रविवार, 14 अक्तूबर 2012

 महिला जगत
घरेलू हिंसा से अशांत होता समाज
रोली शिवहरे
    भारत में महिलाआें के विरूद्ध घरेलू हिंसा में निरंतर वृद्धि हो रही है । इसका प्रभाव अंतत: व्यापक तौर पर समाज में महिलाआें के प्रति दुर्व्यवहार एवं यौन हिंसा के रूप मेंभी सामने आ रहा है । हमें यह ध्यान में रखना होगा कि जब तक हमारे घरों में हिंसा खत्म नहीं होगी तब तक समाज में व्याप्त् हिंसा में कमी आनं की बात सोचना भी बेमानी है ।
    मध्यप्रदेश के इंदौर के एक शंकालु पति द्वारा अपनी पत्नी के यौनांग पर लगातार पांच साल तक ताला लगाने की घटना ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया है । इस हैवानियत से तंग आकर एक दिन पत्नी ने जहर खा लिया तब इंदौर के एम.वाय. अस्पताल मेंडॉक्टरों की जांच के दौरान यह बात सामने आई कि उसका पति रोज सुबह काम पर जाते समय ताला लगा देता था और शाम को काम से लौटने पर ताला खोलता था । ये घटना मानवीयता और पुरूषवादी सोच का घिनौना चेहरा हमारे सामने लाती  है ।
    महिलाआें के साथ होने वाली हिंसा का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि अब उनके लिये परिवार भी एक सुरक्षित जगह नहीें है । परिवार के अंदर होने वाली हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं । इस पर लगाम लगाने के लिये ही घरेलू हिंसा से महिलाआें का संरक्षण अधिनियम २००५ बनाया गया था । राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो के २०११ आंकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष २०११ में मध्यप्रदेश में बलात्कार के जहां ३४०६ मामले दर्ज हुए वहीं पति द्वारा की गई हिंसा के ३७३२ मामले दर्ज हुए हैं । इनमें दहेज के कारण होने वाली हत्याआें  को भी देखना महत्वपूर्ण हैं । क्योंकि प्रदेश में प्रतिदिन २ महिलाएं दहेज के लिए जला दी जाती है । राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तृतीय चक्र के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में १५-४९ वर्ष की ४५ प्रतिशत महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार हुई हैं वहीं १० प्रतिशत ने यौन हिंसा झेली है ।
    सर्वेक्षण एक चौकाने वाली सच्चई भी हमारे सामने लाता है कि प्रदेश की ५१ प्रतिशत महिलाआें ने किसी विशिष्ट परिस्थिति में पुरूष द्वारा उन पर की गई शारीरिक हिंसा को उचित ठहराया है  । ये विचारणीय है कि महिला अपनी ही मार पिटाई को क्यों जायज ठहराती है ? हम जिस समाज में रहते हैं उसमें परिवार के मुखिया का दर्जा हमेशा पुरूष को ही दिया जाता       है । वहीं परिवार के सभी निर्णय लेता   है । दरअसल इन सबके पीछे जिम्मेदार कारकों में सामाजिकसांस्कृतिक मूल्य भी अहम स्थान रखते हैं । भारतीय समाज में पत्नी की कल्पना महज पतिव्रता स्त्री से की गई है । भले ही उसका पति चाहे कितना कुकर्मी क्यों ना हों ।
    भारतीय समाज को जिस तरह से ४ वर्णोंा और आश्रमों में बांटा उसी तरह महिलाआें को भी न केवल बांटा गया है बल्कि एक कदम आगे बढ़कर समाज ने उनके ऊपर अपने रीति रिवाजों के लेबल भी चिपका दिए हैं जो जीवनभर उसके साथ चिपके रहते हैं । जब लड़की कुंवारी होती है तो उसकी वेशभूषा से पता चल जाता है । शादी के बाद उसकी मांग में सिन्दूर ऐसे भरा जाता है जैसे किसी ने मकान खरीदकर उस पर नेम प्लेट लगाा दी हो । किसी कारणवश उसके पति की मृत्यु हो जाती है तो सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलते देर नहीं लगती । कई जगह उसे सर मुंडवाने से लेकर सफेद कपड़े पहनने तक को मजबूर किया जाता है । और तो और कई बार उन्हें घर से भी निकाल दिया जाता है और उन्हें भजन - पूजन की सलाह दी जाती है ।  समाज में ऐसी मान्यता है कि अगर विधवा के हाथ से किसी शुभ काम की शुरूआत की जाती है तो वो काम कभी सफल/शुभ नहीं हो सकते ।
