शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

जनजीवन
पर्यावरण और स्वच्छ भारत अभियान
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

स्वच्छ रहना मनुष्य ही नहीं अपितु प्राणी मात्र का स्वभावहै । इसलिए पशु पक्षी भी अपने रहने-बैठने के स्थान पर स्वच्छता बनाये रखने का प्रयास करते है । 
स्वच्छता अभियान मात्र एक अभियान नहीं हैं, यह कई अभियानों का जोड़ है । इसमें शामिल है घर-अहाते की सफाई से लेकर शौचालय बनाना, सड़कों एवं घरों में कचरे से लेकर ई-कचरे का निपटान करना, इसमें पनघटों एवं जल मार्गो की सफाई जैसे अनेक कार्य शामिल है । मानव निर्मित उत्पादनों एवं प्रकृति प्रदत्त उत्पादनों में बुनियादी अंतर यही है कि प्राकृतिक उत्पाद अपनी उपयोगिता पूर्ण होने पर पुर्नचक्रित होकर पुन: प्रकृति का हिस्सा बन जाते है, जबकि मानव निर्मित वस्तुएें अनुपयोगी होने पर कचरे का निर्माण करती है । 
एक स्वच्छ राष्ट्र के निर्माण मेंस्वच्छता की अहम भूमिका होती  है । यह निश्चित है कि हमारे आसपास का वातावरण अगर अस्वच्छ रहा तो रोग फैलाने वाली परिस्थितियोंका निर्माण होगा । रोगों के उपचार पर धन खर्च करने एवं कष्ट सहन करने के स्थान पर स्वच्छता पर जोर देकर अपने परिसर को साफ-सफाई पर ध्यान देना  होगा । 
आज कल जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकरण के साथ ही भोगवादी सभ्यता के विकास ने कचरे की समस्या को बहुआयामी विस्तार दिया है । वर्तमान में यह दुनिया की प्रमुख समस्याआें में से एक है । दुनिया में जो देश और समाज जितना अधिक उपभोक्तावादी है, वह उतना ही अधिक कचरा उत्पादक भी है । हमारे देश में भी आदिवासी क्षेत्र और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां उपभोक्तावाद का प्रभाव कम है, कचरे की समस्या इतनी विकराल स्थिति में नहीं है । 
कचरे की श्रेणी में वे सभी पदार्थ आते है जिनके अनियोजित एकत्रीकरण से किसी न किसी रूप में प्रदूषण होता है और परिणाम स्वरूप मानव एवं अन्य जीवों के जीवन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग शोध संस्थान (नीरी) द्वारा देश के ४३ शहरों से एकत्रित जानकारी से पता चलता है कि शहरी कचरे में ४०-५० प्रतिशत तक ठोस जैव विघटनशील पदार्थ होते है । ठोस कचरे का आमतौर पर भूमि भराव में उपयोग होता है । इस प्रक्रिया से भूजल का प्रदूषण होता है क्योंकि इन स्थलों से कई विषैले पदार्थ धीरे-धीरे भूजल में रिसते रहते है । 
भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत ४१४ ग्राम कचरा निकलता है । इसका ठीक से उपचार हो तो पूरा देश स्वच्छ हो सकता है । देश में ५१०० नगरीय निकाय है, इनमें हर साल ६० लाख टन कचरा निकलता है, इसमें यदि औद्योगिक कचरे को भी शामिल कर लें तो इस कचरे से १०,००० मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है । हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब १५ लाख टन ई-कचरा पैदा होता है । देश में चिकित्सीय कचरा व न सिर्फ साफ सफाई अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चिंता का विषय बनता जा रहा है । 
सौंदर्य के प्रति सहज आकर्षण ने मनुष्य में सफाई के प्रति संवेदनशीलता पैदा की है । यही कारण है कि साफ सफाई की दिशा में कचरे से निपटने के प्रयास पिछले ५००० वर्षो से निरन्तर जारी है । करीब ५००० वर्ष पूर्व ग्रीस में पहली बार कचरे का उपयोग भूमि भराव में किया गया था । आज भी सारी दुनिया में कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों में भूमि भराव प्रमुख है। 
