सोमवार, 18 दिसंबर 2017


प्रसंगवश
पैदल चलने वालोंके लिए राष्ट्रीय नीति कब बनेगी  
शहरी जीवन में पैदल चलना-फिरना लोगों का मौलिक अधिकार  है । यह स्वास्थ्यकर होने के साथ शहर को प्रदूषण मुक्त भी रखता है । लेकिन शहरी निकायों का खराब बुनियादी ढांचा लोगों को हतोत्साहित करता है । पैदल चलने के लिए जिस फुटपाथ व गलियों की जरूरत होती है, उसके बारे में कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है । हाल में शहरी विकास मंत्रालय ने मॉडल कानून बनाकर शहरी निकायों को भेजा है लेकिन इसे लागू करने या न करने की जिम्मेदारी नगर प्रशासन की है । 
जिन शहरों में फुटपाथ है, वहां इनका डिजाइन गलत है । इस समस्या से निपटने के लिए केन्द्र सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया है । इससे एक सौ शहरों को स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया है । इसमें एक सौ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना पर काम चल रहा है । इसकी देखादेखी बाकी शहरों में भी इसकी शुरूआत हो सकती है । इसमें विश्वस्तरीय कंसल्टेंट कंपनियां अपनी सेंवाएं दे रही हैं । सभी का जोर अंतरराष्ट्रीय मानक के फुटपाथ बनाने पर है, ताकि लोग पैदल चलने में ज्यादा से ज्यादा सहूलियत महसूस करें । राष्ट्रीय स्तर पर फुटपाथ को लेकर कोई कार्य योजना नहीं नहीं होने से मुश्किलें बढ़ी हैं । इस काम को स्थानीय स्तर पर नगर निकायों के जिम्मे छोड़ दिया गया है । लेकिन धनाभाव और इच्छा शक्ति के अभाव में इस अति महत्वपूर्ण विषय पर कोई ठोस कार्यवाही हो पायी है । हालांकि देश के इक्का-दुक्का शहरोंने इस दिशा में पहल की है । लेकिन उनका काम अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा नहीं उतरता । स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के जरिए सरकार ने पहली बार इस दिशा में काम करने की मंशा जताई है । लेकिन इसके नतीजे आने मेंअभी वक्त लगेगा । शहरों में ट्रैफिक के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए जन भागीदारी सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । शहरीकरण के जानकार अनिल चौहान कहते है कि केवल फुटपाथ भर बना देने से सफलता नहीं मिलेगी । बल्कि यह सुनिश्चित करना होगा कि इन फुटपाथों पर अतिक्रमण न होने पाए । साथ ही स्ट्रीट वेंडर्स को बसाने के इंतजाम भी करने होगें । 
सम्पादकीय 
नकारात्मक परिणामों के लिए पुरस्कार
वैज्ञानिक शोध के प्रकाशन में एक प्रमुख समस्या यह रही है कि शोधकर्ता उन परिणामों को प्रकाशित नहीं करते जिनमें परिणाम नकारात्मक मिले हों । नकारात्मक से आशय यह है कि ये परिणाम पूर्व में सोचे गए परिणामों के विपरीत होते हैं । 
दूसरे शब्दों में ये आपकी परिकल्पना की पुष्टि नहीं करते । इस तरह प्रकाशन में एकतरफापन आ जाता है जो विज्ञान की प्रगति के लिए अनुकूल नहीं होता । इस समस्या से निपटने के लिए दो पुरस्कारों की घोषणा की गई है जो ऐसे शोध के प्रकाशन के लिए दिए जाएंगे जिनके परिणाम प्रतिकूल रहे हों । इसके अलावा पूर्व में किए गए किसी अध्ययन या प्रयोग को दोहराकर देखने के लिए भी पुरस्कार दिया जाएगा । 
ऐसा ही एक पुरस्कार हाल ही में युरोपियन कॉलेज ऑफ न्यूरो-सायको-फार्मेकोलॉजी द्वारा घोषित किया गया है । १०,००० यूरो (करीब ७ लाख रुपए) का यह पुरस्कार तंत्रिका विज्ञान में क्लीनिकल से पूर्व के शोध में नकारात्मक परिणामों के लिए दिया जाएगा । दूसरा पुरस्कार अंतर्राष्ट्रीय मानव मस्तिष्क मानचित्रण संगठन देगा जो सर्वोत्तम पुनरावृत्ति अध्ययन के लिए होगा । 
ये पुरस्कार इस विचार से शुरू  किए जा रहे हैं कि विज्ञान में जानकारी का मुक्त प्रवाह ज़रूरी है, चाहे वह किसी परिकल्पना को झुठलाती हो या पूर्व में किए गए प्रयोगों के परिणामों से भिन्न परिणाम से सम्बंधित  हो । ऐसा खास तौर से औषधि विज्ञान के क्षेत्र में निहायत ज़रूरी है । जैसे हो सकता है कि कोई दवा कारगर पाई गई हो । लेकिन यह भी संभव है कि यह अध्ययन किसी वर्ग विशेष पर ही किया गया हो । ऐसे में अन्य वर्गों पर इसके परिणामों को आज़माकर देखना एक उपयोगी अध्ययन होगा लेकिन आम तौर पर नहीं किया जाता । ये पुरस्कार इसी भय को दूर करने तथा ऐसे अनुसंधान को वैधता प्रदान करने के लिए घोषित किए गए हैं । 
सामयिक
स्मॉग का फैलता खतरा
कुलभूषण उपमन्यु

स्मॉग एक तरह का वायु प्रदूषण ही है । यह स्मोक और फॉग से मिलकर बना स्मोकी फॉग, यानी कि धुआं युक्त  कोहरा । इस तरह के वायु प्रदूषण में हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, सल्फर ऑक्साइड्स, ओजोन, स्मोक और पार्टिकुलेट्स घुले होते हैं। वाहनों से निकलने वाला धुआं, फैक्ट्रियों और कोयले, पराली आदि के जलने से निकलने वाला धुआं इस तरह के वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण होता है । 
उत्तरी भारत में अक्टूबर-नवम्बर में स्मॉग से बढ़ती परेशानी लगातार होने वाली घटना बनती जा रही है। राजनैतिक दल इस गंभीर मुद्दे पर एक-दूसरे पर दोषारोपण और हल्की राजनीति करने का अवसर तलाश रही है, जबकि इस मुद्दे पर करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य, सुरक्षा, और आर्थिकी दांव पर है । 
यह देखकर अफसोस होता है कि इस मुद्दे को उद्योग बनाम किसान बनाम परिवहन बनाम निर्माण कार्य बनाने की कोशिश हो रही है । यह भी हैरान करने वाला है कि दिल्ली में स्मॉग तो मुद्दा बन रहा है, किन्तु असली मुद्दा तो पूरे उत्तरी भारत का धीरे-धीरे स्मॉग की चपेट में आते जाना है ।
इस खतरे की धमक अब हिमाचल, उत्तराखंड जैसे स्वास्थ्यवर्धक स्थलों तक भी पहुंचने लगी है । हिमाचल के बिलासपुर, मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा, और चम्बा जिले भी अब इसकी चपेट में आ गए हैं। इस वर्ष पिछले २० दिनों से इन क्षेत्रों की सुनहली धूप और नीला आसमान गायब है । धुंधलका सा फैला है । कांगड़ा हवाई अड्डे में उड़ानों का संचालन भी इससे बाधित हुआ है । 
यह समस्या किसी एक वर्ग या राजनैतिक दल की फैलाई हुई तो है नहीं, इसका मूल कारण तो वर्तमान विकास मॉडल है । जिसकी सुविधाओं के तो सभी कायल हैं किन्तु इसके नुकसानों की ओर ध्यान देना नहीं चाहते । जब जान पर बन आई है तो एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपनी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। आखिर इस जहरीली हवा में सांस लेने से कौन बच सकता    है । रोजी रोटी कमाने की मजबूरियां भी हैंकिन्तु रोजी रोटी के चक्कर में हम पूरे देश को गैस चैंबर तो नहीं बना सकते । 
इसलिए अपनी अपनी कमजोरी को मन से मानकर समाधान की दिशा में काम करना शुरू करें । परिवहन गाड़ियों का धुआं, उद्योगों का धुआं, पराली जलाने का धुआं, जंगल जलाने का धुआं, खुले में कचरा जलाने, डम्पिंग स्थलों में कचरा जलाने जैसे अनेक कारण इस स्थिति तक पहंुचने के लिए जिम्मेदार हैं। अत: सभी जागे राजनीति त्यागकर सही दिशा तलाशें। अल्पकालीन और दीर्घकालीन योजनाएं एक साथ लागू करना आरंभ करें । परिवहन क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में धुआंरहित तकनीकों का बड़े पैमाने पर प्रयोग आरंभ हो । उत्सर्जन नियंत्रण नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए । पराली जलाने को इतना बड़ा मुद्दा तो कंबाइन हार्वेस्टरों ने बनाया है । ये आधे बीच से फसलों को काटता है और शेष लम्बे तनों को जलाने का चलन चल पड़ा । 
प्रकृति का नियम है कि वह जैविक पदार्थों को सड़ा कर खाद बना देती है । किसान इन अध बीच से काटे तनों को जुताई करके जमीन में सड़ाने की विधि निकालें, इसके लिए सरकार हैप्पी सीडर जैसी मशीनों या इससे भी बेहतर मशीनें मुफ्त उपलब्ध करवाकर शुरूआत करवाएं । उत्तराखंड देहरादून में मैंने एक आदमी द्वारा चलाई जाने वाली दरांती जैसी मशीनें देखीं जो तने से फसल काटती हैं । मशीन लगभग १०-१२ हजार रूपये की है और छोटे किसानों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है । पराली को सीमित मात्रा में पशु चारे के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं । मल्च करने लिए भी प्रयोग कर सकते हैं जिससे फसल में घास भी कम आएगा और जैविक खाद भी बनता रहेगा । इसे बायलरों और ताप बिजली संयंत्रों में इंर्धन के रूप में प्रयोग करके उत्सर्जन बहुत कम किया जा सकता है क्योंकि आधुनिक कुशल प्रज्वलन तकनीकों का प्रयोग करके धुंए और गैसों को संयंत्र में ही जलाया जा सकता है । विभिन्न उद्योगों और इंर्ट भट्टों में धुआं और गैसों को चिमनी पर ही जला देने वाले आधुनिक उपकरण लगवाए जाने चाहिए । स्वीडन से इस मामले में सीखा जा सकता है । इसी तरह अन्य  ठोस कचरा जो खुले में व्यक्तिगत तौर पर या डंपिंग स्थलों में खुले में जलाया जा रहा है, उसे ज्वलनशील कचरे को अलग करके आधुनिकतम तकनीक से ताप बिजली संयंत्रों में जला कर बिजली बना लेनी चाहिए । पुराने ताप बिजली संयंत्रों का आधुनिकीकरण करना चाहिए । 
बहुत-सा जैविक कचरा एनेरोबिक सड़न विधि द्वारा सड़ा कर उससे बायो गैस बनाई जा सकती   है । गैस से बिजली बना लें या  सीधे सिलेंडरों में भरकर उपयोग कर लें। सड़ा हुआ जैविक कचरा बढ़िया जैविक खाद का काम देता है। परिवहन व्यवस्था वायु प्रदूषण का बड़ा कारण बन चुकी है । वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है इसे नियंत्रित करना जरूरी है या फिर धुआं रहित इलैक्ट्रिक वाहन, गैस से चलने वाले, सीएनजी से चलने वाले वाहनों को बड़ी मात्रा में प्रोत्साहित करना पड़ेगा । शहरों में केबल कार व्यवस्था से भी वाहन संख्या घटाने और जाम से मुक्ति  की दिशा में काम करना चाहिए । जाम से निरर्थक ही बहुत अधिक वायु प्रदूषण होता रहता है । 
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सर्व सुलभ और आराम दायक बनाने का काम प्राथमिकता से करना होगा । समस्या को सभी पक्षों से दबोचने से ही सफलता मिलेगी । इसके लिए कृषि, उद्योग, परिवहन, ऊर्जा, स्थानीय निकाय और पंचायती राज मंत्रालयों के संयुक्त  प्रयास की जरूरत होगी तभी अपेक्षित परिणाम आ सकेंगे ।
हमारा भूमण्डल
महासमुद्रों को प्लास्टिक से खतरा 
राजकुमार कुम्भज

