहान्त २७ जनवरी को हो गया । उन्हें १९६४ में भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । इसी वर्ष २६ जून को शॉर्ट मैसेजिंग सर्विस यानी एसएमएस की अवधारणा के जनक मैरी मैक्नन का निधन हो गया । 
विदा हो चुके वर्ष के दौरान समाज में लोगों में वैज्ञानिक चेतना जगाने के सक्रिय प्रयास जारी रहे । विज्ञान की मदद से जलवायु परिवर्तन और खाघान्न सुरक्षा जैसी चुनौतियों का समाधान खोजा गया ।  वैज्ञानिकों और शोधार्थियों को वर्ष २०१६ में विज्ञान के हर क्षेत्र में नया इतिहास रचने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्पन्न समाज के प्रयासों में आगे बढ़ने के लिए शुभकामनाएं । 
विज्ञान, हमारे आसपास
जीवित टिमटिमाते तारे 
नरेन्द्र देवांगन
उस दिन मेन की खाड़ी के आकाश पर संध्या का प्रकाश तेजी से सिमट रहा था । परन्तु जल की सतह  से २५० मीटर नीचे, जहां सूर्य की किरणें भी कभी नहीं पहुंच पाती, समुद्र जगमगा उठा । अब तो गहरे में गोता लगाने वाली वह मिनी पनडुब्बी तक किसी और ही दुनिया के दिव्य से आलोक मेंनहा उठी । 
पनडुब्बी अब छोटी-छोटी कांब जेलीफिश के झुंड के बीच आगे बढ़ी तो मछलियों ने प्रकाश के दसियों लाख नीलाभ हरे बिन्दु छोड़ दिए । कॉकपिट में हार्बर ब्रांच ओशियानोग्राफिक इंस्टीट्यूट की एडिथ बिडर हर ओर बहते उजाले क्की धारा को विस्मित नेत्रों से देखती रही । उनका कहना है कि रोशनी इतनी तेज थी कि वाहन के डायलों को बखूबी पढ़ा जा सकता था । 
जैव संदीिप्त् के ऐसे दृश्य मानव जाति को तभी से विस्मित करते आ रहे है जब चीनियों ने आग छोड़ती मक्खियों को देख ३ हजार वर्ष पूर्व हैरानी व्यक्त की थी । जीवाणुआें से लेकर शार्क मछलियों तक दर्जनों ऐसे जीव है जो सहवास या आहार के दौरान अथवा खतरे को टालने के लिए अपनी रोशनी जला लेते हैं । अब अनुसंधान से संकेत मिलते हैं कि मानव को दिन के इस जीवित प्रकाश से कैसे लाभ प्राप्त् हो सकता है । 
जीवों के बहुत से वर्गो में ऐसी प्रजातियां है जो अंधेरे में चमकती हैं । इन दमकने वालों में केचुए हैं, पतंगे है, स्पंज है, समुद्री मृदुकवची हैं, जेलीफिश हैं, घोंघे और ऑक्टोपस हैं । चमकने वाले सूक्ष्म प्लवक जैसी संदीप्त्शिील वनस्पतियां भी हैं जो प्योर्टो रिको की फॉस्फोरेसेंट खाड़ी में अंधेरा होने के बाद तैरने वालों पर नीलाम श्वेत रोशनी फेंकती हैं । फिर जापान की जहरीली मूनलाइट खुंबी तो बढ़ते-बढ़ते १५ सेंटीमीटर व्यास तक पा लेती है । 
कई चीजें अंधेरे में अपने आप चमकने लगती हैं तो बहुत से लोगों को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं होता । न्यू जरसी के कार्टरेट की ही पुलिस को उस समय विकटतम घटना की आशंका हुई जब उसे विषाक्त रिसावों के लिए कुख्यात आर्थर किल जल मार्ग में, भूतिया हरी रोशनी देखे जाने के बारे में फोन आने लगे । संघीय तथा प्रांतीय दुर्घटना राहत दल सफाई के यंत्र लेकर पहुंचे, परन्तु उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी । यह रोशनी संदीप्त्शिील जेलीफिश के उस झुंड से आ रही थी जो जलधाराआें के साथ उधर बह आई थी । 
बिजली के तापदीप्त् बल्ब में तो विद्युत धारा के प्रतिरोध की गर्मी से चमक पैदा होती है जबकि जैव संदीिप्त् उन दो पदार्थो से पैदा होती है, जिन्हें जीव प्राकृतिक रूप से पैदा करते हैं - ल्यूसिफरीन तथा लूसीफरेस एन्जाइम । चूंकि प्रकृति में ये दोनों पदार्थ कई रूपों में पाए जाते हैं, इसलिए उनकी रोशनी का रंग भी भिन्न- भिन्न होता है । अधिकांश समुद्री जीव नीली रोशनी पैदा करते हैं, जो पान में अन्य रंगों की अपेक्षा अधिक दूरी तक जाती है । थल पर रहने वाले जीव व्यापक वर्णक्रम के रंगों का प्रयोग करते हैं, जैसे मध्य तथा दक्षिण अमरीका का रेलमार्गीय कृमि । यह एक गुबरैले का लार्वा है जिस पर लाल दमक वाली हेडलाइट और ११ जोड़ी हरित पीली पार्श्व रोशनियां होती हैं । अत: यह रात के अंधेरे में दौड़ती किसी सवारी रेलगाड़ी सा लगता है ।
रोशनी की गहनता भी न्यूनाधिक मिलती है । एक अकेले जीवाणु की नीली चमक इतनी कम होती है कि कई खरब मिलकर इतनी कम होती है कि कई खरब मिलकर ही ६० वॉट के बिजली के बल्ब के बराबर रोशनी पैदा कर पाते हैं । दूसरी ओर, केरेबियाई अग्नि गुबरैले के पेट पर ह्वदयाकार नारंगी रोशनी होती है, और कंधों पर दो हरित पीली बत्तियां होती हैं । ये इतनी तेज रोशनी देती हैं कि स्थानीय महिलाएं इनका उपयोग केश सज्जा तक में करती है ।
