शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

कविता
नदी : कुछ मुक्तक
चन्द्रसेन विराट 
कैसी कलकल वो बहा करती थी 
जुल्म चुपचाप सहा करती थी 
अब नहीं है न नदी सी अपनी
पहले भरपूर रहा करती थी 
यह नदी है कि कोई नाला है
कूड़ा बस्ती का यही ढाला है 
वह नदी बच ही कहाँ पाई अब
उसको नाले सा बना डाला है 
अब न जलधार है नदी अपनी
अम्ल है, क्षार है नदी अपनी
कितनी दुबली हुई है बेचारी
सख्त बीमार है नदी अपनी 
खूब छिछली हुई हैं, अपनी नदी
पूरी गँदली हुई हैं अपनी नदी
रोग गंभीर हो गया उसका
कितनी दुबली हुई है अपनी नदी
लोक-मित्रा नहीं बची है नदी
स्वच्छा-चित्रा नहीं बची है नदी
पाप हरती, पवित्र करती थी
अब पवित्रा नहीं बची है नदी 
आत्महत्या ही कर रही है नदी
यातना से गुजर रही है नदी
विष प्रदूषण का इतना दे डाला
धीमे धीमे ही मर रही है नदी
यह नदी माँ है उसने पाला है
अपना व्यवहार शत्रु वाला है 
उसने पुत्रों सा हमको पोसा पर
हमने पुत्रों सा कब सँभाला है 
ज्यादती हद से गुजर जाएगी
तो नदी ऐसा भी कर जाएगी
देखना एक दिवस सीता सी
यह भी धरती में उतर जाएगी 

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