सोमवार, 20 अगस्त 2007

२ सामयिक

सेज : अन्याय की पराकाष्ठा
डॉ. रामजी सिंह
इतिहास अपनी पुरावृत्ति करता है। आज पुन: पूंजीवाद अपने नये रूप में अवतरित हो रहा है । एक समय था जब पाश्चात्य जगत ने अर्थशास्त्र में उदारवाद को अपने विकास का स्वधर्म मान लिया था । एडम स्मिथ, मार्शल और कन्स की क्रांति तक उदारवाद का ही झंडा लहराता रहा । मार्क्स और एंजेल्स के समाजवादी अर्थशास्त्र को दरिद्रता का दर्शन (फिलॉसफी ऑफ पॉवर्टी) घोषित किया गया । मार्क्स ने `पूंजी' में पूंजीवाद की शव परीक्षा ही कर डाली थी । बोल्शेविक क्रांति ने समाजवाद को केवल रूस में ही नहीं विश्व में अनेक मार्गो में प्रतिष्ठित किया था । एक समय पूंजीवाद के बदले समाजवाद ही युगधर्म बन गया था। इसी के साथ-साथ एशिया और अफ्रीका के देशों में उपनिवेशवाद भी धराशायी हो गया इसीलिए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के समर्थकों ने विश्वविजय की एक साझा योजना बनाई जिस हम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन आदि संस्थाआे में सगुण रूप से देख सकते हैं । साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का मध्ययुगीन या १८वीं १९वीं शताब्दी का रूप अब चल नहीं सकता था । इसीलिए उदारवाद के नाम पर निजीकरण, उदारीकरण और भमंडलीकरण की त्रयी सामने आई । यह प्रचारित किया गया कि आर्थिक विकास का यही राजमार्ग है । दुर्भाग्य तो यह है कि सोवियत संघ ने भी समाजवादी अर्थव्यवस्था को अलविदा कह दिया और चीन भी विश्व व्यापार संघ के दस्तावेज पर मुहर लगाकर वैश्विक पूंजीवाद में महाप्रपंच में शामिल हो गया। चीन ने अपने देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र की सर्वप्रथम स्थापना शुरू की थी । भारत में भी नेहरू युग तक समाजवादी ढांचा और लोकतांत्रिक समाजवाद का वर्चस्व रहा, जो इंदिरा गांधी तक बैंकों का राष्ट्रीकरण, प्रिवीपर्स की समािप्त् और गरीबी हटाओ के कार्यक्रम में देखा जा सकता है । लेकिन उस समय भी देशी पूंजीवाद को बढ़ाने के लिए अनेकानेक प्रोत्साहन दिए गए । राजीव गांधी के समय भी देश पूंजीवादी दिशा की ओर बढ़ता रहा लेकिन डॉ. नरसिम्हा राव के काल में वैश्वीकरण की राह में नई आर्थिक नीति के नाम पर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को अपना लिया गया जिसके मुख्य सलाहकार डॉ. मनमोहनसिंह (जो आज भारत के प्रधानमंत्री हैं) थे । जो विश्वबैंक के उच्च् पद पर निष्ठापूर्वक कार्य कर चूके थे । इसी क्रम में आज हमारे सामने विशेष आर्थिक क्षैत्र की समस्या आती है ।१. सामंतवाद का पुनरागमन - भारत में भूमि का स्वामित्व प्रारंभ में ग्राम समाज का रहा, इसीलिए वेद में भूमि को माता कहा गया है । माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या - पृथ्वी पर किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं है । वह तो प्रकृति या ईश्वर की कृति है । इसीलिए सर्वभूमि गोपाल भी कहा जाता है । लेकिन सामंत युग में जमीन पर व्यक्तिगत अधिकार होने लगे जो मुगल काल तक कायम रहे । अंग्रेजों के समय लार्ड कार्नवालिस ने भूमि व्यवस्था के बारे में चिरस्थाई प्रबंध के नाम से एक योजना लागू की जिसमें भूमिपुत्र किसानों और राज्य के बीच जमींदारों को रखा गया जो बिचौलिये के रूप में थे । इस प्रकार इस चिरस्थाई प्रबंध के द्वारा जमीन पर निहित स्वार्थ रखने वाले समूह का निर्माण हुआ और जमीन जातने वाले और जमीन के मालिक में असमानता और भेदभाव कायम हुआ । स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारों