गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

वन जगत
पहाड़, नदी और समाज का रिश्ता
सचिन कुमार जैन
    प्रकृति एक ऐसी श्रंृखला है, जिसका कोई ओर छोर नहीं है । संस्कृति के हमारे शब्दकोष में एक नई संस्कृति, पर्यटन की संस्कृति और दूसरी विकास की संस्कृति भी जुड़ गई है । आज भारत जैसे विशाल देश से लेकर ३ लाख की आबादी वाला दुनिया का सबसे छोटा देश पूर्वी तिमोर भी अपनी अर्थव्यवस्था को पर्यटन की बैसाखी से पटरी पर ले आना चाहता है ।
    परंतु पर्यटन से परे जंगल अपनी विराटता में एक गंभीरता को समेटे रहते हैं। यदि हममें मौन रहकर संवाद करने की इच्छा है तो जंगल से अच्छा कोई साथी नहीं हो सकता । 
     नेपाल का धौलागिरी अंचल, अन्नपूर्णा पर्वत का आधार है । यह प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए सबसे उम्दा विश्वविद्यालय   है । धौलागिरी शब्द की उत्पत्ति  `धवल` से हुई है, जिसका मतलब होता है बहुत चमकीला सफेद तथा `गिरी` यानि पर्वत । धौलागिरी पर्वत दुनिया का सातवां सबसे ऊँचा पर्वत  है । इसकी ऊंचाई ८१६७ मीटर है । इसे एक अंचल भी माना जाता है, जिसमें नेपाल के चार जिले शामिल हैं। बाग्लुंग इनमें से एक है ।
    हिमालयी पहाड़ों के हिमखंडों से निकल कर काली गण्डक नदी अपनी पूरी तीव्रता से प्रवाहित हो रही है। जंगल और नदी के रिश्ते हमें समझा रहे हैंकि वे संसार को बनाए रखना चाहते हैं। जब तक कोई जंगल पर आक्रमण करके उनका विनाश नहीं कर देता तब तक नदी अपना रास्ता नहीं बदलती । यूं तो जंगल केवल जमीन के ऊपर ही नहीं होता बल्कि जमीन के भीतर भी उतना ही घना और गहरा फैला होता है । जड़ें जमीन के अंदर फैल कर मिट्टी को थाम लेती हैं। यह छोटे-छोटे कण मिलकर मिट्टी को एक आधार बना लेते हैं। यह जड़ें ही इसे नदी में बह जाने से बचा लेती हैं।
    जंगल मूसलाधार और कभी-कभी कई दिनों तक होने वाली बारिश को भी अपने भीतर थाम लेता है । लंबी यात्रा करके यह नदी भारत के बिहार राज्य के  हरिहर क्षेत्र (सोनपुर) में गंगा नदी में मिल जाती है । गंगा जो उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में दूषित और बीमार होकर यहां पहुंचती है गण्डक से मिलकर स्वस्थ्य होकर पुनर्जीवन पा जाती है । इस नदी को अब तक बाँधा नहीं गया है । दुखद यह है कि भारत सरकार अब नेपाल को इस बात के  लिए प्रेरित कर रही है कि वह गण्डक सरीखी नदियों पर बाध बनाये और बिजली पैदा करे । इससे हिमालय के पहाड़ कमजोर होंगे और प्राकृतिक आपदाएं भी आएँगी ।
    दूसरी तरफ पहाड़ों में बसे जंगल एक योजना बनाकर कोने-कोने में रात भर हुई बारिश की बूंदों को समेटे ले रहे थे । कितनी व्यवस्थित है प्रकृति । जब तक आसमान का पानी जमीन से नहीं टकराता, तब तक वह बूंद बना रहता है। जमीन उसका रूप, आकार और प्रभाव बदलकर उसे धारा में बदल देती है । पता नहीं इन पहाड़ों का पेट कितना बड़ा है, जो बूंदों को धारा तो बना देता है, पर बाढ़ बनने से रोक देता है ।
    धौलागिरी हिमालयी पहाड़ों से ये धाराएँ निकलकर काली गण्डक नदी में समा जाती हैं। इसे एक धारा कहें या एक नदी, यह इंसान जानवरों, पेड़ों, पक्षियों, सरीसृपों, मछलियों और सूरज को उनका हिस्सा देती हुई चलती है । कोई उससे उसका प्रवाह, उसकी निर्मलता, उसकी तरलता छीनने की कोशिश नहीं  करता । उन्हें पता है, नदी के होने से जंगल है और जंगल के होने से नदी और पहाड़ । ये दीगर बात है कि इंसान नदी से भी उसके नदी होने का हक भी छीन लेना चाहता है। अब काली गण्डक में से भी खोदकर रेत निकाली जाने लगी है । बस यहीं से शुरुआत होती है, नदी के विनाश    क ी । क्योंकि इससे नदी की वो झिरें मिटने लगती हैंै, जिनसे आकर वह नदी में मिलती है ।