अब तक वैज्ञानिकों ने जुगनुआें की २ हजार प्रजातियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले १३० विविध संकेतों का पता लगाया है । अपनी नयनाभिराम झांकी की दृष्टि से दक्षिणपूर्व एशिया के उन नर जुगनुआें को मात देना आसान नहीं है जो एक साथ मिलकर किसी भी पेड़ पर बैठ जाते हैं और किसी चमचमाते क्रिसमस वृक्ष सा दृश्य उपस्थित करते हुए मादाआें को रिझाने के लिए एक साथ टिमटिमाने लगते हैं । थाईलैंड के कुछ भागों में तो ये इश्तहारी जुगनू एक क्रम से चमक कर पेड़ों की कतारों को लयबद्ध ढंग से जगमगाते रहते हैं । 
दमक का अत्यधिक प्रदर्शन आकर्षण तथा कपट के कालेनाटक तक को छिपाए रख सकता है । मादा जुगनू की एक ऐसी कौंध नर को जहां यह कह सकती है, मुझे थाम लो, मैं तुम्हारी हॅूं । तो एक दूसरी दमक यह जता देती है, परे रहो, मैं विकट स्वाद लिए हॅूं । 
एक परभक्षी किस्म की मादाएं दूसरी प्रजाति के भोले-भोले नर जुगनुआें को प्रेमभरी दमक स लुभा लेती हैं । फिर वे उस बेखबर प्रेमी को निकल भागने का मौका दिए बिना चट भी कर जाती हैं । 
न्यूजीलैंड की वेटोमा गुफाआें के दीप्त्शिील कृमि एक अन्य प्रकार की चाल चलते हैं । भूमिगत कंदराआें की छत से लटकते इनके लार्वा के झुंड घुप अंधेरे आकाश में टिमटिमाते तारों जैसे लगते हैं । गुुफाआें के कीट भी परोक्ष रू से यही समझते हैं और जैसे ही वे बाहर निकलने की राह की खोज में ऊपर की ओर उड़ते हैं नीचे झूलते इन चिपचिपे धागों में फंस जाते हैं । फिर ये रेंगते दीप्त्शिील कृमिलाचार शिकार को चट कर जाते हैं । 
कुछ जीव, जो अपनी खुद की रोशनी पैदा नहीं कर पाते, वे दमक उधार भी ले सकते हैं । गहरे समुद्र की एंगलर मछली शिकार को अपने सूई से तीखे दांतों के ठीक सामने आकृष्ट करने के लिए अपने माथे पर दमकने वाले जीवाणुआें से भरी थैली झुलाती चलती है । ऑस्ट्रेलिया की याबू मछली दमकने वाले जीवाणु लिए घूमती है जिसके कारण उसका निचला भाग पानी की सतह से आने वाली पृष्ठभूमि रोशनी से सामंजस्य बनाए रखता है । इसकी  छ्दम प्रौघोगिकी इतनी प्रखर है कि आकाश पर उड़ते बादलों की छाया भर से उसकी अपनी रोशनी बदल जाती है । 
चमकने वाले जीव युगों से मानव इतिहास के तानेबाने में बुने हुए हैं । अमरीका पहुंचने से पहली रात को क्रिस्टोफर कोलबंस ने समुद्र में घूमती मोमबत्तियों के रूप में जिनका उल्लेख किया था वे शायद संगम ऋतु बरमुड़ा जुगनू कीटों के समूह थे । सन १६३४ में क्यूबा तट की ओर बढ़ते ब्रिटिश जहाजों को तट पर चमकती असंख्य रोशनियों के कारण हमले का इरादा छोड़ना पड़ा क्योंकि उन्हें लगा कि वहां कड़ी प्रतिरक्षा व्यवस्था थी । इतिहासकारों को अब संदेह है कि प्रतिरक्षक वास्तव में हजारी चमकने वाले गुबरैले ही थे जिन्हें कुकूजो कहते हैं । 
वर्षो से लोगों जैव संदीिप्त् के दोहन के प्रयास भी किए हैं । १७वीं शताब्दी के दौरान, स्वीडन के किसान अत्यन्त ज्वलनशील भूसे के मचानों में रोशनी करने के लिए चमकने वाली फफूंद लगी लकड़ी का प्रयोग करते थे । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सिपाही बिना अपना पता दिए नक्शे पढ़ने के लिए एक चमकने वाले सिप्रिडाइना (वर्गुला हिल्जेनडोर्फी) को कुचल कर हथेलियों पर मल लेते थे । 
जार्जिया के सीलाइट साइंसेज, इनकारपोरेटेड के अनुसंधानियों ने ऐसे परीक्षणों का विकास किया है जिनमें ४ विभिन्न हारमोनों के स्तर को मापने के लिए चमकने वाली जेलीफिश के जीन्स का प्रयोग किया जाता है । चमकने वाले जीवाणु वास्तव में एक दिन खदान मजदूरों की कैनेरी चिड़ियों के सूक्ष्म विकल्प के तौर पर काम करने लगेंगे । मॉन्ट्रीअल में मैकगिल विश्वविघालय के विज्ञानियों ने ऐसे जीवाणु का विकास किया है जो एलुमिनियम, पारा और अन्य धातुआें के पास आते ही चमकने लगता है ।
वैसे सभी अनुसंधान बहुत फलमूलक नहीं है । कैलिफोर्निया विश्वविघालय के वनस्पति रोग विज्ञानी क्लैरेंस कैडो कुछ अधिक व्यापक विचार रखते हैं । उनका तर्क है, विज्ञान यदि सोयाबीन की जड़ों को चमका सकता है, तो क्यों न पेड़ों को भी दमका दिया जाए ? अत: कैडो ने बहिरंग प्रकाश व्यवस्था के लिए   एक नया शोध आरंभ किया है  - जैव संदीिप्त् से चमकता क्रिसमस   वृक्ष । 
पर्यावरण परिक्रमा
ब्रिटेन के भोजन का ग्रीन हाउस प्रभाव विदेशोंमें