    हिन्दू धर्म में विवाह एक महत्वपूर्ण कर्म है । इस कर्म पर गौर करने पर हमें साफ पता चलता है कि सामाजिक रीति रिवाजों में पुरूषवादी सोच कितनी कूट-कूट कर भरी गई  है । विवाह के दौरान वर और वधू दोनों से कुछ प्रतिज्ञाएं कराई जाती हैं, जिसे हम सात फेरे भी कहते है । इसमें एक फेरे में वर, वधू से यह वचन लेता है कि वह घर ओर बच्च्े संभालने की जिम्मेदारी निभाएगी । एक वचन में यह कहा गया है कि पत्नी के लिये हमेशा पति ही सबकुछ होगा वो दूसरे आदमी पर नजर नहीं डालेगी । कन्यादान के रिवाज पर तो लगातार सवाल उठ रहे हैं पर मुश्किल यह है कि जब राज्य ही एक लड़की के दान की वकालत करने लगे तो फिर किससे उम्मीद की जा सकती है ? ज्ञात हो मध्यप्रदेश सरकार ने कन्यादान योजाना लागू की है । 
    यह किसी एक धर्म विशेष का मामला नहीं है कमोवेश हर धर्म के यही हाल हैं । एन.एफ.एच.एस. - ३ के आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में अन्य धार्मिक समुदाय की तुलना में मुस्लिम महिलाएं शारीरिक, भावनात्मक और यौन प्रताड़ना की अधिक शिकार होती है । अगर भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के आधार पर महिलाआें पर होने वाली हिंसा की तुलना करें तो पता चलता है जैन महिलाआें में २७.७ व हिंदू महिलाआें में ४८.६ की तुलना में सर्वाधिक ६०.८ प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं हिंसा का दंश झेलती हैं । भोपाल में मुस्लिम समुदाय के साथ काम करने वाले जावेद अनीस का कहना है कि पुरूषवादी सोच का एक उदाहरण ही है कि निकाह के दौरान दोनों की सहमति ली जाती है पर अगर महिला किसी कारणवश अपने पति से अलग होना चाहती है तो उसे काजी के पास जाना होगा पति कहीं से भी ३ बार तलाक कह दे तो तलाक हो जाता है । 
    भारत का संविधान तो सबको बराबरी का दर्जा देता है, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं । राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट के अनुसार तहिलाआें से संबंधित ४३ कानून  बने हैं परन्तु इनके क्रियान्वयन की स्थिति क्या है यह किसी से छुपी नहीं है । इसी का कारण है कि महिलाआें की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है । स्पष्ट है कि कहीं ना कहीं कानून बनाने और उसे जमीन पर लागू कराने की मंशा में विरोधाभास है । भोपाल में परिवार परामर्श केंद्र की एक काउंसलर ने कहा हमारे पास आने वाले ९० प्रतिशत पारिवारिक हिंसा के प्रकरणों में हम समझौते की हि कोशिश करते हैं । जब इस तरह के कानूनोंके क्रियान्वयन में लगे रहने वाले लोगों का मानस ही ऐसा होगा तो महिला कैसेलड़ पायेगी ? सवाल यह भी हैं कि क्या इन सब  कारकों के पीछे केवल सरकार  ही दोषी हैं या कहीं समाज भी जिम्मेदार है ?
    महिलाआें के ऊपर बढ़ती घरेलू हिंसा के कारणों की एक बड़ी वजह उनका चहारदीवारी लाघंना भी है । आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरूष के साथ बराबरी से चल रही हैं । वे किसी भी बंदिश में नहीं रहना चाहतीं । समाज व परिवार इसे स्वीकार  नहीं कर पा रहा क्योंकि इस पुरूषसत्तात्मक समाज में हमेशा पुरूष को सर्वोच्च् माना गया है । इस स्थिति को बदलने हेतु तत्काल प्रयास करने होगें । इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम पुरूषसत्ता के सापेक्ष किसी  मातृसत्ता की बात कर रहे हैं बल्कि हम तो सिर्फ बराबरी की बात कर रहे हैं । सुप्रसिद्ध नारीवादी कमला भसीन का कहना है कि पति का अर्थ स्वामी होता है और यदि पति के रूप में एक स्वामी होगा तो निश्चित रूप से दूसरा दास ही होगा । ऐसे में बराबरी पर आधारित रिश्तों से ही कुछ उम्मीद  की जा सकती है ।  

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