मंगलवार, 18 नवंबर 2014

ज्ञान विज्ञान
बुखार और बीमारी
    वैसे तो किसी मरीज का शरीर गर्म महसूस होना चिन्ता का विषय रहता है मगर तापमान नापकर उसका रिकॉर्ड रखना और उसका संबंध विशिष्ट रोगों से देख पाना उन्नीसवीं सदी में ही शुरू हुआ है ।
    बताते हैं कि गैलीलियो ने पहला तापमापी १५९२ में बनाया था मगर इसमें तापमान का कोई पैमाना नहीं था और इसमें वायुमण्डलीय दाब का बहुत असर पड़ता था । पहला पैमाने वाला तापमापी सेंटोरियो नामक इतालवी वैज्ञानिक ने १६२५ में बनाया था मगर यह काफी बड़ा सा उपकरण था और इसका उपयोग करना आसान काम नहीं था । फिर भी इसकी मदद से मरीज का तापमान लिया जा सकता था । अलबत्ता, बात तब बनी जब फैरनहाइट ने तापमापी में पारे का उपयोग किया । इसके चलते एक तो इस तापमापी की साइज ठीक-ठाक हो गई और तापमान नापने में समय भी कम लगने लगा । 
     मगर इतना सब हो जाने के बाद भी चिकित्सकों ने तापमापी को आसानी से अपनाया नहीं । इसे एक आम डॉक्टरी औजार बनाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े थे । जैसे हर्मैन बोरहावे ने अपने छात्रों के साथ मिलकर सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षो में तापमापी का न सिर्फ उपयोग करना शुरू किया बल्कि इसकी मदद से उन्होनें एक सामान्य व्यक्ति के शरीर के तापमान में दैनिक उतार-चढ़ाव का रिकॉर्ड रखा और यह भी दर्शाया कि जब कंपकंपी छूटती है तो तापमान भी बढ़ता है । इसके अलावा वे यह भी देख पाए थे कि तापमान बढ़ने पर नब्ज की गति भी बढ़ जाती है । उनका कहना था कि तापमान रोग की निगरानी का अच्छा तरीका है मगर बाकी लोग नहीं माने ।
    इस संदर्भ में जर्मन चिकित्सक कार्ल वुंडरलिश की पुस्तक का निर्णायक महत्व रहा । उन्होनें १८६८ में २५००० मरीजों के कोई १० लाख तापमान रिकॉर्डिग के आधार पर यह दर्शाया कि एक सामान्य व्यक्ति का तापमान ३६.३ से ३७.५ डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है । इससे कम या ज्यादा तापमान बीमारी का संकेत है । उन्होनें ये सारे तापमान जिस तापमापी से रिकॉर्ड किए थे वह करीब १ फुट का था और उस बगल में रखकर तापमान नापने में १० मिनट से ज्यादा लगते थे । वुंडरलिश ने अपनी पुस्तक ऑन दी टेम्परेचर इन डिसीज में शरीर के तापमान  और बीमारियों के संबंध पर काफी विस्तार से लिखा था । लगभग इसी समय १८६६ में थॉमस एल्बट ने तापमापी को काट-छाटकर ६ इंच का बना दिया । इसके बाद तो थर्मोमीटर लोकप्रिय हुआ और अब तो इसका उपयोग विश्वव्यापी है ।