हमारे दैनिकजीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका प्लास्टिक जाने अनजाने में समुद्र और समुद्री जीवों को बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है । पीने के पानी की बोतलें, टैपर, प्लास्टिक थैले, नेट और औद्योगिक कचरा ही नहीं बल्कि इन प्लास्टिक अवययों के छोटे घटके माइक्रो प्लास्टिक भी नए नए किंतु अदृश्य खतरों का कारण बनते जा रहे हैं। 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी (एनआईओ) के पांचवें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान वैज्ञानिकोंने कहा है कि प्लास्टिक प्रदूषण बहुत बड़ी समस्या है। किंतु माइक्रो  प्लास्टिक की समस्या तो उससे भी कहीं ज्यादा भयानक समस्या बनती जा रही है । माइक्रो प्लास्टिक से विश्वभर के महासमुद्रों में पैदा हो रहा प्रदूषण आने वाले समय में बहुत विकट समस्या साबित होगा । यह समस्या इतनी विकट-विकराल होगी, जो सदियों तक मानव जीवन को प्रभावित करती रहेगी ।
वैज्ञानिक अध्ययन में कहा गया है कि समुद्रीजीव प्लास्टिक की बोतलें और थैलियां गलती से निगल लेते हैं, जिससे इन जीवों की आहार नली अवरूद्ध हो जाती है । इसी तरह बड़े प्लास्टिक पदार्थों के छोटे घटक भी परेशानी का सबब बनते हैं । क्योंकि ये छोटे घटक परिवर्तित होकर अंतत: मनुष्यों के भोजन का हिस्सा बन जाते हैं । 
कहा गया है कि इस समस्या का समाधान अकेले सरकार नहीं निकाल सकती है । यदि समुद्र में प्लास्टिक के कचरे की समस्या धीरे-धीरे दूर करना है तो इसके लिए सरकार के साथ-साथ लोगों की भी भागीदारी जरूरी हो जाती है । राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने माइक्रो प्लास्टिक्स से होने वाले प्रदूषण से जुड़ा अनुसंधान शुरू  किया है । वह अनुसंधान अपने देश में पहली बार ही किया जा रहा है ।
देश में प्रतिदिन पंद्रह हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। जिसमें से सिर्फ नौ हजार टन प्लास्टिक कचरा नदी, नालों, गलियों, सड़कों और बाग-बगीचों सहित समुद्रतटीय क्षेत्रों में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरा पड़ा रह जाता है । किंतु अब दोबारा इस्तेमाल योेग्य नहीं बनाए जा सकने वाले थर्मोसेट प्लास्टिक के लिए गाइड लाइन बनाने का काम केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दे दिया गया है । 
प्लास्टिक कचरे के समाधान हेतु सुझाया गया है कि समुद्री प्रदूषण के खिलाफ कानून लागू किया जाना चाहिए । मौजूदा प्लास्टिक उत्पादों के विकल्प खोजे जाने चाहिए और समुद्र में मौजूद कचरे की पर्याप्त गंभीरता से साफ-सफाई भी की जाना   चाहिए । समुद्री प्रदूषण से जहां समुद्री जीवों का प्रभावित होना तय है वहीं प्रदूषण प्रभावित समुद्री जीवों के भक्षण से मानव जीवन लिहाजा छोटे   घटकों अर्थात माइक्रो प्लास्टिक्स के खतरों से निपटना बेहद जरूरी हो जाता है । 
विश्व की आबादी प्रतिवर्ष लगभग अपने वजन के बराबर प्लास्टिक उत्पन्न करती है । प्रतिष्ठित अमेरिकी जर्नल साइंस में प्रकाशित वर्ष २०१५ के एक वैश्विक अध्ययन के मुताबिक दुनिया के १९२ समुद्र तटीय देशों में तकरीबन साढ़े सत्ताईस करोड़ टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हुआ जिसमें से तकरीबन दो टन प्लास्टिक कचरा महासमुद्रों में प्रविष्ट हो गया । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आकलन के अनुसार प्रतिवर्ष प्रत्येक भारतीय तकरीबन आठ किलोग्राम प्लास्टिक का उपयोग करता है । इसका निष्कर्ष यही हुआ कि भारत में प्रतिवर्ष तकरीबन एक सौ लाख टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता   है । 
प्लास्टिक की थैलियां हमारे रोजमर्रा के जीवन की जरूरत और सुविधा दोनों ही बनती जा रही है क्योंकि ये थैलियों आकर्षक, सस्ती, मजबूत और हल्की होती है । इन्हें तह करके आसानी से जेब में रखा जा सकता है। लेकिन ये ही प्लास्टिक थैलियां जल, जमीन, जंगल के लिए हद दर्जे तक हानिकारक साबित हो रही है। जल में रहने वाले समुद्रीजीवों पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों और मवेशियों सहित वन्यजीवन को खतरनाक ढंग से खत्म करने के लिए ये प्लास्टिक की थैलियां प्रमुखत: जिम्मेदार बनती जा रही   हैं ।  
समूचे विश्व में प्रतिवर्ष तकरीबन पांच सौ खरब प्लास्टिक थैलियां का इस्तेमाल किया जा रहा है । इस तरह हम पाते हैं कि दुनिया में एक मिनट में एक अरब से भी ज्यादा ऐसी ही थैलियां इस्तेमाल की जा रही हैं जिनसे हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। याद रखा जा सकता है कि प्लास्टिक थैलियों को विघटित होने में एक हजार बरस तक का कालखंड समर्पित हो जाता है । 
वहीं एक खतरनाक खबर यह भी है कि समूचे विश्व में सबसे ज्यादातर प्लास्टिक का इस्तेमाल भारत करता है । प्लास्टिक थैलियां खाने से प्रतिवर्ष तकरीबन एक लाख से ज्यादा पशु-पक्षी मर जाते हैं । प्लास्टिक थैलों का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव भी यही है कि ये नॉन-बायोडिग्रेडेबल हैं । यही नहीं पॉलेथीन की ये थैलियां प्राकृतिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रही है। बाग-बगीचों, नदियों, तालाबों, सड़कों और समुद्री किनारों पर यहां वहां बिखरी पड़ी इन थैलियों से पर्यटन, स्थल गंदगी के अड्डे बन गए हैं ।
हम अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति जैसे उद्योग धंधों कल-कारखानों और परिवहन आदि के लिए अत्यंत ही तीव्र गति से गैर-नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं,जो कि पेट्रोलियम पदार्थों पर आधारित हैं । जिस भी किसी दिन अगर पेट्रोलियम की आपूर्ति समाप्त हो गई तो फिर समझ लंे कि उसी दिन यह दुनिया भी आधी ही रह जाएगी । मनुष्यों सहित समुद्री जीवों और वन्यजीवों को भी बचाना बेहद जरूरी है । कोई कारण नहीं है कि ऐसा किया जाना असंभव नहीं है। प्लास्टिक के जन्म काल से ही हम सुनते आ रहे हैं कि यह एक ऐसा पदार्थ है जिसे पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसीलिए इसे दुनियाभर में खतरे की घंटी माना जाता है । 
अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ जार्जिया द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक प्लास्टिक कचरा कुप्रबंधन और इस कचरे से महासमुद्रों को प्रदूषित कर देने वाले देशों की सूची में भारत को बारहवें स्थान पर रखा गया है । सबसे पहले क्रम पर चीन और उसके बाद इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम और श्रीलंका का नाम आता है । इसी अध्ययन में आगे कहा गया है कि तटीय इलाकों में ८७ फीसदी तक प्लास्टिक कचरा कुप्रबंधित होता है । जो कि इंसानों के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है । इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि तकरीबन ८० फीसदी समुद्री कचरा यहां भूमि से ही आता है । 
किंतु एक दिलचस्प सूचना यह हो सकती है कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण री-साइकिलिंग क्षेत्र में ४७ फीसदी के साथ भारत पहले स्थान पर है । इसका एक अन्य आशय यही है कि भारत द्वारा इस्तेमाल किया गया कुल प्लास्टिक का लगभग आधा हिस्सा कचरे की ही शक्ल में शेष रह जाता है जो कि निहायत चिंताजनक स्थिति का सबूत देता    है ।
गौरतलब है कि हमारे केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल २०१६ अधिसूचित कर दिए है । केन्द्र सरकार का कहना है कि ये नए नियम इतने सख्त है कि थैलियां की न्यूनतम मोटाई ४० से बढ़ाकर ५० माइक्रोन कर दी गई है । इससे कम माइक्रोन की थैलियां प्रतिबंधित कर दी गई हैं इतना ही नहीं पहले प्लास्टिक की इन थैलियों संबंधित प्रावधान सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही प्रभावशील किए जाते थे और ग्रामीण क्षेत्रों का इन नियमों से मुक्त रखा गया था, किंतु नए नियम अब ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भी विस्तारित कर दिए गए हैं ।
प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल २०१६ लागू कर दिए जाने से पॉलीथीन की थैलियों, कैरी बैग आदि की कीमतें २० फीसदी तक बढ़ जाएंगी । नए नियमों के अंतर्गत दुकानदारों वेंडरों आदि को इनके इस्तेमाल से पूर्व स्थानीय निकायों में खुद को पंजीकृत करना होगा । मासिक चार हजार रूपया फीस चुकाना होगी । 
इसके बदले में दुकानदार अपने ग्राहकों से इसकी कीमत वसूल सकेंगे साथ ही उन्हें अपनी दुकानों पर इस आशय का बोर्ड भी लगाना होगा कि उनके यहां उचित मूल्य पर प्रमाणित मात्रा के माइक्रोन वाली प्लास्टिक थैलियां मिलती हैं इसके अतिरिक्त निर्माता कंपनियोंकी यह जिम्मेदारी भी होगी कि उक्त कचरा एकत्र करते हुए अपना खुद का कचरा प्रबंधन-तंत्र भी स्थापित करना होगा । 
बहुत संभव है कि इन प्रावधानों का सख्ती से पालन करने पर सकारात्मक नतीजे निकलेंगे और महासमुद्रों को किसी हद तक प्लास्टिक कचरे से राहत भी   मिलेगी ।
विशेष लेख
पर्यावरणीय-सामाजिक मानकों पर निगरानी जरूरी
केशिना होर्टा 
परियोजनाआंे में विस्थापन के दौरान जो खतरे पैदा होते है, उन्हें पहले से पहचान कर समाधान के समुचित प्रयास जरूरी है। प्रभावित लोगों से चर्चाएं की जानी चाहिये, जिससे उनका विश्वास तथा भागीदारी बढ़े । अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने अनुदान की शर्तेमें पर्यावरणीय तथा सामाजिकता के जो मानक दर्शाये है, उन पर अमल तथा निगरानी सख्ती से होना जरूरी है । 
हाल ही में जो नई रुपरेखा तैयार की है उसमें विस्थापन तथा विस्थापित लोगों के प्रभावहीन होने के खतरों पर सबसे ज्यादा फोकस किया है ।
समाजशास्त्री के रूप में माइकल केरनिया पहली बार १९४७ में विश्व बैंक के सदस्य बने । सदस्य के रूप में उनका विश्व बैंक में कार्यकाल काफी लम्बा रहा । इस दौरान उन्होंने समाज के कमजोर एवं वंचित वर्गों के लोगों के अधिकार, समस्याएं एवं होने वाले खतरोंके लिए कई प्रकार के लिए कार्य किये एवं अनेक योजनाओं का निर्माण किया । विश्व बैंक के भीतर और  बाहर किये गये कार्यों पर केरनिया को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई । उन्होंने बताया कि विश्व बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा जो सहायता विश्वभर के देशों को प्रदान की जाती है उसके कई खतरे भी है या वे खतरे पैदा करती है । 
