शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

विज्ञान जगत

बौद्धिक सम्पदा और पारम्परिक ज्ञान
कृष्ण रवि श्रीवास्तव

योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है ।
योग मुद्राआेंऔर इसके आसनोंपर कॉपीराइट सम्बंधी दावों के बारे में अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है । इसे प्राय: पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बौद्धिक सम्पदा अधिकारी की घुसपैठ के रूप में चित्रित किया जाता है । क्या यह वाकई घुसपैठ है ? अगर है तो यह इतनी चिंताजनक भी है ?
कुछ विषय ऐसे होते हैंजो विवादास्पद न होते हुए भी विवाद के केन्द्र में आ खड़े होते हैं । ताजा मामला योग सम्बंधी आसनों के कथित पेटेंट का है । यह विवाद न केवल पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बोद्धिक अधिकार के दुरूपयोग के प्रति चिंता दर्शाता है, बल्कि इसे लेकर कई भ्रांतियों का खुलासा भी होता है ।
सच तो यह है कि अब तक योग के एक भी आसन के लिए किसी को भी पेटेंट नहीं दिया गया है, लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें खूब सुर्खियां बनीं । इस सम्बंध में विभिन्न राजनीतिक दलों व योग गुरूआें के बयानों ने भ्रम बढ़ाने का ही काम किया । इस मुद्दे को मीडिया ने जिस तरह पेश किया, उससे ऐसा आभास हुआ कि योग के आसनों का पेटेंट हो गया है और अब रायल्टी चुकाए बगैर कोई इन आसनों को नहीं कर सकता। इसी प्रकार अब श्लोकों का भी पेटेंट लिया जा सकता है । कुल मिलाकर मीडिया ने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि पश्चिम के लोग भारत के पारम्परिक ज्ञान का दुरूपयोग करने पर आमादा हैं। इससे पहले नीम और हल्दी के पेटेंट को लेकर भी इसी प्रकार के विवाद और भ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है ।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिका में योग सम्बंधी सामग्री, उपकरणों और कुछ पाठ्यक्रमोंके सम्बंध मेंपेटेंट, कॉपीराइट और ट्रेडमार्क दिए गए हैं । ये पेटेंट व कॉपीराइट योग सम्बंधी किताबों, वीडियो और आसनों की मिलती-जुलती मुद्राआें के भी हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं लगाया जा सकता कि भारत के पारम्परिक ज्ञान पर पश्चिम के देशों ने डाका डाल दिया है । कहीं पर भी पारम्परिक योग के आसन करने पर कोई किसी से रायल्टी की मांग नहीं कर सकता है ।
अमेरिका में योग के बढ़ते दायरे का सम्बंध व्यावसायिकता से ज्यादा है । वैश्विक बाजार में हर योग केन्द्र व योग गुरू अपने को अलग दिखाना चाहता है (जैसे आयंगर योग, श्री श्री योग इत्यादि) इसलिए वे योग का सामान्य हिस्सा बने रहने की बजाय चाहते हैं कि उनके योग की एक विशिष्ट ब्रांड इमेज बने जिससे उन्हें अलग पहचान मिल सके । ऐसे कई मान्यता प्राप्त् केन्द्र हैं जहां प्रशिक्षित शिक्षक अपने विशिष्ट योग का प्रशिक्षण देते हैं । प्राचीन काल में भी योग की विभिन्न शाखाएं मिलती हैं, जैसे बिहारी योग । आज अंतर केवल यही आया है कि अपने विशिष्ट योग केंद्रों के प्रचार के लिए कॉपीराइट और ट्रेडमार्क का इस्तेमाल किया जाने लगा है ।
