मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

१० कृषि-जगत

खेती उद्योग नहीं है
अनिल कर्णे
खेती से अधिक वैज्ञानिक कार्य आज तक अस्तित्व में नहीं आया है । किसान सिर्फ बीज डालकर घर नहीं बैठ जाता । वह मौसम, मिट्टी, खाद, पालतू जानवरों का विशेषज्ञ भी होता है । यह तथ्य विचारणीय है कि उद्योगों को इतनी सरकारी सहायता के बावजूद हमेशा नई छूट का इंतजार रहता है । वहीं कृषक स्वयं को परिस्थति के अनुरूप ढालकर सदैव कार्यशील बना रहता है । देश में किसानों की दशा अब किसी से छुपी नहीं है । सारे समाज की अन्न की आवश्यकताआें को पूरा करने वाला अन्नदाता किसाना हाशिए पर कर दिया गया है । वह दाने-दाने को मोहताज है । अब किसान स्वयं ही नहीं वरन् परिवार सहित आत्महत्या कर रहा है । अपने परिवार पर जान न्योछावर करने वाला किसान जब परिवार के सदस्यों की जान लेकर अपना आत्महन्ता बनता है, तो इस कदम के पहले उसके सामने के जीवन की भयावहता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । जब जीवन के सारे रास्ते बन्द हो जाते है तभी मनुष्य मृत्यु का विकल्प चुनता है । वर्ष १९९७ से २००८ के दौरान भारत में १ लाख ८२ हजार ९३६ किसानों ने आत्महत्या की (राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार) । आखिर इसका कारण क्या है ? क्यों किसान आत्महत्या कर रहा है ? प्रशासन क्या कर रहा है ? क्या हम किसानों की समस्याआें को समझ नहीं रहे हैं या समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं ? क्या किसान आत्महत्या कर रहा है या उसे आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है ? आखिर किसानों के संकट की मुक्ति का विकल्प क्या है ? किसान के इस संकट का समाधान क्या है ? ये ऐसे प्रश्न है जो हर संवेदनशील व्यक्ति के दिमाग में उठना स्वाभाविक है । इन्हीं सब सवालों के जवाब ढूंढने गैर-बराबरी उन्मूलन राष्ट्रीय अभियान, किसानी प्रतिष्ठा मंच एवं स्वामी सहजानन्द सरस्वती शोध संस्थान द्वारा वाराणसी, (उत्तरप्रदेश) में दो दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गई । जिसमें किसानी के संकट की वर्तमान स्थिति और इसके समाधान की दिशा पर विस्तृत चर्चा हुई । किसानी के संकट पर अपने विचार रखते हुए विख्यात चिंतक एवं भारत की अनुसूचित जाति और जनजाति के पूर्व आयुक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने कहा कि भारत का किसान अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की के पाटों के बीच पीसा जा रहा है । दुनिया के सबसे कुशल काम खेती किसानी को कृषि प्रधान भारत मेें अकुशल काम का दर्जा दिया गया है और इसके आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप मेंकिसान की मेहनत का मोल तय किया जा रहा है । इस तरह इस महंगाई के जमाने में लागत निकालने के बाद किसान की मेहनत का जो मोल बचता है वह उसके परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त् नहीं है । श्री शर्मा ने कहा कि इन्हीं कारणों से किसान कर्ज के जाल में फंसता है और चक्रवृद्धि ब्याज का चक्रव्यूह उसे आजीवन कर्ज के जाल से बाहर नहीं निकलने देता। जबकि खेती किसानी के कानूनों के तहत उस पर चक्रवृद्धि ब्याज नहीं लगाया जा सकता है परन्तु इसकी किसी को कोई खबर ही नहीं है । आपने कहा कि केन्द्र सरकार ने सन् १९८४ में बैंककारी विनियमन अधिनियम में संशोधन कर एक नई धारा २१(क) जोड़कर किसान, मजदूर का अदालत का रास्ता ही बन्द कर दिया है । वे कर्ज की अन्यायी शर्तोंा के खिलाफ न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकते । साथ ही सरकार किसानों की कर्जदारी की जड़ में न जाकर किसान को और कर्ज लेने के लिए उकसा रही है । किसानी प्रतिष्ठा मंच के जयन्त वर्मा ने कहा कि १९९० के दशक के बाद से देश में खेती किसानी घाटे का सौदा बन गई है । देश के सकल घरेलू उत्पाद मेंे सन् १९४७ मेंखेती किसानी का हिस्सा ६७ प्रतिशत था यह २००८ में घटकर सिर्फ १७.