यूरोप के कई देशोंऔर खासकर युनाइटेड किंगडम में कई वर्षो से एक नया रूझान देखा जा रहा है । ये देश जितने भोजन का उपभोग करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा अन्य देशों में उगाया जाता    है । इन अन्य देशों में इसकी वजह से जो ग्रीनहाउस गैसे वायुमण्डल में फैलती हैं उनका हिसाब पहली बार किया गया है । मसलन, युनाइटेड किंगडम की भोजन खपत से संबंधित ग्रीनहाउस गैसों में से ६४ प्रतिशत का उत्सर्जन अन्य देशों में हुआ । 
युनाइडेट किंगडम आजकल अपना लगभग आधा भोजन बाहर से आयात करता है । सन १९८६ से २००९ के दरम्यान युनाइटेड किंगडम के लोगों के लिए भोजन पैदा करने हेतु जमीन में २३ प्रतिशत वृद्धि हुई जिसमें से ७४ प्रतिशत विदेशों में हुई थी । 
इसी प्रकार से पशु चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला सोयाबीन, कोको तथा गेहूं भी अधिकांशत: विदेशी भूमि पर उगाए गए थे । इनके अलावा युनाइटेड किंगडम ने उपभोग के लिए फल-सब्जियां भी बढ़ती मात्रा में व स्पैन व अन्य देशों से आयात की जा रही है । 
२००८ मे युनाइटेड किंगडम की खाद्य आपूर्ति की वजह से २१.९ मेगाटन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ । इस उत्सर्जन में से १८ प्रतिशत दक्षिण अमेरिका में और १५ प्रतिशत युरोपीय संघ के देशों में हुआ । 
जनरल ऑफ रॉयल सोसायटी इंटरफेस में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि अन्य यूरोपीय देश भी युनाइटेड किंगडम के नक्शे कदम पर चल रहे हैं । इस रिपोर्ट के एक लेखक एबर्डीन विश्वविद्यालय के हेनरी डी रूइटर का मत है कि इन रूझानों के मद्देनजर अब इन देशों के लिए सिर्फ अपनी भूमि पर होने वाले उत्सर्जन को नहीं बल्कि इनकी वजह से अन्यत्र हो रहे उत्सर्जन को भी हिसाब में लिया जाना चाहिए । ये देश जो कुछ खाते हैं उसका असर अन्य देशों में हो रहा    है । 

बीस साल की मेहनत से खेसारी का नया अवतार
जिस खेसारी दल को जहरीली बताकर ५५ साल पहले (१९६१) प्रतिबंधित कर दिया गया था, अब वह फिर से थाली में लौटने की तैयारी में है, वह भी बदले स्वरूप में । दरअसल जहरीली खेसारी का ये उन्नत रूप होगा, जिसमें जहर यानी विषाक्त ओपेड (बीटा-एन-ओक्सालिल- एल- बीटा - डाइएमीनो प्रोप्रिओनिक अम्ल) रसायन की मात्रा पहले की तुलना में बिल्कुल नगण्य है । कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि वह उन्नत रूप पूरी तरह सुरक्षित होगा । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) के साथ छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विवि और कानुपर स्थित पल्स (दाल) शोध संस्थान ने २० सालों की कड़ी मेहनत के बाद ये सफलता हासिल की है । शोध के बाद रतन, प्रतीक और महातेओरा नाम की तीन उन्नत प्रजातियां विकसित की गई है । दावा किया गया है कि इनमें ओडेप मात्रा अब ०.०७ से ०.१ प्रतिशत ही बची है, जो नुकसानदेह नहीं होती । 
कृषि मंत्रालय की रिसर्च विंग के एडिशनल डायरेक्टर (आयल एण्ड पल्स) डॉ. बी.बी सिंह के अनुसारविकसित की गई प्रजातियों को खेती और खाने की क्लीयरेंस देने से पहले कृषि वैज्ञानिकों ने इस पर सैकड़ों टेस्ट किए और ये सभी में उन्नत साबित हुई । 
मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसारइन उन्नत प्रजातियों को परीक्षण के बाद आईसीएआर ने इस्तेमाल के लिए प्रस्तावित किया   है । मंत्रालय अन्य विभागों से भी राय ले रहा है । जैसे ही इसके उत्पादन और इस्तेमाल को लेकर क्लीयरेंस मिलती हैं, सभी राज्यों को उन्नत किस्मों के बीज सप्लाई किए    जाएंगे । 
खेसारी का सबसे ज्यादा उत्पादन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में होता है । बिहार और पश्चिम बंगाल में भी लगभग ४-५ लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई होती है । वही पड़ोसी देश बांग्लादेश, भूटान में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती होती है । 

साढ़े ४ लाख हेक्टयेर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण
मध्यप्रदेश के साढ़े लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है । यह आंकड़ा कम होने के बाजय बढ़ रहा है । जो जहां रह रहा है, उसे उस जमीन का मालिकाना हक दिया जाएगा । सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के इस ऐलान के बाद कब्जे के मामले बढ़ गए है । बीते पांच साल में १६ हजार ५१८ हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया गया । यह सरकारी आंकड़ा है । असल में यह दोगुना से ज्यादा है । 
