गुरुवार, 27 नवंबर 2008

८ वातावरण

बढ़ते तापमान की चुनौतियाँ
सुश्री सुनीता नारायण

कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल स ेबचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर अपनी निर्भरता बढ़ाएँ । हमारे पास अपने ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। नि:संदेह, उत्सर्जन में कमी लाने का एक बड़ा विकल्प बायोमास है । जलवायु में परिवर्तन अपरिहार्य है । लेकिन इधर जो परिवर्तन देखने में आ रहे हैं उनसे समूचे परिस्थितिकी तंत्र पर कहर टूट पड़ा है । यही नहीं इस परिवर्तन ने हमारी जीवन शैली, समाज और समुदायों के अस्तित्व को ही चुनौती दे डाली है । इस के मद्देनजर इस आधी सदी तक वैश्विक तापमान में ४ से ५ डिग्री तक की बढ़ोतरी से जुड़ी चेतावनी खतरे की घंटी है । इस मायने में कि इस तरह की चेतावनियाँ पहले भी आती रही है लेकिन उन्हें ध्यान में रखकर कहीं भी संजीदगी से कोई काम नहीं हुआ । बातें बहुत हुइंर्, तापमान को कम करने के उपायों पर चर्चाएँ हुई, लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल शुरू नहीं हो सका। हाल ही में लंदन से आई चेतावनी हमें सचेत करती है कि तापमान को स्थिर बनाए रखने या आशंका के मुताबिक उसमें बढ़ोतरी को एक सीमा तक रोके रखने की दिशा में हमारे प्रयास अभी जमीनी स्तर पर शुरू ही नहीं हो सके हैं। आईपीसीसी (इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज) ने अपनी एक रिपोर्ट में पिछले साल ही आगाह किया था कि जलवायु में गर्मी पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है । विश्व की औसत हवा, महासागरों के बढ़ते तापमान, बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने और समुद्र - स्तर में बढ़ोतरी से अब यह साफ हो गया है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है । वर्ष २००३ में भारत में मानसून से पहले चली गर्म हवाआें ने १४०० जानें ले ली । इसी साल अमेरिका पर ५६२ चक्रवातों का कहर टूटा जबकि इससे पहले १९९२ में वहाँ करीब ४०० चक्रवात आए थे । वर्ष २००७ में उत्तर ध्रुवीय सागर में सबसे ज्यादा बर्फ पिघलना भी इस बात की गवाही देता है कि तापमान में बढ़ोतरी हो रही है । एशिया में ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में पानीकी उपलब्धता पर गहरा असर पड़ा है । मसूलाधार बरसात और तूफानों से पाकिस्तान में भारी तबाही हुई । जलवायु के इस कदर परिवर्तन से यह बात तो सिद्ध हो चुकी है कि ये बदलाव मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है । अगर तापमान में यह वृद्धि जारी रही तो वर्ष २१०० तक वैश्विक तापमान में ५ से ७ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है । उस हालत में तूफानों की भयावहता बढ़ जाएगी, बर्फ तेजी से पिघलने लगेगी, गर्म हवाएँ अक्सर चलेंगी, समुद्र का जलस्तर भी तेजी से बढ़ेगा, विश्व की २५० मिलियन आबादी के लिए पानी मिलना दूभर हो जाएगा और ३० प्रतिशत प्रजातियों के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा । अगर कार्बन डाईआक्साइड कंसंट्रेशन की रेंज ३५०-४०० पीपीएम तक सीमित किया जा सका तो विश्व के औसत तापमान में बढ़त को २ से २.४ डिग्री सेल्सियस तक रोके रखा जा सकता है। हालाकि इसके बाद भी विश्व डेंजर जोन में तो पहुँच ही जाएगा । तापमान के लगातार बढ़ते साक्ष्यों और इस सचाई से विवादों की परतें हट जाने के बावजूद विश्व के अमीर देश जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं । ये देश जितनी मात्रा में ग्रीन हाउस उत्सर्जन कर रहे हैं उससे उभरते संसार के लिए कोई जगह ही नहीं बची है । यह उत्सर्जन लगातार बढ़ता चला जा रहा है । ईधन जलने से अमेरिका में मोटे तौर पर २० टन कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन होता है । प्रति व्यक्ति तुलना करने पर भारत में यह आँकड़ा १.