ग्लोबल वार्मिग
जलवायु परिवर्तन से निपटने की अधूरी तैयारी
सुरेश भाई
मौसम परिवर्तन पर सभा, सम्मेलनों, सेमीनारों की कवायदों के बाद अब वक्त आ गया है जब एक वैश्विक नागरिक की हैसियत से हम उसके दुष्:प्रभावों से निपटने की तैयारी करें, लेकिन इसकी बजाए ठीक इसके विपरीत, हम अपनी-अपनी सीमित जरूरतों की खातिर निजी से लगाकर राष्ट्रीय दर्जे तक के हित साधने में लगे हैं। जाहिर है, आज की वैश्विक राजनीति भी इसी के लिहाज से उठ -गिर रही है।
पांच जून १९७२ को ब्राजील की राजधानी रियो-डी-जेनेरियो में हुये पहले 'पृथ्वी सम्मेलन` (अर्थ-समीट) में पर्यावरण सुरक्षा की चिन्ताओं और औद्योगीकरण की वजह से बढ़ते कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों पर दुनिया को अगाह किया गया था। तब से ५ जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस` के रूप में मनाया जाता है। यही बात जब आगे बढ़ी तो १९७८ में 'संयुक्त राष्ट्र संघ` ने 'अन्तर-सरकारी पैनल` (आईपीसीसी) का गठन करके सन १९९२ में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट में कहा गया था कि बढ़ते तापमान के कारण मौसम व जलवायु परिवर्तन का प्रभाव ओजोन परत पर पड़ रहा है।
ओजोन गैस की परत पृथ्वी से १९ से ४८ किलोमीटर ऊपर १२ से ३० मीटर मोटा एक वायुमंडलीय क्षेत्र है। कहा जाता है कि १९७० से इस परत में एक छेद बढ़ रहा है। भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने दिसम्बर १९९६ में किये गये विश्लेषणों के जरिए इसकी पुष्टि करते हुए बताया था कि अंटार्कटिका के उपर ओजोन परत पर एक बड़ा छेद हो चुका है।
दुनिया के पर्यावरण पर मंडराते इस गम्भीर खतरे को लेकर मार्च १९८५ में २० देशों के लोगों ने वियेना में सम्मेलन करके ओजोन परत के संरक्षण संबंधी संधि पर हस्ताक्षर किये थे। इसके बाद १९७७ में इसी विषय पर ३६ देशों ने हस्ताक्षर किये। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी १९९५ में १६ सितम्बर का दिन 'ओजोन दिवस` के रूप में मनाने का निर्णय किया था। वर्ष १९९२ में फिर से रियो-डी-जेनेरियो में हुये 'पृथ्वी सम्मेलन` में 'ग्रीनहाउस गैस` क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) को वर्ष २००५ तक पूरी तरह समाप्त करने पर सहमति बनी थी। 'सीएफसी` का उत्सर्जन वायुमंडल में तापक्रम बढ़ाता है।
इसके प्रभाव में कुछ समय तक अधिकांश विकसित देशों ने 'सीएफसी` का इस्तेमाल करना बंद कर दिया । विकासशील देशों ने वर्ष २०१० तक तथा विकसित देशों ने वर्ष २०१६ तक 'सीएफसी` को पूर्णत : प्रतिबंधित करके इसके विकल्प के तौर पर 'हाइड्रोफ्लोरो कार्बन` (एचएफसी) के प्रयोग का तय किया था।
इन प्रयासोंके बावजूद जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया पर कोई कारगर नियंत्रण नहीं लग पाया । अलबत्ता, इसको लेकर वैश्विक जलवायु बै कों का सिलसिला बढ़ता ही गया। दिसम्बर ११, १९९७ को 'जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र परिषद` (यूएनएफसीसी) की तीसरी कड़ी में जापान के क्योटो शहर में 'क्योटो प्रोटोकोल` के मसौदे के तहत एक संधि पर हस्ताक्षर हुये ।
यह संधि अमेरीका, आस्ट्रेलिया और यूरोपियन यूनियन के कुछ देशों के बीच लंबे वाद-विवाद के बाद १६ फरवरी २००५ को अस्तित्व में आयी। इस संधि में कहा गया कि 'ग्रीनहाउस गैसों` के उत्सर्जन की दर घटाकर १९९५ के स्तर से ५ प्रतिशत नीचे लाई जाएगी।
इसी बीच सितम्बर २००२ में दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में भी २०० राष्ट्रों के करीब ६० हजार प्रतिनिधियों ने १९९२ केरियो सम्मेलन में लिये गये निर्णयों की प्रगति की समीक्षा की । इसी के चलते फरवरी २००७ में पेरिस और मई २००७ में बैंकाक में हुये जलवायु सम्मेलनों में 'आइपीसीसी` ने रिपोर्ट जारी की । इस रिपोर्ट में कहा गया कि १९७० के बाद ग्रीनहाउस गैसों में ७० फीसद की बढ़ोतरी हुयी है। जाहिर है, रियो के पहले 'पृथ्वी सम्मेलन` के२ वर्ष पूर्व से ही जलवायु परिवर्तन पर चर्चा शुरू हो गई थी।