    शायद बादलों को भी अपने काम का अहसास है। मन में एक सवाल उठ रहा था कि जब हम अपनी दुनिया से निराश हो जाते हैंतो नदी-पहाड़ों और जंगल की त्रिकोणी दुनिया में ही क्यों आना चाहते हैं? यहाँ ऐसा क्या होता है जो हमारी निराशा को मिटा देता है ? कुछ तो है, जिसे हम सभी लोग हवा में, हजारों झींगुरों की एक साथ निकल रही अविकल धुन में, पहाड़ी झरनों में तथा पहाड़ों पर चढ़ते समय खुलते फेफड़ोंमें महसूस कर सकते हैं। बाग्लुंग के तातापानी मोहल्ले तक पंहुचने के लिए हमने डेढ़ घंटे की फेंफड़ा खडकाऊ चढ़ाई चढ़ी । हम मन में यह सवाल लेकर हम चढ़े थे कि यहां के लोगों का कितना कठिन जीवन है यहाँ के लोगों का ? इनके आसपास कुछ नहीं है ।
    इन्हें हर छोटी-मोटी जरूरत के लिए पहाड़ चढ़ना-उतरना पड़ता हैं। ६५ घरों की यह बस्ती पहाड़ से नीचे क्यों नहीं उतर आती ? इस सवाल का जवाब ६० साल की चूराकुमारी किसान (यहाँ रहने वाली एक दलित महिला) देती हैं। उसने बताया यह कोई पीड़ा नहीं है । जैसे कुछ लोग सपाट सड़क पर चलते हैं,वैसे ही हम पहाड़ पर और जंगल में चढ़ते हैं। हमारे रिश्ते केवल आपस में ही नहीं हैं,(जंगल और पहाड़ की तरफ देखते हुए कहती हैं) इनसे भी तो हैं। यहां पिछले कई सालों में एक भी महिला की मातृत्व मृत्यु नहीं हुई, कोई बच्च कुपोषण से नहीं मरा, एक भी बलात्कार नहीं  हुआ । बच्च्े पाठशाला जाते हैं। हमें दुख यह पहाड़ नहीं देते, अपना समाज देता है । जब काम-काज नहीं मिलता तो दूसरे शहर पलायन करना पड़ा । हर घर से कोई न कोई कतर, मलेशिया, जापान या भारत में जाकर काम कर रहा है। यहाँ जातिगत भेदभाव चुनौती पैदा करता है, जंगल या पहाड़ नहीं । हमें तो यहीं अच्छा लगता है बस ।
    इस इलाके के लगभग ७ हजार युवा प्रति वर्ष पलायन करते हैं,क्योंकि सामाजिक भेदभाव ने उनके स्थानीय अवसर छीन लिए हैं वरना उन्हें यहाँ काम मिल सकता  था । इसी बदहाली के पलायन की स्थिति को अब सरकारें अवसर के  रूप में पका रही हैं,ताकि इसे आधार बना कर यहाँ विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाएं लाई जा सकें । उनके नजरें पहाड़ों के बीच की त्रिशूली और काली गण्डक नदी पर है । जंगल शायद इसलिए अब भी बचा हुआ है, क्योंकि ऊँचे पहाड़ों तक पहंुचना अब भी थोडा कठिन है या फिर इसलिए क्योंकि लोग इन्हें अपना आराध्य मानते हैं।
    धौलागिरी के लोगों ने अपने विश्वास के चलते इन्हें (पेड़ों-पहाड़ों) को अब तक मिटने नहीं दिया तो भी क्या इससे वे खुद संकट से बच जायेंगे ? बड़ा पेचीदा सवाल है क्योंकि हमारे घर को ठंडा रखने के  लिए जो गर्मी और जहर हम बाहर फेंक रहे हैं,वह किसी सीमा में बंधता नहीं है । वह धौलगिरी भी पहुच जाता है । वह हिमालय पर्वत श्रृंखला के बर्फ के पहाड़ों को भी पिघला रहा है। जब बर्फ के पहाड़ पिघलेंगे तो काली गण्डक में भी बाढ़ आएगी और विनाश आएगा ।
    दुनिया में एक व्यक्ति या एक समुदाय के कर्म दूसरे व्यक्ति, समुदाय और क्षेत्र को सीधे-सीधे प्रभावित करते हैं। यहाँ भी करेंगे । यही कारण है कि मैं धौलागिरी के  पहाड़ों के बीच बसे गांवों से खुद को अलग करके नहीं देख सकता, क्योंकि उनसे मेरा कुछ न कुछ रिश्ता तो है ही ।

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