रविवार, 15 मार्च 2015

हमारा भूमण्डल 
कैसे होगा, जलवायु संकट का समाधान
जागोडा मुनिक
जलवायु का संकट एवं परिवर्तन से निपटने का सबसे महत्त्वपूर्ण समाधान ऊर्जा के उत्पादन वितरण और हमारे उपभोग मेंनिहित है । आवश्यकता इस बात की है कि विकसित या औद्योगिक देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए एक बेहतर एवं सुरक्षित भविष्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाए । 
विश्व भर के जलवायु वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि हमने ऊर्जा उत्पादन का प्रदूषण भरा तरीका नहीं बदला तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपट नहीं पाएंगे । विज्ञान का मानना है कि जलवायु परिवर्तन खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है और हम इसका प्रभाव विकराल बाढ़, सूखा, तूफान आदि में देख सकते हैं । विश्वभर के समुदाय व लोग इसे भुगत रह हैं और हमारी सरकार आजीविका को लेकर लापरवाह बनी हुई है । 
वास्तविकता यह है कि हम वर्तमान में जिस तरह से ऊर्जा का उत्पादन, वितरण व उपभोग कर रहे है वह सुस्थिर नहीं है, अन्यायपूर्ण है और समुदायों, कर्मचारियों, पर्यावरण एवं जलवायु को नुकसान पहुंचा रहा   है । ऊर्जा से उत्पन्न उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है तथा यह गरीब देशों के अरबों लोगों को उपलब्ध भी नहीं है । विश्वभर में ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत है तेल, गैस और कोयला और यह समुदाय, उनकी भूमि, उनकी वायु एवं उनके पानी को नष्ट कर रहे हैं । इसके अलावा ऊर्जा के अन्य स्त्रोत जैसे परमाणु ऊर्जा, औद्योगिक कृषि इंर्धन एवं बायोमास, बड़े बांध एवं कचड़े से ऊर्जा उन्पादन भी हानिकारक नहीं   है । इनमें से कोई भी ऊर्जा हमारे भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं है । 
इस जलवायु संकट के वास्तविक समाधान मौजूद हैं । इनमें शामिल हैं फॉजिल इंर्धन का उपयोग रोकना, समुदाय आधारित ऊर्जा प्रणाली, कार्बन उत्सर्जन में जबरदस्त कमी, अपनी भोजन प्रणाली में रूपांतरण एवं वनों की कटाई   रोकना । इसे संभव बनाने के लिए आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय, एवं लोकतांत्रिक तरीके से एवं मानव अधिकारोंका सम्मान करते हुए हो । इसे संभव बानने के लिए आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय आवश्यकताआें के अनुकूल, जलवायु सुरक्षित, वहनीय एवं सबके लिए ऊर्जा तैयार करें । साथ ही आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय आवश्यकताआें के अनुकूल, जलवायु सुरक्षित, वहनीय एवं सबके लिए ऊर्जा तैयार करें । साथ ही आवश्यक है कि ऊर्जा पर जीवन का निर्भरता कम करी जाए । साथ ही आवश्यक है कि नई विध्वंसक ऊर्जा परियोजनाआें पर रोक लगे एवं वर्तमान परियोजनाआें को शनै: शनै: बंद किया जाए । इस हेतु व्यापार एवं निवेश के नियमोंमें बदलाव लाकर कारपोरेट प्रभाव कम करना होगा । 
