रविवार, 14 अक्तूबर 2012

कविता
पानी की चाहत
रमेशचन्द्र मंगल

बूंद-बूंद पानी की चाहत
धरती खोद रही वसुधा का ऑगन
चलनी कर खोज रही
पर यह जन कब अपना अन्तर
खोज सका चाह से भी ज्यादा
यह पानी वहां रहा
पानी यह अनमोल
धरा का
रंग में बहता है
पर अब कब वर्षा जल
नदी तालों में रहता है ।
जिससे धरती का सिरा
हमेशा तर और ताजा हो
हर मानव जिससे
शहर पा
हर दम राजा हो
पानी तो उतना ही
जितना पहले होता था
बड़ी आबादी वैज्ञानिक
तकनीक कब ढोता था
कुलर, फ्लेक्स और झंझावत
कितने लाद दिये
हर घर के छत की बगीयांे में भी
हरित क्रान्ति लिये कब हम अब
नई तकनीक से पानी रोक रहे
जिससे धरती की प्यास हर दम त्रप्त रहे ।

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