बड़े बांध एवं जल विद्युत परियोजनाओं के लिए प्रदान की गई सहायता से बड़ी संख्या में लोगों के विस्थापन तथा पुनर्वास का खतरा हमेशा बना रहता है। आर्थिक व राजनैतिक रूप से सशक्त न होने के कारण ये प्रभावहीन हो जाते हंै यानी इनकी आवाज पर कोई ध्यान नहीं देता है । माइकल का मत है कि विकास या तरक्की के लिए जो सरकारी मुआवजा प्रदान किया जाता है, उसका आधार केवल आर्थिक न होकर समाज विज्ञान से भी जुड़ा होना चाहिये । माइकल ने एक बहुत ही शानदार पुस्तक ``पुटिंग पीपुल्स फर्स्ट`` (१९८५-९५) का सम्पादन कर इसे इतना उपयोगी बना दिया कि इसका अनुवाद कई भाषाओं में किया गया । जन भागीदारी से विकास करने वालों एवं समझने वालों के लिए यह पुस्तक एक उत्कृष्ट गं्रथ मानी जा सकती है । 
विश्व बैंक से सेवानिवृत्ति के बाद भी माइकल ने वंचित वर्ग के लोगों को समस्याओं एवं सम्भावित खतरों पर कई आलेख लिखे, जो  फाफी पसंद किये   गये ।
विश्व बैंक ने १९८० के आसपास उनके द्वारा तैयार की गई नीति का प्रकाशन किया । जिनमें दिये गये दिशा-निर्देशों का कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने विकास से जुड़े कार्यों या परियोजनाओं में पालन किया । इस नीति में प्रमुख रूप से इस बात पर जोर दिया गया कि विकास कार्यों के दौरान विस्थापन की समस्या को न्यूनतम किया जाए । साथ ही कमजोर वर्गों के लोगों पर विस्थापन का दबाव भी नहीं बनाया जाना चाहिये क्योंकि इससे उनके जीवन में कई नकारात्मक प्रभाव पैदा होते हैं, जो समाज व्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं । 
हमेशा वंचित वर्ग के व्यक्ति ही विकास की कीमत चुकाए यह जरूरी नहीं होना चाहिये । विश्व बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह वंचित वर्गांे के लोगों पर पैदा होने वाले खतरों को कम करने के प्रयासों को ईमानदारी से पूर्ण करवाने में अपने दायित्व का निर्वहन करें एवं इसे स्थानीय शासन या प्रशासन के भरोसे नहीं छोड़ा जाए । 
माइकल केरनिया ने विकास योजनाओं से जुड़ा एक मॉडल भी तैयार किया, जिसे अंग्रेजी में आय । आर । आर । प्लानिंग मॉडल कहा गया । आय । आर । आर । का तात्पर्य है वंचित वर्गोंा में गरीबी के खतरों को कम करना । यह मॉडल विस्थापित लोगों के व्यवस्थित पुनर्वास पर काफी जोर देता है । जल विद्युत परियोजनाओं पर चीन में आयोजित एक सम्मेलन में इस मॉडल को पहली बार सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया गया । 
इसमें आठ बुनियादी और बार-बार आने वाले खतरों को पहचान कर समझाया गया है कि जो ज्यादातर बलपूर्वक विस्थापन कार्यों से पैदा होते हैं। इन खतरों में भूमि विहीनता, रोजगार समाप्ति, आवासहीनता, प्रभावहीनता, खाद्य असुरक्षा, संयुक्त सम्पति, संसाधनांे से आय में कमी, स्वास्थ्य में गिरावट तथा समुदायों का विभाजन । इन सभी खतरों को न्यूनतम करना आवश्यक है परंतु निराशाजनक बात यह है कि इन खतरों में कमी के प्रयास कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाआंे द्वारा भी नहीं किये जाते हैं । इन खतरों में कमी के लिए केवल खतरा बीमा देने की बात होती है। परंतु उसके नियम भी ज्यादा स्पष्ट नहीं होते हैं ।
वाशिंगटन में विश्व बैंकतथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुछ वर्षों पूर्व आयोजित बैठक में यह तथ्य उभरकर आया कि कई वित्तीय संस्थाएं ऐसे खतरों को कम करने पर ध्यान तो देती है परंतु इसका केन्द्र `निवेशक` होता है, स्थानीय वंचित वर्ग नहीं । कई बड़ी परियोजनाओं में गरीब तथा वंचित वर्गो के खतरों को शामिल ही नहीं किया जाता है । इसका मतलब यही हुआ कि माइकल केरनिया के सुझावों को अमल लाया ही नहीं जाता । 
कई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं संयुक्त तथा टिकाऊ विकास के लिए जो प्रतिबद्धता दिखाती है, वर्तमान समय में इस प्रतिबद्धता को सचमुच दिखाने की जरूरत है। विभिन्न परियोजनाआंे में विस्थापन के दौरान जो खतरे पैदा होते हैं, उन्हें पहले से पहचानकर समाधान के समुचित प्रयास जरूरी है। प्रभावित लोगों से चर्चाएं की जानी चाहिये, जिससे उनका विश्वास तथा भागीदारी बढ़े । अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने अनुदान की शर्तोंामें पर्यावरणीय तथा सामाजिकता के जो मानक दर्शाये हैंं, उन पर अमल तथा निगरानी सख्ती से होना जरूरी है।
जनजीवन
घटता हरित आवरण और घुटती सांसें
कुशल मिश्रा

दुनिया में हरित चादर का आवरण लगातार घटता जा रहा है । भले ही सरकारें पर्यावरण की रक्षा करने के लिए नई-नई परियोजनाएं लाती हैंऔर करोड़ों पेड़ लगाने के  बाद उनका देखभाल करना भूल जाती है, इससे इतर हैरान करने वाली बात यह है कि भारत में अब प्रति व्यक्ति  सिर्फ २८ पेड़ बचे हैंऔर इनकी संख्या साल दर साल कम होती जा रही है । अभी भी नहीं चेते तो मनुष्य का अस्तित्व खतरे में होगा ।
हाल में जारी हुई नेचर जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में एक व्यक्ति  के लिए ४२२ पेड़ मौजूद हैं । दूसरे देशों की बात करें तो पेड़ों की संख्या के मामले में रूस सबसे आगे हैं। रूस में करीब ६४१ अरब पेड़ हैं, जो किसी भी देश से ज्यादा हैं। इसके बाद ३१८ अरब पेड़ों की संख्या के साथ कनाडा दूसरे स्थान पर, ३०१ अरब पेड़ों की संख्या के साथ ब्राजील तीसरे स्थान पर और २२८ अरब पेड़ों की संख्या के साथ अमेरिका चौथे स्थान पर है ।
और देशों की तुलना के वैश्विक अनुपात के मुताबिक, भारत में सिर्फ ३५ अरब पेड़ हैंयानी एक व्यक्ति  के लिए सिर्फ २८ पेड़ । गौर करने वाली बात यह है कि हम दुनियाभर में हर साल करीब १५.३ अरब पेड़ खो रहे हैं, यानी कि प्रति व्यक्ति  के अनुसार दो पेड़ से भी ज्यादा का नुकसान हर साल हो रहा है । दूसरी ओर की तस्वीर यह है कि हम बहुत कम संख्या में पौधे लगा रहे हैं। नेचर जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में पांच अरब पेड़ हर साल लगाए जा रहे हैंऔर जबकि हम हर साल १० अरब पेड़ का नुकसान उठा रहे हैं। 
मानव सभ्यता की शुरुआत से लेकर अब तक ३.०४ लाख करोड़ पेड़ काटे जा चुके  हैं । यानी कि बड़ी संख्या में आज भी पेड़ जा रहे हैं। नेचर जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, मानव सभ्यता की शुरुआत से मौजूद पेड़ों में अब तक ४६ प्रतिशत तक कमी आ चुकी है। सिर्फ इतना ही नही, दुनियाभर में हर साल १० अरब पेड़ काटे जा रहे हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में पेड़ों की संख्या में सबसे ज्यादा ४५.७ प्रतिशत उष्णकटिबंधीय और उप उष्णकटिबंधीय पेड़ हैं, वहीं बोरियल पेड़ों की संख्या २४.३ प्रतिशत है, जबकि शीतोष्ण पेड़ों की संख्या २० और अन्य पेड़ों की संख्या १० प्रतिशत है ।
देश में पेड़ों की तेजी से गिरती संख्या पर उत्तरप्रदेश के वन विभाग के सचिव एसके पाण्डेय कहते हैं,`हमारा हमेशा यह प्रयास है कि पेडों की संख्या बढ़ें, मगर फैले भ्रष्टाचार की वजह से पेड़ों की चोरी और कटने की घटनाएं सामने आती रहती हैं । कार्रवाई समय-समय पर होती रहती हैं, मगर इसके बावजूद बड़ी संख्या में पेड़ काटे जा रहे हैं ।` वह आगे कहते हैं, `पेड़ों को बचाने के लिए हर व्यक्ति  को हमारी मदद करनी होगी, हम अकेले कुछ  नहीं कर सकते हैं । जरुरत है कि न सिर्फ पेड़ों को लगाएं, बल्कि उसकी देखभाल भी करें । इसके अलावा कहीं भी पेड़ कटने या चोरी होने की घटनाओं पर विभाग को सूचित    करें ताकि हम तुरंत एक्शन ले    सकें ।`
वहीं, अब तक अलग-अलग क्षेत्रों में हजारों पेड़-पौधे लगा चुके पेड़ वाले बाबा के नाम से मशहूर मनीष तिवारी कहते हैं,`मैं यह हमेशा से कहता हूं कि पेड़-पौधे ही जीवन हैं,किसी की भी याद में लगाई गई मूर्तियां ऑक्सीजन नहीं देती, बल्कि पेड़ ऑक्सीजन देते हैं। इसलिए हमें पेड़-पौधों के महत्व को समझना चाहिए और हर व्यक्ति  ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए ।`
भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के समग्र वन क्षेत्रों में एक चौथाई उत्तर-पूर्व के राज्यों में है और पिछले मूल्यांकन की तुलना में उत्तर-पूर्व के राज्यों में ६२८ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में कमी आई है । देश में पेड़ों तथा वनों का समग्र क्षेत्रफल ७९४,२४५ वर्ग किलोमीटर (७९.४२ मिलियन हेक्टेयर) है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का २४.१६ प्रतिशत है ।
प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल, द लांसेट में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रदूषण से हुई मौतों के मामले में साल २०१५ में भारत १८८ देशों की सूची में पांचवे स्थान पर रहा है । दुनियाभर में हुई करीब ९० लाख मौतों में से २८ प्रतिशत मौतें अकेले भारत में हुई हैं। यानी यह आंकड़ा २५ लाख से ज्यादा है । ये मौतें वायु, जल और अन्य प्रदूषण के कारण हुई हैं। 
चिकित्सीय पत्रिका 'द लांसेट` के अनुसार, हर साल वायु प्रदूषण के कारण १० लाख से ज्यादा भारतीय मारे जाते हैं। अध्ययन के अनुसार, उत्तर भारत में छाया स्मॉग भारी नुकसान कर रहा है और हर मिनट भारत में दो जिंदगियां वायु प्रदूषण के कारण चली जाती हैं । ऐसे में वायु प्रदूषण सभी प्रदूषणों में सबसे घातक प्रदूषण बनकर उभरा    है ।
आईएमए के एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों की जिंदगी खतरनाक वायु प्रदूषण की वजह से लगभग ६ साल कम हो चुकी है। दिल्ली और आसपास के इलाकों में वायु प्रदूषण अब तक के सर्वोच्च् स्तर पर है। दूसरी ओर, एनसीआर में डब्लूएचओ के मानकों को लागू किया जा सका तो लोग ९ साल तक अधिक जीवित रहेंगे ।
पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए पिछले साल उत्तरप्रदेश में २४ घंटे में पांच करोड़ पौधे लगाकर रिकॉर्ड बनाया गया था । इन पौधों की निगरानी करने के लिए सेटेलाइट सिस्टम का भी प्रयोग किया जाना था, लेकिन सेटेलाइट सिस्टम से पौधों की निगरानी के दावे हवा-हवाई साबित हुए । अधिकारियों का दावा था कि इन पौधों का संरक्षण किया जाएगा, मगर कई लाख पौधे देखरेख के अभाव में खराब हो गए थे ।
प्रदेश चर्चा 
छत्तीसगढ़ : तालाबों की समृद्ध लोक परम्परा
पंकज चतुर्वेदी

छत्तीसगढ़ में जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान   हैं । राजधानी रायपुर में तालाबोें के गहरीकरण और सौंदर्यीकरण की योजनाएं हर साल बनती हैंऔर   पानी की तरह रुपये बहाए जाते हैं । बावजूद इसके तालाब घटते    गए । 
छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी राजधानी रायपुर बनने से पहले तक यह नगर तालाबों की नगरी कहलाता था, ना कभी नलों में पानी की कमी रहती थी और ना आंख में । लेकिन अलग राज्य क्या बना, शहर को बहुत से दफ्तर, घर, सड़क की जरूरत हुई और देखते ही देखते ताल-तलैयों की बलि चढ़ने लगी । 
कोई १८१ तालाबों की मौजूदगी वाले शहर में अब बमुश्किल एक दर्जन तालाब बचे हैंऔर वे भी हांफ रहे हैं अपना अस्तित्व बचाने के लिए । वैसे यहां भी सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुकी है   कि तालाबों को उनका समृद्ध अतीत लौटाया जाए, लेकिन लगता है कि   वे गुमनामी की उन गलियों में खो चुके हैं जहां से लौटना नामुमकिन होता है । 
वैसे रायपुर में तालाबों को खुदवाना बेहद गंभीर भूवैज्ञानिक तथ्य की देन है । यहां के कुछ इलाकों में भूमि में दस मीटर गहराई पर लाल-पीली मिट्टी की अनूठी परत है जो पानी को रोकने के लिए प्लास्टिक परत की तरह काम करती है । पुरानी बस्ती, आमापारा, समता कालोनी इलाकों में १० मीटर गहराई तक मुरम या लेटोविट, इसके नीचे १० से १५ मीटर में छुई माटी या शेलएलो और इसके १०० मीटर गहराई तक चूना या लाईम स्टोन है । तभी जहां तालाब हैं वहां कभी कुंए सफल नहीं हुए । 
यह जाना माना तथ्य है कि रायपुर में जितनी अधिकतम बारिश होती है उसे मौजूद तालाबों की महज एक मीटर गहराई में रोका जा सकता था । जीई रोड पर समानांतर तालाबों की एक श्रंृखला है जिसकी खासियत है कि निचले हिस्से में बहने वाले पानी को यू-शेप का तालाब बना कर रोका गया है । 
ब्लाक सिस्टम के तहत हांडी तालाब, कारी, धोबनी, घोडारी, आमा तालाब, रामकुंड, कर्बला और चौबे कालोनी के तालाब जुड़े हुए हैं । बूढा तालाब व बंधवा के ओवर फ्लो का खरून नदी में मिलना एक विरली पुरानी तकनीक रही है । बेतरतीब निर्माण ने तालाबों के अंतर्संबंधों, नहरों और जल आवक रास्तों को ही निरूद्ध नहीं किया, अपनी तकदीर पर भी सूखे को जन्म दे दिया । रही बची कसर यहां के लोगों की धार्मिक आयोजनों में बढ़ती रूचि ने खड़ी कर दी । 
महानगर में हर साल कोई दस हजार गणपति, दुर्गा प्रतिमा आदि की स्थापना हो रही है और इनका विसर्जन इन्हीं तालाबों में हो रहा है । प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, प्लास्टिक के सजावटी सामान, अभ्रक, आसेनिक, थर्मोकोल आदि इन तालाबों को उथला, जहरीला व गंदला कर रहे    हैं ।  
कभी बूढ़ा तालाब शहर का बड़ा-बूढ़ा हुआ करता था । कहते हैं कि सन् १४०२ के आसपास राजा ब्रहृदेव ने रायपुर शहर की स्थापना की थी और तभी यह ताल बना । वैसे इसे लेकर भी पूरे देश की तरह बंजारों व मछुआरों की कहानियां मशहूर हैं । सनद रहे बूढा तालाब पहले इस तरह अन्य तालाबों से जुड़ा था कि इसमें पानी लबालब होते ही महाराजबंध तालाब में पानी जाने लगता था और उसके आगे अन्य किसी में इन तालाब-श्रंृखलाओं के कारण ना तो रायपुर कभी प्यासा रहता और ना ही तालाब की सिंचाई, मछली, सिंघाड़ा आदि के चलते भूखा । 
कहते हैं कि इस तालाब के किनारे से कोलकाता-मुंबई और जगन्नाथ पुरी जाने के रास्ते निकलते थे । लेकिनआज यह जाहिर तौर पर कूड़ा फैंकने व गंदगी उड़ेलने की जगह बन गया है। वैसे आज इसका नाम विवेकानंद तालाब हो गया, क्योंेकि इसके बीचों बीच विवेकानंद की एक प्रतिमा स्थापित की गई है, लेकिन यहां जानना जरूरी है कि बूढ़ा से विवेकानंद तालाब बनने की प्रक्रिया में इसका क्षेत्रफल १५० एकड़ से घट कर ६० एकड़ हो गया । बताते हैं कि जब स्वामी विवेकानंद १४ वर्ष के थे, तो रायपुर आए थे व तैरकर तालाब के बीच में बने टापू तक जाते थे ।
शहर के कई चर्चित तालाब देखते-देखते ओझल हो गए- रायपुर शहर में रजबंधा तालाब का फैलाव ७.९७५ हैक्टर था, आज वहां चौरस मैदान है । छह हैक्टर से बड़े सरजूबंधा को पुलिस लाईन लील गई तो डेढ़ हैक्टर से भी विशाल खंतांे तालाब पर शक्तिनगर कालोनी बन गई । पचारी, नया तालाब और गोगांव ताल को उद्योग विभाग के हवाले कर दिया गया तो ढाबा तालाब (कोटा) और डबरी तालाब(खमरडीह) पर कब्जे हो गए । ऐसे ही कंकाली ताल, ट्रस्ट तालाब, नारून तालाब आदि दसियों पर या तो कब्जे हो गए या फिर वे सिकुड़ कर शून्य की ओर बढ़ रहे हैं । यह सूची बानगी है कि रायपुर शहर के बीच के तालाब  किस तरह शहरीकरण की चपेट में आए । 
यहां जानना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ में तालाब एक लोक परंपरा व सामाजिक दायित्व रहा  है । यहां का लोनिया, सबरिया, बेलदार, रामनामी जैसे समाज पीढ़ियों से तालाब गढ़ते आए हैं । अंग्रेजी शासन के समय पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन सरकार ने खूब तालाब खुदवाए थे और ऐसे कई सौ तालाब पूरे अंचल में 'लकेटर तालाब` के नाम से आज भी विद्यमान हैं । 'छत्तीसगढ़ मित्र` को यहां की पहली हिंदी पत्रिका कहा जाता है । 
इसके मार्च-अप्रैल, १९०० के अंक में प्रकाशित एक आलेख गवाह है कि उस काल में भी समाज तालाबों को लेकर कितना गंभीर व चिंतित था । आलेख कुछ इस तरह था-''रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है यह तालाब श्रीयुत् सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था । अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत पर १७००० रूपए खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है । सरकार को चाहिए कि इसी ओर ध्यान देवे ।``
रायपुर का तेलीबांधा तालाब भ्रष्टाचार, लापरवाही और संवेदनहीनता की बानगी बना हुआ  है । वर्ष १९२९-३० के पुराने राजस्व रिकार्ड में इसका रकबा ३५ एकड़ था, लेकिन आज इसके आधे पर भी पानी नहीं है । उस रिकार्ड के मुताबिक आज जीई रोड का गौरव पथ तालाब पर ही है । इसके अलावा जलविहार कालोनी की सड़क, बगीचा, आरडीए परिसर, लायंस क्लब का सभागार भी पानी की जगह पर बना है । यहां १२ एकड़ जमीन खाली करवा कर वहां बसे लोगों को बोरियाकला में विस्थापित किया गया । जब यह जमीन खाली हुई तो इससे दो एकड़ जमीन नगर निगम मकान बनाने के लिए मांगने लगा । 
वह तो भला हो जनवरी-२०११ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मुकदमे के फैसले का जिसमें अदालत ने देश के सभी राज्यों को आदेश दिया था कि तालाब के पानी व निस्तार की जमीन पर किसी भी तरह का निर्माण ना हो । अब सरकार खुद पशोपेश में है क्योंकि राज्य सरकार ने तेलीबांधा से हटाए लोगों को उनकी पुरानी जगह पर ही ७२० मकान बना कर देने का वायदा कर दिया है। अब तालाब पर बेहद खामोशी से खेल हो रहा है- इसके कुछ हिस्से में पानी बरकरार रख, शेष पर बगीचे, कालोनी बनाने के लिए लोग सरकार के साथ मिल कर गुंताड़े बिठा रहे    हैैं । 
अब तो नया रायपुर बन रहा है, अभनपुर के सामने तक फैला है और इसको बनाने में ना जाने कितने ताल-तलैया, जोहड़, नाले दफन हो गए हैैं । यहां खूब चौड़ी सड़के हैं, भवन चमचमाते हुए है, सबकुछ उजला है, लेकिन सवाल खड़ा है कि इस नई बसाहट के लिए पानी कहां से आएगा ? तालाब तो हम हड़प कर गए है । 
पर्यावरण परिक्रमा
बिगड़ती जीवन शैली से बढ़ रही बीमारियां
दिल्ली में हर तीसरे बच्च्े के फेफड़े प्रदूषण से प्रभावित है जबकि दिल्ली-एनसीआर सहित देश के अधिकांश हिस्सों में हर साल होने वाली कुल मौतों में ६१ फीसदी जीवनशैली और गैर संक्रमित बीमारियों की वजह से होती है । २०२० तक हर साल देशभर में कैंसर के १७.३ लाख नए मामले सामने आने का भी अनुमान है । इस सबकी बड़ी वजह है हवा में बढ़ता प्रदूषण, तंबाकू और खानपान में हो रहा बदलाव । 
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की नई रिपोर्ट में पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच गहरा संबंध होने की बात साबित हुई है । इस रिपोर्ट में जीवनशैली से जुड़े रोगों को मौत की एक बड़ी वजह बताया गया है । सीएसई ने बॉडी बर्डन नाम से अपनी यह रिपोर्ट पिछले दिनों नई दिल्ली में इंडिया हैबीटेट सेंटर में विशेषज्ञों की समूह चर्चा के दौरान जारी की । रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में हर १२ वां भारतीय मधुमेह का रोगी है और ऐसे मरीजों के मामले में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है । 
इस रिपोर्ट के मुताबिक २०१६ तक भारत में अस्थमा के ३.५ करोड़ गंभीर मरीज सामने आ चुके हैं । प्रदूषण की वजह से देश में ३० फीसदी मौत भी समय से पहले हो रही है । हर साल देश में २७ लाख लोग दिल की बीमारियों से मर रहे   है । इनमें से ५२ फीसदी की उम्र ७० साल से कम होती है । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार असंक्रामक बीमारियों की चार वजह होती है । इनमें एल्कोहल, तंबाकू, खराब खानपान और शारीरिक गतिविधियों की कमी प्रमुख है । सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण के अनुसार भारत में उक्त चार कारणों के अलावा भी कई कारक है । इनमें पेस्टीसाइड भी एक है जिससे कैंसर तक हो सकता है । नई रिपोर्ट में इसकी वजह से मधुमेह होने का अंदेशा भी जताया गया है । इसी तरह प्रदूषित हवा से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी बीमारियों का खतरा होता है, इसका असर दिमागी स्वास्थ्य पर भी पड़ता है । 
रिपोर्ट की प्रमुख लेखिका विभा वार्ष्णेय के अनुसार यदि हम स्थायी विकास चाहते है तो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कारणों को कम करना होगा ।  
इंसानों की बस्ती के पास पेंग्विन कालोनी
दक्षिण अफ्रीकी में केपटाउन से ९० कि.मी. दूर सिर्मोन्स टाउन से सटी एक बस्ती में अनोखी पेंग्विन कॉलोनी है । इसे बोल्डर्स पेंग्विन कालोनी भी कहते है । समुद्र के किनारे पेंग्विन एक साथ जुटते जा रहे हैं । जैसे उनके बीच कोई सभा चल रही हो । दूर से देखने पर लगता है कि वे चिल्ला रहे है, लेकिन जैसे-जैसे हम नजदीक पहुंचते है तो लगने लगता है इनके बीच कोई गंभीर बात चल रही है । कुछ पेंग्विन एक-दूसरे से खेल रहे हैं । वे गिरते हैं, फिर उठते हैं, पत्थरों से पीठ रगड़ते हैं, मानो खुद को साफ कर रहे हो । फिर अचानक एक साथ मिलकर चिल्लाने लगते   हैं । ध्वनि रैंकने जैसी आती है, इनकी इस कर्कश आवाज के कारण ही इन्हें जैकेस पेंग्विन भी कहते हैं । 
