सामाजिक पर्यावरण
शिक्षा, शराब और सामाजिक चेतना
वीरेन्द्र पैन्यूली
एक ओर ऊत्तराख्ंाड उच्च् न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया है कि जब तक उत्तराखंड के सरकारी विद्यालयों के लिए न्यूनतम भौतिक एवं शैक्षिक सुविधाओं की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उत्तराखण्ड सरकार कोई महंगी चीज जैसे महंगी गाड़ियां, ए.सी., फर्नीचर, आदि नहीं खरीदेगी । वहीं दूसरी ओर बच्चें की बाल विधानसभा ने बच्चें में बढ़ती नशे के लत को रोकने के संबंध में प्रस्ताव पारित कर इसे लागू करने की मांग की है ।
नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा, यमुना नदियों को मानवीय दर्जा देने के बाद फिर एक अभूतपूर्व फैसला २२ जून २०१७ को दिया है । राज्य सरकार के कोर्ट में तलब उसके शिक्षा व वित्त सचिवों के माध्यम से नैनीताल हाई कोर्ट ने सार में यह आदेश दिया है कि जब तक उत्तराखंड राज्य के स्कूलों की दशा न सुधरे तब तक सरकार लक्जरी सामान जैसे कार, ए सी, फर्नीचर, परदे आदि न खरीदे । आवश्यक सामानों की खरीद भी मुख्य सचिव के संज्ञान में उनकी अनुमति से खरीदी जाये। कोट उत्तराखंड की राज्य सरकार से कोई आकाश के तारे तोड़ने की माँग नहीं कर रहा है । उसकी माँग बहुत ही आधारिक है जैसे-हर स्कूल में पीने का साफ पानी, छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय, सुरक्षित कक्षाएँ, बै ने के फर्नीचर्स, कक्षाओं में ब्ल्ैाक बोर्ड, चौक, अध्यापक और बिजली । राज्य सरकार को इस आदेश की मंशा और निहितार्थ को भी समझने की आवश्यकता है। वित्तीय व्यय भार होने पर भी बच्चें के हित को उच्च् प्राथमिकता में भी रखने का यह संदेश है ।
बच्चें के हित पर जब कोर्ट का आदेश आये तभी काम हो ऐसा नहीं होना चाहिए । अंतरराष्ट्र्रीय स्तर पर बाल अधिकारों की सहमति पर, जिसे हमारे देश ने भी स्वीकारा है, स्पष्ट किया गया है कि जो निर्णय बच्चें को प्रभावित करें, उन पर बच्चें से विचार-विमर्श किया जाये व जो बच्चें के सर्वोत्तम हित में हो वही किया जाये । इसी में यह भी स्पष्ट किया गया है कि बच्चें के पास संगठन का अधिकार है ।
उत्तराखंड में १८ साल से कम आयु के बच्चें की संख्या लगभग चालीस प्रतिशत है । नवम्बर २००० में राज्य बनने के बाद से ही दशकों से बच्चें के साथ काम करने वाली संस्थाएँ श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम व प्लान इण्डिया ग्राम व ब्लाक स्तर पर बाल पंचायतें गठित करती रहीं हैं । अब तक करीब पचास हजार सक्रिय लड़के-लड़कियाँ इन बाल पंचायतों से निकल चुके हैं । इन्हीं के प्रतिनिधियों को लेकर पिछले ४ सालों से उत्तराखंड बाल विधान सभा का प्रयोग चल रहा है ।
इसमें भी उत्तराखंड राज्य विधान सभा की ही तरह ७० चुने हुए बाल विधायक होते हैं । इसमें भी नेता सदन, नेता प्रतिपक्ष व मंत्री होते हैं । विधान सभा अध्यक्ष होता हैं । प्रस्ताव विभिन्न मंत्रियों द्वारा अथवा अन्य सदस्यों द्वारा रखे जाते हैं व मतदान के बाद पारित किये जाते हैं। बच्चें के साथ काम करती हुई संस्थाओं का कहना है कि उत्तराखंड बाल विधान सभा के सत्र कराने का मुख्य उद्देश्य बच्चेंं की आवाज को सार्वजनिक करना है। उनके पारित प्रस्तावों को सरकार तक पहुँचाना है तथा बच्चें की संसदीय परम्परा के प्रति संवेदनशील बनाना है ।
