हमारा भूमण्डल
विश्व में विकास विकल्पों की तलाश
भारत डोगरा
विकास को उत्तरोत्तर बढ़ते उपभोग से मापने के आधुनिक दौर में समूची दुनिया पर संकट मंडरा रहा है।
अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन की मारामारी में इंसान और इंसानियत अब अपनी समाप्ति की कगार पर पहुंच गई लगती है। ऐसे में 'ग्लोबल वर्किंग ग्रुप बियान्ड डेवेलपमेंट` की रिपोर्ट 'ऑल्टरनेटिव्स इन ए वर्ल्ड ऑफ क्राइसिस` आशा जगाती है।
विश्व के गहराते, बहु-आयामी संकट के बीच विकल्पों की तलाश ने भी जोर पकड़ा है। इनमें से कुछ प्रयास ऐसे हैं जो पूंजीवादी ढांचों, कट्टरता व बहुत समय से फैलाए गए मिथकों से आगे जाकर विकल्पों पर विमर्श कर रहे हैं । ऐसा ही एक प्रयास विश्व के अनेक देशों के विचारकों के मिले-जुले समूह ने किया है । इस समूह का नाम है 'ग्लोबल वर्किंग ग्रुप बियान्ड डेवेलेपमेंट` (विकास से आगे की सोच का वैश्विक कार्य समूह) । इनके विचार व अध्ययन हाल में 'आल्टरनेटिव्स इन ए वर्ल्ड ऑफ क्राईसिस` पुस्तक में प्रकाश्ति हुए हैं ।
पुस्तक का उद्देश्य बताते हुए उसकी प्रस्तावना में लिखा गया है - `यह पुस्तक एक सामूहिक प्रयास का परिणाम है। इसे विश्व के विभिन्न भागों के लेखकों ने लिखा है -विभिन्न सामाजिक-आर्थिक संदर्भों और राजनीतिक स्थितियों से आए कार्यकर्ताओं व विद्वानों, महिलाओं व पुरुषों ने, ऐसे लेखकों ने जिन्होंने अधिक व्यापक सामाजिक बदलाव की संभावनाओं का संदेश दिया है । उनका साझा सरोकार यह है कि नवउदारवाद के 'इतिहास के अंत` के मंत्र के बावजूद विकल्प उपलब्ध हैं और चाहे यह बहुत नजर न आएं, बहुत चर्चित न हों पर आज भी इन विकल्पों की मौजूदगी है।'` इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में विश्व के विभिन्न भागों की ऐसी प्रक्रियाओं के बारे में बताया गया है जिन्होंने सामाजिक हकीकत को अनेक स्तरों पर, अनेक प्रकार से बदला है। आधिपत्य के विभिन्न पक्षों को एक साथ चुनौती दी है। आधुनिक पूंजीवाद की विनाशक राह, उसकी औपनिवेशिक प्रवृत्ति, पित्तृसता और वस्तुतीकरण के विकल्प प्रस्तुत किए हैं ।
इन सामाजिक बदलावों की प्रक्रियाआें के सामने अनेक तरह के विरोध, द्वंद व चुनौतियों की स्थितियां रही हैं । इनमें आन्तरिक व बाहरी दोनों स्तरों पर बदलाव की विभिन्न सफलताएं व स्थितियां सामने आई हैं । इसके बावजूद प्रयासों की आंशिक विफलता से भी बहुत कुछ सीखने को मिला है। यह पुस्तक सामाजिक संघर्षों का रोमांटीकरण नहीं करना चाहती । इसमें प्रयास किया गया है कि प्रभावित लोगों में एक-जुटता बनाते हुए विभिन्न स्थितियों व बदलावों का ऐसा ईमानदार विश्लेषण प्रस्तुत किया जाए जिससे इन लोगों, समूहों व सामाजिक आंदोलनों, उनके बहुपक्षीय, बंधन तोड़ने वाले बदलावों का ज्ञान समृद्ध हो सके ।
आधुनिक विकास की कुछ अति प्रचलित मान्यताओं को इस अध्ययन में चुनौती दी गई है। पुस्तक में लिखा गया है - `पूंजीवादी आधुनिकता जिस सभ्यतामूलक बुनियाद पर खड़ी है उससे बहुपक्षीय संकट उत्पन्न हुआ है। यह संकट आज विश्व के सामने है। इस बुनियाद की एक मुख्य सोच थी कि सामाजिक समस्याओं के समाधान में विज्ञान और तकनीकी की विशेष व प्रमुख भूमिका है। इससे जुड़ी यह सोच भी थी कि प्रकृति पर विज्ञान व तकनीक के जरिए आधिपत्य किया जाए व प्रकृति को मात्र प्राकृतिक संसाधनों के भंडार के रूप में देखा जाए ।
एक अन्य सोच भी थी कि मनुष्य की अच्छी व बेहतर स्थिति को, उसके विकास की भौतिक वस्तुएं एकत्र व जमा करने से जोड़ कर देखा जाए । एक सोच थी कि मनुष्य को व्यक्तिवादी, निरंतर अपने मुनाफे को बढाने वाली इकाई के रूप में देखा जाए व सामाजिक-आर्थिक संरचना में असीमित आर्थिक समृद्धि को मुख्य आधार बनाया जाए तथा जीवन के सभी पक्षों को वस्तुओं में बदलकर भौतिकवाद को हावी होने दिया जाए । इस तरह की सोच-समझ को आधार बनाने से न केवल अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई बल्कि उनके प्रस्तावित समाधान पहले से चली आ रही समस्याओं को और भी विकट करते गए । इस तरह मौजूदा संकट एक सभ्यता का संकट माना होता गया ।
