शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

२ सामयिक


विकास की कठिन डगर
सुश्री सुनीता नारायण

वेदान्ता परियोजना पर रोक लगाने के निर्णय के बाद विकास का मुद्दा अहम हो गया है ।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा ओडिशा में वेदान्ता परियोजना पर रोक लगाने के निर्णय को समझना अनिवार्य है । यह एक ताकतवर कंपनी द्वारा कानून तोड़े जाने की कहानी है । परन्तु यह कहानी उतनी ही विकास की उस भूल भुलैया की भी है जिसमें देश की सबसे समृद्ध भूमि पर सबसे गरीब लोग जीवन निर्वाह करते हैं ।
एन.सी. सक्सेना समिति ने तीन आधारों पर खनन समूहों द्वारा पर्यावरण कानूनों को तोड़ने की ओर इंगित किया है । पहला कब्जा करके गांव के वनों की बिना अनुमति फेंसिंग कर दी गई । दूसरा कंपनी अपने कच्च माल अर्थात बाक्साइट की आपूर्ति अवैध खनन के माध्यम से कर रही थी जबकि पर्यावरण स्वीकृति के अन्तर्गत यह स्पष्ट शर्त थी कि ऐसा कोई कार्य न किया जाए । तीसरा आरोप जिसके समर्थन में मंत्रालय के अफसरों एवं राज्य के पर्यावरण विभाग के दस्तावेज भी लगे हैं, सर्वाधिक गंभीर हैं । इसके अनुसार कंपनी ने बिना अनुमति लिए अपने शोधन संयंत्र (रिफायनरी) की क्षमता को १० लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर एक करोड़ ६० लाख तक प्रतिवर्ष करना प्रारंभ कर दिया ।
दूसरे शब्दों में कहें तो संयंत्र की वर्तमान में २६ लाख टन प्रतिवर्ष कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले १.६ करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का अभी तक आंकलन ही नहीं किया गया है । बाक्साइट कहां से आएगा ? इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा कि इस हेतु कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा ? इस हेतु कितना पानी निगल जाएगा ? स्थानीय समुदाय में पानी को लेकर अभी भी गुस्सा है क्योंकि कंपनी वर्तमान में ६५ कि.मी. दूर स्थित तेल नदी एवं नलकूपों से पानी का दोहन कर इस संसाधन को स्थानीय
जनता की पहुंच से बाहर कर रही है । इसके अतिरिक्त क्या शोधन संयंत्र के विस्तार से होने वाले प्रदूषण के भार को कम किया जा सकता है ? परन्तु वेदान्ता एल्यूमिनियम लि. इस तरह के मामलों की तफसील में जाना ही नहीं
चाहती है । वह पर्यावरण आशंकाआें और प्रचलित कानूनों की पूर्णतया अवहेलना करते हुए, अपने विस्तार में जुटी रही ।
यह निर्णय अधिकारों से संबंधित उन कानूनों को लेकर भी है, जिनका कि राज्य सरकार ने पालन नहीं किया । वन अधिकार अधिनियम (२००६) स्पष्ट रूप से निर्देशित करता है कि किसी भी परियोजना को स्वीकृति देने से पहले आदिवासियों के अधिकारों की अनिवार्य रूप से पहचान कर उनका निपटारा कर दिया जाना चाहिए । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कानून कहता है कि वन में निवास करने वाले समुदायों द्वारा ग्रामसभा के माध्यम से स्वीकृति दिये जाने के बाद ही किसी परियोजना को हरी झंडी दिखाई जाए । सक्सेना समिति का अभिमत है कि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया । सबसे घटिया बात यह है कि राज्य सरकार ने भी इस लापरवाही को छुपाने का प्रयत्न किया । वेदान्ता से लिप्त्ता हमें नहीं चौंकाती परन्तु उसे दोषमुक्त करना चौंकाता है।
अब बड़ा सवाल है कि इस निर्णय का खनिज समृद्ध क्षेत्रों के भविष्य के विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आईये हम आधुनिक भारत के मानचित्र को समझते हैं। एक नक्शा लीजिए । पहले पहल इसमें उन जिलों पर निशान लगाइये जो कि वन संपदा के लिए जाने जाते हैं और जहां समद्ध और घने जंगल हैं । अब इसके ऊपर और भारत की जल संपदा वाला का एक नक्शा रख दीजिए जिसमें हमारी प्यास बुझाने वाली नदियों व धाराआें आदि के स्त्रोत अंकित हों । अब तीसरे दौर में इसके ऊपर देश की खनिज संपदाएं जैसे लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और ऐसी सभी वस्तुआें जो हमें आर्थिक रूप से समृद्ध करती हों का मानचित्र रख दीजिए । आप देखेंगे कि ये तीनों प्रकार की संपदाए साथ-साथ ही अस्तित्व में रहती हैं ।