पेंग्विन की यह अनोखी कॉलोनी इंसानी बस्ती सिमॉन्स टाउन से एकदम सटी हुई है । अस्तित्व के खतरे से गुजर रही प्रजाति अफ्रीकन पेंग्विन की जिस तरह यहां देखरेख और संरक्षण हो रहा है उसे मिसाल कहा जा सकता है । 
सन् १९८२ में एक जोड़ी पेंग्विन से यह परिवार शुरू हुआ    था । आज यहां पेंग्विन की संख्या २१०० से अधिक हो चुकी है । इनकी देखभाल में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी गई । यहां कई जगहों पर कैमरा पॉइन्ट बने हैं, जिनसे पेंग्विन और पर्यटकों की गतिविधियां देखी जाती है । इस क्षेत्र को नेचर रिजर्व में शामिल किया गया है । किसी को भी पेंग्विन कॉलोनी में कुछ खिलाने की इजाजत नहीं है और न ही कोई उन्हें छू सकता है । 
दिनभर पेंग्विन की गतिविधियां की निगरानी की जाती  है, ताकि जरा सा भी कुछ गलत दिखाई दे तो उन्हेंसंभाला जा सके ।  अटलांटिक महासागर के बेटिस बे क्षेत्र मेंस्थित इस पेंग्विन कॉलोनी में तट के आसपास फेन्सिंग की गई हैं, ताकि पर्यटक उन्हें छू न सके । यह सब तैयारी पेंग्विन के सरंक्षण के लिए है । बेटिस बे क्षेत्र में आने वाले वाहन भी पेंग्विन कॉलोनी से दूर ऊंचाई पर करीब १०० मीटर की दूरी पर पार्क किए जाते हैंताकि वाहनों की आवाज और प्रदूषण उन तक न   पहुंचे । 
एक पर्यटक समूह को ज्यादा समय तक वहां रूकने की इजाजत भी नहीं होती है । हालांकि, इतना समय पर्याप्त् होता है कि आप उन्हें भी भर के देख सकें । समुद्र तट के पास रेतीले तट पर पथरीली चट्टानें हैं जहां पेंग्विन झुंड में खड़े होकर ठंडी हवाएं लेते है । अभी यहां गर्मी का मौसम शुरू हुआ है और दोपहर का तापमान २० डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है । शाम होते ही तापमान कम होकर १३-१४ डिग्री सेल्सियस तक आ जाता है । शाम ढलने के साथ अधिक से अधिक पेंग्विन किनारे की चट्टानों पर आ जाते हैं लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता । सर्दियां यानी जून से अगस्त तक ८ डिग्री सेल्सियस न्यूनतम तापमान होता है, तब पेंग्विन  ज्यादा समय पानी में ही बिताते हैं । 
ट्रेन का नया शौचालय सेप्टिक टैंक जैसा
दक्षिण भारत से चैन्नई स्थित भारतीय प्रौघोगिकी संस्थान-मद्रास (आईआईटीएम) ने एक अध्ययन में पाया है कि तेरह सौ करोड़ की लागत से पिछले चार साल में ट्रेनों में बनवाए गए शौचालय सेप्टिक टैंक से बेहतर नहीं है । 
भारतीय रेल की ओर से प्रमुख मेल एक्सप्रेस व मेल ट्रेनों में शौचालय के तौर पर ९३५३७ जैव पाचक (बायो-डायजेस्टर्स) लगाया  है । यह एक प्रकार का लघु-स्तरीय मलजल शोधन संयंत्र है, जिसमें कंपोस्ट चैंबर में जीवाणु मानव मल का पाचन करता है और इस प्रक्रिया में जल व मिथेन बच जात हैं, जिसमें संक्रमण रहित पानी ट्रेक पर बहा दिया जाता है । 
हालांकि सफाई विशेषज्ञों व विविध अध्ययनों, जिसमें रेलवे की ओर से संचालित अध्ययन भी शामिल हैं, ने बताया है कि नए जैव शौचालय अप्रभावी या कुप्रबंधित है और पानी की निकासी अपरिष्कृत मल निकासी की तुलना में बेहतर ढंग से नहीं हो पाती है । 
आईआईटी के प्रोफेसर लिगी फिलीप, जिनकी अगुआई में यह अध्ययन किया गया है ने इंडियास्पेंड  से बातचीत में कहा कि हमारी जांच में यह पाया गया कि बायो-डायजेस्टर में संग्रहित कार्बनिक पदार्थ (मानव उत्सर्जित मल) का कोई उपचार नहीं होता है । उन्होंने बताया कि सेप्टिक टैंक की तरह इन बायो-डायजेस्टर्स में मलजल इकट्ठा होता  है । बिल मेलिंडा गेट्स फाउडेंशन की ओर से प्रायोजित आईआईटी मद्रास के इस अध्ययन की रिपोर्ट हाल ही में केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय को सौंपा गया है । 
समीक्षा के बावजूद रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय रेल की ओर से संयुक्त रूप से विकसित ये जैव शौचालय दिसम्बर २०१८ तक एक लाख २० हजार अतिरिक्त कोचों में लगवाए जाएंगे । इस पर अनुमानित लागत १२०० करोड़ रूपये आ सकती है । सूचना का अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के जवाब में रेलवे की ओर से पिछले दिनों यह जानकारी दी गई । 
डेढ़ सौ करोड़ की हरियाली चट कर जाती हैं भेड़
भोपाल और नीमच में भेड़ों पर कार्रवाही क्या हुई, राजस्थान सरकार हरकत में आ गई । वहां की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पत्र लिखकर भेड़ों को प्रदेश के जंगलों में चराने की इजाजत देने की वकालत की है । 
उधर वन अफसर इस मांग से चिंतित हैं क्योंकि ये भेड़ें हर साल प्रदेश में डेढ़ सौ करोड़ की हरियाली चट कर जाती हैं । पर्यावरण विशेषज्ञों ने सरकारों की नीयत पर सवाल खड़े किए हैं । वे कहते हैं कि गर्म कपडों के कारोबार से जुड़े उद्योगपतियों की भेड़े है, इसलिए सरकार को वकालत करनी पड़ रही है । 
चारा संकट के चलते राजस्थान की १० से १२ लाख भेड़ हर साल मध्यप्रदेश के रास्ते उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र जाती है । करीब आठ माह के इस सफर का ज्यादा समय मध्यप्रदेश में गुजरता है । भेड़ें बारिश और सर्दी में जंगलों में स्वत: उगने वाली पौध को नष्ट कर देती हैं । सरकार के पौधारोपण अभियान भी इन्हीं की वजह से सफल नहीं हो पाते । वन विभाग के अध्ययन में भी ये बात सामने आ चुकी है । पूर्व वन अधिकारी जेपी शर्मा कहते हैं कि भेड़ों से हरियाली को ज्यादा खतरा हैं, क्योंकि वे जड़ से पौधे खींच लेती हैं जिससे उसके दोबारा पनपने की संभावना खत्म हो जाती है । भेड़े हर साल डेढ़ सौ करोड़  की हरियाली खत्म कर देती है    जबकि वसूली होती है २० लाख   रूपये । 
कृषि जगत
खाद्य व्यवस्था में फैलते जहर
भारत डोगरा

हाल के दशकों में विश्व स्तर पर खाद्य उत्पादन तो बढ़ा है, पर इसके साथ अनेक खाद्यों की गुणवत्ता कम हुई है व उनमें रासायनिक कीटनाशक, जंतुनाशक व खरपतवारनाशकों के अत्यधिक उपयोग के कारण स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने वाले तत्व बढ़े हैं । अब एक नई समस्या यह आ रही है कि जीएम (जेनेटिक रूप से परिवर्तित) खाद्य फसलों के प्रसार में भी अनेक तरह की नई स्वास्थ्य समस्याएं उपस्थित हो रही हैं ।
इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) में एकत्र हुए विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, जीएम फसलों के  बारे में जिन फायदों का वायदा किया गया था वे मिले नहीं हैं । और ये फसलें खेतों में समस्याएं पैदा कर रहीं हैं ।... ऐसे पर्याप्त् प्रमाण प्राप्त् हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं । 
यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी, जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती है । जीएम फसलों को अब दृढ़ता पूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए । जीएम फसलों का सभी जीवों व मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है । जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले वैज्ञानिकों के ऐसे कई अध्ययन हैं । 
जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक  जेनेटिक रूले (एक किस्म का जुआं) के ३०० से अधिक पृष्ठोंमें ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार उपलब्ध है । इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लीवर, आंतों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है । जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्योंमें भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है ।
यूनियन आफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं । इनसे उपभोक्ताओं, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे हैं । इंडिपेंडेंट साइंस पैनल में मौजूद ११ देशों के वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों से स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है, जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्मजात विकार, गर्भपात आदि । 
बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं । डा. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है । उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं । पर सरकारी अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है और इस गंभीर चिंता के विषय को उपेक्षित किया है । भेड़-बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं व जीएम फसल के आने के बाद ही ये समस्याएं देखी गइंर् हैं । हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी कपास के बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन सम्बंधी गंभीर समस्याएं सामने आइंर्।
तीन वैज्ञानिकों में वान हो, हार्टमट मेयर व जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज इकॉलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है । इस दस्तावेज़ के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी सूअर या सुपरपिग बुरी तरह फ्लाप हो चुका है । इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अंधा और नपुंसक था ।
इसी तरह तेजी से बढ़ने वाली मछलियों के जींस प्राप्त् कर जो सुपर-सैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी । इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी ।
बहुचर्चित भेड़ डॉली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे व सामान्य भेड़ के बच्चें की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुना अधिक पाई   गई । जेनेटिक इंजीनियरिंग के इन अनुभवों को देखते हुए उससे प्राप्त् भोजन को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह सोचने का विषय है ।
अत: यह स्पष्ट है कि भोजन की सुरक्षा के लिए कई नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं । इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए व उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए । पर सबसे पहले जरूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जीएम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए । 
स्वास्थ्य
किडनी के लिए खतरा बनते कीटनाशक
भाव्या खुल्लर/ नवनीत कुमार गुप्त

पिछले कुछ वर्षों के दौरान अधिक उपज की चाह में कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों की मात्रा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है । बढ़ती मात्रा का पर्यावरण क ेविभिन्न घटकों पर असर दिख रहा है। 
