गुरुवार, 21 नवंबर 2019

सामयिक 
नर्मदा-घाटी में बांध-जिद या जरूरत 
शमारूख धारा / राकेश चान्दौरे 

पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री की नर्मदा यात्रा को लेकर भोपाल में हुए नर्मदा-प्रेमियों के जमावडे में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` के तत्कालीन उपाध्यक्ष न े बड़े बांधों से तौबा करते हुए कहा था कि मध्यप्रदेश में अब इस तरह की परियोजनाएं केवल नागरिकों के आग्रह पर ही हाथ में ली जाएगी । 
मध्यप्रदेश राज्य और नर्मदा नदी के लगभग बीच में प्रस्तावित मोरंड-गंजाल परियोजना पिछली सरकार के इसी वायदे की अनदेखी का एक नायाब नमूना है । राज्य की नर्मदा घाटी में बनी और बन रही २९ बडी बांध परियोजनाआें में से एक मा ेरंड-ग ंजाल म ें भी व े सब कारनामे दोहराए जा रह े हैं जिन्हें 'रानी अवंतीबाई सागर,` 'इंदिरासागर,` ओंकारेश्वर,` 'महेश्वर` और 'सरदार सरोवर` ने भोगा है। 
इस साल के मानसून में सबसे ज्यादा व लगातार कोई मीडिया और आम जन-मानस के बीच चर्चित रहा है, ता े वह है बड़े बांध और उनसे प्रभावित लोग । प्रदेश ही नहीं देश के कई हिस्सों में मानव निर्मित इन बड़े बांधों के कारण मची तबाही से जनता उबर भी नही ं पाई है कि मध्यप्रदेश से एक और बड़ बांध के निर्माण की खबर मिली है। नर्मदा घाटी के तीस बडे बांधों में से पहला बांध होशंगाबाद जिले में तवा नदी पर वर्ष १९७८ में बनकर तैयार हुआ था । उसके करीब ४० साल बाद नर्मदा घाटी में ही सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति के लिए एक और बडा बांध मोरंड एवं गंजाल नदी पर बनाया जाना प्रस्तावित है । यह बांध 'नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` (एनवीडीए) द्वारा बनाया जायेगा । मोरंड-गंजाल बांध से हरदा, होशंगाबाद आ ैर बैतूल जिले के २३ गाँवों की जमीन और जंगल सीधे प्रभावित होंगे । 
मोरंड-गंजाल संयुक्त सिंचाई परियोजना का प्रस्ताव दो वर्ष की वैधता के साथ अक्टूबर २०१२ में मिला था, परन्तु 'एनवीडीए` निर्धारित समयावधि में पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाआ ें को पूर्ण नहीं कर पाया और नतीजे में इस अवधि का े बढ़ाकर चार वर्ष किया गया । किसी भी परियोजना के लिए अनिवार्य पर्यावरणीय मंजूरी प्रभावितोंकी जन-सुनवाई और पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) की प्रक्रिया की रिपोर्ट केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, को भेजने के बाद मिलती है, लेकिन एनवीडीए ने यह खानापूर्ति महज दो हफ्तों में ही पूरी कर दी । तीन से १८ नवम्बर २०१५ के बीच मात्र १५ दिनों में तीनों प्रभावितों जिलों हरदा, होशंगाबाद और बेतूल के प्रभावितों के तीखे विरोध के बावजूद जन-सुनवाई का तमाशा निपटा दिया गया और जुलाई १६ मेंपरियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी के लिए प्रस्तुत कर दिया गया । 
इस परियोजना का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इससे प्रभावित होने वाले तीनों जिलों का २३७१.१४ हेक्टेयर घना जंगल डुबोया जा रहा है । कानून के अनुसार इतने बड़े पैमाने पर वनभूमि को डुबोेने के लिए शुरुआत में ही मंजूरी लेना अनिवार्य हैै, लेकिन 'सूचना का अधिकार कानून-२००५` के तहत मिली जानकारी से पता चला कि इस मंजूरी के लिए जरूरी क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए सितम्बर २०१९ तक आवश्यक भूमि आरक्षित नही ं हो पाई थी । 
