गांधी पुण्यतिथि पर विशेष
गांधी समाज का बदलता पर्यावरण
रामचन्द्र राही
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदलता है । यह समाज निष्प्रभावी हुआ है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी,उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर खींचतान रहने लगी है । गांधी विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से हो सकता है आज गांधी को केवल प्रतीक बनाकर ही न छोड़ा जाए, बल्कि उन्हे अपने विचार और मूल्योंके केन्द्र में रखें ।
महात्मा गांधी के जन्म के १५० वर्ष मनाने के लिए सभी अपनी अपनी तरह से कोशिश कर रहेंहै ऐसा नही है कि गांधी-विचार की महत्ता १४९ वर्ष में कम हो, और १५० में बढ़ जाए यह १५० केवल अंक है जैसे सफर पर निकले लोगो के लिए जील का पत्थर, कुछ वैसे ही गांधी १५० हमारे लिए है यहां पहुंचकर हम हिसाब लगाते है कि हम कहां से निकले थे और कितनी दूर आ गए ? कहां जा रहे हैं? क्या हमारा रास्ता ठीक है, दिशा ठीक है? हम जहां पहुंचना चाहते है, वहां तक पहुंचने के लिए क्या करें?
गांधीजी के लोकशक्ति को गुलामी की राजशक्ति का सामना करने के लिए सक्षम बनाया था उन्होने कमज़ोर लोगों को मज़बूत बनाने के लिए दो तरीके दिये - सत्य और अहिंसा । देश की राजनीतिक आज़ादी के समय हमारे सामने एक बड़ी चुनौती थी । हमें सामाजिक, आर्थिक, तकनिकी और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ना था । राजनीतिक आजादी तो केवल एक ज़रिया थी, हमारे समाज में जिम्मेदारी, संयम और स्वाध्याय लाने की । गांधीजी के अनेक सहयोगियोंने उनके जाने के बाद यह काम बहुत लगन से किया ।
आजादी के १५-२० साल बाद तक लोक शक्ति संजोने का काम गांधी-विचार के भाव से होता रहा किन्तु उसके बाद,लोक शाक्ति के उभरने के बजाय उसका अभाव बढ़ता गया । उसके साथ ही साथ राज शक्ति का प्रभाव हर क्षेत्र मेंबढ़ता गया ।
आज हालात बहुत तेजी से बिगड़ रहे है राज शक्ति हर दायरे में अपनी पैठ बढ़ा रही है, लोक शक्ति क्षीण हो रही है । किसानों और बुनकरों की दुर्दशा तो किसी से भी छुपी नहीं है । रोज़गार विज्ञान, शोध, उद्यम, तकनिकी हर विद्या में राजशक्ति हावी है । यही नही, जहां कही लोक शक्ति अपने आप को संयोजित करने का प्रयास करती है, वही
राजशक्ति के प्रतिष्ठान उनकी वैद्यता पर सवाल उठाते है । जैसे कि जनता और समाज की वोट डालने के अलावा देश-समाज में कोई भूमिका ही नही हो ! इस तरह तो कोई भी स्वस्थ समाज खड़ा नहीं हो सकता । इतिहास हमारी गुलामी का कारण इसी में ही बताता है : हमारी लोकशक्ति ने राजशक्ति के सामने घुटने टेक दिये थे ।
आज हमारे पास राजनीतिक स्वतंत्रता है लेकिन हम अपनी बनाई हुई व्यवस्थाआेंके सामने पराधीन हो रहे है । हम विकास कि गुलामी मेंफंस रहे है । ऐसा विकास, जो प्राकृतिक साधनो को अंधाधुंध दुहता है, और उससे बने साधनों को राजशक्ति को अर्पित कर देता है । इतनी ताकत न तो राज शक्ति खुद से पैदा कर सकती है, और न ही इतने साधन पचा सकती है । इसलिए वह निरंकुश पूंजीवाद और बाजार को अपना आधार बना रही है बाजार और राज सत्ता में विकास नामक बालक को बंदी बना लिया है ।