प्रदेश का ३,०८,२४५ वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र हैं । इसमें करीब ३१ फीसदी क्षेत्र (९४६८९ वर्ग किलोमीटर) वन क्षेत्र है । वन विभाग खुश हो सकता है कि देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले पांच राज्यों में मध्यप्रदेश शामिल है, लेकिन इससे इतर लगातार वन क्षेत्र में अतिक्रमण तेजी से बढ़ रहा है । इसे रोक पाने में वन महकमा असहाय है । सूत्रों के अनुसार , वर्ष २०१० से पहले सरकारी रिकॉर्ड में ४.३७ लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में अतिक्रमण था । अब इसमें १६ हजार हेक्टेयर से अधिक की बढ़ोतरी हो गई है । वर्ष २०१३ के बाद से इसमें ज्यादा वृद्धि हुई । वन विभाग के अनुसार राज्य सरकार ने जब से, जो जहां रह रहा है, उसे वहां का पट्टा देने की घोषणा की है, नए अतिक्रमण के मामले बढ़ गए है । 
प्रदेश में अतिक्रमणधारियों के हौसले इतने बुलंद है कि उन्होनें नेशनल पार्को तक को नहीं बख्शा । सर्वाधिक अतिक्रमण के मामले संजय टाइगर रिजर्व सीधी में सामने आए । यहां वर्ष २०१० से २०१४ के बीच २२२ हेक्टेयर में कब्जा कर लिया । पन्ना टाइगर रिजर्व में वर्ष २०१४ में दस हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया, जबकि इससे पहले वर्ष २०११ और २०१२ में विभाग ने अतिक्रमण की कोशिश करने पर १० प्रकरण पंजीबद्ध किए थे । कुनो वन्य प्राणी वन मण्डल श्योपुर में भी आठ हेक्टेयर और बाधवगढ़ टाइगर रिजर्व एवं सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी एक-एक हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया । 
वर्ष २०१०-१४ तक कहां कितना अतिक्रमण :- 
सर्कल वनक्षेत्र 
इन्दौर ३६७
खण्डवा २४६४
उज्जैन २३१
छतरपुर १७६६
सागर १५६५
ग्वालियर १२५०
भोपाल ११८६
शहडोल ६५६
जबलपुर ४०३
शिवपुरी ४४२२
होशगाबाद २४२
रीवा १२५७
बैतूल २२०
छिदवाड़ा १२२
सिवनी ८०

धरती का बढ़ता तापमान और नया साल  
उत्तर भारत में लोगों ने नववर्ष का स्वागत असामान्य मौसम के बीच किया । इस भू-भाग में घने कोहरे और कड़ाके की ठंड के बीच रोमन कैलेंडर का साल बदलता रहा है, लेकिन २०१५ ने खुले आसमान, गरमाहट भरी धूप और हलकी सर्दी के बीच हमसे विदाई ली । ब्रिटेन के मौसम विशेषज्ञ इयन कुरी ने दावा किया कि इतिहास का सबसे गर्म दिसम्बर था । अमेरिका से भी ऐसी ही खबरे आई । 
संयुक्त राष्ट्र पहले ही कह चुका था कि २०१५ अब तक का सबसे गर्म साल रहेगा । भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में आने वाले दिनों में तापमान ज्यादा नहीं बदलेगा । यानी आने वाले दिनों में भी वैसी सर्दी पड़ने की संभावना नहीं हैं, जैसा सामान्यत: वर्ष के इन दिनों में होता है । दरअसल, कुछ अंतरराष्ट्रीय जानकारों का अनुमान है कि २०१६ में तापमान बढ़ने का क्रम जारी रहेगा और संभवत: नया साल पुराने वर्ष के रिकार्ड को तोड़ देगा । इसकी खास वजह प्रशांत महासागर में जारी एल निनो परिघटना है, जिससे एक बार फिर दक्षिण एशिया में मानसून प्रभावित हो सकता है । इसके अलावा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से हवा का गरमाना जारी है । इन घटनाक्रमों का ही सकल प्रभाव है कि गुजरे १५ वर्षो से धरती के तापमान में चिंताजनक स्तर तक वृद्धि हुई है । इसके परिणामस्वरूप हो रहे जलवायु परिवर्तन के लक्षण अब स्पष्ट नजरह आने लगे है । आम अनुभव है कि ठंड, गर्मी और बारिश होने का समय असामान्य हो गया है । गुजरा दिसम्बर और मौजूदा जनवरी संभवत: इसी बदलाव के सबूत है । 
जलवायु परिवर्तन के संकेत चार-पांच दशक पहले मिलने शुरू  हुए । १९९० आते-आते वैज्ञानिक इस नतीजे पर आ चुके थे कि मानव गतिविधियों के कारण धरती गरम हो रही है । उन्होंने चेताया था कि इसके असर से जलवायु बदलेगा, जिसके खतरनाक नतीजे होगे, लेकिन राजनेताआें ने उनकी बातों की अनदेख की । हालांकि, जलवायु परिवर्तन रोकने की पहली संधि १९९२ में हुई, लेकिन खासकर विकसित देशों ने अपनी वचनबद्धता के मुताबिक उस पर अमल नहीं किया । 
सामाजिक पर्यावरण
पर्यावरण, धर्म तथा विकास के अर्न्तसंबंध
डॉ. भारतेन्दु प्रकाश

भारत में पर्यावरण व धर्म को अत्यन्त व्यापक स्वरूप प्रदान किया गया है । इन दोनों की व्यवस्थित समझ से ही विकास संभव है। परंतु आधुनिक योजनाकारों ने इन तीनों की अलग-अलग व्याख्या कर पूरी मानवता को ही संकट में डाल दिया है ।