इस पूरे मामले में पेंच यह है कि योग देशी सीमाआें से परे जा चुका है । वह वैश्विक बन चुका है । ऐसे में विभिन्न योग गुरूआें को अपने योग की भिन्न-भिन्न विधाआंे को एक-दूसरे से अलग भी दिखाना है और प्रामाणिकता के लिए मूल योग की जड़ों से जुड़ाव भी बताना है । ऐसी स्थिति में बौद्धिक सम्पदा अधिकार का प्रयोग बढ़ना स्वाभाविक है ।
देखा जाए तो योग का एक चेहरा पारम्परिक है जो प्रामाणिक और प्राचीन ज्ञान को बढ़ावा देता नजर आता है, तो दूसरा चेहरा उत्तर आधुनिक है । जिसने उपभोक्ताआें की उपयोगिता के अनुरूप अपने को ढाल रखा है । इस प्रकार योग के अलग-अलग सदर्भोंा में अलग-अलग मतलब निकाले जा सकते हैं । मकसद बदलते ही योग का अर्थ भी बदल जाता है । इस प्रक्रिया में उपभोक्ता समाज की जरूरतों के मद्देनजर योग की मार्केटिंग में बौद्धिक सम्पदा अधिकार एक अहम भूमिका निभाता है ।
रूस, थाईलैंड, कनाड़ा, चीन सहित कई देशों में योग चटाई और अन्य साधनों के पेटेंट के लिए आवेदन किए गए
हैं । इससे साफ है कि योग में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है । इसके मद्देनजर अब एक ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी है जो इसकी प्रैक्टिस को सुव्यवस्थित कर सके । चूंकि योग की शिक्षा विभिन्न वर्गोंा के लोगों को उनकी अलग-अलग जरूरतों के हिसाब से दी जा रही है, इसलिए इसमें नवाचार की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता । योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है । इसलिए योग उपकरणों व पाठ्यक्रमों को दिए गए पेटेंटों से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है ।
यहां असली सवाल यह है कि ये नए-नए साधन कैसे योग को और लोकप्रिय बना सकते हैं । यह मानना नादानी होगी कि हमें पारम्परिक ज्ञान में संशोधन करने या उसमें नवाचार लाने की कोई जरूरत नहीं
है । अगर कोई नवाचार पेटेंट की आधारभूत पात्रता को पूरा करता है तो उसे पेटेंट देने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, बशर्ते वह योग की प्रैक्टिस में मदद करे । योग की प्राचीन व मूल कला को हम तब तक नहीं जान सकते जब तक कि इस क्षेत्र में हुए छोटे-बड़े नवाचारों और पिछले कई सालों के दौरान प्रचलन मेंआई नई विधियों तथा विचित्र योग गुरूआें व संस्थाआें द्वारा दिए गए योगदान का सर्वे व अध्ययन नहीं कर लिया जाता । केवलशास्त्रों में लिखी गई बातों से ही योग की प्राचीन व मूल कला का निर्धारण नहीं किया जा सकता । योग के दुरूपयोग को रोकने के लिए इसकी प्राचीन कला को जानना बेहद अहम है ।
योग के क्षेत्र में नवाचारों को दिए गए पेटेंट से योग अपनाने वालों को आसानी हुई है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है, यह सूत्रवाक्य अक्सर दोहराया जाता है । कई बार यह साबित भी हो चुका है कि कई आविष्कारों की प्ररेणा शक्ति उनका इस्तेमाल करने वाले लोग ही होते हैं । हालांकि अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि योग संबंधी नवाचारों में उसके उपयोगकर्ताआें का कितना योगदान रहा है, लेकिन माना जा सकता है कि इनमें वे भी एक अहम प्रेरणा शक्ति रहे होंगे ।
ये नए साधन अभी तो योग करने में मददगार साबित हो रहे हैं, लेकिन यह भी संभव है कि भविष्य में ये ही योग में बदल जाएंगे, अभी यह भविष्वाणी करना संभव नहीं है । यहां यह भी पूजा जा सकता है कि क्या भारत में योग सम्बंधी सहायक प्रणालियां पहले से ही मौजूद थीं ? अगर थीं तो उनका क्या हुआ ? इस सम्बंध में अगर कोई अध्ययन किया जाए तो उस समय के योग सम्बंधी कई नवाचारों के बारे में पता चल सकेगा।