को इसीलिए मुआवजा देकर हटा दिया गया । इसी को ध्यान में रखकर भूमि सुधार के प्रगतिशील कार्यक्रम राज्य सरकारों ने बनाए । जिसमें जमीन की हदबंदी, चकबंदी, जमीन जोतने वालों को फसल का आधा हिस्सा न्यूनतम मजदूरी, सूद से कुछ हद तक मुक्ति आदि कुछ कानून लागू भी हुए । लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम से पुन: पूंजीपतियों को शहर के आसपास जमीन खरीदने का अधिकार दे दिया गया है । महाराष्ट्र सरकार ने अंबानी को समुद्र किनारे हजारोंएकड़ जमीन खरीदने की इजाजत दे दी है, जिसे उसने औने पौने दाम में खरीद लिया । जो जमीन २० से ४० लाख रू. प्रति एकड़ खरीदी जानी चाहिए थी उसे मात्र एक लाख प्रति एकड़ में खरीद लिया गया । इसी तरह हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में राज्य सरकारों की संठगांठ से किसानों की जमीन सस्ते दाम में खरीदने की मुहिम चली । इससे किसानों का असंतोष भड़का और कई आंदोलन हुए । तब पूंजीपतियों ने राज्य सरकारों की मदद से जमीन खरीदना प्रारंभ कर दिया । बहाना यह है कि इससे उद्योगों का विकास होगा । सरकार ने शहरी जमीन की हदबंदी का कानून तो खत्म ही कर दिया है । अब गांव की भूमि की हदबंदी पूंजीपतियों के लिए खत्म की जा रही है । इसी तरह हम कह सकते हैं कि नई आर्थिक नीति के नाम पर सामंतवादी व्यवस्था पुर्नस्थापित हो रही है, जो एक प्रतिक्रयावादी कदम हैं।२. सर्वहारा का अंत - सरकार की कृषि व्यवस्था के दुष्परिणाम स्पष्ट हो रहे हैं । कृषि प्रधान देश में आज लगभग डेढ़ लाख किसानों की आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ा है । कृषि अलाभकारी होती जा रही है और किसान कर्ज से दबा जा रहा है । प्रधानमंत्री ने कहा है कि सिर्फ १० प्रतिशत आबादी की खेती पर निर्भर रहना चाहिए। पता नहीं शेष ९० प्रतिशत नागरिकों को रोजगार क्या चांद या मंगलगृह पर मिलेगा? सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार नए उद्योगों से केवल १.५ लाख लोगों को रोजगार मिल पाया है । खेती में जिस प्रकार औद्योगिकरण का समावेश हो रहा है उससे खेतिहर मजदूर छोटे और सीमांत किसान तो समाप्त् ही हो जाएगें । अभी देश में इनकी संख्या लगभग ११ करोड़ है, जो खेती में बढ़ते औद्योगिकरण के कारण बेकार हो रहे हैं । उसी तरह छोटे और सीमांत किसान की जमीन बेचकर हट रहे हैं । ३. सार्वजनिक कोष से पूंजीपतियों का संरक्षण - विशेष आर्थिक क्षेत्र ऐसे क्षेत्र में निर्मित किया जाए जहां की जमीन खेती के उपयुक्त न हो तो एक बार सहन भी किया जा सकता है । परंतु सिंगुर में ऐसी जमीन ली गई है जहां सरकार ने सारी सुविधाएं जनता के खर्च पर दी हैं । रेल, सड़क, बिजली आदि के लिए पूंजीतियों को अपना खर्च नहीं करना पड़ा । सरकार पूंजीपतियों को तो मनमाने कर्ज की सुविधा देती है या ऐसी जगह उद्योग लगाने की सुविधा देती है जहां जनता के खर्च से दी जाने वाली बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं। सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को ८५ हजार करोड़ रूपए कर्ज की माफी के रूप में दिये हैं जिसके वसूल होने की संभावना नहीं है । जबकि किसानों पर छोटे-मोटे कर्जो की वसूली के लिए दबाव बनाया जाता है ।४. पर्यावरण - पूंजीपति पर्यावरण की रक्षा पर ध्यान नहीं देते उन्हें तो सिर्फ मुनाफा चाहिए । यही कारण है कि चाहे कृषि हो या सेवा क्षेत्र, उनका ध्यान व्यक्तिगत मुनाफे पर रहता है । हरित क्रांति के नाम पर कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशक के कारण थोड़े समय तक जो उपज बढ़ी लेकिन उससे भूमि की उर्वराशक्ति घटी है । भूगर्भ के जल का अत्यधिक दोहन करने से जल संकट बढ़ा है । आज हमारा देश अन्न का पुन: आयात करने लगा हैं।