१ और चीन में ४ टन ही बैठता है। इसमें संदेह नहीं है कि विकासशील मुल्क जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे अमीर देश उत्सर्जन के लिए भारत और चीन को ही ज्यादा जिम्मेदार मान रहे हैं । इनका कहना है कि जब तक भारत और चीन क्योटो प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं करेंगे वे भी नहीं करने वाले । क्योटो प्रोटोकॉल को कमोबेश भुला ही दिया गया है । बहरहाल, जहाँ तक जलवायु परिवर्तन का ताल्लुक है विश्व के पास समय और विकल्पों की लगातार कमी हो रही है । तापमान को २डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकना वाकई एक बड़ी चुनौति होगी । इसके लिए उत्सर्जन में ५० से ८५ प्रतिशत तक की कमी लानी होगी । और वह भी २०५० तक। इसके लिए इंर्धन के इस्तेमाल की नीतियाँ बदलनी होंगी । इन चिंताजनक चुनौतियों से नरम विकल्पों के जरिए नहीं निपटा जा सकता। जहाँ तक ऊर्जा की बात है हमारे पास समय तो कम बचा ही है बजट भी पर्याप्त् नहीं रह गया है । इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी ने अपनी २००७ की एक रिपोर्ट में कहा है कि जिस दर से अभी उत्सर्जन हो रहा है उसमें भारी कटौती करनी पड़ेगी । लेकिन विकासशील विश्व के लिए इस चेतावनी के मायने क्या हैं ? खासकर तब जबकि ये देश ऊर्जा का इस्तेमाल अपनी जरूरत से कहीं कम कर रहे हैं । भारत में ऊर्जा क्षेत्र जटिल है । थार्मल पॉवर हमारे यहाँ उर्त्सजन के लिए मूल रूप से जिम्मेदार है । हालाँकि हमारे यहाँ बिजली पैदा करने के तमाम विकल्पों की तलाश की जा रही है लेकिन इसके लिए कोयले की खपत बढ़ना तय है । कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल से बचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं । निसंदेह, उत्सर्जन में कमी लाने काएक बड़ा विकल्प बायोमास है । लेकिन इसके लिए हरियाली बढ़ाने वाले रास्तों पर ईमानदारी से चलना पड़ेगा । ***
रतनजोत का तेल पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक रतनजोत के उत्पादन व उपयोग को लेकर उठने वाले सवाल भी कम नहीं है । आस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने इस पौधे को अवंाछित घोषित कर रखा है । शोधकर्ता बताते हैं कि थाईलैंड और अफ्रीकी देशों में पहले ही इस पौधे को बायोडीजल के बतौर इस्तेमाल करने का काम शुरू किया गया था लेकिन विभिन्न शोधों से पता चला कि रतनजोत का तेल पर्यावरण के लिए तो घातक है ही, मानव स्वास्थ्य के लिए भी यह लगभग जानलेवा हे । ऐसे निष्कर्षो के बाद इन देशोंमें रतनजोत के बीज से बायोडिजल की योजना ने दम तोड़ दिया । छ.ग. के युवा औषधि वैज्ञानिक व पर्यावरणविद पंकज अवधिया का कहना है कि बायोडिजल बनाने के लिए जिन सात पौधों का इस्तेमाल दुनियाभर में हो रहा है । उसमें रतनजोत अंतिम विकल्प माना जाता है । इसके पीछे रतनजोत के विषैले होने को मुख्य कारण बताते हुए वे कहते है, रतनजोत बेहद नुकसानदेह है । इसमें पाये जाने वाले करसिन की मारक क्षमता इस हद तक है कि इसका इस्तेमाल जैविक हथियार बनाने में किया जा सकता है । इसके तेल में १२ डी आक्सी, १६ हाईड्राक्सी और फोरबेल जैसे रसायन पाए जाते हैं, जिन्हें कैंसर व दूसरे त्वचा रोगों के लिए जिम्मेदार माना जाता है इसके अलावा रतनजोत से बनने वाला बायोडीजल फेंफड़ो को भी नुकसान पहुंचाता है ।

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