भारत मंे पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीनों के आपसी संबंध अधिकांश लोगों के लिये पहेली बने हुए हैं । इसीलिये उन्हंे एक दूसरे का पूरक समझने में तकलीफ होती है। विकास की गलत समझ के कारण सरकारें भी विकास का आकर्षण दिखाकर पर्यावरण को पहंुचने वाले नुकसान को तथा उससे उत्पन्न होने वाली भावी आपदाओं को नज़र अन्दाज कर देती हैं । धर्म को अंग्रेजी के शब्दों रिलीज़न या फेथ का पर्यायवाची मानकर उसका पर्यावरण के साथ जो रिश्ता है उसे पूरी तरह नकारने का अभ्यास सभी के लिये एक आम बात हो गई है । आइये इन्हे समझने का प्रयास करें :
पर्यावरण : हमारे चारोें ओर जो कुछ भी हमें दिखाई या सुनाई देता है वही सब पर्यावरण कहलाता है। इसकी सीमा पृथ्वी से आकाश तक है। हमारे घर के अन्दर परिवारजन, गांव, नगर तथा पास पड़ोस के लोग, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, जंगल, नदी, पहाड़, कुएं, तालाब, हवा, शोरगुल, चांद, सूरज तथा आकाश आदि सभी कुछ पर्यावरण के दायरे में आता है। अत: यह मानना कि केवल प्रकृति अर्थात जल, जंगल, पहाड़ और जमीन ही पर्यावरण है यह अधूरी समझ है। मनुष्य प्रकृति का एक घटक होने के कारण पर्यावरण का ही एक हिस्सा है, उससे अलग उसकी कोई सत्ता नहीं । 
धर्म : जीवन के सुचारु निर्वाह के लिये व्यक्ति को उपरोक्त पर्यावरण यानी व्यक्ति, समाज एवं  प्रकृति तथा दैवी शक्ति (परमेश्वर)  के प्रति तथा सबके साथ पारस्परिक संबंधों मंे जो स्वस्थ संतुलन बनाने का काम है, वही धर्म है । प्रकृति के  हर घटक का एक धर्म होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता, प्यास बुझाने वाला, धरती को नम बनाने तथा उसमें या शरीर में पैदा होने वाले जहरीले तत्वों को अपने में घोलकर बाहर निकालने वाला आदि है । अग्नि का धर्म अपनी गर्मी के माध्यम से ठंडक को दूर करने वाला, जल को सोखकर उसे वाष्प में बदलने वाला, वस्तुआंे को पकाने वाला एवं वातावरण को शुद्ध करने वाला आदि है । इसी तरह प्रकृति के सभी घटकों वायु, धरती, जंगल, पहाड़, पेड़-पौधे, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि को उनके विशेष धर्मों से समझा जा सकता है। मनुष्य प्रकृति का महत्वपूर्ण घटक है जिसका धर्म सद्भाव के साथ पारस्परिक रक्षा करते हुये संतुलन बनाये रखने का है। प्रकृति ने उसे बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां सौंप कर एक सक्षम घटक बनाया है। जंगली पशुओं को अपनी सुरक्षा के लिये सींग, दांत तथा नाखून आदि दिये पर मनुष्य को ऐसा कुछ अंग न देकर उसे एक शान्तिप्रिय, सद्भावपूर्ण तथा सबके साथ संतुलन बना कर पारस्परिक सुरक्षा का दायित्व दिया है। इसी को पूरा करने के लिये मनुष्य ने आपस में मिल कर समाज बनाया, सघन बस्तियाँ, गांव तथा नगर आदि बसाए तथा सामाजिक व्यवस्थायें तथा कर्तव्य निर्धारित हुए । 
इस बात का दु:ख है कि धर्म की आज जो समझ है वह केवल विश्वास (मान्यता) अथवा सम्प्रदाय के दायरे मंे आती है । सामान्यतौर पर व्यक्ति अपने वर्ग की मान्यताओं तथा सम्प्रदाय को धर्म मान कर आपस में अपने संबंधों को तनावपूर्ण बनाता रहता है और इस प्रक्रिया मे वास्तविक धर्म की अवहेलना करता रहता है । धर्म केवल आरती या पूजा करने में नहीं है, न ही केवल नमाज अदा करने या प्रार्थना करने में है । ये सब कुछ तो परमेश्वर की शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के माध्यम हैं। धर्म तो सभी के साथ कैसे संबंध रखें जैसे आसपास के वातावरण को स्वस्थ रखते हुये, सबके प्रति प्रेम व्यवहार एवं सद्भाव निभाते हुये, प्रकृति या किसी प्राणी को किसी भी प्रकार का नुकसान न पहुंचाते हुए, सदैव परमपिता परमेश्वर का ध्यान करते सादगी भरा जीवनयापन करने में है । 
विकास : मनुष्य समाज में मानवीय गुणों का समावेश तथा ऊपर बताये अनुसार धर्म की समुचित व्यवस्था को ही विकास कहा  जायेगा । विकसित  अवस्था में संतुलित जीवन, सबको  ज्ञान, सभी घटकों के प्रति परस्पर सम्मान, सबको सुख तथा सबकी सुरक्षा सुनिश्चित होना अनिवार्य है। बाहरी दिखावे की वस्तुएं, सड़क, भवन, मशीनरी, सुविधाओं का निर्माण या फैलाव इन सबको मानवीय विकास मानना एक अधूरी समझ का परिणाम है जो समाज तथा शासन व्यवस्था सभी को बरगलाता है । यदि मनुष्य के समाज में पारस्परिक भाईचारा, सद्भाव, प्रेम, विश्वास तथा सम्मान का ही अभाव हो तो सड़क, भवन, बाजार, रेल, हवाईजहाज, अस्पताल, विद्यालय तथा व्यवस्था को विकास का नाम देना क्या पूरी तरह भ्रामक नहीं है ? 
पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीन शब्दों की उपरोक्त समझ के आधार पर यह स्पष्ट है कि ये तीनों आपस मे अभिन्न हैं, ये एक दूसरे के पूरक तथा सहयोगी हैं अत: किसी एक के मूल्य पर दूसरे को बढ़ावा देने की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं है । हमंे सम्प्रदायों की सीमा को समझना होगा । किसी भी मान्यता को मानना अनुचित नहीं है पर मान्यताओं एवं कर्मकाण्डों को ही धर्म मान लेना, मानवीय संबंधों को तनावपूर्ण करते हुये, प्रकृति तथा आसपास रहने वाले पशुपक्षी, वनस्पति तथा समाज के लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए, जंगल, पहाड़, नदी, कुओं तथा तालाबों को नष्ट करते हुए जो भी कार्य किया जायेगा वह विकास नहीं है, यह ध्यान रखना होगा । मानवीय व्यवस्था मेंसभी के कर्तव्य परस्पर पूरकता में निहित होते हैं । 
ज्ञान-विज्ञान
बड़ा दिमाग समस्या सुलझाने में मदद करता है 
सिर बड़ा सरदार का, यह कहावत काफी प्रचलित रही है । यह आम धारणा भी है कि जितना बड़ा दिमाग होगा बुद्धि भी उतनी ज्यादा होगी । हालांकि मनुष्यों के बारे में प्रचलित इस धारणा को तो कई दशकों पहले ध्वस्त किया जा चुका है मगर एक बार शोधकर्ता ने चिड़ियाघर में पले जानवरों के अवलोकनों के आधार पर बताया है कि बड़े दिमाग वाले प्राणियों में समस्या सुलझाने की क्षमता बेहतर होती है । वैसे इस बार यह अध्ययन एक ही प्रजाति के विभिन्न प्राणियों पर नहीं बल्कि अलग-अलग प्रजातियों के प्राणियों पर किया गया है । 
व्योमिंग विश्वविघालय की सारा बेन्सन-अमराम और उनके साथियों ने यह अध्ययन डिब्बे में रखे भोजन को पाने की क्षमता के आधार पर किया । उन्होनें डिब्बों में भोजन बंद करके नॉर्थ अमेरिकन चिडियाघर में ३९ प्रजातियों के १४० मांसाहारी प्राणियों को अलग-अलग  पेश किया । उन्होनें पाया कि डिब्बों को खोलने के मामले में उन प्राणियों का प्रदर्शन बेहतर रहा जिनके शरीर के भार की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े दिमाग है । जैसे रिवर ओटर्स और भालू । दूसरी ओर, मीरकाट और नेवले तो लगभग नाकाम ही  रहे । 
  बेन्सन-अमराम का कहना है कि समस्या सुलझाने का सम्बन्ध संज्ञान क्षमता से है मगर बुद्धिमत्ता बहुत पेचीदा चीज है जिसे मापना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है । इसलिए उनका अध्ययन बुद्धिमत्ता के बारे में कुछ नहीं कहता । 
उनके अध्ययन को लेकर कई सवाल भी पैदा हुए है । जैसे क्या पूरे दिमाग का आकार महत्वपूर्ण है या दिमाग के कुछ हिस्सों का ज्यादा असर पड़ता है । बेन्सन-अमराम के दल ने प्रयोग में शामिल विभिन्न प्राणियों के दिमाग के कम्प्यूटर मॉडल्स निर्मित किए और दिमाग के विभिन्न हिस्सोंके आकार का संबंध समस्या सुलझाने की क्षमता से देखने की कोशिश की । उनका मत है कि प्राणी के दिमाग की कुल तुलनात्मक साइज ही क्षमता का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करती है । 
एक सवाल यह भी है कि ये सारे प्राणी चिड़ियाघर के कृत्रिम माहौल में पले हैं । इनका प्रदर्शन मुक्त प्राणियों की क्षमता का द्योतक हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता ।
वैसे इस अध्ययन के निष्कर्ष सामाजिक-मस्तिष्क परिकल्पना के विरूद्ध जाते हैं । सामाजिक मस्तिष्क परिकल्पना के अनुसार जब प्राणी समूहों में रहते हैं, तो उनके दिमाग बड़े भी हो जाते हैं और संज्ञान क्षमता भी बढ़ती है । अर्थात संज्ञान क्षमता के विकास में सामूहिक जीवन का महत्वपूर्ण योगदान होता है । दरअसल, बेन्सन-अमराम का कहना है कि बंदी अवस्था में अवलोकन से यह पता चलता है कि कोई प्राणी क्या करने की क्षमता रखता है । यह अलग बात है कि जंगल में यह क्षमता उसके व्यवहार में कितनी झलकती हैं । 

अंतरिक्ष से गिरता मलबा
पिछले नवम्बर से हिन्द महासागर में अंतरिक्ष से कुछ कबाड़ा गिरा मगर अब तक यह पता नहीं चल सका है कि यह किस चीज का कबाड़ा है । यह पहली बार है कि अंतरिक्ष से कोई कृत्रिम वस्तु तयशुदा समय और स्थान पर नहीं गिरी है । अंतरिक्ष वैज्ञानिक यह पता लगाने में जुटे है कि वह चीज है क्या । 
इस कबाड़े को नाम दिया गया है थढ११९०ऋ। इसे हिन्द महासागर में गिरते हुए किसी ने नहीं देखा, हालांकि दूरबीनें २००९ से ही इस वस्तु को बीच-बीच में देख पा रही थी । सन २०१५ तक किसी को अंदेशा नहीं था कि यह धरती पर गिरने वाली है । मगर जब स्पष्ट हो गया कि यह वस्तु गिरेगी तो ऐसी घटना के अवलोकन के इन्तजाम किए गए । एक तो जमीनी केन्द्रों से इसके गिरने का अवलोकन किया गया, वहीं दूसरी ओर एक चार्टडे विमान से इसका पीछा भी किया गया । मगर दुर्भाग्श्वश इसे धरती से ३३ किलोमीटर निकट पहुंचने के बाद नहीं देखा जा    सका । 
