गुरुवार, 27 नवंबर 2008

२ सामयिक

वापस लौटने का क्षण
सतीश कुमार
जैनदर्शन की सबसे मूल्यवान धरोहर प्रतिक्रमण है । यह आत्मचिंतन का व्याकरण भी है । इसेआजकल एक तकनीक की तरह अपनाना प्रारंभ कर दिया गया है । परंतु प्रतिक्रमण अपने आप में पूर्ण चिंतन की धारा है । बढ़ते उपभोक्तावाद से नष्ट होते विश्व को बचाने का एकमात्र सूत्र स्वयं पर संयम ही है । इन दिनों चारों तरफ निराशा है। वैज्ञानिक पर्यावरणवादी व मौसम विज्ञानी सभी यही दावा कर रहे हैं कि प्रलय करीब है और मानव सभ्यता अपने विनाश की ओर बढ़ चली है । एक के बाद एक आने वाली नई किताबें हमें बताती हैं कि हमने उस चरम बिंदु को पार कर लिया है और हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां से लौटने का कोई रास्ता नहीं है । हमारा आसमान कार्बन डाईआक्साइड जैसी जहरीली गैसों से भर गया है और वातावरण ग्रीनहाउस गैसों से । हमें यह भी बताया जाता है कि हमारी यह धरती गरम हो चली है । अब हम चाहे कुछ भी कर लें, इस बढ़ते तापमान को कम नहीं कर सकते । इस बढ़ते तापमान से उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्रों का जल-स्तर ऊपर उठेगा । इससे समुद्र किनारे बसे देश, शहर, गांव सभी डूबेगें । यह अमीर-गरीब का अंतर नहीं देखेगा । लंदन भी डूबेगा और बंबई भी । पिछले वर्षोंा में जो अमेरिका के न्यू आरलीन्स में हुआ, वहीं न्यूयार्क में भी होगा । उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, म्यांमार (बर्मा) बंगलादेश सभी जगह समुद्री तूफान तेजी से उठेंगे । धरती का गरम होना अब रूक नहीं पाएगा । विशेषज्ञों व कार्यकर्ताआें द्वारा भयावहता की एक जैसी तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है । बढ़ते तापमान के इस संकट की भयावहता को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते । हम उन वैज्ञानिकों का आदर करते हैं जो भविष्य को मानवता के लिए खतरनाक बता रहे हैं । हमारी वर्तमान जीवनपद्धत्ति जीवाश्म इंर्धन, पेट्रोल पर इस कदर निर्भर है कि अब हम कगार तक पहुंच चुकी है । यानी यदि हम जरा भी आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से खाई में जा गिरेंगे । इसलिए ऐसे में हमारे पास वापस लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है । तो आइए, हम इसे वापस लौटने का क्षण कहें । अब हमें ऐसी जीवनपद्धति की ओर लौटना ही होगा जो पेट्रोल की खतरनाक निरर्भरता से मुक्त हो । फिलहाल, हम अपनी यात्राआें, पास-दूर, आने-जाने, खाने-पीने पर, कपड़े-लत्तों पर, मकान,प्रकाश और तो और मनोरंजन पर भी प्रति दिन लाखों-करोड़ों लिटर पेट्रोलियम पदार्थ फूंकते रहते है । ऐसी जीवनपद्धति, हम सबके जीने का यह तरीका न केवल बेकार है, बहुत अस्थिर है, डगमग है बल्कि खतरनाक भी है । जिस पेट्रोल के खजाने को जमा करने में प्रकृति को कोई बीस करोड़ वर्ष लगे थे उसे हम मात्र २०० वर्षोंा के भीतर ही लगभग समाप्त् कर चुके हैं । जिस गति से हम पेट्रोल, गैस के इस दुर्लभ खजाने को लुट रहे हैं वह जरा भी ठीक नहीं कहा जा सकता है । यह न्यायसंगत नहीं है । आज नहीं तो कल हमें वापस लौटना ही होगा । इस वापसी के बिंदु के लिए संस्कृत में एक सुंदर शब्द है : प्रतिक्रमण । यह अतिक्रमण शब्द का ठीक उल्टा है । अतिक्रमण का अर्थ है अपनी स्वाभाविक सीमाआें