तीसरा मसला है 'पेसा कानून,` जिसक े तहत बिना ग्रामसभा की अनुमति लिए आदिवासी क्ष ेत्र में कोई परियोजना लागू नहीं की जा सकती । परियोजना प्रभावित परिवारों में ९४ प्रतिशत लोग जनजातीय समुदाय, विशेषतरू कोरकू और गौंड जनजाति के हैं, शेष ६ प्रतिशत दलित एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के । इन स्थानीय आदिवासी समुदायों द्वारा ग्रामसभाओं के माध्यम से लगातार मोरंड- गंजाल सिंचाई परियोजना का विरोध किया जा रहा है और कई बार अपनी-अपनी ग्रामसभाओं में वे इस बाबत प्रस्ताव भी पारित कर चुक े  हैं, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी जा रही । ग्रामसभाओं के ठहराव-प्रस्ताव प्रदेश के हुक्मरानों को भी भेजे गए, परन्तु इन सभी तथ्यों को  दरकिनार करते हुए इस बांध परियोजना को प्रशासनिक स्वीकृति दे दी गई । यह लोकतंत्र की बुनियाद मानी जाने वाली ग्रामसभाआेंके अस्तित्व को नकार कर 'मध्यप्रदेश पंचायत एवं ग्राम स्वराज अधिनियम-१९९३` का भी स्पष्ट उल्लंघन था । 
इस परियोजना से जुडा चौथा मुद्दा है, 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-२००६` के तहत परियोजना प्रभावित गांवों में वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों का अभी तक निराकरण नहीं किया जाना । 'केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय` ने भी मार्च २०१७ में ही स्पष्ट कह दिया था कि इस परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी तभी मिलेगी जब 'एनवीडीए` कोे पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त होगी । इन सभी तथ्यों के आधार पर 'एनवीडीए` द्वारा बांध के निर्माण के लिए टेन्डर जारी करना कानून का उल्लंघन है । इससे हम समझ सकते हैं कि हमारे योजनाकारों को विकास के लिए बड़े बांध ही एकमात्र तरीका नजर आता है । 
परियोजना के आर्थिक पक्ष को देखें तो जब वर्ष २०१२ में इस परियोजना को बनाने का विचार शुरू हुआ था, तब सरकार ने उसका अनुमानित खर्च करीब १४३४ करोड़ रूपये बताया था, लेकिन करीब सात साल बाद इसी परियोजना का खर्च बढ़कर २८१३ करोड़ रूपये हो गया है । जब यह परियोजना शुरू होगी तो निश्चित ही इससे कई गुना ज्यादा खर्च होगा और लागत में यह बढ़ोत्तरी परियोजना के आगे बढ़ने के साथ-साथ लगातर बढ़ती रहेगी । मध्यप्रदेश जैसे राज्य के लिए यह विचारणीय सवाल है कि क्या करोड़ों खर्च कर लोगों को उजाड़ने के साथ ही पर्यावरणीय मुद्दों को नजर-अंदाज करना ठीक होगा ? 
हमारे पास यदि इतने संसाधन हैं तो बांध बनाने के बजाए व्यापक जन-संवाद कर जनता के विचारोंऔर जरूरतों के अनुसार पहले हमें पानी के उपयोग, संरक्षण, संवर्धन आदि के संबंध में नीति बनाना चाहिये । क्या सिंचाई तथा पीने के पानी की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर छोटे तालाब, छोटी जल-संरचनायें और पानी बचाने के प्रयासों से नहीं की जा सकती ?
सरदार सरोवर का ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है जहाँ इसी साल मध्यप्रदेश के धार, अलीराजपुर, बड़वानी जिलों के १७८ गाँव बांध जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं । दूसरी ओर, मध्यप्रदेश के ही गांधीसागर बांध में पूर्ण जलाशय स्तर से ऊपर पानी भरने से डूब क्षेत्र का रामपुरा गाँव ही प्रभावित हो गया है । इन संकटों से सीख लेने की बजाए अपने अनुभवों को अनदेखा करके हम एक और बड़े बांध का सपना देख रहे हैं, जो निश्चित ही प्रदेश के हित मेंनहीं होगा ।

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