ज्ञान-विज्ञान
बड़ा दिमाग समस्या सुलझाने में मदद करता है
सिर बड़ा सरदार का, यह कहावत काफी प्रचलित रही है । यह आम धारणा भी है कि जितना बड़ा दिमाग होगा बुद्धि भी उतनी ज्यादा होगी । हालांकि मनुष्यों के बारे में प्रचलित इस धारणा को तो कई दशकों पहले ध्वस्त किया जा चुका है मगर एक बार शोधकर्ता ने चिड़ियाघर में पले जानवरों के अवलोकनों के आधार पर बताया है कि बड़े दिमाग वाले प्राणियों में समस्या सुलझाने की क्षमता बेहतर होती है । वैसे इस बार यह अध्ययन एक ही प्रजाति के विभिन्न प्राणियों पर नहीं बल्कि अलग-अलग प्रजातियों के प्राणियों पर किया गया है ।
व्योमिंग विश्वविघालय की सारा बेन्सन-अमराम और उनके साथियों ने यह अध्ययन डिब्बे में रखे भोजन को पाने की क्षमता के आधार पर किया । उन्होनें डिब्बों में भोजन बंद करके नॉर्थ अमेरिकन चिडियाघर में ३९ प्रजातियों के १४० मांसाहारी प्राणियों को अलग-अलग पेश किया । उन्होनें पाया कि डिब्बों को खोलने के मामले में उन प्राणियों का प्रदर्शन बेहतर रहा जिनके शरीर के भार की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े दिमाग है । जैसे रिवर ओटर्स और भालू । दूसरी ओर, मीरकाट और नेवले तो लगभग नाकाम ही रहे ।
बेन्सन-अमराम का कहना है कि समस्या सुलझाने का सम्बन्ध संज्ञान क्षमता से है मगर बुद्धिमत्ता बहुत पेचीदा चीज है जिसे मापना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है । इसलिए उनका अध्ययन बुद्धिमत्ता के बारे में कुछ नहीं कहता ।
उनके अध्ययन को लेकर कई सवाल भी पैदा हुए है । जैसे क्या पूरे दिमाग का आकार महत्वपूर्ण है या दिमाग के कुछ हिस्सों का ज्यादा असर पड़ता है । बेन्सन-अमराम के दल ने प्रयोग में शामिल विभिन्न प्राणियों के दिमाग के कम्प्यूटर मॉडल्स निर्मित किए और दिमाग के विभिन्न हिस्सोंके आकार का संबंध समस्या सुलझाने की क्षमता से देखने की कोशिश की । उनका मत है कि प्राणी के दिमाग की कुल तुलनात्मक साइज ही क्षमता का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करती है ।
एक सवाल यह भी है कि ये सारे प्राणी चिड़ियाघर के कृत्रिम माहौल में पले हैं । इनका प्रदर्शन मुक्त प्राणियों की क्षमता का द्योतक हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता ।
वैसे इस अध्ययन के निष्कर्ष सामाजिक-मस्तिष्क परिकल्पना के विरूद्ध जाते हैं । सामाजिक मस्तिष्क परिकल्पना के अनुसार जब प्राणी समूहों में रहते हैं, तो उनके दिमाग बड़े भी हो जाते हैं और संज्ञान क्षमता भी बढ़ती है । अर्थात संज्ञान क्षमता के विकास में सामूहिक जीवन का महत्वपूर्ण योगदान होता है । दरअसल, बेन्सन-अमराम का कहना है कि बंदी अवस्था में अवलोकन से यह पता चलता है कि कोई प्राणी क्या करने की क्षमता रखता है । यह अलग बात है कि जंगल में यह क्षमता उसके व्यवहार में कितनी झलकती हैं ।
अंतरिक्ष से गिरता मलबा
पिछले नवम्बर से हिन्द महासागर में अंतरिक्ष से कुछ कबाड़ा गिरा मगर अब तक यह पता नहीं चल सका है कि यह किस चीज का कबाड़ा है । यह पहली बार है कि अंतरिक्ष से कोई कृत्रिम वस्तु तयशुदा समय और स्थान पर नहीं गिरी है । अंतरिक्ष वैज्ञानिक यह पता लगाने में जुटे है कि वह चीज है क्या ।
इस कबाड़े को नाम दिया गया है थढ११९०ऋ। इसे हिन्द महासागर में गिरते हुए किसी ने नहीं देखा, हालांकि दूरबीनें २००९ से ही इस वस्तु को बीच-बीच में देख पा रही थी । सन २०१५ तक किसी को अंदेशा नहीं था कि यह धरती पर गिरने वाली है । मगर जब स्पष्ट हो गया कि यह वस्तु गिरेगी तो ऐसी घटना के अवलोकन के इन्तजाम किए गए । एक तो जमीनी केन्द्रों से इसके गिरने का अवलोकन किया गया, वहीं दूसरी ओर एक चार्टडे विमान से इसका पीछा भी किया गया । मगर दुर्भाग्श्वश इसे धरती से ३३ किलोमीटर निकट पहुंचने के बाद नहीं देखा जा सका ।