इससे ठीक विपरीत, गांधीजी ने सबसे कमजोर लोगो को ताकत दी थी, उनके मन से राजशक्ति का डर निकाला था । उन्होनें प्रमाणित किया था उद्यम अनैतिक ही हो यह जरुरी नही है, सामाजिक समरस्ता से लोग धर्म और जाति की सकंुचित कोठियों से बाहर आ सकते है । परन्तु यह नया अपहृत विकास तो निर्बल को और पराधीन बनाता है कमजोर को बलि चढ़ाता है आज दरिद्रता में फंसतेलोगो के लिए विकल्प केवल अपराध और हिंसा ही बच रहा है । सत्य और अहिंसा पर आधारित उदाहरणोंका अभाव है ।
हमारे देश की एक विशेषता रही है । हमारे यहां गरीब और साधारण लोगों का रोज़गार प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, पर्यावरण की स्थिति पर टिका है । पर्यावरण की आधुनिक चेतना के पीछे गांधी-परिवार के सर्वोदयी कार्यकर्ता ही थे । चिपको आंदोलन में सारी दुनिया को दिखाया था कि साधारण लोग अपने वन, अपने पर्यावरण की रक्षा करने में सक्षम है । क्योंकि उनका अपने पर्यावरण से जीवंत संबंध है । उनका रोजगार जंगल-पानी पर टिका रहता है राजशक्ति को जंगल में केवलकटाऊ लक़़डी ही दिखती है । चिपको ग्रामीण महिलाआें का आंदोलन था, पर्यावरण चेतना का हरकारा ।
किन्तु हमारे समाज के साधन सम्पन्न वर्ग का खेतिहर और कामगार समाज से कोई रिश्ता नही बचा है । उसे सस्ता भोजन तो चाहिए लेकिन वहा किसान की मिट्टी की चिंता नहीं करना चाहता । अगर इस वर्ग की जरुरत हमारे खेतों से न हो, तो वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार की ताकत से विदेशी खाद्य वस्तुए ला सकता है । बाजार पर आधारित संबंध बाजारु ही होते है, उनमें सामाजिक बंधनों की मिठास नहीं हो सकती । मायूसी में बुनकर आत्महत्या कर रहें है, लेकिन हमारा अभिजात्य वर्ग आयातित पौशाक पहन कर तृप्त् है । अपने लोग, अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने नदी-तालाब के प्रति उनमेंकोई राग नही है केवल असीमित लोलुपता और उपभोग है, जिस ेलुटने और अनीति करने मेंउसे कोई संकोच नहीं होता ।
बाजार और राजशक्ति के नशें में रहने वाले इस वर्ग के मापदण्ड पश्चिम के उस समाज से आते है, जिसके असीम उपभोग से पृथ्वी की जलवायु बदल रही है । इसका सबसे बुरा प्रभाव हमारे जैसे गरीब देशोंपर पड़ेगा, हालांकि इसकी जिम्मेदारी पड़ती है, पश्चिमी देशों पर, उपभोग की तृष्णा पुरा करने वाले उनके उद्योगीकरण पर, जिसके विध्वंशक स्वभाव के बारे मेंगांधीजी ने हमें बहुत पहले ही चेता दिया था ।
गांधीजी की लिखाई में पर्यावरण शब्द नही दिखता, क्योंकि उनके समय में पर्यावरण की तबाही ने ऐसा रौद्र रुप धारण नही किया था जैसा कि आज हम अनुभव कर रहें है । इसके बावजूद, गांधीजी की लिखाई में और उनके जीवन-कर्म में, साधनों के प्रति खुद सावधानी दिखती है । क्योंकि उन्हें पता था कि पर्यावरण की रक्षा में सबसे कमजोर लोगों की हितो की रक्षा है । जिस ग्राम स्वराज की बात गांधीजी ने कि उसमे नदी कुएंऔर तालाब ही नही, मिट्टी, पशु-पक्षी, मवेशी और सभी जीव-जन्तुआें के लिए जगह है । उसमें संबंध उपयोग और उपभोग भर की नही है, बल्कि पूरी सृष्टि को अपनेपन और ममत्व से देखने की बात है । वरना पर्यारण की बात करने वाले गांधीजी को इतना क्यो मानते ?