यही नहीं, मानव स्वास्थ्य के लिए भी कीटनाशक गंभीर चिंता का विषय बनते जा रहे हैं। हाल ही में विश्व के विभिन्न देशों, जैसे श्रीलंका, एल सेल्वाडोर, मध्य अमेरिका और मेक्सिको में मरीज़ों पर किए गए एक अध्ययन में किडनी विकार वाले मरीजोंके शरीर में कीटनाशकों की मात्रा का स्तर काफी अधिक पाया गया है । भारत में दिल्ली से एक अध्ययन को इस सूची में हाल ही में जोड़ा गया है । इस शोध के नतीजे एनवायरमेंटल हेल्थ एंड प्रिवेंटिव मेडिसिन नामक जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। 
चिकित्सकों ने जीर्ण गुर्दा रोग (सीकेडी) वाले मरीजों में ऑर्गेनोक्लोरीनकीटनाशकों के उच्च् स्तर का पता लगाया है। जनवरी २०१४ से मार्च २०१५ के दौरान दिल्ली के मेडिकल साइंसेज यूनिवर्सिटी कॉलेज और गुरु तेग बहादुर अस्पताल में आने वाले ३०० लोगों के समूह पर यह अध्ययन किया गया था । 
दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज के प्रोफेसर अशोक कुमार त्रिपाठी के अनुसार हमने सीकेडी से पीड़ित रोगियों में तीन कीटनाशकों      आर्गेनोक्लोेरीन बीटा-एंडोसल्फान, एल्ड्रिन एवं अल्फा-एचसीएच का स्तर काफी अधिक पाया है। उनकी टीम ने सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में किडनी विकारग्रस्त रोगियों में कीटनाशकों का उच्च् स्तर पाया । ३०-५४ वर्ष आयु के व्यक्तियोंके रक्त में नौ प्रकार के आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों की उपस्थिति का पता लगा । इनमें से अनेक कीटनाशकों का प्रयोग कृषि में नियमित तौर पर किया जा रहा है । 
रोगियों में कीटनाशकों को खोजने के बाद प्रोफेसर त्रिपाठी ने असामान्य गुर्दा कार्यप्रणाली में कीटनाशकों की संभावित भूमिका की आशंका व्यक्त की है । अब वे व्यापक स्तर पर अगले शोध कार्य की तैयारी कर रहे हैंजिसमें सीकेडी में आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों की भूमिका का अध्ययन किया जाएगा । उनकी टीम का मानना है कि संचित कीटनाशकों से किडनी में ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा हो सकता है, जो सीकेडी का कारण बनता है। लेकिन अभी इस परिकल्पना की जांच करना शेष है ।
भारत की आबादी का लगभग १७ प्रतिशत सीकेडी से पीड़ित है । ऐसी बीमारियों से गुर्दों के क्रियाकलाप का क्रमिक नुकसान होता है और अधिकांश मामलों में गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। उच्च् रक्तचाप और मधुमेह के बढ़ते मामलों के साथ ऐसे मामलों के बढ़ने की संभावना होती है । इस बीमारी में, गुर्दे सामान्य रूप से रक्त को छानने का काम करने में असफल रहते हैं, जिससे शरीर में विषाक्त और तरल पदार्थ जमा होते जाते हैं। इससे एनीमिया, प्रतिरक्षा क्षमता में कमी, भूख में कमी और दिल की असामान्य धड़कन बढ़ जाती है। प्रारंभिक चरण में मरीज़ों में गंभीर लक्षण नहीं होते, इसलिए ध्यान नहीं जाता । लेकिन, सीकेडी के कारण किडनी काम करना बंद कर देती    है ।
मेक्सिको, एल सेल्वाडोर और श्रीलंका सहित दुनिया के कई हिस्सों में हुए अध्ययनों में डॉक्टरों ने पाया कि सीकेडी को मधुमेह और उच्च् रक्तचाप के आधार पर नहीं समझा जा सकता ।
श्रीलंका में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पर्यावरण में उपस्थित कृषि रसायनों, जहरीले रसायनों और कैडमियम जैसी धातुओं के कारण भी गुर्दा रोग से पीड़ित रोगी प्रभावित होते हैं । शोध में यह भी पाया गया है कि कृषि क्षेत्र में स्थित कुओं के पेयजल के सेवन से भी किडनी की कार्यप्रणाली के प्रभावित होने की संभावना है । स्पेन में प्रकाशित एक अध्ययन में १८ से २३ वर्ष आयु के युवाओं में कीटनाशकों की उच्च् मात्रा पाई गई थी ।
इस अध्ययन में २२० युवाओं के रक्त में १४ प्रकार के कीटनाशकों की उपस्थिति देखी    गई । इनमें एंडोसल्फान और हैक्सा-क्लोरोसायक्लोहेक्सेन की मात्रा क्रमश: ९२ और ८० प्रतिशत देखी गई । दिलचस्प बात यह रही कि कृषि क्षेत्रों में कार्यरत मांआें के बच्चें में इन दोनों कीटनाशकों का काफी उच्च् स्तर देखा गया । दो साल बाद,  एल सेल्वाडोर के एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि कृषि क्षेत्र में काम करने से सीकेडी का खतरा बढ़ गया है ।
भारत कीटनाशकों के प्रमुख उपभोक्ताओं में से एक है। भारत कीटनाशकों के उपयोग के मामले में दुनिया में दसवे स्थान पर है । कृषि एवं खाद्य संगठन २०१० की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति वर्ष लगभग ४० हज़ार टन कीटनाशकों का उपयोग होता है। संगठन की २०१४ रिपोर्ट के अनुसार भारत करीब २.१ अरब डॉलर के कीटनाशक निर्यात करके जर्मनी, चीन, यूएस और फ्रांस के बाद कीटनाशकों का पांचवां सबसे बड़ा निर्यातक है । 
डीडीटी और एन्डोसल्फान जैसे ऑर्गेनोनोक्लोरीन कीटनाशक फसल के कीड़े मारने में बहुत प्रभावी हैं। लेकिन इन्हें कई देशों में पर्यावरण में उनकी दीर्घकालिकता और मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक परिणामों के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन ये कीटनाशक अभी भी भारत में उपयोग किए जाते हैं। गुर्दा विकारों सम्बंधी हालिया अध्ययन ऐसे कीटनाशकों के उपयोग पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
दुनिया भर में १००० से अधिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है । जहां अनेक कीटनाशक उत्पादकता बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं,वहीं दूसरी ओर, उनके अनियंत्रित उपयोग से जानवरों व इंसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है । कीटनाशकों के प्रभाव को कम करने के लिए फलों और सब्जियों को धोकर या छील कर खाना चाहिए ।
खाद्य और कृषि संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन कीटनाशकों के संभावित खतरों के  प्रति सचेत कर रहे हैं। इनकी सिफारिशें क्लीनिकल अध्ययन पर आधारित होती हैं। कीटनाशक अवशेषों पर इन दोनों संगठनों की संयुक्त बैठक कीटनाशक के उपयोग की सुरक्षित सीमा को परिभाषित करती है ।
उन्होंने कीटनाशक प्रबंधन पर अंतर्राष्ट्रीय आचार संहिता की स्थापना भी की है, जो किसानों को कीटनाशकों के उत्पादन से लेकर निपटान तक उनसे बचाव की पद्धतियों का पालन करना बताती हैं। 
श्रीलंका के कोलंबो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सरोज जयसिंघे के अनुसार सीकेडी के लिए अज्ञात कारणों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। अब इसे कृषि-जन्य गुर्दा विकार के रूप में देखा जा रहा है । इस अध्ययन से गुर्दा रोगों पर कृषि-रसायनों के प्रभाव के मुद्दे पर चिकित्सकों, शोधकर्ताओं, निर्णय-कर्ताओं और जनता का ध्यान आकर्षित करने में मदद मिलेगी । प्रोफेसर जयसिंघे के अनुसार प्रमाण दो तरह के हैं। पहले में, उच्च् रक्तचाप और मधुमेह जैसे कारकों से सीकेडी के अधिकांश मामले, श्रीलंका में धान के खेतों में काम कर रहे ६० वर्ष से कम उम्र के पुरुषों और मिस्त्र तथा भारत में सब्जियों के खेतों और मध्य अमेरिका में गन्ना खेतों में कार्यरत वयस्कों में देखे गए हैं। दूसरा बिन्दु यह है कि इस आबादी में सीकेडी का प्रसार कृषि क्षेत्रोंमें काम की अवधि के साथ बढ़ता जाता है । 
ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक बहुत लंबे समय के लिए पर्यावरण में बने रहते हैं,जो उन्हें अवांछनीय बनाता है । इनमें से कुछ कीटनाशक, जैसे एन्डोसल्फान ५ महीनों से अधिक समय तकमिट्टी में रह सकते हैं। इसी कारण से वे अत्यधिक प्रभावी कीटनाशक हैं, जिसके परिणामस्वरूप, मानव स्वास्थ्य के लिए एक संभावित खतरे के बावजूद उनका उपयोग किया जाता रहा है ।
इस क्षेत्र में कार्यरत कोस्टा रिका के सेन्ट्रेल अमेरिकन इंस्टीट्यूटफॉर स्टडीज़ ऑन टॉक्सिक सबस्टेंसेज़ की कैथेरिना वेसलिंग के अनुसार पहले का कोई भी अध्ययन इस बात को प्रमाणित नहीं कर पाया था कि कीटनाशक गुर्दा रोगों के लिए ज़िम्मेदार हैं । वास्तव में, कई कीटनाशक गुर्दोंा के लिए ज़हरीले होते हैं। इसलिए कीटनाशकों और गुर्दा रोगों के बीच सम्बंधों की खोज आश्चर्यजनक नहीं है। 
इन अध्ययनों से प्रभावी तौर पर निष्कर्ष निकलता है कि आर्गेनोक्लोरीन जैसे कीटनाशकों का सम्बंध सीकेडी से हो सकता है जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल परिणाम पड़ सकता है । ये अध्ययन कीटनाशकों के नियमन पर ज़ोर देने के साथ ही समुदाय में किडनी के रोगों के बोझ को कम करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।
ज्ञान-विज्ञान
डब्लूएचओ की एंटीबायोटिक संबंधी चेतावनी
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने चेतावनी दी है कि अगर हम पशुपालन में एंटीबॉयोटिक दवाओं का दुरुपयोग जारी रखेंगे, तो हम एंटीबॉयोटिक-पूर्व के युग में लौट जाएंगे, जिसमें आज आसानी से ठीक किए जाने वाले मामूली रोग भी घातक सिद्ध हो सकते हैं। 
   युरोपीय संघ ने २००६ से पशुओं में वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए एंटीबॉयोटिक दवाइयों के इस्तेमाल पर रोक लगाई गई है लेकिन इनके उपयोग में कोई महत्वपूर्ण कमी देखने को नहीं मिली है । वहां किसानों से अनुरोध किया गया है कि जब तक किसी रोग का निदान न हो जाए तब तक पशुओं पर एंटीबॉयोटिक दवाओं का इस्तेमाल न किया जाए । डब्लूएचओ ने इन्हीं बातों को दिशानिर्देश के रूप में स्वीकार किया है ।  
कई वैज्ञानिको के अनुसार डब्लूएचओ द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों को गंभीरता से माना जाए तो इससे एक बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है परन्तु डब्लूएचओ के 
खाद्य सुरक्षा विभाग और ज़ूनॉसेस के  निदेशक कजुवाकी मियागीशीमा का मानना है कि ये केवल दिशानिर्देश हैं कोई कानून नहीं । कोडेक्स एलिमेंटेरियस नामक एक 
अंतर-सरकारी समूह इन दिशानिर्देशों पर कार्य कर रहा है ताकि इन्हें अंतर्राष्ट्रीय मानकों का रूप दिया जा सके ।     
अमेरिका ने १९७७ में एंटीबॉयोटिक के इस्तेमाल पर रोक लगाई थी लेकिन पशुपालक इनका उपयोग करते रहे। वर्ष २०१५ के आंकड़ों के अनुसार पशुओं पर १५५ लाख किलोग्राम एंटीबायोटिक का इस्तेमाल किया गया जिसमे से ९७ लाख किलोग्राम तो ऐसे एंटीबायोटिक थे जो इंसानों के लिए महत्वपूर्ण हैं।    
