बुधवार, 18 सितंबर 2019

कविता
फूल और कली
उदय प्रताप सिंह
फूल से बोली कली क्योंव्यस्त मूरझाने में है 
फायदा क्या गंध औ मकरद बिखराने में है ।
तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी 
अपनी मनमोहक पंखुरियो की छटा क्यों खोल दी ।।

तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला,
किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला ।
मुझको देखो मेरी सब खुशबू मुझ ही में बंद है 
मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है ।।

मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फंसती नहीं
मैं किसी को देखकर रोती नहीं हँसती नहीं
मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं
मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं ।।

मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही,
मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं ।
ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए
स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए ।।

फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा,
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा ।
जिंदगी सिद्धांत की सीमाआें में बँटती नहीं 
ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं ।।

यदि संजोने का मजा कुछ हैतो बिखराने में है
जिन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है ।
दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी
शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी ।। 

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