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदला है । हम निष्प्रभावी हुए है, क्योंकिहम आपसी झगड़ो में फंसेहुए है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी, उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर तनाव रहने लगा है, मन-मुटाव रहने लगे है । गांधी-विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से ही हो सकता है, नियंत्रण या तिकड़म से नहीं हो सकता । अगर गांधीजी को सत्ता और प्रभुत्व से काम करना होता तो उन्होने सत्य और अहिंसा का सहारा क्यों लिया होता ? कोई चुनाव लड़ते, किसी महत्वपूर्ण पद पर काबिज हो जाते । लेकिन उन्होने ऐसा नही किया । उन्हे किसी प्रतिष्ठान पर नही, अपने लोगों के दिल पर राज़ करना था ।
आज हम अपने-अपने संस्थानों में, प्रतिष्ठानों में नियंत्रण की लड़ाई लडे रहे है । यह आत्मघात ही है । हम अपने रास्ते से भटक रहे है इसलिए हमारा प्रभाव घट रहा है । संस्थाआें में नई उर्जा ला सके, ऐसे नये और प्रभावशाली लोग नहीं है । हम सामाजिक कार्यकर्ता होते हुए भी अपने लोगों की नब्ज़टटोल नही पा रहे है । उन्हे देने के लिए जो स्नेह और अपनापन हमारे पास होना चाहिए उसे हमारी आपसी कलह नष्ट कर रही है ।
इस भटकाआें से हमें बचना होगा, एक-दूसरे को संबल देना होगा । अपने विचार और मूल्यों को आज की जरुरतों के हिसाब से ताजा करना होगा। यह नहीं करेंगे तो मरेंगे, यह निश्चित है। हमारे विचार पर आधारित कर्म के बिना हमारा वजूद बहुत समय तक बचेगा नहीं ।
राजशक्ति और पूंजी के सामने सत्य और अहिंसा हार जाएगें । इसलिए नही कि सत्य और अहिंसा में ताकत नहीं है । इसलिए कि सत्य और अहिंसा के लोगो का अपने मूल्यो में विश्वास कमजोर हुआ है ।
हमारे द्वेष इतने गहरे भी नही है। अगर हम सब एक-दूसरे से हारने को तैयार हो जाए, तो हम सभी की जीत तय है । हम गांधी को केवलप्रतीक बना कर न छोड़ दे, उन्हे अपने विचार और मूल्यों के केन्द्र में रखना होगा । ***
गांधी समाज का बदलता पर्यावरण
रामचन्द्र राही
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदलता है । यह समाज निष्प्रभावी हुआ है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी,उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर खींचतान रहने लगी है । गांधी विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से हो सकता है आज गांधी को केवल प्रतीक बनाकर ही न छोड़ा जाए, बल्कि उन्हे अपने विचार और मूल्योंके केन्द्र में रखें ।
महात्मा गांधी के जन्म के १५० वर्ष मनाने के लिए सभी अपनी अपनी तरह से कोशिश कर रहेंहै ऐसा नही है कि गांधी-विचार की महत्ता १४९ वर्ष में कम हो, और १५० में बढ़ जाए यह १५० केवल अंक है जैसे सफर पर निकले लोगो के लिए जील का पत्थर, कुछ वैसे ही गांधी १५० हमारे लिए है यहां पहुंचकर हम हिसाब लगाते है कि हम कहां से निकले थे और कितनी दूर आ गए ? कहां जा रहे हैं? क्या हमारा रास्ता ठीक है, दिशा ठीक है? हम जहां पहुंचना चाहते है, वहां तक पहुंचने के लिए क्या करें?