गेहूं के जीनोम का खुलासा और उपज वृद्धि
    गेहूं एक महत्वपूर्ण फसल   हैं । यह दुनिया की ३० प्रतिशत आबादी का पेट भरती है और मनुष्यों को कुल कैलोरी खपत में से २० प्रतिशत प्रदान करती है । बढ़ती आबादी के मद्देनजर गेहूं की उपज बढ़ाना जरूरी है । इसके अलावा, बदलती जलवायु के अन्तर्गत इसकी साज-संभाल पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है । गेहूं का जीनोम (यानी गेहूं में उपस्थित समस्त जीन्स का समूह) का खुलासा होने से इन दोनों उद्देश्यों में मदद मिलेगी ।
    गेहूं का जीनोम पता करने में कई दिक्कतें रही हैं । सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वर्तमान गेहूं की फसल कई बार कई प्रजातियों के संकरण से बनी है । परिणाम यह है कि आज गेहूं का जीनोम तीन स्पष्ट: अलग-अलग उप-जीनोम से मिलकर बना है । प्रत्येक उप-जीनोम में ७-७ जोड़ी गुणसूत्र हैं । यानी गेहूं का जीनोम में कुल ४२ गुणसूत्र हैं । जब विश्लेषण किया जाता है तो बताना मुश्किल होता है कि कौन से जीन्स किस उप-जीनोम के हिस्से   हैं । कई बार अलग-अलग उप-जीनोम में एक-से-जीन्स होते हैं । 
      एक और दिक्कत यह है कि उपरोक्त ४२ गुणसूत्रों में डीएनए की लम्बी-लम्बी श्रृंखलाआें की पुनरावृत्ति होती है । इस वजह से डीएनए के अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर डीएनए के क्रम का चित्र बनाना मुश्किल होता है ।
    वैसे भी पहले-पहल किसी पौधे का जीनोम सन २००० में पता किया गया था । यह पौधा था एरेबिडोप्सिस थेलियाना । मगर गेहूं का जीनोम में इसके मुकाबले कहीं ज्यादा जीन्स हैं । एक अनुमान के मुताबिक गेहूं का जीनोम में १७ अरब क्षार जोड़ियां हैं और करीब १,२४,००० जीन्स हैं ।
    अब इंटरनेशनल व्हीट जीनोम सीक्वेंसिंग कंसॉर्शियम ने गेहूं के २१ जोड़ी गुणसूत्रों में से एक गुणसूत्र (३बी) का क्षार क्रम प्रकाशित किया है । अभी भी २० जोड़ियों का विवरण बाकी है ।
    मगर इस बात पर सभी सहमत हैं कि गेहूं का जीनोम हाथ में आ जाए, तो इसके संवर्धन में बहुत मदद मिलेगी । इसके आधार पर ऐसे जेनेटिक चिन्हों की पहचान हो सकेगी जो विभिन्न गुणों का निर्धारण करते हैं । जैसे बीमारियों के खिलाफ प्रतिरोध या दाने की गुणवत्ता वगैरह गुणों को चुना जा सकेगा । इसके अलावा उन जीन्स को भी पहचाना जा सकेगा जो पौधे की वृद्धि के विभिन्न पहलुआें का नियमन करते हैं ।
    एक बात यह भी देखी गई है कि एक-से जीन्स अलग-अलग गुणसूत्रों पर हो तो वे अलग-अलग ढंग से कार्य करते हैं । यह सूचना भी काफी उपयोगी साबित होगी ।

भुखमरी का पीढ़ियों पर असर
    मां को मिलने वाले भोजन का असर उसकी संतानों पर होता  है । एक प्रयोग में देखा गया था कि जिन चुहियाआें को गर्भावस्था के दौरान भूखा रखा जाता है उनके बच्चें में डायबिटीज होने की संभावना ज्यादा होती है । और तो और, इन बच्चें के बच्चें को भी बीमारी का जोखिम ज्यादा रहता है । अब एक और अध्ययन में इस निष्कर्ष की पुष्टि की है और बताया कि ऐसा क्यों होता है ।
    पीढ़ी दर पीढ़ी आनुवंशिकता के दावे सदा से विवादों में रहे हैं । कई वैज्ञानिकों का दावा है कि भोजन, फफूंदनाशी रसायन और यहां तक कि डर का असर भी अगली पीढ़ी में जाता है । इसके लिए वे जिस चीज को जिम्मेदार ठहराते हैं उसे एपिजेनेटिक बदलाव  कहा जाता है । 
       एपिजेनेटिक बदलाव का मतलब यह होता है कि आपके डीएनए की श्रृंखला के क्रम में तो कोई परिवर्तन नहीं होता मगर उस पर जगह-जगह कुछ रसायन जुड़ जाते हैं जिसकी वजह से कई जीन्स की अभिव्यक्ति प्रभावित होती है । कई वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी व्यक्ति के जीवनकाल में होने वाले ये एपिजेनेटिक बदलाव उसी के साथ खत्म हो जाते हैं, अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचते । मगर साइन्स पत्रिका में एनी फर्ग्यूसन स्मिथ और उनके साथियों के शोध पत्र में बताया गया है कि ऐसे एपिजेनेटिक बदलाव अगली पीढ़ियों में पहुंचते है ।
    फर्ग्यूसन-स्मिथ के दल ने चूहों की ऐसी किस्म ली जो गर्भावस्था के अंतिम दौर मेंे सामान्य से ५० प्रतिशत कम कैलोरी मिलने पर भी जीवित रहते हैं । इन चुहियाआें ने जिन बच्चें को जन्म दिया है वे कम वजन के थे मगर आगे चलकर इनमें डायबिटीज जैसे लक्षण पैदा हो गए, जैसे ग्लूकोज असहनशी-लता । यह भी देखा कि इस दूसरी पीढ़ी के नर चूहों के बच्च्े हुए तो उनमें भी डायबिटीज के लक्षण नजर आए जबकि इन चूहों को सामान्य भोजन मिला था ।
    फर्ग्यूसन-स्मिथ ने भुखमरी से पीड़ित मांआें की नर संतानों के शुक्राणुआें की तुलना कुछ सामान्य नर चूहों के शुक्राणुआें से की । वे यह देखना चाहती थी कि क्या इन दो समूहों में डीएनए में एपिजेनेटिक परिवर्तन अलग-अलग स्थानों पर हुआ है । गौरतलब है कि नर भू्रण में शुक्राणुआें का निर्माण करने वाली जर्म कोशिकाएं उसी अवधि में बनती हैं जब इनकी मां को भूखा रखा गया था ।

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