सोमवार, 18 मार्च 2019

सामयिक
संकटग्रस्त दुनिया को गांधीजी की जरूरत
भारत डोगरा
थोड़े ध्यान और धीरज से देखें तो दुनिया का मौजूदा संकट प्रकृति और प्राकृतिक  संसाधनों से लगातार बिगड़ते इंसानी रिश्तों और नतीजे में पनपती, बढ़ती हिंसा में देखा जा सकता है। दुनियाभर के विचारकों में गांधी अकेले हैं जो इन संकटों को देख-समझ पाते हैं और उनसे निपटने का रास्ता भी दिखाते हैं । 
महानता की एक बड़ी कसौटी यह है कि विश्व की बुनियादी समस्याओं के समाधान में किसी व्यक्ति के जीवन व विचारों की उपयोगिता कितनी देर तकबनी रहती है। इस दृष्टि से देखें तो महात्मा गांधी के विचार इक्कीसवीं शताब्दी के बड़े सवालों से जूझने के लिए आज भी बहुत प्रासंगिक नजर आ रहे हैं और विश्वस्तर पर उनकी चर्चा है।
महात्मा गांधी के अपने जीवनकाल में यह स्थिति व सोच सामने नहीं आई थी कि एक दिन धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं भी खतरे में पड़ सकती हैं । पर आज २१ वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में यह स्थिति ही विश्व की सबसे गंभीर चुनौती के रूप में सामने आ रही है। इस तेजी से उभरती स्थिति में गांधीजी की समग्र सोच पहले से और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है।
धरती की जीवनदायिनी क्षमता खतरे में पड़ने के दो मुख्यपक्ष हैं। इन दोनों संदर्भों में ही समाधान प्राप्त करने के लिए गांधीजी की सोच बहुत सार्थक, उपयोगी, मौलिक व मूल्यवान है।
धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने का पहला पक्ष यह है कि प्रकृति के प्रति आधिपत्य का संबंध रखने, प्राकृतिक संसाधनों (विशेषकर जीवाष्म ईंधन व वनसंपदा) का अत्यधिक दोहन करने के कारण आज ऐसे अनेक पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो गए हैंजो धरती पर तरह-तरह के जीवन के पनपने की मूलस्थितियों को ही संकट में डालते हैं । इसमें जलवायु बदलाव का संकट, जल संकट, वायुप्रदूषण, समुद्रों का प्रदूषण, जैव-विविधता का तेज ह्ास अधिक चर्चित हैं, पर इतने ही अन्य गंभीर संकट भी हैंजो अभी चर्चा में कम ही आए  हैं ।
इन सभी संकटों के अपने-अपने विशिष्ट कारण व समाधान भी हैं, पर किसी-न-किसी स्तर पर इनका एक सामान्य कारक यह रहा है यह प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से जुड़े हैं व इसके लिए अनियंत्रित उपयोग, भोग-विलास व उपभोक्तावाद जिम्मेदार हैं । टालस्टॉय जैसे कुछ अन्य आधुनिक विचारकों के साथ महात्मा गांधी ने बुनियादी तौर पर सादगी और सादगी आधारित संतोष को एक अति महत्वपूर्ण जीवन-मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया । गांधीजी की सादगी की सोच अपने ऊपर बहुत परेशानी से नियंत्रण रखने में नहीं है, अपितु एक सहज, स्वाभाविक सोच है जो आसानी से संतोष व बंधनमुक्ति  के अहसास की ओर ले जाती है। इस सोच की सही समझ बने तो अधिक लोगों द्वारा अपनाई जा सकती है।
जीवनदायिनी क्षमता के संकट में पड़ने की दूसरी वजह युद्ध व अति-विनाशक हथियार हैं । इस संदर्भ में गांधीजी की सोच तो और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने हिंसा को मूलत: जीवन के हर एक पक्ष से हटाने के लिए कहा था। युद्ध और हथियारों की दौड़ कितने विनाशक हो चुके हैं, हर कोई जानता है पर उनका नियंत्रण नहीं हो पा रहा है क्योंकि समाज में ऊपर से नीचे तक हिंसा की सोच जगह-जगह हावी है। इस हिंसा की सोच को जीवन के हर पक्ष से हटाने का एक बड़ा जन-आंदोलन विश्वस्तर पर मजबूत होना चाहिए । नीचे से ऊपर तक लोगों की आवाज हर तरह की हिंसा दूर करने के लिए पहुंचेगी तो इससे युद्ध, हथियारों की दौड़, महाविनाशक हथियारों पर रोक लगवाने में बहुत मदद मिलेगी ।
धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को बचाने का प्रयास इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे सार्थक और जरूरी प्रयास है और इसे लोकतंत्र व न्याय की सोच के दायरे में ही प्राप्त करना है। इस प्रयास में विचारों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। इन विचारों के संघर्ष में गांधीजी की सोच बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होगी ।
गांधीजी के जीवनकाल में पूंजीवाद और साम्यवाद का टकराव चर्चा में था। उनमें यह वैचारिक साहस था कि उन्होंने इन दोनों व्यवस्थाओं से अलग अपने मौलिक विचारों को सामने रखा। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, तरह-तरह के भेदभाव, उन पर आधारित वैमनस्य को पूरी तरह नकारा । उनके विचारों की बुनियाद पर न्याय व सद्भावना आधारित ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिसमें इक्कीसवीं शताब्दी की बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए लोग व्यापक एकता व एकजुटता से, गहरी निष्ठा व सहयोग से प्रयासरत हो सकें ।  
सबकी जरूरतों को पूरा करने वाली अर्थव्यवस्था, पर्यावरण की रक्षा व अमन-शांति के तीन प्रमुख उद्देश्यों में नजदीकी अंर्तसम्बंध है । इसे पहचानने व इस आधार पर एक समग्र सोच स्थापित करने की जरूरत है जिससे इन तीनों उद्देश्यों की राह पर एक-साथ आगे बढ़ा जा सके । गांधीजी की सोच में यह समग्रता मिलती है। यह मौजूदा कठिन दौर के लिए बहुत मूल्यवान है।

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