गांधीजी के लोकशक्ति को गुलामी की राजशक्ति का सामना करने के लिए सक्षम बनाया था उन्होने कमज़ोर लोगों को मज़बूत बनाने के लिए दो तरीके दिये - सत्य और अहिंसा । देश की राजनीतिक आज़ादी के समय हमारे सामने एक बड़ी चुनौती थी । हमें सामाजिक, आर्थिक, तकनिकी और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ना था । राजनीतिक आजादी तो केवल एक ज़रिया थी, हमारे समाज में जिम्मेदारी, संयम और स्वाध्याय लाने की । गांधीजी के अनेक सहयोगियोंने उनके जाने के बाद यह काम बहुत लगन से किया ।
आजादी के १५-२० साल बाद तक लोक शक्ति संजोने का काम गांधी-विचार के भाव से होता रहा किन्तु उसके बाद,लोक शाक्ति के उभरने के बजाय उसका अभाव बढ़ता गया । उसके साथ ही साथ राज शक्ति का प्रभाव हर क्षेत्र मेंबढ़ता गया ।
आज हालात बहुत तेजी से बिगड़ रहे है राज शक्ति हर दायरे में अपनी पैठ बढ़ा रही है, लोक शक्ति क्षीण हो रही है । किसानों और बुनकरों की दुर्दशा तो किसी से भी छुपी नहीं है । रोज़गार विज्ञान, शोध, उद्यम, तकनिकी हर विद्या में राजशक्ति हावी है । यही नही, जहां कही लोक शक्ति अपने आप को संयोजित करने का प्रयास करती है, वही
राजशक्ति के प्रतिष्ठान उनकी वैद्यता पर सवाल उठाते है । जैसे कि जनता और समाज की वोट डालने के अलावा देश-समाज में कोई भूमिका ही नही हो ! इस तरह तो कोई भी स्वस्थ समाज खड़ा नहीं हो सकता । इतिहास हमारी गुलामी का कारण इसी में ही बताता है : हमारी लोकशक्ति ने राजशक्ति के सामने घुटने टेक दिये थे ।
आज हमारे पास राजनीतिक स्वतंत्रता है लेकिन हम अपनी बनाई हुई व्यवस्थाआेंके सामने पराधीन हो रहे है । हम विकास कि गुलामी मेंफंस रहे है । ऐसा विकास, जो प्राकृतिक साधनो को अंधाधुंध दुहता है, और उससे बने साधनों को राजशक्ति को अर्पित कर देता है । इतनी ताकत न तो राज शक्ति खुद से पैदा कर सकती है, और न ही इतने साधन पचा सकती है । इसलिए वह निरंकुश पूंजीवाद और बाजार को अपना आधार बना रही है बाजार और राज सत्ता में विकास नामक बालक को बंदी बना लिया है ।
इससे ठीक विपरीत, गांधीजी ने सबसे कमजोर लोगो को ताकत दी थी, उनके मन से राजशक्ति का डर निकाला था । उन्होनें प्रमाणित किया था उद्यम अनैतिक ही हो यह जरुरी नही है, सामाजिक समरस्ता से लोग धर्म और जाति की सकंुचित कोठियों से बाहर आ सकते है । परन्तु यह नया अपहृत विकास तो निर्बल को और पराधीन बनाता है कमजोर को बलि चढ़ाता है आज दरिद्रता में फंसतेलोगो के लिए विकल्प केवल अपराध और हिंसा ही बच रहा है । सत्य और अहिंसा पर आधारित उदाहरणोंका अभाव है ।
हमारे देश की एक विशेषता रही है । हमारे यहां गरीब और साधारण लोगों का रोज़गार प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, पर्यावरण की स्थिति पर टिका है । पर्यावरण की आधुनिक चेतना के पीछे गांधी-परिवार के सर्वोदयी कार्यकर्ता ही थे । चिपको आंदोलन में सारी दुनिया को दिखाया था कि साधारण लोग अपने वन, अपने पर्यावरण की रक्षा करने में सक्षम है । क्योंकि उनका अपने पर्यावरण से जीवंत संबंध है । उनका रोजगार जंगल-पानी पर टिका रहता है राजशक्ति को जंगल में केवलकटाऊ लक़़डी ही दिखती है । चिपको ग्रामीण महिलाआें का आंदोलन था, पर्यावरण चेतना का हरकारा ।