अमरीकी कानून ने मात्र पशुओं की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को गैर कानूनी घोषित कर दिया है । एक ओर अमेरिका कृषि क्षेत्र में एंटीबॉयोटिक के उपयोग को कम कर रहा है, तो वहीं दूसरी ओर चीन इनका और अधिक उपयोग करने लगा है। चीन के किसान कॉलिस्टिन नामक एंटीबॉयोटिक का सूअरों में भरपूर उपयोग कर रहे हैं, जो मानव उपयोग के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसके चलते प्रतिरोध बढ़ रहा है ।  
हालांकि चीन ने प्रतिरोध फैलने के बाद इससे जुड़ी औषधि के उपयोग पर रोक लगा दी है, जिससे यह बात सिद्ध होती है कि अन्य देश भी कार्रवाई के लिए तैयार हैंऔर कुछ हल निकालना चाहते हैं। डब्लूएचओ द्वारा वित्त पोषित व्यवस्थित समीक्षा दी लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ में प्रकाशित हुई जिसने डब्लूएचओ को दिशानिर्देश विकसित करने में मदद की । रिपोर्ट के अनुसार इनका पालन करने से एंटीबॉयोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया को ३९ प्रतिशत तक कम किया जा सकता है हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का मत है कि एंटीबॉयोटिक में कटौती करने से प्रतिरोध में १० से १५ प्रतिशत के बीच कमी लाई जा सकती है ।  
वैज्ञानिक मानते हैं कि जानवरों में एंटीबॉयोटिक की खुराक एक समस्या है, लेकिन अब भी यह पता लगाना मुश्किल है कि एंटीबॉयोटिक प्रतिरोधी समस्या का कितना प्रतिशत पशु उपयोग से आ रहा है । डब्लूएचओ के अनुसार यह दिशानिर्देश वैश्विक रूप से लागू किए जा सकते हैं और सभी देश गैर-जरूरी एंटीबॉयोटिक का उपयोग खत्म कर पशुओं की सेहत के लिए बेहतर आवास और टीकाकरण प्रथाएं अपनाएंगे ।
गोली जिसे खाने पर डॉक्टर को सूचना मिल जाएगी 
यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा की एक डिजिटल गोली को मंज़ूरी दी है । इस गोली में एक सेंसर लगा है जो पेट में पहुंचते ही एक संदेश प्रसारित करेगा । यह संदेश मरीज़ के सीने पर चिपकी एक पट्टी महसूस करेगी और उसे आगे प्रसारित कर देगी ।
ऐसी गोली बनाने का विचार मरीज़ों द्वारा डॉक्टर की सलाह पर नियमित रूप से दवाई न लेने की समस्या से उभरा है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि मरीज़ों द्वारा समय पर दवा का सेवन ना करना स्वास्थ्य तंत्र के सामने एक बड़ी समस्या है । इसकी वजह से कई बीमारियों का इलाज मुश्किल हो जाता है और खर्चीला भी साबित होता है । ऐसा बताया जा रहा है कि इस समस्या की वजह से लगभग १०० अरब डॉलर का नुकसान होता है ।
फिलहाल जिस डिजिटल दवा को मंज़ूरी दी गई है वह सायकोसिस की दवा एबिलीफाय मायसाइट है । इसका उत्पादन दवा कंपनी ओत्सुका द्वारा प्रोटियस डिजिटल हेल्थ नामक कंपनी के सहयोग से किया जा रहा है । गोली में जो सेंसर लगा है वह तांबा, मैग्नीशियम और सिलिकॉन से बना है। जैसे ही यह सेंसर आमाशय के तरल पदार्थों के संपर्क  में आता है, वैसे ही यह एक विद्युत संकेत पैदा करता है। इसके कुछ मिनट बाद व्यक्ति की बाइंर् पसलियों पर लगी एक पट्टी इस संदेश को पकड़ती है। यह पट्टी हर सात दिन में बदलनी होती है । यह पट्टी गोली निगलने की तारीख व समय को ब्लूटूथ के ज़रिए एक मोबाइल फोन ऐप को प्रेषित कर देती है जहां से यह उन सारे लोगों को भेज दिया जाता है जिनके मोबाइल नंबर उसमें डाले गए हैं । मरीज़ चाहे तो इस तरह के संदेश भी जा सकते हैंकि उसने कब आराम किया वगैरह ।
इस नवाचार को लेकर वाद-विवाद शुरू हो चुका है । कुछ विशेषज्ञों का मत है कि हम दवा न लेने की समस्या से निपटने के मामले में एक कदम आगे बढ़े हैं। उनके मुताबिक यह तकनीक खास तौर से उन मरीज़ों के लिए बहुत कारगर साबित होगी जो भूलने की आदत से पीड़ित हैं। यदि वे समय पर दवा लेना भूल जाते हैं तो उनके डॉक्टर या परिजनों को इस बात का पता चल जाएगा और वे मरीज़ को याद दिला सकते हैं ।  
दूसरी ओर, कई लोगों का मत है कि यह व्यक्ति की निजता का उल्लंघन है । इन लोगों का कहना है कि इस तकनीक का दुरूपयोग होने की पूरी आशंका है । इसी आशंका के मद्देनज़र फिलहाल यह व्यवस्था की गई है कि मरीज़ की सहमति के बाद ही उसे यह डिजिटल गोली दी  जाएगी । इसके लिए मरीज़ को एक सहमति अनुबंध करने और जब चाहे इस अनुबंध को रद्द करने की छूट दी गई है । कुछ लोगों का मत है कि बीमा कंपनियां व्यक्ति पर यह शर्त लागू कर सकती हैं कि उसे ऐसे अनुबंध पर हस्ताक्षर करने ही होंगे। तो इस नई टेक्नॉलॉजी पर बहस चलना लाज़मी है।
क्या है सर्जरी का सही समय ?
  क्या आप जानते हैं कि सर्जरी का समय भी आपके स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव डालता सकता है ।
  ह्दय वाल्व का प्रतिस्थापन करवा चुके ६०० रोगियों के अध्ययन में देखा गया है कि सुबह के समय सर्जरी किए गए रोगियों की तुलना में दोपहर के समय में सर्जरी किए गए रोगी अधिक स्वस्थ रहे । साथ ही सर्जरी के ५०० दिन बाद भी दोपहर में सर्जरी किए गए रोगियों में मायोकार्डियल इंफार्क्शन (यानी ह्दय की मांसपेशियों की नाकामी) ह्दय की धड़कन रुकना, या मृत्यु का जोखिम अन्य की तुलना में ५० प्रतिशत कम पाया गया ।  ८८ अन्य मरीज़ों के  अध्ययन में भी यही बात सामने आई है कि दोपहर में सर्जरी के परिणाम बेहतर होते हैं।  
    इस अध्ययन के प्रमुख लिले-फ्रांस  विश्वविघालय के प्रोफेसर डेविड मोंटेन बताते हैं कि सर्जरी का समय बदलकर ह्दय की क्षति या मृत्यु दर में कमी लाई जा सकती है । 
विज्ञान हमारे आसपास
पृथ्वी और अंतरिक्ष में जीवन 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन  

फ्रांसीसी लेखक जूल्स वर्न का १८७३ का उपन्यास अस्सी दिनों में पूरे विश्व का चक्कर काफी प्रसिद्ध हुआ था । लेकिन तब यह एक चुनौती थी । 
आज लगभग डेढ़ सदी बाद कोई भी हवाई जहाज़ पर सवार होकर पूरे विश्व का चक्कर अस्सी घंटों में लगा सकता है । और आज हम आधी दुनिया यानी भारत से कैलिफोर्निया का सफर मात्र २० घंटों में पूरा कर सकते हैं। बेशक यह हमारी शरीर घड़ी को गड़बड़ा देता है । यहां जब दिन होता है उस समय वहां रात होती है। इसलिए हमारी दैनिक लय के समायोजन में एक-दो दिन लग जाते हैं। इस तरह की दैनिक लय की जैविक क्रियाविधि (न केवल लोगों में बल्कि पौधों में भी) को पहचाना गया है और इस साल का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को इसी जैविक घड़ी के खुलासे के लिए दिया गया है ।
मुझे चांद पर ले चलो, मुझे सितारों के बीच खेलने दो, मुझे देखने दो कि मंगल और बृहस्पति पर वसंत कैसा होता है , यह गाना फ्रैंक सिनात्रा ने ६० वर्षों पहले गाया था । वर्न की उक्त चुनौती पृथ्वी से आगे बढ़कर आकाश और सितारों तक चली गई है । और ऐसा लगता है कि जल्द ही यह संभव हो जाएगा कि कोई भी व्यक्ति अंतरिक्ष यात्री बन सकेगा । 
ऐसी कंपनियां अस्तित्व में आ चुकी हैं जो लोगों को अंतरिक्ष यात्रा की पेशकश कर रही हैं। और जब ऐसी यात्राएं आम बात हो जाएगी, तब सजीवों में क्या-क्या व किस तरह के जैविक परिवर्तन होंगे, कैसे वे बदले हुए पर्यावरण के अनुकूल हो जाएंगे, और पृथ्वी पर लौटते ही मूल अवस्था में लौट आएंगे ? ये ऐसे मुद्दे हैंजिन पर आज सक्रिय रूप से अध्ययन किए जा रहे हैं ।  
इस सम्बंध में दो तरह के प्रोजेक्ट चल रहे हैं। एक तरह के प्रोजेक्ट्स में लोगों को अंतरिक्ष में अधिक समय (महीनों या वर्षों) तक रखा जाता है और उन पर अंतरिक्ष में और फिर धरती पर लौटने के बाद अध्ययन किए जाते हैं। इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) सन १९९८ में पृथ्वी से ४०८ कि.मी. की ऊंचाई पर स्थापित किया गया था । इसमें रहने वालों को शून्य गुरुत्वाकर्षण का अनुभव होता है। यहां अध्ययन का प्रमुख विषय है कि उनके शरीर, अंगों, रक्त प्रवाह और अन्य जैविक लक्षणों में क्या परिवर्तन आते हैं । 
अन्य किस्म के प्रोजेक्टस में कोशिकाओं (बैक्टीरिया जैसे एक-कोशिकीय जीवों) को अंतरिक्ष में भेजा जाता है और वहां उनके गुणों का अध्ययन किया जाता है और उनकी तुलना पृथ्वी पर रखे तुलनात्मक समूह से की जाती है। यह शाखा अब अंतरिक्ष सूक्ष्मजीव विज्ञान कहलाती  है । कोशिकाओं के अध्ययन हमें बताते हैं कि आणविक स्तर पर क्या घटित हो रहा है । इसके आधार पर विस्तार देकर ऊतकों, अंगों और पूरे जीव की स्थिति को समझने में काफी मदद मिलेगी ।
अंतरिक्ष सूक्ष्मजीव विज्ञान पर नवीनतम रिपोर्ट यू.एस. स्थित कोलेराडो विश्वविद्यालय के डॉ. लुइस ज़ी और उनके समूह द्वारा प्रस्तुत की गई है । उन्होंने बैक्टीरिया ई.कोली का एक सेट सैम्पल के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भेजा और वहां एक अंतरिक्ष यात्री ने उस सैम्पल के आकार, आकृति, घातक दवा जेन्टामाइसिन के प्रति प्रतिक्रिया और अन्य गुणों का अध्ययन  किया । इसके साथ ही पृथ्वी पर ई. कोली के एक तुलनात्मक सेट का अध्ययन किया गया और इन दोनों के गुणों की तुलना की गई। इस तरह की तुलना कोशिका के विभिन्न पहलुओं पर गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव पर प्रकाश डालेगी ।
यह तुलना काफी जानकारीप्रद है । पहली अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में कोशिका में बदलाव देखे गए - उनकी आकृति, आकार में कमी आई, कोशिका भित्ती मोटी हो गई, और एक फिल्म (बायोफिल्म) से ढंक गई  थी । उनकी बाहरी झिल्लियों पर गोलाकार कलिकाएं पृथ्वी पर स्थित सेट की तुलना में ज्यादा बनी थीं । ये कलिकाएं बाह्य  झिल्ली पुटिका कहलाती हैं, और बैक्टीरिया को तनाव की स्थिति में जीने में सहारा देती हैं । अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में रखे गए ई. कोली पृथ्वी की अपेक्षा ज़्याद दवा प्रतिरोधी पाए   गए । 
ऐसा लगता है कि गुरुत्वाकर्षण, जो तरल पदार्थों के नीचे की तरफ के बहाव में मदद करती है, उसकी अनुपस्थिति में तरल के बहाव का प्रमुख तरीका विसरण का होता है, जो कम कार्यक्षम है ।
इस अध्ययन से दो बिन्दु और उभर कर आए हैं । पहला, कि पृथ्वी से दूर अंतरिक्ष यात्रियों को संक्रमण का खतरा ज्यादा हो सकता है (या यों कहें कि उन्हें दवा की अधिक खुराक लेनी होगी)। और दूसरा, अंतरिक्ष यात्रियों की आंतों में रहने वाले रोगाणु जो उनके चयापचय में मदद करते हैं,हो सकता है कि वे कम कार्यक्षम हो जाएं । इन संभावनाओं का पता लगाने के लिए और प्रयोगों की आवश्यकता है ।
