विशेष लेख
पर्यावरणीय-सामाजिक मानकों पर निगरानी जरूरी
केशिना होर्टा
परियोजनाआंे में विस्थापन के दौरान जो खतरे पैदा होते है, उन्हें पहले से पहचान कर समाधान के समुचित प्रयास जरूरी है। प्रभावित लोगों से चर्चाएं की जानी चाहिये, जिससे उनका विश्वास तथा भागीदारी बढ़े । अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने अनुदान की शर्तेमें पर्यावरणीय तथा सामाजिकता के जो मानक दर्शाये है, उन पर अमल तथा निगरानी सख्ती से होना जरूरी है ।
हाल ही में जो नई रुपरेखा तैयार की है उसमें विस्थापन तथा विस्थापित लोगों के प्रभावहीन होने के खतरों पर सबसे ज्यादा फोकस किया है ।
समाजशास्त्री के रूप में माइकल केरनिया पहली बार १९४७ में विश्व बैंक के सदस्य बने । सदस्य के रूप में उनका विश्व बैंक में कार्यकाल काफी लम्बा रहा । इस दौरान उन्होंने समाज के कमजोर एवं वंचित वर्गों के लोगों के अधिकार, समस्याएं एवं होने वाले खतरोंके लिए कई प्रकार के लिए कार्य किये एवं अनेक योजनाओं का निर्माण किया । विश्व बैंक के भीतर और बाहर किये गये कार्यों पर केरनिया को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई । उन्होंने बताया कि विश्व बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा जो सहायता विश्वभर के देशों को प्रदान की जाती है उसके कई खतरे भी है या वे खतरे पैदा करती है ।
बड़े बांध एवं जल विद्युत परियोजनाओं के लिए प्रदान की गई सहायता से बड़ी संख्या में लोगों के विस्थापन तथा पुनर्वास का खतरा हमेशा बना रहता है। आर्थिक व राजनैतिक रूप से सशक्त न होने के कारण ये प्रभावहीन हो जाते हंै यानी इनकी आवाज पर कोई ध्यान नहीं देता है । माइकल का मत है कि विकास या तरक्की के लिए जो सरकारी मुआवजा प्रदान किया जाता है, उसका आधार केवल आर्थिक न होकर समाज विज्ञान से भी जुड़ा होना चाहिये । माइकल ने एक बहुत ही शानदार पुस्तक ``पुटिंग पीपुल्स फर्स्ट`` (१९८५-९५) का सम्पादन कर इसे इतना उपयोगी बना दिया कि इसका अनुवाद कई भाषाओं में किया गया । जन भागीदारी से विकास करने वालों एवं समझने वालों के लिए यह पुस्तक एक उत्कृष्ट गं्रथ मानी जा सकती है ।
विश्व बैंक से सेवानिवृत्ति के बाद भी माइकल ने वंचित वर्ग के लोगों को समस्याओं एवं सम्भावित खतरों पर कई आलेख लिखे, जो फाफी पसंद किये गये ।
विश्व बैंक ने १९८० के आसपास उनके द्वारा तैयार की गई नीति का प्रकाशन किया । जिनमें दिये गये दिशा-निर्देशों का कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने विकास से जुड़े कार्यों या परियोजनाओं में पालन किया । इस नीति में प्रमुख रूप से इस बात पर जोर दिया गया कि विकास कार्यों के दौरान विस्थापन की समस्या को न्यूनतम किया जाए । साथ ही कमजोर वर्गों के लोगों पर विस्थापन का दबाव भी नहीं बनाया जाना चाहिये क्योंकि इससे उनके जीवन में कई नकारात्मक प्रभाव पैदा होते हैं, जो समाज व्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं ।
हमेशा वंचित वर्ग के व्यक्ति ही विकास की कीमत चुकाए यह जरूरी नहीं होना चाहिये । विश्व बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह वंचित वर्गांे के लोगों पर पैदा होने वाले खतरों को कम करने के प्रयासों को ईमानदारी से पूर्ण करवाने में अपने दायित्व का निर्वहन करें एवं इसे स्थानीय शासन या प्रशासन के भरोसे नहीं छोड़ा जाए ।
माइकल केरनिया ने विकास योजनाओं से जुड़ा एक मॉडल भी तैयार किया, जिसे अंग्रेजी में आय । आर । आर । प्लानिंग मॉडल कहा गया । आय । आर । आर । का तात्पर्य है वंचित वर्गोंा में गरीबी के खतरों को कम करना । यह मॉडल विस्थापित लोगों के व्यवस्थित पुनर्वास पर काफी जोर देता है । जल विद्युत परियोजनाओं पर चीन में आयोजित एक सम्मेलन में इस मॉडल को पहली बार सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया गया ।
इसमें आठ बुनियादी और बार-बार आने वाले खतरों को पहचान कर समझाया गया है कि जो ज्यादातर बलपूर्वक विस्थापन कार्यों से पैदा होते हैं। इन खतरों में भूमि विहीनता, रोजगार समाप्ति, आवासहीनता, प्रभावहीनता, खाद्य असुरक्षा, संयुक्त सम्पति, संसाधनांे से आय में कमी, स्वास्थ्य में गिरावट तथा समुदायों का विभाजन । इन सभी खतरों को न्यूनतम करना आवश्यक है परंतु निराशाजनक बात यह है कि इन खतरों में कमी के प्रयास कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाआंे द्वारा भी नहीं किये जाते हैं । इन खतरों में कमी के लिए केवल खतरा बीमा देने की बात होती है। परंतु उसके नियम भी ज्यादा स्पष्ट नहीं होते हैं ।
वाशिंगटन में विश्व बैंकतथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुछ वर्षों पूर्व आयोजित बैठक में यह तथ्य उभरकर आया कि कई वित्तीय संस्थाएं ऐसे खतरों को कम करने पर ध्यान तो देती है परंतु इसका केन्द्र `निवेशक` होता है, स्थानीय वंचित वर्ग नहीं । कई बड़ी परियोजनाओं में गरीब तथा वंचित वर्गो के खतरों को शामिल ही नहीं किया जाता है । इसका मतलब यही हुआ कि माइकल केरनिया के सुझावों को अमल लाया ही नहीं जाता ।
कई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं संयुक्त तथा टिकाऊ विकास के लिए जो प्रतिबद्धता दिखाती है, वर्तमान समय में इस प्रतिबद्धता को सचमुच दिखाने की जरूरत है। विभिन्न परियोजनाआंे में विस्थापन के दौरान जो खतरे पैदा होते हैं, उन्हें पहले से पहचानकर समाधान के समुचित प्रयास जरूरी है। प्रभावित लोगों से चर्चाएं की जानी चाहिये, जिससे उनका विश्वास तथा भागीदारी बढ़े । अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने अनुदान की शर्तोंामें पर्यावरणीय तथा सामाजिकता के जो मानक दर्शाये हैंं, उन पर अमल तथा निगरानी सख्ती से होना जरूरी है।
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