५ फीसदी रह गया । जबकि इस बीच खेती किसानी का उत्पादन लगभग ४ गुने उत्पादन का तुलनात्मक मोल एक चौथाई और वास्तविक पैमाने पर एक बटे सोलह रह गया और योजना आयोग के दृष्टि पत्र २०२० की योजनानुसार वर्ष २०२० में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी का योगदान मात्र ६ प्रतिशत रह जायेगा । श्री वर्मा ने कहा कि कुछ अपवादों को छोड़कर कोई भी इस सच्चई का जिक्र तक नहीं करता कि राष्ट्र की कुल आय में खेती किसानी का हिस्सा कम से कमतर होते जाने का कारण सरकारी नीतियां हैं । किसान गरीब नहीं है उसके गरीब बनाया गया है । मेहनत की हकदारी इतनी होनी चाहिए कि जिससे मेहनतकश और उसके परिवार का अच्छी तरह भरणपोषण हो सके । अगर कामगार को मेहनत का सही मूल्य मिल जाए तो उसके घर की औरतें, बूढ़े और बच्च्े जलालत भरी मजदूरी के लिए क्यों घर के बाहर भटकेंगें ? बिहार किसान सभा के शिवसागर शर्मा ने कहा कि कृषि क्षेत्र में पिछले दस सालों में साम्राज्यवादी घुसपैठ हुई है । खेती किसानी को उद्योग का दर्जा दिये जाने की बात की जा रही है । यह मांग आत्महत्या करने की तरह है । उद्योग में एक मालिक और हजारों मजदूर होते हैं । खेती का निगमीकरण इसी का दूसरा रूप है । स्वामी सहजानन्द सरस्वती शोध संस्थान के संस्थापक एवं चिंतक राघवशरण शर्मा ने कहा कि किसान राजनीति के केन्द्र से विस्थापित कर दिए गये है । किसानी के संकट का समाधान किसान मजदूर राज की स्थापना से ही होगा । आपने कहा कि स्वामी सहजानन्द जी ने समाज को जाति के आधार पर नहीं वरन् वर्ग के मजदूर और शोषित को ही संघर्ष में सहभागी बनाने की बात कही और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका को खारिज किया । किसानी के संकट के समाधान की दिशा में किए गए इस प्रयास में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ के विभिन्न किसान संगठन, आन्दोलन एवं जन संगठन से जुड़े साथियों के विविध पहलुओ पर गहन विचार विमर्श के पश्चात् कुछ मुख्य बिन्दुआें पर सहमति हुई इनमें प्रमुख हैं - कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाय । बैंककारी विनियमन अधिनियम १९४९ की धारा २१ (क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाय । खेती किसानी कौशल एवं दक्षता का काम है लेकिन सरकारी दस्तावेजों में किसान को अकुशल कह कर उनके मेहनत के मोल को दबाया जा रहा है। अत: किसान को दक्ष एवं कुशल माना जाये। संसदीय समिति ने खेती पर चक्रवृद्धि ब्याज को किसानों की आत्महत्या का कारण माना है, चक्रवृद्धि ब्याज रद्द किया जाये । निश्चित समयावधि में कर्ज न चुका पाने की स्थिति में किसान को जेल भेजने का प्रावधान खत्म हो । किसानी के संकट के खात्मे के लिए आवश्यक है कि उक्त बिन्दुआेंको दृष्टिगत रखते हुए समाधान की दिशा में प्रयास किए जाए । तभी किसानों की आत्महत्या का यह दौर खत्म होगा और किसान सम्मानपूर्वक खेती कर देश के विकास में योगदान कर सकेगें ।***जल ही जीवन है

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