सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

पर्यावरण समाचार
धरती की जीवनदायिनी क्षमता खतरे में है 
इन दिनों दुनिया में  समस्याएं तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।
वर्ष १९९२ में विश्व के १५७५ वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त् वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है ? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की जरूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर - यह पृथ्वी - इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।
इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष २१०० तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त् हो सकते हैं । मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैंऔर इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए । 
इस चेतावनी के २५ वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष २०१७ में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिकवैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष १९९२ में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकांश पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियां पहले से और बिगड़ गई हैं ।  
इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन  इम्पेरिल्ड प्लैनेट (संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।
स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं है - जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्यास     व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्रमें बदलाव ।
इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएं ऐसी हैंजिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं - भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव ।
इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक टिपिंग पॉइंट (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुंच गई तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं । ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।
इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत जरूरी है ।  इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 
दुनिया में भोगवादी सभ्यता के विकास ने संस्कृति और जीवन शैली को प्रभावित किया है । आज जीवन शैली को प्रकृति मित्र बनाने की आवश्यकता है जिससे प्रकृति पर कम से कम भार पड़े । यह विचार भी धीरे-धीरे सारी दुनिया में प्रचारित हो रहा है । 
जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला जरूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके  समाधानों की सही जानकारी पंहुचे जिससे वे इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें ।  

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