गुरुवार, 14 नवंबर 2013

स्वास्थ्य
जीवन रक्षक दवाइयों से वंचित हैं मरीज
भारत डोगरा

    सरकारी अस्पतालों व स्वास्थ्य केन्द्रों में जरूरी दवाइयां नि:शुल्क उपलब्ध करवाने का केन्द्र सरकार का वायदा देश के अधिकांश क्षेत्रों में महज वायदा ही बन कर रह गया है । वैसे कुछ राज्यों, जैसे तमिलनाडु और केरल, ने इस क्षेत्र में पहले भी अपने स्तर पर अच्छा कार्य किया था और अब राजस्थान में भी सराहनीय कार्य हुआ है । पर देश के बड़े हिस्से में अभी सरकार की योजना किसी असरदार रूप से नजर नहीं आ रही है । इसकी एक मुख्य वजह यह है कि केन्द्र सरकार ने इस योजना को आगे ले जाने के लिए बजट प्रावधान न के बराबर किया है । 
     दवाइयों के निशुल्क वितरण के लिए यह जरूरी है कि पहले सस्ती जेनेरिक दवाइयों की केन्द्रीय खरीद की एक बड़ी व्यवस्था स्थापित की जाए । पिछले अनुभव से स्पष्ट हो गया है कि इस तरह अधिकांश जीवन रक्षक दवाइयां बाजार भाव की अपेक्षा बहुत सस्ती कीमत पर खरीदी जा सकती हैं । उसके बाद इन दवाइयों को सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में निशुल्क उपलब्ध करवाना अपेक्षाकृत कम बजट में संभव   होगा ।
    केन्द्र सरकार इस पहल में जो देरी कर रही है वह उन करोड़ों मरीजों के लिए बहुत महंगा साबित हो रहा है जो जरूरी दवाइयों से वंचित है या महंगी दवाइयों के लिए ब्याज पर कर्ज लेने को मजबूर हैं ।
    चारू गर्ग व अनुप करन के एक अध्ययन के अनुसार मात्र एक वर्ष में ३ करोड़ २० लाख व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाआें के अधिक खर्च के कारण गरीबी की रेखा के नीचे धकेले गए । इससे कुछ पहले वान डोरस्लेअर, ओडोनेल व रैनन-एलिया व अन्य के एक अध्ययन ने ऐसे लोगों की संख्या ३ करोड़ ७० लाख आंकी थी ।
    विभिन्न अध्ययनों के अनुसार वैसे तो सरकारी व गैर सरकारी दोनों तरह के अस्पतालों में इलाज पहले से महंगा हुआ है, पर कुल मिलाकर निजी क्षेत्र के अस्पतालों में इलाज सरकारी अस्पतालों से कहीं अधिक महंगा है । अस्पतालों व डॉक्टरों की फीस के अतिरिक्त दवाइयों की कीमत बहुत अधिक बढ़ी है । विभिन्न तरह के इलाज के खर्च में सबसे बड़ा हिस्सा दवाइयों का ही है । पेंटेट कानूनों में बदलाव के बाद कीमतें तेजी से बढ़ रही है । साथ ही साथ दवा कीमतों पर नियंत्रण भी ढीला हो रहा है व बड़ी कंपनियों की मनमानी बढ़ रही है ।
    दवा उद्योग अपनी तरह का एक अलग ही उद्योग है जिसमें उपभोक्ता, मरीज व उसके परिवार के सदस्य के हितों की रक्षा करना बहुत जरूरी है । इसके लिए उद्योग का उचित व न्यायसंगत नियमन करना बहुत जरूरी है । अनेक धनी, विकसित देशोंमें कुछ हद तक मरीजों की दवा की व्यवस्था सरकार की ओर से, सामाजिक बीमा आदि के माध्यम से की जाती है । पर हमारे देश में स्थिति इससे बहुत भिन्न है ।
    हमारे देश में स्वास्थ्य, मुख्य रूप से इलाज पर होने वाला ८३ प्रतिशत खर्च मरीजों के परिवार व सगे-संबंधी करते हैं व स्वास्थ्य पर मात्र १७ प्रतिशत खर्च सरकार करती है । मरीजों का लगभग  ७० प्रतिशत खर्च दवाइयों पर होता है । देश में व्यापक स्तर पर गरीबी है और लोगों की क्रय शक्ति बहुत कम है । दुनिया में सबसे अधिक संख्या में जरूरी दवाइयों से वंचित लोग भारत में है और विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार ऐसे लोगों की संख्या ६४ करोड़ है ।