हमारा विश्व कई मायनों में आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता से जुड़े एक ऐसे बहुत तेज पर्यावरणीय विनाश के दौर से गुजर रहा है जैसा पहले कभी देखा नहीं गया । इसमें जलवायु बदलाव, मौजूदा जल स्त्रोतों का विनाश, आजीविकाओं का ह्ास, प्रदूषण, वन-विनाश व जैव-विविधता में अत्यधिक कमी सम्मिलित हैं । इस पर्यावरण विनाश से मानवता का भविष्य तक संकट में है। संसाधनों के अत्यधिक दोहन से विश्व भर में आजीविकाएं खतरे में हैं । प्रकृति निरंतर एक वस्तु में तब्दील की जा रही है। दूसरी तरफ, विश्व के अनेक संस्थान व समझौते इन समस्याओं के खोखले समाधनों की पैरवी मेंलगे हैं ।
इस पुस्तक में विकल्पों के अब तक के उपेक्षित स्त्रोत तलाशने पर जोर दिया गया है । पुस्तक कहती है, `द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकास के विमर्श का उपयोग पूंजीवादी सामाजिक व आर्थिक संबंधों को उपनिवेशवाद के बाद के दौर में आगे बढ़ाने के लिए बहुत असरदार ढंग से किया गया । विकास व आधुनिकी-करण को आगे बढ़ाने के नाम पर विश्व में रहन-सहन के अनेक तौर-तरीकों को पिछड़ा व पुराना बता कर नकारा गया । विश्व के जो दो-तिहाई लोग दुनिया के अपने नजरिए, अपनी संस्कृति और गरिमा की सोच के अनुसार जी रहे थे उनको ऐसे अविकसित समुदायों के रूप में दर्शाया गया जिन्हें बाहरी सहायता की जरूरत थी ।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को किसी क्षेत्र की स्थिति का मापक बताकर विकसित व अल्पविकसित देशों में दुनिया को बांट दिया गया और इस वर्गीकरण के आधार पर दुनिया के अधिकांश लोगों को उनके अपने अनुभवों की जमीन से हटाकर दूसरों की नकल करने के लिए कहा गया । तब से उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन पश्चिमी पूंजीवादी आधुनिकता द्वारा तय मापदण्डों के आधार पर किया जाने लगा ।
दूसरी ओर, मौजूदा पंूजीवादी विकास का ढांचा ही ऐसा है कि इसकी सीमाओं के बीच अमीर 'उत्तर` व गरीब 'दक्षिण` की दूरी को पाटा नहीं जा सकता है। इन तथाकथित अल्प-विकसित समाजों को अभिजात्यों के साम्राज्य की जरूरतों को पूरा करने व उसके बोझ सहने की भूमिका के रूप में रखा गया है। अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए व्यापक विमर्श पर आधारित इस पुस्तक ने कहा है, `विकास` के आगे विकल्प तलाशने का अर्थ यह है कि पूंजीवादी आधुनिकता ने जो सभ्यता तैयार की है, उससे आगे विकल्प तलाश करना, ऐसी सभ्यता के आगे जो आर्थिक सम्पन्नता पर केन्द्रित है, प्रकृति से विनाशकारी व संकीर्ण स्वार्थ के संबंध पर आधारित है, मानवता की व्यक्तिवादी व मुनाफा अधिकतम करने वाली सोच पर केन्द्रित है व हमें गंभीर संकट में ले आई है।`
इन स्थितियों में यह पुस्तक सार्थक सामाजिक बदलावों के लिए कुछ महत्वपूर्ण योगदान देने का प्रयास करती है। पुस्तक की मान्यता है कि बहुआयामी संकट के लिए बहुआयामी उपाय चाहिए । आज सामाजिक बदलावों को एक साथ वर्ग, नस्ल, औपनिवेशिकता, लिंग व प्रकृति के जटिल संबंधों से जुड़े अनेक प्रयास करने चाहिए क्योंकि इनके अंतर्संबंधों से ही मौजूदा सभ्यतामूलक संकट उत्पन्न हुआ है। इस पुस्तक में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययनों के माध्यम से मौजूदा समस्याओं और संभावित विकल्पों का विश्लेषण भी किया गया है ।
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