अब सबसे पहला काम तो यह किया गया है कि २००९ के बाद से जब-जब इसे देखा गया था, उसके आधार पर इसका मार्ग पता करने के प्रयास हुए हैं । इस मार्ग को देखकर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को लगता है कि यह किसी ऐसे प्रोजेक्ट का मलबा होना चाहिए जिसे चांद की ओर भेजा गया था । 
दूसरा अनुमान यह लगाया गया है कि यह वस्तु अंतरिक्ष में दस साल से ज्यादा समय से नहीं रही होगी क्योंकि अन्यथा इस रास्ते चलने वाली वस्तु या तो पहले ही पृथ्वी पर गिर चुकी होती या सूरज की परिक्रमा करने लगती । इसके आधार पर कई सारे चन्द्रमा प्रोजेक्ट्स को सूची में से हटा दिया गया है । 
फिलहाल वैज्ञानिक नासा द्वारा छोड़े गए ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर में लगाए गए एक रॉकेट को सबसे संभावित उम्मीदवार मान रहे हैं । यह हिस्सा प्रॉस्पेक्टर को पृथ्वी की कक्षा से बाहर धकेलने के बाद उससे अलग हो गया था । इसके रास्ते का अनुमान थढ११९०ऋसे सबसे ज्यादा मेल खाता है । 
इसके अलावा गिरते हुए थढ११९० के एक टूकड़े को वर्णक्रम भी हवाई जहाज पर लगे उपकरणों ने प्राप्त् किया था । इस वर्णक्रम के विश्लेषण से उसमें टाइटेनियम ऑक्साइड और हाइड्रोजन की उपस्थिति के संकेत मिले हैं । इन अवलोकनों को ५ जनवरी को आयोजित अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ एयरोनॉटिक्स एंड एस्ट्रोनॉटिक्स की बैठक में सेटी इंस्टीट्यूट के पीटर जेनिस्केन ने प्रस्तुत किया । ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर का बाहरी आवरण टाइटेनियम का ही बना था । 
अब कोशिश यह हो रही है कि थढ११९०ऋ को २००९ से पहले देखे जाने के रिकार्ड को खंगाला  जाए । उसके आधार पर यह पता चल सकेगा कि क्या ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर और उसका रास्ता मेल खाते है । थढ११९०ऋ की पहचान चाहे जो साबित हो मगर सब मान रहे है कि यह कबाड़ हिन्द महासागर में गिरा वरना कोई दुर्घटना हो सकती थी । 

क्या दस हजार साल पहले युद्ध होते थे ?
      सन २०१२ में पुरातत्ववेत्ताआें  को केन्या में तुर्काना झील के निकट नतारूक में कुछ चीजें मिली थी जो चिंता का विषय थीं - चिंता का विषय मानव इतिहास की हमारी समझ की दृष्टि थे । इस पुरातत्व स्थल पर खुदाई के दौरान पुराविदों को २७ व्यक्तियों के अवशेष मिले   थे । इन्हें दफनाया नहीं गया था और खुले में छोड़ दिया गया था । इनमें से १२ लगभग सम्पूर्ण कंकाल थे जबकि अन्य व्यक्तियों की बिखरी हुई हडि्डयां मिली थी । 
जो कंकाल बेहतर संरक्षित हालत में मिले थे, उनकी जांच-पड़ताल के आधार पर पुरातत्वविदों का मत था इनमें से १० हिसंक मौत मरे थे । पांच की मृत्यु किसी बोथरे हथियार से सिर पर लगी चोट के कारण हुई थी जबकि पंाच किसी नुकीले औजार द्वारा सिर और गर्दन पर लगी चोट के शिकार हुए  थे । यह नुकीला हथियार संभवत: तीर था । दो शवों के कंकाल की हालत बता रही थी कि मारने से पहले उन्हें बांध दिया गया था । 
पुरातत्ववेत्ताआें का निष्कर्ष था कि यह दृश्य किसी संगठित युद्ध का प्रमाण था जिसमें एक समूह के लोगों ने किसी दूसरे समूह के लोगों को व्यवस्थित रूप से मौत के घाट उतारा था । 
वैसे तो ऐसा हिंसक नरसंहार कोई अनहोनी घटना नहीं है मगर जिस काल में यह घटना घटी होगी यह सचमुच आश्चर्य की बात थी । नतारूक स्थल कम से कम १० हजार साल पूर्व का है । इसकी काल गणना कंकालों और कंकालों के आसपास मिले अन्य जन्तु अवशेषों के कार्बन डेटिंग, तथा वहां पाए गए औजारों के विश्लेषण के आधार पर की गई है । नेचर मेंप्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक ये सारे प्रमाण दर्शा रहे थे कि यह नरसंहार १० हजार वर्ष या उससे भी पहले हुआ था । यह वह समय था जब मनुष्य प्राय: शिकारी या संग्रहणकर्ता थे । 
जन जीवन
प्रकृति : असहिष्णुता का फैलता दायरा
डॉ. ओ.पी. जोशी
यह आश्चर्य का विषय है कि पेड़, नदियों, पहाडों के अलावा ऋतुओं तक की पूजा करने वाला भारतीय समाज आज इनके विनाश को लेकर बिल्कुल भी चिंतित नहीं है । इसे रोकना हमारी आज की अनिवार्यता  है ।
देश भर में असहिष्णुता पर चर्चाएं जारी हैं । संबंधित लोग इसे अपने अपने ढंग और विचारों से समझाने का प्रयास कर रहे हैं । सभी चर्चाओं एवं विवाद में प्रकृतिऔर पर्यावरण की ओर लालची मानव की बढ़ी हुए असहिष्णुता का कहीं कोई जिक्र नहीं है। वैश्विक, राष्ट्रीय, स्थानीय एवं पारिवारिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर मानव ने प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति जो असहिष्णुता बरती है उसी का परिणाम है प्रदूषण एवं पर्यावरण की अन्य समस्याएं । पेड़  पौधों, जीव जंतुआंे, वायु, जल एवं जमीन, किसी के प्रति भी मानव सहिष्णु नहीं है । 
