सोमवार, 18 दिसंबर 2017

सामाजिक पर्यावरण
जलवायु संकट का भारतीय दर्शन में समाधान
लाल बहादुर पुष्कर

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उप-उत्पाद के रूप में जन्मी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है । 
जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते है जहाँ प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था । 
  पानी और प्रेम को खरीदा नहीं जा सकता` जैसे कहावत अब हमारे शब्दकोश से शायद जल्द ही विलुप्त होने वाली है । जब हम किताबों में पढ़ते थे कि `रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून` जहाँ इस उक्ति में पानी इज्जत और मान मर्यादा का प्रतीक बन पड़ा है, वही आज के इस पर्यावरणीय संकट में पानी के शाब्दिक अर्थ को ही बचा पाए तो हम रहीम के दोहे के साथ न्याय कर पाएंगे । यह तो केवल एक बानगी है जलवायु परिवर्तन से हो रहे प्रकृति के विनाश के प्रति चिंता की । 
भारतीय परम्परा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व मिलता है । पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है । बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया । पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति  में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता  था । 
सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं ।  
साथ ही यह सरोकार दर्शाता है कि हमारा भारतीय समाज हजारों सालों से वन, नदी, वायु, सूर्य, आदि की पूजा करता आया है, और जिसकी पूजा की जाती है वह दोहन या शोषण के लिए नहीं होती । जिस प्रकार राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का तैंतीस प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठ ीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे । उपनिषदों में लिखा गया है कि... `हे अश्वरूप धारी परमात्मा ! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाडियां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं । 
दरअसल, यह भारत की सांस्कृतिक शिक्षा थी जो कुछ अलग माध्यम से समाज को सिखाई व पढ़ाई जाती   थी । इसी संदर्भ में पानी की महत्ता इसी तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि भारत की प्राचीन सभ्यता का विकास भी सिन्धु नदी के किनारे ही हुआ है । अपने प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना तभी तर्कसंगत कहा जा सकता है, जब हम उनसे उपजे मूल्यों को भी अपने जीवन का हिस्सा बनाये । यहाँ पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पर्यावरण को लेकर भारत की इतनी समृद्ध और परिपक्व सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद आज हम भारतीयों में, लोगों में पर्यावरण को लेकर लापरवाही और जागरूकता की कमी क्यों है ? 
यह अक्सर कहा जाता है कि दृष्टिकोण बदलने से व्यवहार बदल जाता है। आज हम जितने भी पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहे हैंउसके पीछे प्रकृति को लेकर लोगों में आये दृष्टिकोण परिवर्तन काफी हद तक जिम्मेदार है। पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर वर्तमान हालात नहीं बदले गए तो दुनिया का तापमान चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है और अगर यह हो गया तो फिर जो बर्फ का पिघलाव होगा वह अनेक देशों को समुद्र के पानी में डुबा देगा । इसके साथ ही भारत के तटीय राज्यों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह एवं लक्ष्यद्वीप तथा यूरोप के  ठ ंडे देश इतने गर्म हो सकते हैं किवहां की आबादी के लिए खतरनाक साबित   हों । 
इन सबके बरक्स एक ऐसा भी समय था जब मनुष्य प्रकृति से सान्निध्य रखता था और प्रकृति के अस्तित्व के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ता था और प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखता था । लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उप-उत्पाद के रूप में जन्मी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है । जाहिर सी बात है इस उपभोग की संस्कृति का स्वाभाविक शिकार प्रकृति ही होगी, क्योंकि आधुनिक पूंजीवाद की नींव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर टिकी हुई है । 
ज्ञातव्य है कि जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत की समस्या से लिए लिए वैश्विक रूप से जो उपाय किये जा रहे हैंउसे तो हम सामूहिक रूप से अपनाये ही साथ ही उनमें से भी जो उपाय हमारे समुदाय और संस्कृति के अनुकूल हो उसे भी बढ़ावा दे क्योंकि यह समस्या वैश्विक भले है लेकिन इसे स्थानीय पहल का हिस्सा बनाना भी आवश्यक है ।
इसी सन्दर्भ में यदि हम जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते है जहाँ प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था । इसके लिए महात्मा गाँधी का दर्शन, महात्मा बुद्ध एवं जैन दर्शन की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार देश और विदेश ने व्यापक स्तर पर करना होगा । गाँधी सादा जीवन उच्च् विचार की बात करते हैं । गाँधी का यह दर्शन हमारी उपभोग की संस्कृति को सीमित करने का संदेश देती है।  ज्ञातव्य है कि उपभोग की संस्कृति ने ही प्रकृति को बड़ी निदर्यता से दोहन को बढ़ावा दिया है, जिसने जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक समस्याओं को जन्म दिया है । 
गांधीजी ने कहा था कि प्रकृति के पास दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के लिए सब कुछ है, पर वह किसी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती । गाँधी के बताए हुए ग्रामीण और कुटीर उद्योग, जिसे लोहिया जी ने छोटी इकाई तकनीक और छोटी मशीन के रूप में प्रस्तुत किया था, को अमल में लाया जाए तो करोड़ों लोगों को रोजगार के लिए अपने घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा । साथ ही बड़े-बड़े मशीनों और उद्योगों से होने वाला प्रदूषण भी नहीं होगा जो कि सतत विकास की अवधारणा को बल प्रदान करेगा ।
पृथ्वी की रक्षा के लिये पर्यावरणीय प्रदूषण, अन्याय और अशुचिता के खिलाफ असहिष्णुता होना जरूरी है । भारतीय दर्शन, जीवन शैली, परंपराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का विज्ञान छुपा है। आवश्यकता दुनिया के सामने इसकी व्याख्या करने की है । जब तक हम भारतीय दर्शन के अनुरूप जीवन शैली नहीं अपनायेंगे तब तक ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान नहीं मिलेगा । इसलिये प्रकृति की रक्षा करने वाली परंपराओं और संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। विश्व के सामने आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन दो बड़ी चुनौतियाँ हैं । 
आतंकवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य पर हमला है जबकि जलवायु परिवर्तन मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किया गया हमला है । विडम्बना यह है कि इसका कृत्रिम समाधान ढूँढा जा रहा है । विदित हो कि पर्यावरण को लेकर भारतीय ज्ञान पूरी तरह वैज्ञानिक  है । हमें लालच छोड़ने, पृथ्वी को नष्ट नहीं होने देने और आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करने का संकल्प लेने से ही ग्लोबल वार्मिंग का समाधान मिलेगा । वेदों में प्रार्थना है कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों । ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब इनका संरक्षण हो । 

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