योग पर कई पुस्तकों, सी.डी. और डी.वी.डी को कॉपीराइट मिला हुआ है । इन्हें कॉपीराइट देने का मतलब यह है कि इन पुस्तकों व सीडी-डीवीडी के संरक्षण के लिए पेटेंट दिया गया है, न कि उनमें बताए गए आसनों को । फीस्ट पब्लिके शंस इंकार्पोरेशन बनाम रूरल टेल सर्विस कंपनी के मामले में कहा गया था कि पुस्तक में वर्णित तथ्यों को कॉपीराइट नहीं दिया जा सकता, लेकिन उनका संग्रहण कॉपीराइट की पात्रता रखता है । यानी अगर किसी पुस्तक में किसी आसन का वर्णन किया गया है तो उसे व्यक्तिगत या सार्वजनिक तौर पर करना कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं माना जाएगा । लेकिन उस पुस्तक की अनाधिकृत तौर पर प्रतियां बनाना या उन्हें बनाकर बेचना कॉपीराइट नियमों का उल्लंघन होगा । इसका मतलब यही है कि कॉपीराइट किसी विचार को व्यक्त करने के तरीकों का संरक्षण करता है, न कि उस विचार विशेष का ।
यहीं पर एक दिलचस्प सवाल भी उठता है - अगर कुछ आसनों को चुनकर उन्हें विशेष क्रम में संयोजित किया जाए और उन्हें विशेष परिस्थितियों में कुछ श्वास कसरतों के साथ करना तय कियाजाए तो क्या यह कॉपीराइट में आएगा ? क्या कॉपीराइट होल्डर से लाइसेंस लिए बगैर इन्हें सिखाना नियमों का उल्लंघन माना जाएगा ? इसे विक्रम योग मामले के जरिए समझा जा सकता है ?
विक्रम योग २६ योग मुद्राआेंऔर दो श्वास कसरतों का ऐसा संयोजन है जो एक कक्ष में १०५ फेरनहाइट डिग्री तापमान पर किया जाता है । विक्रम योग के संस्थापक विक्रम चौधरी ने इसके लिए कॉपीराइट हासिल किया है । उन्होंने इसके उल्लंघन पर कड़ी कार्यवाही की भी चेतावनी दी । वर्ष २००२ में उन्होंने अपने ही दो पूर्व छात्रों किम रेरिबर व मोरिसन के खिलाफ अदालत में मामला दायर किया । उनका आरोप था कि श्रेरिबर व मोरिसन ने योग नियम का पालन नहीं किया । बाद में यह मामला अदालत के बाहर सुलटा लिया गया । लेकिन इसके बाद कई अन्य योग स्टूडियो व योग केन्द्रों को भी बिक्रम चौधरी की ओर से कानूनी नोटिस दिए गए ।
अंतत: योग पै्रक्टीशनर्स, योग स्टूडियो, संस्थानों और विधिक प्रोफेशनल्स ने चौधरी की धमकियोंका सामना करने के लिए संगठन ओपन सोर्स योगा यूनिटि (ओएसवाइयू) का गठन किया । जुलाई २००३ मेंउन्होंने बौद्धिक सम्पदा नियमों की उल्लंघन सम्बंधी धमकियों से राहत पाने के लिए चौधरी के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया । ओएसवाईयू के मुताबिक उसका मिशन योग को सार्वजनिक सम्पत्ति बनाए रखने की दिशा में प्रयास करना है ताकि उस पर किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष का अधिकार न हो । लेकिन अचानक मई २००५ में दोनों पक्षों ने अदालत के बाहर एक समझौता कर लिया और उसके बाद ओएसवाईयू ने बिक्रम योग के कॉपीराइट की वैधता को चुनौती नहीं दी । उसका मिशन एक तरह से मजाक बनकर रह गया क्योंेकि योग की सार्वजनिकता को बनाए रखने में उसने अपनी ओर से कुछ नहीं किया । लेकिन योग के संबंध में बौद्धिक अधिकार की महत्ता से इंकार नहीं कियाजा सकता है । ***

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