सोमवार, 18 दिसंबर 2017

कविता
परोपकारी पेड़ 
सतीश श्रोत्रिय

अपनी टहनी को
अपने से कटते हुए
देख रह जाता है असहाय पेड़
बेरहम इंसान
पेड़ की टहनी को काटकर
उसके प्रति करता नहीं
कृतज्ञता ज्ञापित 
होता नहींश्रद्धानवत 
बेघारा पेड़ कराहकर 
खून के घूंट पीकर
केवल सोचने लगता है 
समर्थ इंसान से इससे बढ़कर 
और कोई उम्मीद
की भी तो नहीं की जा सकती
कुछ दिन बाद
वह पेड़ परोपकारी
अपनी कटी हुई जगह पर
हो जाता है पुन: अंकुरित
नई टहनी के रूप में
कृतघ्र इंसान से 
पुन: कटने के लिए 
पराकाष्टा है 
परोपकार की, इंसान के प्रति
परोपकारी पेड़ की 

कोई टिप्पणी नहीं: