बुधवार, 20 नवंबर 2019

कविता
माँकी आस
ऋचा पशीने मोहबे


सूर्योदर्य सेसूर्यास्त तक
पर्वत से लेकर सागर तक
धरती माँ की हरी चूनर
फैली थी जाने कहाँ तक,
    विचरते थे अंक में इसकी
    कितने ही जीव छोटे बड़े,
    उर फोड़कर इसका जाने
    कितने सरिता-सोते बहे,
बार झेल उदर पर अपने
इसने कितनों के उदर भरे,
सींचकर ममता से अपनी
मानव के झोले में मोती भरे ।
    भूल गया लेकिन मानव ये,
    बस बींध रहा है माँ का आँचल
    उन्नति के शूल चुभोकर
    करता आहत माँ का तन-मन
घाव लगाए देह पर इसकी
बंजर करता जाता कण-कण भर
कहीं इसका ही तो श्राप नहीं थे ?
कहीं दाबानल, कहीं जल प्लावन !
    सूनी हो रही धीरे-धीरे
    माता की गोद थी जो हरी-भरी,
    सम्पूर्ण जीव जगत संकट में,
    क्या छूट पाएगा मानव भी ?
समय रहते कर ले मान
अपने कर्मो का प्रायश्चित,
श्वास फूल रही धरित्री की
कर जो हो उपाय उचित
    सिलकर माँ की चूनर फिर से
    फिर लौटा उसका सम्मान,
    थोड़ा गतिरोध लगा प्रगति पर
    कर अगली पीढ़ी का ध्यान
जो हुई माँ की साँस शिथिल तो
अगली पीढ़ी क्या जी पाएगी ?
दूधो नहाओ, पूतो फलो की
फिर कहावत काम न आएगी
    कर बुद्धि का सही प्रयोग तू
    सुन ले अब तो माँ की आस,
    सोच-समझकर उठा कदम तू
    न करना अब उसे निराश !

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