इस बार जब ८ व ९ जून को उत्तराखंड की चौथी बाल विधान सभा का सत्र देहरादून में आहूत था, उसी दौरान उत्तराखंड की चौथी विधान सभा का देहरादून में बजट सत्र चल रहा था । पिछली विधान सभा के अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल तो बाल विधान सभा के सत्रों में स्वयं मौजूद रहते थे । किन्तु इस बार ऐसा नहीं हो पाया । इस बार का सत्र इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि ९ जून को उत्तराखंड की बाल मुख्यमंत्री कुमारी तानिया ने `क्या बच्च्े सचमुच नशा करने लगे हैं` जैसे मुद्दे पर जिला चमोली व उत्तरकांशी में बच्चें के द्वारा किये गये सर्वेक्षण का हवाला दिया । सर्वेक्षण से यह तथ्य उभर कर आया कि कभी न कभी नशा करने वाले बच्चें का प्रतिशत कम नहीं हैं । इनमें कुछ को यह लत लग जाती है। कुछ बच्च्े साथियों के साथ नशा करते हैं । तो कुछ बिल्कुल अकेले । नशे में शराब, सिगरेट, पेन्ट, गोली, वनस्पतियाँ, सूंधने वाले नशे आदि शामिल थे ।
गौरतलब है कि जिस समय बाल मुख्यमंत्री यह बता रही थीं, उस समय भाजपा के गंगोत्री विधान सभा क्षेत्र के विधायक व देवप्रयाग क्षेत्र के विधायक भी मौजूद थे । गंगोत्री के विधायक के क्षेत्र में भी यह सर्वेक्षण हुआ था । उन्हांेने भी परिवारों में शराब के बढ़ते चलन पर गंभीर चिन्ता व्यक्त की । उत्तराखंड बाल विधान सभा की माँग थी कि नशे पर सीमित मात्रा पर नहीं बल्कि पूर्ण रोक हो ।
इसे दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना ही माना जायेगा कि जब राज्य की बाल विधान सभा राज्य में बच्चें के हित में पूर्ण नशाबंदी की माँग कर रही थी, उसी समय देहरादून में विधान सभा में यह माँग हो रही थी कि शराब की दुकानों का खुला रहने का समय बढ़ाया जाये ।
उत्तराखंड राज्य वर्षों के आन्दोलन से बना था । महिलाएँ, जो उत्तराखंड आन्दोलन की अगुवा थीं, उनका एक सपना था-नशामुक्त उत्तराखंड का । उनकी मुख्य चिन्ता अपने पतियों के शराब पीने से ज्यादा शराब के प्रसार से बच्चें के नशे के गिरफ्त में जाने की थी । वह डर सही होता नजर आ रहा है। राज्य बनने के बाद ऐसी स्थितियों में बढ़ोत्तरी देख महिलाएँ जबरदस्त तरीके से खासकर बच्चें के भविष्य को सुरक्षित देखने के लिए सरकारी शराब की दुकानों के खुलवाने की हठधर्मिता के विरूद्ध खड़ी हो गई हैं ।
किन्तु उत्तराखंड में सरकार लगातार शराब के व्यापार को बढ़ाने में लगी रहीं । महिलाएं, बच्चें व युवाओं के साथ भी शराब की दुकानों पर धरना दे रही हैं । विडम्बना है कि उनको इसलिए जबरदस्ती पुलिस उठा रही है कि वे शराब के दुकानों व ठेकों के व्यापार में अवरोध पैदा कर रही हैं ।
किन्तु महिलाओं के लिए उत्साहजनक यह है बाल विधान सभा ने उनकी चिन्ता साझा की है । बाल विधान सभा ने आपदा आशंका वाले क्षेत्रों से स्कूलों को हटा कर सुरक्षित स्थानों पर स्थापित करने, बाल श्रम को रोकने, बच्च्यिों की सुरक्षा की माँग तथा बच्चें के कल्याणकारी कार्यक्रमों को वास्तव में धरातल पर उतारने की भी माँग की है। बाल सर्वेक्षकों ने आधिकारक रूप से अपना प्रस्तुतीकरण बाल संरक्षण से बाल हेल्पलाइन से जुड़े अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया है ।
अत: यदि सरकार हाईकोर्ट के आदेश का यदि मर्म समझ गई है, तो उसे शराब से मिलने वाले राजस्व का मोह त्याग कर बच्चें के हित में गाँव-गाँव शराब जबरदस्ती पहुँचाना रोकना चाहिए । खेदजनक तो यह है कि सरकारी अधिकारियों को शराब ठेकेदारोंके मदद के लिए ऐसी जगह तलाशने को कहा गया है, जहाँ इन दुकानों को खुलवाया जा सके । इतना जोर स्कूलों की स्थिति सुधारने में लगा होता तो नैनीताल हाईकोर्ट को २२ जून २०१७ वाला कड़ा आदेश शायद उत्तराखंड सरकार को न देना पड़ता ।
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