शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

सामयिक

पर्यावरण और जलवायु परितर्वन
ए.के.गोस्वामी

प्रकृतिका उपहास उड़ाने की बेशर्म हरकत पेड़-पौधों, जंगल, नदियों, सागरों और हिमाच्छादित पर्वत श्रंृखलाआें को तहस- नहस कर रही है और तथाकथित सभ्य समाज सभ्यता और सामाजिक, दोनों की परिभाषा की हदें पार कर रहा है ।
पिछले दिनों यूरोप के कई देशोंमें भारी बर्फबारी ने सभी को चौंका दिया है । इससे जलवायु परिवर्तन से उपजे संकट को लेकर अनेक प्रश्न खड़े हो गए हैं । पूर्व में भी उठे ऐसे अनेक प्रश्नों का समाधान जलवायु परिवर्तन पर हुए कानकुन सम्मेलन तक नहीं खोजा जा सका और क्योटो प्रोटोकॉल तो विकसित देशोें की जिद का शिकार ही हो गया ।
पुराने जमाने से नागालैण्ड में धान के किसान अपनी फसल की हिफाजत के लिए चीटियों के भरोसे रहते आए हैं । वहां की जलवायु धान उगाने के लिए बढ़िया है सो नागालैण्ड के ज्यादातर किसान धान की खेती करते हैं । फसल कटने के बाद वे धान को सुखाने के लिए खुले में छोड़ने से पहले चीटियों पर नजर डालते हैं । अगर चीटियां अपने बिलों से बाहर घूमती दिखती हैं तो वे निश्चिंत होकर अपना धान खुले में सुखाने के लिए छोड़ देते हैं । क्योंकि उन्हें इस बात की गारंटी मिल जाती है कि हाल फिलहाल बरसात के आसार नहीं हैं, क्योंकि चीटियां बाहर हैं ।
भारत में कई जगह आम जनजीवन में पुराने समय से ही मौसम के बारे में कयास लगाने के अपने ही नायाब तरीके रहे है ं। पछुआ हवा चली, तो नहीं बरसेगा, पुरवा भिगोएगी या कोहरे के बादल ढंके हैं तो हैं तो ठिठुरन नहीं सताएगी आदि आदि । पर इधर पिछले कुछेक सालों से सारे हिसाब-किताब धरे के धरे रह जाते हैं और बिन मौसम के बरसात गर्मी में भी सर्द आबोहवा का झोंका आ जाए तो आश्चर्य नहीं । कुदरत रंग बदल रही है । वैश्विक ताप से धरती तप रही है और जलवायु परिवर्तन में ऋतुआें की युगों पुरानी चाल भी भारी फेरबदल कर दी है । दुनिया त्रस्त है क्योंकि मानव समाज ने विकास की अंधी दौड़ में जिस तेजी से भागना शुरू किया है उसने धरती को बुरी तरह आहत किया है, रौंदा
है । प्रकृतिका उपहास उड़ाने की बेशर्म हरकत पेड़-पौधों, जंगल, नदियों, सागरों और हिमाच्छादित पर्वत श्रंृखलाआें को तहस- नहस कर रही है और तथाकथित सभ्य समाज सभ्यता और सामाजिक, दोनों की परिभाषा की हदें पार कर रहा है ।
भारत में ६० करोड़ के आस-पास आबादी खेती पर निर्भर है । भारत के सकल घरेलूउत्पाद मे २० फीसदी की बड़ी भागीदारी वाली खेती पारंपरिक रूप से मौसम के मिजाज पर आधारित रही है, वैसी ही व्यवस्थाएं तंत्र भी बने हैं। लेकिन आज व
वैश्विक ताप से हुए जलवायु परिवर्तन ने मौसम की कालावधि में भारी अंतर पैदा कर दिए हैं । जाड़ों में जाड़े और गर्मियों में गर्मी कभी-कभी खो जाती है और नहीं खोती तो सीमाएं लांघकर त्राहि-त्राहि मचा देती है । गर्मी में पारा ५० तक पहुंचने को बेताब दिखता है तो जाड़े में गिर कर शून्य के आसपास मंडराता है । बारिश होती है तो मानों प्रलंयकारी होकर तबाही बरपा देती है । अभी पिछले दिनों तमिलनाडु और कर्नाटक में वे मौसम मूसलाधार बारिश ने लोगों को हैरान कर दिया । भारत में जहां औसतन सालाना बारिश १२० मिलीमीटर के आस-पास होती थी अब या तो आधी होती है या फिर थोढ़ी । कहीं भयंकर सूखा दिखता है तो कहीं नदियां हहराती अपने बांध तोड़ती दिखती हैं । पिछले मानसून में तो दिल्ली के डूबने का खतरा मुहबाएं खड़ा दिखता था ।
उधर यूरोप में बर्फबारी ने कोहराम मचाया हुआ है । कई बड़े शहर बर्फ की चादर से ढंक गए हैं । सड़क, रेल, हवाई यातायात ठप हो गया । कड़ाके की ठंड से हाहाकार मचा है । घरों, सड़क ों, राजमार्गोंा पर बर्फ की मोटी परत जीना मुहाल किए हैं । यूरोप और अमेरीका विकास की अंधी दौड़ में प्रकृतिका अपमान करने की सजा भुगत रहे हैं, पर भारत में भी जलवायु परिवर्तन के आंकड़े कम परेशान करने वाले नहींहैं । २०४५ में दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बनने जा रहे भारत की जलवायु परिवर्तन की भारी आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ सकती है ।