किन्तु हमारे समाज के साधन सम्पन्न वर्ग का खेतिहर और कामगार समाज से कोई रिश्ता नही बचा है । उसे सस्ता भोजन तो चाहिए लेकिन वहा किसान की मिट्टी की चिंता नहीं करना चाहता । अगर इस वर्ग की जरुरत हमारे खेतों से न हो, तो वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार की ताकत से विदेशी खाद्य वस्तुए ला सकता है । बाजार पर आधारित संबंध बाजारु ही होते है, उनमें सामाजिक बंधनों की मिठास नहीं हो सकती । मायूसी में बुनकर आत्महत्या कर रहें है, लेकिन हमारा अभिजात्य वर्ग आयातित पौशाक पहन कर तृप्त् है । अपने लोग, अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने नदी-तालाब के प्रति उनमेंकोई राग नही है केवल असीमित लोलुपता और उपभोग है, जिस ेलुटने और अनीति करने मेंउसे कोई संकोच नहीं होता ।
बाजार और राजशक्ति के नशें में रहने वाले इस वर्ग के मापदण्ड पश्चिम के उस समाज से आते है, जिसके असीम उपभोग से पृथ्वी की जलवायु बदल रही है । इसका सबसे बुरा प्रभाव हमारे जैसे गरीब देशोंपर पड़ेगा, हालांकि इसकी जिम्मेदारी पड़ती है, पश्चिमी देशों पर, उपभोग की तृष्णा पुरा करने वाले उनके उद्योगीकरण पर, जिसके विध्वंशक स्वभाव के बारे मेंगांधीजी ने हमें बहुत पहले ही चेता दिया था ।
गांधीजी की लिखाई में पर्यावरण शब्द नही दिखता, क्योंकि उनके समय में पर्यावरण की तबाही ने ऐसा रौद्र रुप धारण नही किया था जैसा कि आज हम अनुभव कर रहें है । इसके बावजूद, गांधीजी की लिखाई में और उनके जीवन-कर्म में, साधनों के प्रति खुद सावधानी दिखती है । क्योंकि उन्हें पता था कि पर्यावरण की रक्षा में सबसे कमजोर लोगों की हितो की रक्षा है । जिस ग्राम स्वराज की बात गांधीजी ने कि उसमे नदी कुएंऔर तालाब ही नही, मिट्टी, पशु-पक्षी, मवेशी और सभी जीव-जन्तुआें के लिए जगह है । उसमें संबंध उपयोग और उपभोग भर की नही है, बल्कि पूरी सृष्टि को अपनेपन और ममत्व से देखने की बात है । वरना पर्यारण की बात करने वाले गांधीजी को इतना क्यो मानते ?
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदला है । हम निष्प्रभावी हुए है, क्योंकिहम आपसी झगड़ो में फंसेहुए है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी, उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर तनाव रहने लगा है, मन-मुटाव रहने लगे है । गांधी-विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से ही हो सकता है, नियंत्रण या तिकड़म से नहीं हो सकता । अगर गांधीजी को सत्ता और प्रभुत्व से काम करना होता तो उन्होने सत्य और अहिंसा का सहारा क्यों लिया होता ? कोई चुनाव लड़ते, किसी महत्वपूर्ण पद पर काबिज हो जाते । लेकिन उन्होने ऐसा नही किया । उन्हे किसी प्रतिष्ठान पर नही, अपने लोगों के दिल पर राज़ करना था ।
आज हम अपने-अपने संस्थानों में, प्रतिष्ठानों में नियंत्रण की लड़ाई लडे रहे है । यह आत्मघात ही है । हम अपने रास्ते से भटक रहे है इसलिए हमारा प्रभाव घट रहा है । संस्थाआें में नई उर्जा ला सके, ऐसे नये और प्रभावशाली लोग नहीं है । हम सामाजिक कार्यकर्ता होते हुए भी अपने लोगों की नब्ज़टटोल नही पा रहे है । उन्हे देने के लिए जो स्नेह और अपनापन हमारे पास होना चाहिए उसे हमारी आपसी कलह नष्ट कर रही है ।
इस भटकाआें से हमें बचना होगा, एक-दूसरे को संबल देना होगा । अपने विचार और मूल्यों को आज की जरुरतों के हिसाब से ताजा करना होगा। यह नहीं करेंगे तो मरेंगे, यह निश्चित है। हमारे विचार पर आधारित कर्म के बिना हमारा वजूद बहुत समय तक बचेगा नहीं ।
राजशक्ति और पूंजी के सामने सत्य और अहिंसा हार जाएगें । इसलिए नही कि सत्य और अहिंसा में ताकत नहीं है । इसलिए कि सत्य और अहिंसा के लोगो का अपने मूल्यो में विश्वास कमजोर हुआ है ।
हमारे द्वेष इतने गहरे भी नही है। अगर हम सब एक-दूसरे से हारने को तैयार हो जाए, तो हम सभी की जीत तय है । हम गांधी को केवलप्रतीक बना कर न छोड़ दे, उन्हे अपने विचार और मूल्यों के केन्द्र में रखना होगा । ***
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