    कड़वी सच्चई तो यह है कि हमारे देश का दवा उद्योग ठीक से नियमित नहीं हो रहा है । इसका मूल आधार मरीजों की जरूरत नहीं है अपितु मोटा मुनाफा है । इसके अतिरिक्त इसमें लापरवाही भी बहुत  है ।
    सबसे सस्ती दवाइयां जेनेरिक रूप में उपलब्ध होती है जो प्राय: नहीं लिखी जाती है । इसकी एक मुख्य वजह यह है कि दवा कंपनियां डॉक्टरों को महंगी दवा लिखने के लिए कई प्रलोभन देती हैं । डॉक्टर प्राय: कंपनियों के प्रतिनिधियों की बात को उनकी दवा की कीमत व गुणवत्ता की पर्याप्त् जांच-पड़ताल के बिना ही स्वीकार कर लेते हैं ।
    दवा की कीमत का उसके उत्पादन की लागत से कोई रिश्ता नहीं रह गया है । मनमानी कीमत वसूली जा रही है । यदि यह देखा जाए कि थोक बिक्री के वक्त या बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद के समय किसी दवा की कितनी कीमत तय की जाती है (इसमेंभी कुछ मुनाफा तो शामिल होता ही है) और इसकी तुलना बाजार में मरीज से वसूली गई कीमत से की जाए तो कई गुना का फर्क नजर आता है ।
    वर्ष २०१२ में जो राष्ट्रीय दवा मूल्य निर्धारण नीति अपनाई गई है, उससे कोई उम्मीद नहीं बंधती है । इससे कुछ दवाइयों की कीमतें जरूर कम हुई है, पर भविष्य में कीमत बढ़ने की संभावना बनी हुई है व साथ ही बहुत सी कॉम्बीनेशन (मिश्रित) दवाइयों को तो इस नियंत्रण के दायरे से बाहर रखा गया है । दवा मूल्य निर्धारण का जो नया तरीका सूझाया गया है उसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं है । इस तरह बुनियादी समस्याएं तो बरकरार हैं ।
    मौजूदा अव्यवस्था का एक पक्ष यह है कि कई ऐसी खतरनाक दवाइयां भी बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं जिनके बारे में कई चेतावनियां दी जा चुकी हैं कि ये सुरक्षित नहीं  हैं । मसलन, एनाल्जिन को हाल ही में भारतीय दवा नियंत्रक ने प्रतिबंधित भी किया, पर कुछ ही दिनों बाद यह प्रतिबंध वापस ले लिया गया । हैरानी की बात है कि यह दवा कुछ दिन पहले खतरनाक पाई गई थी तो अब इसका खतरा दूर कैसे हो गया ? यह सवाल उठा कि कही एनाल्जिन पर प्रतिबंध इस कारण तो नहीं हटा कि इसकी वार्षिक बिक्री १०० करोड़ रूपए है और दवा उद्योग का दबाव था कि बिक्री जारी रहे ।
    यदि इसके दुष्परिणाम गंभीर है तो क्या दवा लेने वाले मरीजों के लिए गंभीर खतरा नहींउत्पन्न होता   है । अनेक देश इस दवा को इस आधार पर प्रतिबंधित कर चुके हैं कि इसके सेवन से जीवन को खतरे में डालने वाली ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जिसमें शरीर की रक्षा करने वाली कोशिकाएं कम होने लगती    हैं ।
    इस तरह आज बाजार में बहुत सी खतरनाक दवाइयां बिक रही हैं । विशेषकर, कॉम्बीनेशन के रूप में इनकी बिक्री अधिक है । दूसरी ओर, जवीन रक्षक दवाइयां करोड़ों मरीजों को महंगाई व गरीबी के कारण नहीं मिल रही है ।
    दवा उद्योग के महत्व को देखते हुए उसके उचित नियमन के प्रयास और मजबूत होने चाहिए । साथ मेंजरूरी दवाइयों के उत्पादन व उपलब्धि में सार्वजनिक क्षेत्र को स्वयं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी  चाहिए ।

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