विशेषज्ञों के अनुसार, मौसम के बदलते मिजाज के कुछ खास दुष्परिणाम इस प्रकार होंगे -बर्फ का आवरण घटेगा, जिससे बह्मपुत्र और गंगा जैसी ग्लेशियर पिघलने से जलाप्लावित होने वाली नदियों पर बुरा असर पड़ेगा, गंगा में गर्मियों में ७० फीसदी पानी बर्फ पिघलने से ही आता है । बरसात पर आधारित खेती प्रभावित होगी, तापमान में एक फीसदी बढ़त तक से ४० से ५० लाख टन अनाज कम पैदा होगा । समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा जिससे तटवर्ती इलाकों में रहने वाली बड़ी आबादी विस्थापित हो जाएगी । बाढ़ों की संख्या और बारम्बारता बढ़ेगी । भारत के ५० फीसदी जंगलोंकी प्रकृति मेंबदलाव आएगा । भारत की ७० फीसदी बिजली की आपूर्ति कोयले से होती है । हम अपनी ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने के लिए विदेशों से जमीन के अंदर से निकलने वाला इंर्धन भारी मात्रा में लेते हैं जिसको जलाने से कुल कार्बन उत्सर्जन का ८३ फीसदी उत्सर्जन अकेले इसी से होता है ।
जलवायु परितर्वन ने एक अनिश्चितता पैदा की है । अनिश्चितता ने सारे आंकड़े धराशायी किए हैं, खेती चौपट हो रही है, पीने के पानी की किल्लत है और औसत इंसानी सेहत का आंकड़ा गिर रहा
है । ग्रामीण इलाकों में हमने अब तक अरबों रूपये खर्च करके जो बांध, कुंड, नहरें आदि बनाकर सिंचाई की व्यवस्था बनाई है वह सब मानसून के ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित करके बनाई है । लेकिन आज वह व्यवस्था असफल साबित हो रही है । कम वक्त मेंअधिक बारिश हो रही है जिसके पानी को एकत्र करने की हमारे यहां कोई व्यवस्था नहींहै । अर्थात पानी बेकार जा रहा है । पुराने जमाने से हमारे यहां बरसात के पानी के भण्डारण के जो तरीके अपनाए जाते रहे हैं, वे अब बेकार साबित हो रहे हैं । इस समस्या का गंभीर पहलु शहरों में भी दिखा है । जैसे मुम्बई में एकाएक घनी बारिश आती है और बाढ़ आ जाती है । चिंता की बात यह है कि शहरी योजनाआें को अब इस नजरिए से नए सिरे से बनाना होगा । जलवायु परिवर्तन का ये गंभीर दुष्परिणाम है । अनिश्चितता इतनी बढ़ गई है कि लोगों के आकलन गलत साबित हो रहे हैं । कब बारिश आएगी कब बर्फ गिरेगी, कब गर्मी होगी, कब सर्दी जाएगी, यह कोई भी निश्चित रूप से नहीं बता पा रहा है ।
लेकिन क्या कोई इस खतरे की गंभीरता से सुध ले रहा है ? कानकुन में जुटी पर्यावरण के प्रति चिंतनशील बिरादरी क्या सच में धरती के कोप को शांत करने के रास्ते तलाश रही थी या आंकड़ों और रेखांकनों के जरिए सब्जबाग देख रही थी ? ऐसे सम्मेलनों, संगोष्ठियों की रस्मों पर प्रदीप साहा कहते हैं दुर्भाग्य से, जलवायु परितर्वन के गंभीर नतीजे दिख रहे हैं, पर कोई यह मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि अगर यह स्वीकारेंगे तो उन्हें उसको ठीक करने के लिए प्रयास करने पड़ेंगे । भारत में भी हरे जंगल खत्म हो रहे हैं, वहां के वनवासियों को विस्थापित करके वन खदान कंपनियों को सौंपा जा रहा है जो धरती को नीचे से खोखला करती जा रही है ।
सीधी सी बात है, हरियाली खत्म तो कार्बन खत्म तो कार्बन सोखने की क्षमता खत्म, तो प्रदूषण का स्तर ऊंचा, तो वातावरण गर्म, तो गर्मी और सर्दी में उतार-चढ़ाव । सब चीजें एक दूसरे से जुड़ी हैं । अंधाधुंध विकास और यूज एंड थ्रो का चलन चीजें खराब कर रहा है । अभी कानकुन (मैक्सिको) में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ । ***

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