गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

जनजीवन

लवासा परियोजना : एक परम्परागत निर्णय
चिन्मय मिश्र

लवावा परियोजना को केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा मिली पर्यावरणीय स्वीकृति ने मंत्रालय के इस रिकार्ड को बनाए रखने में मदद की है जिसमें कि इसके गठन के पश्चात् से आज तक एक भी परियोजना को पर्यावरणीय स्वीकृति न मिलने पर रद्द नहींकिया गया है ।
वर्ष २००२ में पर्यावरण विभाग की स्वीकृति से इस पहाड़ी शहर का निर्माण प्रारंभ हुआ था। लेकिन पर्यावरणीय मापदंडों पर खरा न उतरने पर यहां निर्माण पर रोक लगा दी गई थी । पन्द्रह दिन पूर्व महाराष्ट्र सरकार ने लवासा कारपोरेशन के प्रमोटरों सहित १५ व्यक्तियों पर पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम के उल्लघंन को लेकर मामला भी दर्ज कर लिया था । तब यह सोचा गया था कि इससे लवासा पर दबाव बढ़ेगा लेकिन स्वीकृति पत्र से मालूम पड़ा कि यह तो स्वीकृति दिए जाने की एक पूर्व शर्त थी ।
इसका एक अर्थ यह निकलता है कि महाराष्ट्र सरकार की निगाह में किया गया कानून का उल्लघंन केन्द्र सरकार के लिए चरित्र प्रमाणपत्र है । यानि इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि न्यायालय में चार्जशीट दाखिल हो जाने के बाद आरोपी जमानत का हकदार हो जाता है । ठीक इसी तरह प्रथम दृष्टया कानून का उल्लघंन का दोषी पाए जाने के बाद लवासा को दंडित नहीं बल्कि पुुरस्कृत किया जा रहा है । हम सब पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम देख और भुगत रहे है लेकिन भारत सरकार शायद यह मान बैठी है कि हमारा देश इससे अप्रभावित ही रहेगा ।
दरअसल भारत के वन व पर्यावरण मंत्रालय के गठन की प्रक्रिया के दौरान ही शायद यह विचार आत्मसात कर लिया गया था कि इस मंत्रालय का कार्य विरोध की आग को ठंडा करना है । तभी तो जैसे ही स्थानीय व्यक्ति और संगठन परियोजना में कानूनों में उल्लघंन के मामले को लेकर सड़क पर उतरते है, मंत्रालय एकदम से जनहितैषी की भूमिका में प्रोएक्टिव होकर सामने आता है और हम सबको लगने लगता है कि जैसे देश मंे लोकतंत्र अभी भी सक्रिय है । मंत्रालय की कार्यवाही से कमोवेश आशान्वित होकर लोग अपने रोजमर्रा के कामों यानि जीविका उपार्जन में लग जाते हैं और कुछ महीनों बाद एक दिन अचानक हमें मालूम पड़ता है कि पर्यावरण मंत्रालय ने परियोजना को सशर्त अनुमति दे दी है ।
ऐसा हम नर्मदा घाटी पर बन रहे महेश्वर बांध के मामले में भी देख चुके हैं । अनुमति देते हुए घडियाली आंसू रोते हुए तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्री ने कहा था कि वे भारी मन से इस परियोजना को अनुमति दे रहे हैं, क्योंकि उन पर अत्यधिक दबाव था । वैसे शरद पवार द्वारा पेट्रोल के दाम बढ़ाने के मामले में यूपीए सरकार का समर्थन करना और पर्यावरण को लेकर आया यह पारम्परिक निर्णय क्या महज संयोग है ? यदि ऐसा हो तो इसे सुखद ही माना चाहिए । वैसे खाद्य आपूर्ति मंत्री ने अगले १५ दिनों में चीनी के निर्यात के मामले पर भी पुन: विचार करने की बात कही है ।
दरअसल भारतीय राजनीति अब उस दौर में पहुंच गई है जिसमें उसने विश्वसनीयता की फिक्र करना ही छोड़ दी है । लवासा सिटी की बात के चलते हमें महाराष्ट्र के ही आदर्श हाउसिंग सोसायटी के मामले में हो रही लेट लतीफी और अब सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत जानकारी देने मेंहो रही ना-नुकुर इस मामले के भविष्य को हमारे सामने स्पष्ट रूप से ला रही है । ३००० करोड़ रूपए की लवासा परियोजना अपने प्रारंभ से ही विवादों के घेरे में रही है और उच्च् न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद लग रहा था कि अब गाड़ी पटरी पर आ सकती है । लेकिन इस बार भी निराशा ही हाथ लगी ।