५. संप्रभुता का लोप - सन् २००५ में जो सेज कानून बना है उसके अनुसार उस क्षेत्र में केन्द्र या राज्य सरकारों के बहुत से कानून स्थगित रहेंगे । वहां श्रमिकों की हड़ताल आदि के अधिकार सीमित कर दिए जाएंगे। वहां विदेशी कंपनियों को टैक्स भी नहीं लगेगा । जबकि वर्तमान में इन क्षेत्रों से एक लाख करोड़ की आमदनी होती है । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जो छूद दी जाएगी उससे जहां सरकार को ७५ हजार करोड़ का घाटा होगा वहीं सरकार को मात्र ४७०० करोड़ की आय होगी । जब एक ईस्ट इंडिया कंपनी आयी थी तो देश आर्थिक गुलामी के साथ राजनीतिक गुलामी में डेढ़ सौ साल रहा । आज लगभग १७५० बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां चली आई हैं ।६. सांस्कृतिक आक्रमण - विशेष आर्थिक क्षेत्र ऊपर से तो व्यापार का मुखौटा रखते हैं लेकिन धीरे-धींरे हमारे राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं और उससे भी अधिक हमारी भाषा संस्कृति आदि को भी प्रभावित करते हैं। इसीलिए आज देश में मातृभाषा के स्थान पर विदेशी भाषा का वर्चस्व है । इतना ही नहीं हम विदेशी सभ्यता और संस्कृति में डूबते जा रहे हैं । इसीलिए सेज के द्वारा ने केवल आर्थिक गुलामी आएगी बल्कि स्वदेशी संस्कृति को भी खतरा हो गया है। सेज या विशेष आर्थिक क्षेत्र जो सबसे पहले चीन से शुरू हुआ था आज भारत में फैलने लगा है । लगभग ४०० ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर ली गई है । हर्ष की बात यह है कि आज जनता ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है और सरकार और पंूजीपति वर्ग मिलकर संघर्ष का दमन कर रहे हैं । बंगाल में मार्क्सवादी सरकार ने भी सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों पर जो कहर ढाया है उससे साम्यवाद भी कलंकित हो गया है । हाल में इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों का विरोध करने के लिए माओवादी नक्सलवादीयों ने पांच प्रांतों में जो आर्थिक नाकेबंदी की है वह चाहे जितनी भी विध्वंसक हो उसने सरकार के बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुंचा दी है । गांधी और सर्वोदय के लोग सेज और सरकार की आर्थिक नीति का विरोध कर रहे हैं । आवश्यकता है कि हम मिलजुलकर एक जनमोर्चा बनाएं । माओवादी अगर आर्थिक नीति और सेज का विरोध करते हैं तो उन्हें चीन की नीति का भी विरोध करना होगा और उसके माक्सर्वादी ढांचों का भी विरोध करना होगा । साथ ही संघर्ष का कोई एक नया विकल्प ढूंढना होगा जिसमें आतंक और हिंसा का कोई स्थान न हो । गांधी ने चंपारण, खेड़ा, बारडोली आदि अनेकों जगह में कृषकों को न्याय दिलाने के लिए प्रभावशाली आंदोलन किए थे और उसमें सफलता भी पाई थी । आज देश में लोकतंत्र है जहां जनता ही सौर्वभौम है । यदि हम जनता को लामबंद कर लें तो और नई आर्थिक नीति के परिवर्तन का ही मुद्दा देश के सामने रखें तो शायद हम परिवर्तन की दिशा में एक मौन क्रांति कर सकते है । अहिंसा हिंसा से अच्छी हैं । लेकिन जब हमें हिंसा और कायरता में चुनाव करना होगा तो हमें हिंसा को ही चुनना ही तर्क संगत होगा । गांधी का सत्याग्रह कायरता नहीं, बल्कि वीरता की पराकाष्ठा है । वह अन्याय के प्रतिकार का अहिंसक अणुबम है ।

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