सफाई प्रकृतिकी मौलिक विशेषता है । प्रकृति के पांच मूल तत्वों - धरती, पानी, हवा, आकाश और प्रकाश में अपने आप को साफ रखने का स्वाभाविक गुण होता है । प्रकृति के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप से गंदगी और प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है । सामान्यतया सफाई करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है लेकिन यह सफाई नहीं अपितु गंदगी का स्थानान्तरण मात्र है । 
सफाई का वास्तविक अर्थ है, किसी वस्तु को उसके उपयोगी स्थान पर प्रतिष्ठित करना याने कचरे को संपति में परिणित करना । गांधीजी के विचार से सफाई की परिभाषा करें तो सफाई याने सब चीजों का फायदेमंद इस्तेमाल । इस प्रकार सफाई का सरल शब्दो में अर्थ होगा अपने स्थान से हटी हुई चीजों को उचित स्थान पर फिर से प्रतिष्ठित करना । सफाई आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सामाजिक दृष्टि से भी एक क्रांतिकारी काम है । 
हमारे देश में कचरा प्रबंधन का दायित्व स्थानीय शासन संस्थाआें पर है । कमजोर आर्थिक स्थिति और संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश संस्थाएें इस कार्य में सफल नहीं हो पा रही है । देश में ठोस अपशिष्ट विसर्जन में कचरे से पदार्थो की पुन: प्रािप्त् और पुर्नचक्रण में कचरा बीननेवालों की भूमिका मुख्य होती है । अभी तक इनकी समस्याआें पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। 
स्वच्छ भारत अभियान की सफलता और इसके दुरगामी स्थायी परिणाम प्राप्त् करने के लिए सफाई के साथ ही उससे जुड़े पर्यावरण संरक्षण के मुख्य पक्षों पर विचार करना जरूरी है । 
हमारे देश में अन्य विकासशील देशो के समान कागज, प्लास्टिक और अन्य धातुआें के पृथक्करण के लिए सीमित संसाधन उपलब्ध है । विकसित देशों में नगरीय ठोस अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पादन होता है या कार्बनिक खाद बनाई जाती    है । हमारे यहां कचरे से बिजली बनाने की दिशा में १९८७ से प्रयास चल रहे है, लेकिन समुचित सफलता अभी भी नहीं मिल पायी है । हमारे देश में मिश्रित कचरे में कम कैलोरीमान तथा नगर निकायों में आर्थिक और तकनीकी क्षमता की कमी से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है । 
देश में १ करोड़ वयस्क और १८ लाख बच्च्े कचरा बीनकर अपनी जीविका चला रहे है । देश में करीब ७ करोड़ लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । कचरा संग्रहण स्थलों के समीप रहने वाले लोगों का जहरीले कचरे की वजह से स्वास्थ्य खराब हो रहा है । नगरीय कचरे में सीसे और क्रोमियम का स्तर सामान्य से बहुत अधिक है । इससे अनेक बीमारियों के साथ ही विकलांगता बढ़ रही है । शहरों, महानगरों और कस्बों में दुकानों, घरों के बाहर नालिया अतिक्रमण का शिकार हो रही है । इस कारण सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करने के बाद भी इन नालियोंएवं गटरों में गंदा पानी रूका रहता है जो अस्वास्थ्यकर स्थिति का निर्माण करता है । 
देश में करीब ६६ करोड़ लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है, इसके साथ ही करीब ३ लाख लोग अभी भी मानव मल साफ करने के कार्य से मुक्त नहीं हो पाए है । देश में चिकित्सकीय कचरे में से आधे का ही सुरक्षित निपटान हो पा रहा है, शेष कचरा स्वयं ही रोग संक्रमण का साधन बन रहा है । पैकेजिंग जैसे कार्यो में इस्तेमाल की जाने वाली नष्ट न होने वाली सामग्री भी प्रदूषण का प्रमुख कारण है । इसका उपयोग धीरे-धीरे कम करने और इसके स्थान पर वैकल्पिक साधनों को बढ़ावा देना होगा, इससे भी हमारे पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को शक्ति मिलेगी। 