पर्यावरण मंत्रालय ने अपने स्वीकृति पत्र में कुल ५३ शर्ते लगाई हैं । साथ ही ५ प्रतिशत धन महाराष्ट्र सरकार के पास जमा करने का कहा है । इसका उपयोग महाराष्ट्र सरकार तब कर सकेगी जबकि लवासा कॉरपोरेशन पर्यावरण पुर्नस्थापना कार्य करने में असफल रहेगी । यहां भी उसकी जिम्मेदारी एक तरह से महज नकद भुगतान तक सीमित कर दी है । यदि लवासा कॉरपोरेशन पर्यावरणीय शर्ते पूरी नहीं करता है तो भी अब उसे प्राप्त् निर्माण स्वीकृति को रद्द नहीं किया जा सकता क्योंकि महाराष्ट्र सरकार के पास निश्चित धनराशि जमा करा देगी । इससे साफ जाहिर होता है कि पर्यावरण मंत्रालय की रूचि पर्यावरण संरक्षण के अलावा अन्य सभी में है । वरना उसे सर्वप्रथम तो पुन: निर्माण प्रारंभ करने की अनुमति ही नहीं देनी थी और यदि दे ही दी थी तो इसके साथ यह शर्त लगानी चाहिए थी कि पर्यावरण पुर्नस्थापना कार्य का निरीक्षण करने के लिए एक जनसमिति का गठन किया जाएगा और यदि यह समिति पाती है कि उपरोक्त कार्य नियमानुसार नहीं हो रहा है या हुआ है तो दी गई स्वीकृति स्वमेव निरस्त मानी जाएगी और किया जा चुका निर्माण तत्काल प्रभाव से अवैध घोषित होकर नष्ट कर दिया जाएगा ।
लेकिन नई पर्यावरण मंत्री ने बहुत ही नजाकत और नफासत से पर्यावरणीय प्रभाव संबंधी सारी जिम्मेदारियां अपने ही सहयोगी यानि महाराष्ट्र सरकार के सिर पर लाद दीं । यह निर्णय हम सबको एक बार पुन: सोचने पर मजबूर कर रहा है कि विरोध का स्वरूप क्या हो और अंतिम निर्णय आने तक हम समुदाय को किस तरह से जोड़े रख सकते हैं ? कुडनकुलम परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे जनसमुदाय ने संभवत: इस सरकारी चालाकी को कुछ हद तक समझा है । तभी तो उन्होनें प्रधानमंत्री से मिले आश्वासनों के बावजूद अपना संघर्ष नहीं रोका । प्रधानमंत्री ने इसकी सुरक्षा की सुनिश्चितता बताने के लिए एक उच्च्स्तरीय समिति का गठन भी कर दिया है । लेकिन लोगों को यदि प्रधानमंत्री के आश्वासन पर भी भरोसा नहीं हो रहा है तो यह एक गंभीर रजानीतिक संकट है और यूपीए गठबंधन को अपनी नीतियों और कार्यप्रणाली का पुन: मूल्यांकन करना चाहिए ।
जहां तक पर्यावरण व वन मंत्रालय का प्रश्न हे वह नर्मदा घाटी परियोजनाआें सहित अनेक परियोजनाआें जिसमें उड़ीसा की मलकानगिरि आदि में खनन जैसी परियोजना शामिल है, से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन के लिए विशेषज्ञों की अनेक समितियों का गठन करती रही है । अधिकांश मामलों में विशेषज्ञों ने जो रिपोर्ट दी हैं जिसमें नर्मदा घाटी परियोजनाआें को लेकर देवेन्द्र पांडे समिति की रिपोर्ट भी शामिल है, ने भारी अनिमितताआें एवं पर्यावरणीय कानूनों के उल्लघंन की बात करते हुए इन पर तुरन्त प्रभाव से रोक लगाने की अनुशंसा की थी । लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टो को मानने से इंकार कर, निर्माण, खनन व अन्य पर्यावरणीय विनाश के कार्यो को चलते रहने देने की अनुमति दे दी ।
कबीर कहते है कि संतों, जागत नींद न कीजैं । परन्तु हमारे भाग्य नियंता आंख खोले सो रहे हैं और जितना भी पर्यावरण विनाश वे अपने जीवनकाल में करवा सकते है उसके पीछे प्राण प्रण से लगे हैं । कर्नाटक में बेल्लारी का मामला अभी ठंडा हुआ ही नहीं था कि मध्यप्रदेश के सतना जिले के जंगलों से अवैध खनन का बड़ा मामला सामने आया है जिसमें राज्य के दो मंत्रियों की संलिप्त्ता बताई जा रही है । लेकिन बरसों बरस कुछ नहीं होगा । जनता में से कोई एढ़ी-चोटी का जोर लगाकर मामले को अदालत तक ले जाएगा और हमारे पर्यावरण एवं वन मंत्रालय सफेद हाथी की तरह देश-विदेश में हो रहे सेमिनारों में अपने देश का पक्ष भर रखकर जबानी जमा खर्च करते रहेंगे ।
लवासा कॉरपोरेशन को दी गई अनुमति वास्तव में भारतीय जनता की सेाच की व्यावहारिकता सिद्ध करती है क्योंकि वह इस संघर्ष के प्रारंभ से ही जानती थी कि इसका अंत क्या होगा । वैसे जनता चाहे तो अंत अपने अनुरूप भी करवा सकती है । लवासा सिटी के मामले में जनआकांक्षा की अवहेलना भारतीय पर्यावरण और भारतीय राजनीति पर भारी पड़ सकती है ।

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