हमारी सरकारें किस तरह इस समस्या से निपटना चाहती हैं ? पिछले २० वर्षोंा से संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए प्रयासरत है । लेकिन न तो हम जलवायु परिवर्तन रोक पाए और न ही इसकी रफ्तार धीमी कर पाए । हमारी सरकारेंभी झूठे वादे कर रही हैं रीड यानि वनों के नाश एवं उनके स्तर के गिरने को रोकने से उत्सर्जन को कम करना भी एक जोखिम भरी प्रणाली सिद्ध हो रही है । इस से जलवायु परिवर्तन तो नही रूका बल्कि विपरीत प्रभाव पड़े । इससे गरीब एवं देश समुदाय संकट में पड़ गए और बड़े कारपोरेशन ने खूब पैसा कमाया । हमारी सरकारें भी पिछले २० वर्षोंा में संयुक्तराष्ट्र संघ के माध्यम से किसी शक्तिशाली एवं न्यायपूर्ण जलवायु समझौते पर नहीं पहुंच पाई हैं और सम्मेलन की ओर उठे छोटे-मोटे कदम भी सही दिशा में नहीं हैं । इसका सीधा सा कारण है कि संरासंघ ने इन अनुबंधों को लेकर अत्यधिक समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाया है । इसकी वजह कारपोरेशनों का दबाव है जो कि गंदी ऊर्जा के उत्पादन से लाभ कमा रहा है । गौरतलब है सभी बड़े कारपोरेशन बड़ी मात्रा में प्रदूषण फैलाते हैं । 
दूसरा मुद्दा ऐतिहासिक जिम्मेदारी का है । विश्व के समृद्धतम, विकसित देश ही ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं । जबकि इन देशों में केवल १५ प्रतिशत आबादी ही निवास करती है ओर यही देश सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी करते है । जाहिर है जलवायु परिवर्तन के प्रलयंकारी प्रभावों से निपटने के लिए तो सभी के साथ आना होगा । हालांकि चीन, भारत व दक्षिण अफ्रीका मेंभी उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन उनका प्रति व्यक्ति अनुपात अभी कम है । दूसरी ओर लीमा में इस वर्ष कार्बन के बाजार को और फैलाने की जबरदस्त कोशिश थी । अमीर देशोंका यह बेफिजूल सा प्रस्ताव है । दूसरी ओर संरासंघ सन् १९९२ से मानव निर्मित एवं खतरनाक जलवायु परिवर्तन को रोकने में प्रयत्नशील है, लेकिन स्थितियां जस की तस हैं । इसकी एक वजह यह है कि विकसित देश इस दिशा में बहुत कम प्रयास कर रहे   हैं । 
आवश्यकता इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर बैठे विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को समझे ओर जलवायु परिवर्तन से निपटने में गरीब देशों की सहायता करें । इसका अर्थ है बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन का हस्तांतरण एवं विकसित देशों की हरित तकनीकों को भी विकासशील देशों को हस्तांतरित किया जाए । इससे अर्थव्यवस्थाएं टिकाऊ बन पाएंगी । साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर काबू पाने में मदद मिलेगी लोगों की आजीविका सुरक्षित हो पाएगी अधिक रोजगार सृजित हो पाएंगे एवं सभी के लिए वहनीय ऊर्जा तैयार हो पाएगी । इतने संकट के बावजूद संरासंघ की बातचीत गलत दिशा में जा रही  है क्योंकि विकसित देश अभी भी अपना वायदा पूरा नहीं कर रहे हैं । न्यायपूर्ण समझौते के लिए आवश्यक है कि विज्ञान की उपलब्धता सभी के लिए सुनिश्चित हो वैसे दुनिया भर में लोग पेरिस सम्मेलन को लेकर सचेत हो गए हैं न्यूयार्क में करीब ४ लाख लोग इसे लेकर सड़कों पर आए और सारे विश्व में यही हो रहा है । 
       दुनियाभर के लोग, सामाजिक आंदोलन कार्यकर्ता, युवा, किसान, महिला आंदोलन पेरू में हो रहे जन सम्मेलन में पहुंचे भी थे और उन्होंने सामुहिक तौर पर जलवायु परिवर्तन पर न्यायपूर्ण समझौते की आवाज उठाई । हमें अधिक व्यापक और मजबूत बनना होगा एवं सारी दुनिया के आंदोलनों का जलवायु न्याय को लेकर आवाज उठानी होगी । हमें यह विश्वास करना होगा कि जलवायु संकट का समाधान निकाला जा सकता है और वह हमारे हाथों में है । 

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