से बाहर निकल जाना। जब हम किसी अटल नियम को तोड़ते है तों वह अतिक्रमण कहलाता है। इसके ठीक उल्टा है प्रतिक्रमण : किसी क्रिया के केन्द्र की ओर या मन की आवाज के स्त्रोत बिंदु की ओर लौटना ही प्रतिक्रमण है । संस्कृत के ये दोनों शब्द हमारे संकट व उससे उभरने के संभावित रास्ते को समझने के लिए उपयोगी दृष्टि उपलब्ध कराते हैं । अपनी आत्मा को जानने के लिए गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है । हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं या बस अपने लालच को पूरा करने में उलझते जा रहे हैं और यह सब करते हुए हम इस धरती को कुछ स्वस्थ बना रहे है या उसे पहले से भी ज्यादा बीमार। बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थोंा के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी । हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरूआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना । पश्चिम के बहुत से देशों में नए हाई-वे, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाआें को बनने व बढ़ने से रोकना होगा । पूरी दुनिया में उद्योग बनती जा रही खेती पर तत्काल रोक लगानी ही पड़ेगी । एक बार हम जब पेट्रोल के इस्तेमाल पर रोक लगा लेंगे तभी सुधार का काम व परम्परागत संसाधनों की तरफ लौटने की अपनी यात्रा की शुरूआत हो सकेगी । यदि हम अपनी इस वापसी यात्रा पर सावधानी से चल पड़े हैं तो वह बहुप्रचारित सर्वविनाश भी थाम लिया जा सकेगा । गरम होती धरती की चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी उपभोक्ता की भूमिका पर आने की जरूरत है । कम-से-कम अब तो हम यह जान जाएं कि मानव जीवन की खुशहाली, शांति व आनंदपूर्ण जीवन, सादगी भरे जीवन से ही हासिल हो सकेता है । हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर, चकाचौंध से भव्यता की ओर, पीड़ा से राहत की ओर, धरती को जीतने के बदले उसके संवर्द्धन की ओर लौटने के एक शानदार मोेड़ पर खड़े है । चारों तरफ फैल रही निराशा के बीच आशा रखने का मन बनाना भी एक बड़ा कर्तव्य है ।***
केले के पत्तों से होगी खाद्य पदार्थो की पैकिंग श्रीलंका सरकार पालीथीन के कचरे से पर्यावरण को बचाने के लिए अनूठा अभियान शुरू करने जा रही है सरकार ने भविष्य में खाद्य पदार्थो को पालीथीन में पैक करने की बजाय केले के पत्ते में पैक करने का फैसला किया है । श्रीलंका के कृषि मंत्रालय का दावा है कि पैकिंग के लिए खास तकनीक से तैयार केले के पत्ते में कई औषधीय गुण मौजूद होंगे। इस केले के पत्ते में पैक किया गया खाना फ्रीज में एक महीने और कमरे के तापमान में पांच दिन तक सुरक्षित रहेगा । इस संबंध में श्रीलंका के तेलिजाविला स्थित कृषि शोध संस्थान में भी काफी शोध किए गए है । उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य पदार्थो को सुरक्षित रखने के लिए प्राचीन काल से केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता रहा है । ऐसा करना न केवल खाने की सुरक्षा बल्कि पौष्टिकता के लिहाज से भी फायदेमंद होता है । इसके उलट पालीथीन में कई रासायनिक यौगिक होते हैं । इनके नष्ट होने में काफी समय तो लगता ही है साथ ही पर्यावरण को भी बहुत नुकसान होता है ।

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