अब अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर पृथ्वी का चक्कर लगाने वाले मनुष्यों की बात करते हैं। प्रयोगों से पता चला है कि उनके  रक्त का चिपचिपापन बढ़ता है, रक्त का संचार घट जाता है और ह्दय रक्त संचार तंत्र सुस्त या थोड़ा धीमा हो जाता है। आंख के गोले थोड़े अंडाकार हो जाते हैं, हडि्डयां पतली हो जाती हैं और यकृत जैसे अंग अपनी जगह से थोड़ा खिसक जाते हैं । ऐसा कहा गया है कि यह सब गुरुत्वाकर्षण की अनुपस्थिति के कारण होता है । 
जब हम मानवयुक्त जहाज़ अन्य ग्रहों पर भेजेंगे तब ये परिणाम महत्वपूर्ण साबित होंगे । जब वे इस तरह की अंतरिक्ष यात्रा से पृथ्वी पर लौटते हैं, तो क्या वे वापिस अपनी पुरानी स्थिति हासिल कर लेते हैं ? इसका जवाब है हां । अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में लंबा समय बिताने के बाद जो अंतरिक्ष यात्री यात्रा से घर लौटे हैं वे वक्त के साथ ठीक हो गए हैं। यह सुखद बात है । याद कीजिए, लंबा समय अंतरिक्ष में बिताने के बाद अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स पृथ्वी पर लौटकर एक मैराथन में शामिल हुई थी ।
अंतरिक्ष यात्रियों के जैव रसायन, कोशिकीय जीवविज्ञान और जीनोम जीवविज्ञान का क्या होता    है ? क्या वे अपने पृथ्वी पर रहने वाले साथियों से अलग हैं ? जैसे ही समान जुड़वां पर चल रहे रोमांचक अध्ययन पूरे होंगे इसका जवाब पता लग जाएगा । स्कॉट केली अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के निवासी हैं और इनके जुड़वां भाई मार्क केली (एक रिटार्यड आफीसर) पृथ्वी पर रह रहे हैं । शोधकर्ताओं ने स्कॉट केली के अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर ३४० दिन के लिए रवाना होने से पहले और मिशन के दौरान और वहां से लौटने के बाद इन दोनों जुड़वां भाइयों के शारीरिक सैम्पल ले लिए हैं।  क्या कोई स्पेस जीन है जो अंतरिक्ष में चालू रहता है और पृथ्वी पर लौटते ही चुप हो जाता है ? अध्ययन जारी है और हमें इस अध्ययन के रोमांचक परिणामों का इंतज़ार है । 
सामाजिक पर्यावरण
जलवायु संकट का भारतीय दर्शन में समाधान
लाल बहादुर पुष्कर

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उप-उत्पाद के रूप में जन्मी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है । 
जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते है जहाँ प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था । 
  पानी और प्रेम को खरीदा नहीं जा सकता` जैसे कहावत अब हमारे शब्दकोश से शायद जल्द ही विलुप्त होने वाली है । जब हम किताबों में पढ़ते थे कि `रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून` जहाँ इस उक्ति में पानी इज्जत और मान मर्यादा का प्रतीक बन पड़ा है, वही आज के इस पर्यावरणीय संकट में पानी के शाब्दिक अर्थ को ही बचा पाए तो हम रहीम के दोहे के साथ न्याय कर पाएंगे । यह तो केवल एक बानगी है जलवायु परिवर्तन से हो रहे प्रकृति के विनाश के प्रति चिंता की । 
भारतीय परम्परा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व मिलता है । पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है । बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया । पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति  में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता  था । 
सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं ।  
साथ ही यह सरोकार दर्शाता है कि हमारा भारतीय समाज हजारों सालों से वन, नदी, वायु, सूर्य, आदि की पूजा करता आया है, और जिसकी पूजा की जाती है वह दोहन या शोषण के लिए नहीं होती । जिस प्रकार राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का तैंतीस प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठ ीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे । उपनिषदों में लिखा गया है कि... `हे अश्वरूप धारी परमात्मा ! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाडियां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं । 
दरअसल, यह भारत की सांस्कृतिक शिक्षा थी जो कुछ अलग माध्यम से समाज को सिखाई व पढ़ाई जाती   थी । इसी संदर्भ में पानी की महत्ता इसी तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि भारत की प्राचीन सभ्यता का विकास भी सिन्धु नदी के किनारे ही हुआ है । अपने प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना तभी तर्कसंगत कहा जा सकता है, जब हम उनसे उपजे मूल्यों को भी अपने जीवन का हिस्सा बनाये । यहाँ पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पर्यावरण को लेकर भारत की इतनी समृद्ध और परिपक्व सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद आज हम भारतीयों में, लोगों में पर्यावरण को लेकर लापरवाही और जागरूकता की कमी क्यों है ? 
यह अक्सर कहा जाता है कि दृष्टिकोण बदलने से व्यवहार बदल जाता है। आज हम जितने भी पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहे हैंउसके पीछे प्रकृति को लेकर लोगों में आये दृष्टिकोण परिवर्तन काफी हद तक जिम्मेदार है। पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर वर्तमान हालात नहीं बदले गए तो दुनिया का तापमान चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है और अगर यह हो गया तो फिर जो बर्फ का पिघलाव होगा वह अनेक देशों को समुद्र के पानी में डुबा देगा । इसके साथ ही भारत के तटीय राज्यों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह एवं लक्ष्यद्वीप तथा यूरोप के  ठ ंडे देश इतने गर्म हो सकते हैं किवहां की आबादी के लिए खतरनाक साबित   हों । 
इन सबके बरक्स एक ऐसा भी समय था जब मनुष्य प्रकृति से सान्निध्य रखता था और प्रकृति के अस्तित्व के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ता था और प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखता था । लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उप-उत्पाद के रूप में जन्मी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है । जाहिर सी बात है इस उपभोग की संस्कृति का स्वाभाविक शिकार प्रकृति ही होगी, क्योंकि आधुनिक पूंजीवाद की नींव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर टिकी हुई है । 
ज्ञातव्य है कि जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत की समस्या से लिए लिए वैश्विक रूप से जो उपाय किये जा रहे हैंउसे तो हम सामूहिक रूप से अपनाये ही साथ ही उनमें से भी जो उपाय हमारे समुदाय और संस्कृति के अनुकूल हो उसे भी बढ़ावा दे क्योंकि यह समस्या वैश्विक भले है लेकिन इसे स्थानीय पहल का हिस्सा बनाना भी आवश्यक है ।
इसी सन्दर्भ में यदि हम जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते है जहाँ प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था । इसके लिए महात्मा गाँधी का दर्शन, महात्मा बुद्ध एवं जैन दर्शन की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार देश और विदेश ने व्यापक स्तर पर करना होगा । गाँधी सादा जीवन उच्च् विचार की बात करते हैं । गाँधी का यह दर्शन हमारी उपभोग की संस्कृति को सीमित करने का संदेश देती है।  ज्ञातव्य है कि उपभोग की संस्कृति ने ही प्रकृति को बड़ी निदर्यता से दोहन को बढ़ावा दिया है, जिसने जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक समस्याओं को जन्म दिया है । 
गांधीजी ने कहा था कि प्रकृति के पास दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के लिए सब कुछ है, पर वह किसी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती । गाँधी के बताए हुए ग्रामीण और कुटीर उद्योग, जिसे लोहिया जी ने छोटी इकाई तकनीक और छोटी मशीन के रूप में प्रस्तुत किया था, को अमल में लाया जाए तो करोड़ों लोगों को रोजगार के लिए अपने घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा । साथ ही बड़े-बड़े मशीनों और उद्योगों से होने वाला प्रदूषण भी नहीं होगा जो कि सतत विकास की अवधारणा को बल प्रदान करेगा ।
पृथ्वी की रक्षा के लिये पर्यावरणीय प्रदूषण, अन्याय और अशुचिता के खिलाफ असहिष्णुता होना जरूरी है । भारतीय दर्शन, जीवन शैली, परंपराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का विज्ञान छुपा है। आवश्यकता दुनिया के सामने इसकी व्याख्या करने की है । जब तक हम भारतीय दर्शन के अनुरूप जीवन शैली नहीं अपनायेंगे तब तक ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान नहीं मिलेगा । इसलिये प्रकृति की रक्षा करने वाली परंपराओं और संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। विश्व के सामने आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन दो बड़ी चुनौतियाँ हैं । 
आतंकवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य पर हमला है जबकि जलवायु परिवर्तन मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किया गया हमला है । विडम्बना यह है कि इसका कृत्रिम समाधान ढूँढा जा रहा है । विदित हो कि पर्यावरण को लेकर भारतीय ज्ञान पूरी तरह वैज्ञानिक  है । हमें लालच छोड़ने, पृथ्वी को नष्ट नहीं होने देने और आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करने का संकल्प लेने से ही ग्लोबल वार्मिंग का समाधान मिलेगा । वेदों में प्रार्थना है कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों । ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब इनका संरक्षण हो । 
कविता
परोपकारी पेड़ 
सतीश श्रोत्रिय

अपनी टहनी को
अपने से कटते हुए
देख रह जाता है असहाय पेड़
बेरहम इंसान
पेड़ की टहनी को काटकर
उसके प्रति करता नहीं
कृतज्ञता ज्ञापित 
होता नहींश्रद्धानवत 
बेघारा पेड़ कराहकर 
खून के घूंट पीकर
केवल सोचने लगता है 
समर्थ इंसान से इससे बढ़कर 
और कोई उम्मीद
की भी तो नहीं की जा सकती
कुछ दिन बाद
वह पेड़ परोपकारी
अपनी कटी हुई जगह पर
हो जाता है पुन: अंकुरित
नई टहनी के रूप में
कृतघ्र इंसान से 
पुन: कटने के लिए 
पराकाष्टा है 
परोपकार की, इंसान के प्रति
परोपकारी पेड़ की