शुक्रवार, 18 मई 2018

प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : धधकते जंगल कब बुझेंगे ?
सुरेश भाई
उत्तराखंड में वनों का बचाना एक बड़ी चुनौती है । पिछले १६ सालों के आंकडे बतात है कि इस अवधि में राज्य में हर साल औसतन ४० हजार हेक्टेयर जंगल आग से तबाह हो रहे है । जिससे जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है । आग लगने से न सिर्फ राज्य बल्कि दूसरे क्षेत्रों के पर्यावरण पर भी असर पड़ता है । आग के धुएं की धुंध जहां दिक्कते खड़ी करती है, वही तापमान बढ़ने से ग्लेश्यिरों के पिघलने की रफ्तार भी बढ़ती है 
हिमालयी राज्यों में बारिश और बर्फ की कमी से जंगलों की आग थमने का नाम नहीं ले रही है । उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर के जंगलोंमें जनवरी से ही आग की घटनाएं बढ़ जाती है । लम्बे अन्तराल में हो रही बारिश की बूंदे ही आग को काबू करती है । इस बार केवल उत्तराखण्ड में ही १२४४ हेक्टेयर जंगल जल गये है । पिछले १६ वर्ष में यहां के लगभग ४० हजार हैक्टेयर जंगल आग से तबाह हो चुके है । चिन्ता की बात तो यह है कि वन विभाग प्रति वर्ष वनों में वृद्धि के आंकड़े दर्ज करता है । लेकिन आग के प्रभाव के कारण कम हुए वनों की सच्चाई सामने नही लाता है ।
देश के अन्य भागोंके जंगल भी आग की चपेट में आये है । जिसका एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष लगभग ३७.३ लाख हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित होते है । कहा जाता है कि इन जंगलों को पुर्न स्थापित करने के नाम पर हर वर्ष ४४० करोड़ से अधिक खर्च करने होतो है । उत्तराखण्ड वन विभाग ने तो पिछले१० सालो मे आग की घटनाआें का अध्ययन भी कराया है, जिसमें बताया गया ३.४६ लाख हेक्टेयर आग के लिये संवेदनशील है । ताजुब्ब तो तब हुआ कि जब उत्तरकाशी वन विभाग ने एक ओर वनाग्नि सुरक्षा पर बैठकें की है, दूसरी ओर फरवरी में कंट्रोल बर्निंग के नाम पर ३ हजार हेक्टेयर जंगल जला दिये है ।
उत्तराखंड में वनो में आग से जैव विविधता पर सर्वाधिक असर पड़ रहा है और तमाम जड़ी बूटियां विलुिप्त् के कगार पर पहूंच गई है । वन्यजीव स्थान बदल रहे है ।
देश भर के पर्यावरण संगठनोंने कई बार माँग की है कि `वनों को गांव को सौंप दो ।' अब तक यदि ऐसा हो जाता तो वनों के पास रहने वाले लोग स्वयं ही वनों की आग बुझाते । वन विभाग और लोगों के बीच में आजादी के बाद अब तक सामंजस्य नहीं बना है । जिसके कारण लाखों वन निवासी, आदिवासी और अन्य लोग अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय पार्कोंा के नाम पर बेदखल किये गये है । जिन लोगो ने पहले से ही अपने गांव में जंगल पाले हुए है, उन्हे भी अंग्रेजों के समय से चली आ रही व्यवस्था के अनुसार वन विभाग ने अतिक्रमणकारी मान रखा है । वे अपने ही जंगल से घास, लकड़ी व चारा लाने में सहजता महसूस नहीं करते है । यदि वनों पर गाँवों का नियन्त्रण होता और वन विभाग उनकी मदद करता, तो वनों को आग से बचाया जा सकता है ।
आमतौर पर माना जाता है कि वन माफियाओ का समूह वनों में आग लगाने के लिये सक्रिय रहता है । वे चाहे वन्य जीवों के तस्कर हो अथवा असफल वृक्षारोपण के सबूतों के नाम पर आग लगायी जाती है । इसके अलावा वनों को आग से सूखाकर सूखे पेड़ों के नाम पर वनों के कटान का ठेका भी मिलना आसान हो जाता है ।
वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । अकेले उत्तराखण्ड का उदाहरण ले तो १२०८९ वन पंचायत के सदस्योंकी संख्या १ लाख से अधिक है । इनका सहयोग अग्नि नियंत्रण में क्यों नहीं लिया जा रहा है ?
हर वर्ष करोड़ो रुपए के पौधारोपण करने की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक  जरुरत वनों को आग से बचाने की है । वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । गाँव के हक-हकूक भी आग से समाप्त् हो रहे है । बार-बार आग की घटनाआेंके बाद भूस्खलन की सम्भवानाएँ अधिक बढ़ जाती है । पहाड़ों में जिन झाड़ियों, पेड़ो और घास के सहारे मिट्टी और मलबे के ढेर जमे हुए रहते है, वे जलने के बाद थोड़ी सी बरसात में ही सड़कों की तरफ टूट कर आने लगते है । पहाड़ी राज्यों में इसके अनगिनत उदाहरण है कि आग लगने के बाद तेज बारिश ने बाढ एवं भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ायी है, जो आने वाली वर्षा में फिर तबाही का कारण बन सकती है ।
चिन्ता भविष्य की है कि क्या यों ही जंगल जलते रहेंगे या स्थानीय महिला संगठनों, पंचायतों को वन अधिकार सौंपकर आग जैसी भीषण आपदा से निपटेंगे । वन विभाग के पास ऐसी कोई मैन पावर नहीं है  कि वे अकेले ही लोगोंके सहयोग के बिना आग बुझा सकें ।***

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