परन्तु यहीं पर मत रूकिए । अब इस नक्शे में उन जिलों पर निशान लगाइये जहां देश के सबसे गरीब लोग रह रहे हों । ये भी इस देश के आदिवासी जिले स्थानों पर चिन्हित
हैं । सबसे समृद्ध जमीनें वहीं हैं । जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं । अब इन पर लाल रंग छिड़क दीजिए । ये वहीं जिले हैं जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है । यह बद्तर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है ।
समस्या यह है कि खनन खनिज जैसे संसाधनों को छीन ले लेता है । इस प्रक्रियामें उन भूमि, जंगल एवं पानी की गुणवत्ता गिरती है, जिस पर कि लोग जिन्दा रहते हैं । सबसे बुरा यह है कि आधुनिक खनन और औद्योगिक क्षेत्र उस जीविका की प्रतिभूर्ति नहीं करते जो उन्होंने छीन ली होती है । इससे स्थितियां और भी जटिल हो जाती हैं । आधुनिक उद्योग को स्थानीय रोजगार की बहुत कम आवश्यकता पड़ती है । वेदान्ता के १० लाख टन के शोधन संयंत्र को केवल ५०० स्थायी एवं इसके अलावा १००० संविदा (कांट्रेक्ट) कर्मचारियों की भी आवश्यकता होती है । चूंकि स्थानीय व्यक्ति इस तरह की कुशलता भरे कार्योंा के लिए प्रशिक्षित ही नहीं होते अतएव वे अपनी जमीन और जीविका दोनों से ही हाथ धो बैठते हैं ।
इसीलिए वेदान्ता और अन्य हजारों पर्यावरणीय विद्रोहों से जिनमें हमारा देश रंगा हुआ है, गरीब व सामान्य व्यक्तियों (नक्सलवादी नहीं) के संघर्ष है और यह समझने के लिए बहुत अधिक विद्वता की आवश्यकता भी नहीं है । ये सभी गरीब हैं परंतु आधुनिक विकास जिसे हम तरक्की कहते हैं, ने इन्हें और भी गरीब बनाया है ।
यह गरीबों का पर्यावरणवाद है । वे हमें प्राकृतिक संपदा का मूल्य सिखा रहे हैं । वे जानते हैं कि अपनी जीविका हेतु वे समीप स्थित जल, जंगल व जमीन पर निर्भर हैं । वे यह भी जानते हैं कि यदि एक बार ये संसाधन चले गए या इनकी गुणवत्ता नष्ट हो गई तो आगे कोई मार्ग नहीं है । उनके लिए पर्यावरण एक विलासिता नहीं बल्कि जीवित रहने का साधन है । इसी वजह से वेदान्ता के विरूद्ध लिया गया निर्णय भविष्य की एक कठोर मांग भी है । यह हमसे अपेक्षा रखता है कि हम व्यक्तियों और उनके पर्यावरण के साथ जिस तरह से व्यापार करते आए हैं उसमें परिवर्तन लाएं । सर्वप्रथम हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्तियों की विकास में भागीदारी हो ।
हम इन जमीनों पर बसने वाले समुदायों को बिना लाभ पहुंचाए न तो उनके संसाधन निकाल सकते हैंन ही उनका पानी प्रदूषित कर सकते है और न उनके वनोंको संरक्षित रख सकते हैं । इसलिए खान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) अधिनियम के मसौदे में लाभ में हिस्सेदारी की व्यवस्था का उद्योगों के विरोध के बावजूद समर्थन किया जाना चाहिए । इतना ही नहीं इसके बाद भी काफी कुछ किया जाना बाकी है ।
दूसरे हमें अपने लोकतंत्र के प्रति गंभीर होना पड़ेगा । वन अधिकार अधिनियम में दिए गए वीटो कई अन्य परियोजनाआें के संबंध में कम से कम दो आशयों को स्वीकार करना ही होगा । पहला, परियोजना प्रवर्तकों को समुदायों को अपने बोर्ड मंे शामिल करने के लिए अपनी छबि सुधारने की दिशा में गंभीर प्रयत्न करने होंगे । दूसरा भारत को कम में ज्यादा अर्थात् गागर में सागर भरना होगा । हम सभी खनिजों का खनन् या सभी जमीनों का अधिग्रहण या संपूर्ण पानी लेकर उन सभी उद्योगों का निर्माण नहीं कर सकते जिनकी हमने योजना बनाई है या बनाना चाहते हैं । हमें अपनी जरूरतें कम करना होगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहित की गई भूमि के एक-एक इंर्च का खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना होगा ।
यह वास्तव में एक सख्त पाठ है जो कि कईयों के लिए भविष्य में और भी कठोर हो सकता है । विकास काकोई आसान रास्ता नहीं है उम्मीद है वेदान्ता ने अब तक यह सबक सीख लिया होगा ।
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