यदि मानव इनके प्रति सहिष्णु होता तो वैश्विक स्तर पर बड़े सम्मेलन व समझौते ग्लोबल वार्मिंग को कम करने, जलवायु परिवर्तन को रोकने तथा जैवविविधता के घटने की चिंता में आयोजित नहीं किये जाते । वैश्विक स्तर की बात छोड़कर यदि हम राष्ट्रीय स्तर का परिदृश्य देखें तो ऐसा लगता है कि प्रकृति या पर्यावरण के सारे भाग हमारी असहिष्णुता के घेरे में आ गये हैं। जल को जीवन का आधार मानने वाले जल के प्रति ही हम इतने असहिष्णु हो गये कि देश की १५० से ज्यादा जीवनदायिनी नदियों के प्रति सहिष्णुता दिखाकर उन्हें साफ एवं शुद्ध करने का ढ़ोल पीटते रहे एवं अंदर ही अंदर असहिष्णु होकर प्रदूषित करते रहे । 
देश के लगभग ९०० शहरों एवं कस्बों का ७० प्रतिशत गंदा पानी बगैर परिष्कृत किये आसपास की नदियों में डाला जाता है । भूजल का स्तर न केवल नीचे जा रहा है अपितु आर्सेनिक एवं नाइेट्रट से प्रदूषित भी हो रहा है। शहरों के विकास का पश्चिमी मॉडल अपना कर हमने अपने वहां के प्राकृतिक जलस्त्रोत समाप्त कर दिये । वर्तमान में चेन्नई में हुआ महाजलप्रलय स्थानीय जलस्त्रोतों के प्रति दर्शायी असहिष्णुता का ही परिणाम था । वट सावित्री एवं आंवला नवमी पर पेड़ों की पूजा करने वाले हमारे देश में पेड़ों एवं वनों के प्रति घोर असहिष्णुता जारी है। इस असहिष्णुता का ही परिणाम है कि देश में जहां उचित प्राकृतिक संतुलन हेतु ३३ प्रतिशत भाग पर वन होना चाहिये परंतु है केवल २२.२३ प्रतिशत भाग पर ही । इनमें भी २ से ३ प्रतिशत सघन वन है, ११ से १२ प्रतिशत मध्यम तथा ९ से १० प्रतिशत छितरे वन है। वनों में ८० प्रतिशत जैवविविधता पायी जाती है, परंतु वनों के घटने से उस पर भी संकट मंडरा रहा है । २० प्रतिशत से ज्यादा जंगली पौधों व अन्य जीवों पर विलुप्ति का खतरा है । 
भारत दुनिया के उन १२ देशों में शामिल है जहां भरपूर जैवविविधता है परंतु बढ़ती असहिष्णुता से इस पर संकट छा गया है । पेड़ों एवं वनों के प्रति असहिष्णुता की पराकाष्ठा सितंबर २०१५ में म.प्र. सरकार ने की जब ५३ प्रजातियों के पेड़ों की लकड़ी को टी.पी (ट्रांजिट पास) से स्वतंत्र करने का आदेश जारी    किया । असहिष्णु मानव ने इस आदेश का सहारा लेकर बेरहमी से पेड़ काटे । इस अधिकृत आदेश के जारी होने से पहले जून-जुलाई में इसके प्रारूप (जो स्वीकृत एवं अधिकृत नहीं था) को ही आदेश मानकर इतने पेड़ काट दिये कि प्रदेश भर के लकड़ी के बाजारों में ४० करोड़ रु. मूल्य की लकड़ी पहंुच गयी थी । सरकार के इस आदेश में लम्बे आयु वाले एवं पूजनीय बड़, पीपल व गुलर भी शामिल हैं । अभी दो तीन माह पूर्व ही इन्दौर शहर के विजयनगर क्षेत्र स्थित बगीचों के पेड़ों उपरी पत्तीयोें वाले भाग केवल इसलिए काट दिये गये कि यातायात व्यवस्थित करने हेतु लगाये कमरे ठीक कार्य कर सकें । यदि पेड़ों के प्रति सहिष्णुता होती तो कमरे के स्थान एवं ऊंचाई बदले जा सकते    थे । वायु के देवता स्वरूप के प्रति तो ऐसी असहिष्णुता दर्शायी कि देश के ज्यादातर शहर वायु प्रदूषण से घिर गये । 
देश के ५० से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या काफी गम्भीर है । देश की राजधानी दिल्ली अब प्रदूषण की भी राजधानी बन गयी है। देश के १८० शहरों में से केवल केरल के  दो शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर से कम है । वायु के प्रति बरती गयी असहिष्णुता का ही यह परिणाम है कि देश के लोगों की श्वसन क्षमता पश्चिम देशों के लोगों की तुलना में २५ से ३० प्रतिशत कम है । कई शहर कैंसर व अस्थमा के केन्द्र बनते जा रहे हैं । भूमि को मां के समान मानकर भूमि-पूजन करने वाले देश ने मां के प्रति ही ऐसी असहिष्णुता जारी रखी कि १५ करोड़ हेक्टर के लगभग भूमि खराब हो गयी एवं १०-१२ करोड़ हेक्टर में पैदावार कम हो गयी । देश में कृषि भूमि और पशुधन भी असहिष्णुता का शिकार हो चुका है । 
आजादी के समय देश के गांवों में पशुओं की संख्या २० करोड़ के लगभग थी जो अब काफी घट गयी है । देश के कारखानों में लगभग १५०० लाख पशु एवं ३००० लाख पक्षी प्रतिवर्ष काटे जाते हैं। विदेशी में मेढ़कांे की पिछली टांग का आचार लोकप्रिय होने से असहिष्णुता पूर्वक इतने मेढ़कांे का निर्यात किया कि कई क्षेत्रों में ये विलुप्ति की कगार पर पहंुच गये । राष्ट्रीय पक्षी मोर के अवैध शिकार के समाचार हमेशा ही प्रकाशित होते रहते हैं । हाथी दांत एवं गेंडे के सींग का बाजार भाव अधिक होने से उनका शिकार भी लगातार किया जा रहा है जिससे उनकी संख्या धीरे-धीरे घट रही है । लालची मानव की प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की लालसा एवं विज्ञान व तकनीकी के माध्यम से उसे बर्बाद करने या जरूरत से ज्यादा दोहन असहिष्णुता को ही दर्शाता है ।