स्वच्छता अभी भले ही अभियान हो परन्तु यह हमारा स्वभाव बनाना चाहिये । समाज के प्रत्येक स्तर पर यह अभियान स्वयं प्रेरणा से होने वाले रोज का कार्यक्रम बनना चाहिये । स्वच्छता को समाज परिवर्तन का माध्यम बनाया जा सकता है । मन स्वच्छ होने वाले पर ही स्वच्छ भारत की संकल्पना सफल हो सकेगी । इस सत्य को ध्यान में रखना होगा । 
हमारे देश में धार्मिक आयोजनों और पूजा परम्पराओ में भी कचरे का सुरक्षित निपटान नहीं होने से पर्यावरणीय समस्यायें पैदा हो रही है । अभी पिछले दिनों सम्पन्न गणेशोत्सव के विसर्जन समारोह की चर्चा अप्रांसगिक नहीं होगी । मिट्टी से बनी प्रतिमाआें में जलाशयों में आसानी से विसर्जित हो जाती है लेकिन प्लास्टर आफ पेरिस (पीओपी) से बनी प्रतिमाआें के विसर्जन से समस्या पैदा होती है । पीओपी में जिप्सम, सल्फर, फासफोरस और मैग्नीशियम जैसे तत्व होने से यह पानी में घुलने में कई महीने लगते है और इस दौरान जलाशयों का पानी विषैला बना रहता है । इन प्रतिमाआें में लगाये जाने वाले रंगो में मरकरी, लेड, कैडमियम आदि होने से जल अम्लीय हो जाता है । प्रतिमाआें के साथ ही पूजा सामग्री में थर्माकोल, प्लास्टिक - पॉलीथिन, फूल एवं अन्य पूजा सामग्री जल स्त्रोतों को निरन्तर प्रदूषित कर रहे    है । इससे जलाशय में रहने वाले जलीय जीवों और निकटवर्ती पेड़ पौधों को भी नुकसान पहुंच रहा है । इसके समाधान हेतु जनसहयोग से नवीन योजनाएें बनाकर ठोस पहल करने की आवश्यकता है । 
पाश्चात्य संस्कृति में जहां भोग के अतिरेक को मान्यता है, वहीं भारतीय संस्कृति मेंत्याग के साथ भोग में आनंद में आस्था है । पाश्चात्य संस्कृति प्रकृति के पूर्ण दोहन, शोषण और नियंत्रण पर बल देती है, वहीं भारतीय संस्कृति पृथ्वी और प्रकृति को माता रूप में पूज्या मानकर उससे उतना ही लेने में विश्वास करती है, जितना आवश्यक हो । 
हमारे यहां सभी धर्मो में स्वच्छता पर जोर है, इस कारण व्यक्तिगत जीवन में शुचिता का प्रमुख  स्थान है लेकिन सामुदायिक स्वच्छता के प्रति ज्यादातर लोग उदासीन रहते है । अपने घर का कचरा दूसरे के घर के सामने या सड़क पर डालने में शायद ही कोई संकोच करता है । हम सार्वजनिक स्थान और खासकर सड़क पर कचरा डालना हम अपना अधिकार समझते है । लेकिन इन स्थानों की सफाई को अपना कर्तव्य मानने को बहुत कम लोग तैयार होते है । इस मान्यता को बदले जाने की जरूरत है, इसके बिना स्वच्छता अभियान की सफलता संभव नहीं होगी । हर नागरिक की अपनी जिम्मेदारी है यह मानकर हर व्यक्ति को अपने हिस्से का काम करना होगा । स्वच्छता अभियान की सफलता के लिये सरकार और समाज दोनों को साफ मन और निर्मल ह्वदय से प्रयास करने होगे । पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ भारत अभियान को जन आंदोलन बनाने मंे नागरिकों की सहभागिता महत्वपूर्ण होगी । 
स्वच्छता, सौंदर्य और संस्कृति एक दूसरे के पर्याय माने जा सकते है, मानव सभ्यता और संस्कृति का आधार मूलत: स्वच्छता है । हमारे चारों और गंदगी बिखरी हो तो ऐसे में सात्विक विचारों को उद्भव कैसे हो सकता है । 

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