अब सबसे पहला काम तो यह किया गया है कि २००९ के बाद से जब-जब इसे देखा गया था, उसके आधार पर इसका मार्ग पता करने के प्रयास हुए हैं । इस मार्ग को देखकर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को लगता है कि यह किसी ऐसे प्रोजेक्ट का मलबा होना चाहिए जिसे चांद की ओर भेजा गया था ।
दूसरा अनुमान यह लगाया गया है कि यह वस्तु अंतरिक्ष में दस साल से ज्यादा समय से नहीं रही होगी क्योंकि अन्यथा इस रास्ते चलने वाली वस्तु या तो पहले ही पृथ्वी पर गिर चुकी होती या सूरज की परिक्रमा करने लगती । इसके आधार पर कई सारे चन्द्रमा प्रोजेक्ट्स को सूची में से हटा दिया गया है ।
फिलहाल वैज्ञानिक नासा द्वारा छोड़े गए ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर में लगाए गए एक रॉकेट को सबसे संभावित उम्मीदवार मान रहे हैं । यह हिस्सा प्रॉस्पेक्टर को पृथ्वी की कक्षा से बाहर धकेलने के बाद उससे अलग हो गया था । इसके रास्ते का अनुमान थढ११९०ऋसे सबसे ज्यादा मेल खाता है ।
इसके अलावा गिरते हुए थढ११९० के एक टूकड़े को वर्णक्रम भी हवाई जहाज पर लगे उपकरणों ने प्राप्त् किया था । इस वर्णक्रम के विश्लेषण से उसमें टाइटेनियम ऑक्साइड और हाइड्रोजन की उपस्थिति के संकेत मिले हैं । इन अवलोकनों को ५ जनवरी को आयोजित अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ एयरोनॉटिक्स एंड एस्ट्रोनॉटिक्स की बैठक में सेटी इंस्टीट्यूट के पीटर जेनिस्केन ने प्रस्तुत किया । ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर का बाहरी आवरण टाइटेनियम का ही बना था ।
अब कोशिश यह हो रही है कि थढ११९०ऋ को २००९ से पहले देखे जाने के रिकार्ड को खंगाला जाए । उसके आधार पर यह पता चल सकेगा कि क्या ल्यूनर प्रॉस्पेक्टर और उसका रास्ता मेल खाते है । थढ११९०ऋ की पहचान चाहे जो साबित हो मगर सब मान रहे है कि यह कबाड़ हिन्द महासागर में गिरा वरना कोई दुर्घटना हो सकती थी ।
क्या दस हजार साल पहले युद्ध होते थे ?
सन २०१२ में पुरातत्ववेत्ताआें को केन्या में तुर्काना झील के निकट नतारूक में कुछ चीजें मिली थी जो चिंता का विषय थीं - चिंता का विषय मानव इतिहास की हमारी समझ की दृष्टि थे । इस पुरातत्व स्थल पर खुदाई के दौरान पुराविदों को २७ व्यक्तियों के अवशेष मिले थे । इन्हें दफनाया नहीं गया था और खुले में छोड़ दिया गया था । इनमें से १२ लगभग सम्पूर्ण कंकाल थे जबकि अन्य व्यक्तियों की बिखरी हुई हडि्डयां मिली थी ।
जो कंकाल बेहतर संरक्षित हालत में मिले थे, उनकी जांच-पड़ताल के आधार पर पुरातत्वविदों का मत था इनमें से १० हिसंक मौत मरे थे । पांच की मृत्यु किसी बोथरे हथियार से सिर पर लगी चोट के कारण हुई थी जबकि पंाच किसी नुकीले औजार द्वारा सिर और गर्दन पर लगी चोट के शिकार हुए थे । यह नुकीला हथियार संभवत: तीर था । दो शवों के कंकाल की हालत बता रही थी कि मारने से पहले उन्हें बांध दिया गया था ।
पुरातत्ववेत्ताआें का निष्कर्ष था कि यह दृश्य किसी संगठित युद्ध का प्रमाण था जिसमें एक समूह के लोगों ने किसी दूसरे समूह के लोगों को व्यवस्थित रूप से मौत के घाट उतारा था ।
वैसे तो ऐसा हिंसक नरसंहार कोई अनहोनी घटना नहीं है मगर जिस काल में यह घटना घटी होगी यह सचमुच आश्चर्य की बात थी । नतारूक स्थल कम से कम १० हजार साल पूर्व का है । इसकी काल गणना कंकालों और कंकालों के आसपास मिले अन्य जन्तु अवशेषों के कार्बन डेटिंग, तथा वहां पाए गए औजारों के विश्लेषण के आधार पर की गई है । नेचर मेंप्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक ये सारे प्रमाण दर्शा रहे थे कि यह नरसंहार १० हजार वर्ष या उससे भी पहले हुआ था । यह वह समय था जब मनुष्य प्राय: शिकारी या संग्रहणकर्ता थे ।
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