'आईपीसीसी` की रिपोर्ट में कहा गया था कि पर्यावरण के अनुकूल नई टेक्नोलॉजी तथा वैज्ञानिक तरीके अपनाये जाने चाहिये । रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिये हमारे पास पर्याप्त धन, समय, तकनीक और संसाधन उपलब्ध हैं, लेकिन ये तभी कारगर होंगे जब वैश्विक सहयोग व समझ से प्रभावी कार्य-नीति लागू हो। इस सलाह को एकजुट होकर दुनिया के राष्ट्र तब ही मान लेते तो आज तक जलवायु परिवर्तन को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता था । लेकिन इसकी बजाए दिसम्बर २००७ में बाली में १९३ देशों का एक और सम्मेलन आयोजित हुआ। इसका उदेश्य २००९ में कोपेनहेगन सम्मेलन के लिये रोड मैप तैयार करना था ।
सात से १८ दिसम्बर २००९ को कोपेनहेगन में जब यह सम्मेलन हुआ तो विकसित और विकासशील देशों के बीच में जलवायु परिवर्तन और विकास के विषय पर राजनीति भी खुलकर सामने आयी। अमीर, विकसित राष्ट्र चाहते थे कि कार्बन-डाई-आक्साइड गैस के उत्सर्जन में गरीब, विकासशील देश ही अधिक-से-अधिक कटौती करें । विकसित देशों ने इसके लिये एक-तरफा एजेंडा बनाने का प्रयास भी किया, लेकिन अन्त में निर्णय हुआ कि प्रत्येक देश स्वेच्छा से जहरीली गैसों के उत्सर्जन में २० से २५ प्रतिशत तक कमी करें ।
कोपेनहेगन सम्मेलन में जाने से पूर्व और बाद में विश्व के कई देशों ने अपने यहां 'जलवायु एक्शन प्लान` और 'जलवायु नीति` पर चर्चा की थी। भारत में भी २२ राज्यों ने अपना 'जलवायु एक्शन प्लान` वर्ष २०१२-१३ में केन्द्र के पास जमा कर दिया था, लेकिन इसकी सच्चई यह थी कि अधिकतर प्लान तैयार करने से पहले समुदायों के सुझाव लेने के लिये जो बैकें होनी थीं, उन्हें नजर-अंदाज कर संबधित विभागों ने अपनी राय के आधार पर ही 'जलवायु एक्शन प्लान` बनाकर पेश कर दिया था ।
नतीजे में तत्कालीन केन्द्र सरकार को उत्तराखंड समेत कई राज्यों को 'जलवायु एक्शन प्लान` दुबारा जमा करने के लिये कहना पडा । इसके वाबजूद सरकारी लापरवाही के चलते इसका क्रियान्वयन अधर में पड़ा रहा।
दिसम्बर २०१५ में पेरिस में १९५ देशों ने वैश्विक तापमान को २ डिग्री से काफी नीचे रखने की प्रतिबद्वता जताई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित राष्ट्रों के समक्ष जलवायु परिवर्तन से प्रभावित विकासशील देशों के वंचित समाज को न्याय दिलाने की मांग उठाई थी। उन्होने विकसित राष्ट्रों से २०२० तक प्रति वर्ष १०० अरब डॉलर उत्सर्जन में कटौती के बदले मांगे थे । अभी ६ अक्टूबर २०१८ को दक्षिण कोरिया के इंचेओ शहर में वैश्विक तापमान को २ की बजाए १.५ डिग्री तक रखने की पहल की गई है।
कोशिश है कि २०३० तक कार्बन-डाई-आक्साइड उत्सर्जन में ४५ प्रतिशत की कमी लाई जाए, तभी २०५० तक इसको शून्य किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि दुनिया का तापमान डेढ डिग्री तक बढ़ गया है, जो प्राकृतिक आपदाओं के लिये पर्याप्त है। जाहिर है, जलवायु सम्मेलनों के साथ-साथ पृथ्वी का तापमान भी १ डिग्री तक बढ़ा है। अब पोलैंड में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन है,लेकिन विकसित राष्ट्रों ने अंधाधुंध औद्योगीकरण के द्वारा जितना विनाश किया है, वे भविष्य में भी इस पर कटौती करने को तैयार नहीं हैं। वे विकासशील देशों को मदद के नाम पर हरियाली संरक्षण का पाठ पढ़ाते हैं, वे हरियाली बचाने वाले समाज की आजीविका व रोजगार के लिये फिलहाल कोई मदद देने को तैयार नहीं हैं।
ऐसे में जलवायु अनुकूलन के लिये हमें जल, जंगल, जमीन का संयमित नियोजन करना होगा ताकि आजीविका के संसाधन, जलस्त्रोत, वन प्रभावित न हों और आपदा प्रबंधन के साथ बाढ़ व भूस्खलन की संभावना कम-से-कम की जाय ।
जरूरी है कि कृषि भूमि का अधिग्रहण न्यूनतम हो और विस्थापन पर अकुंश लगाने के लिये नीतियों में बदलाव किया जाए । हमें धरती को ठण्डा रखने वाले किसानों की चिन्ता करनी होगी । चिन्ताजनक है कि 'जलवायु एक्शन प्लान` के रहते हरित निर्माण तकनीक हाशिए पर चली गई है, निर्माण कार्यों का मलबा सीधे नादियों, खेतों और बस्तियों में गिराया जा रहा है।
प्रयास हो कि सोलर एनर्जी, छोटी पन-बिजली परियोजनाएं, कुटीर उद्योग, हरित निर्माण, भूमि वितरण, ग्रामीण वस्त्रोद्योग आदि की स्थापना से रोजगार मिले। इसके लिये जरूरी है कि राज्यों द्वारा तैयार किए गए 'जलवायु एक्शन प्लान` पर एक 'राष्ट्रीय जलवायु नीति` बनायी जाय।
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