गुरुवार, 27 नवंबर 2008

३ दीपावली पर विशेष

पर्यावरण का धर्म
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
सृष्टि में दृश्यमान और अदृश्यमान शक्तियों में संतुलन होना ही योग है । योग ब्रह्मांड को ही नियमित एवं संतुलित नहीं रखता वरन हमारी देह को भी संतुलित रखता है , क्योंकि जो कुछ भी ब्रह्मांड में है वही हमारी देह पिण्ड में भी है । आज का युग धर्म और विज्ञान पर आधारित है । क्योकि विज्ञान तत्व है तो धर्म शक्ति । प्रकृति और पर्यावरण को भी तभी संतुलित रखा जा सकता है जब कि हम पर्यावरण के धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करें। शक्तियों का संतुलन ही पर्यावरण का धर्म है । पर्यावरण का धर्म रहस्यमयी विज्ञान है जिसमें सत्कर्म का संज्ञान है । नियति का विधान है और राष्ट्र का संविधान भी है । हमारा जीवन धर्माधारित होगा तो पर्यावरण भी जीवन्त रहेगा । हम सभी पर्यावरण का अंग है । हमें अपने पर्यावरण से सामंजस्य बनाना होता है । सभी जीव-जन्तु और मनुष्य अन्योन्याश्रित हैं और परस्पर पूरक भी है। शांतिपूर्ण सामंजस्य के लिए समन्वय जरूरी है । किन्तु आज सम्पूर्ण मानवता पर्यावरण और प्रकृति के ध्वंस को देख रही है । यह संसार ईश्वर द्वारा रचित है । हम भी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में इस सुन्दर रचना संसार के अंग है तथा हमें प्रकृति उपादान उपांग धरती अम्बर हवा पानी अर्ग्नि आदि के प्रति कृतज्ञ भाव रखना चाहिए क्योकि पंचतत्वों की अक्षरता-अक्षुण्णता ही हमारे भी अस्तित्व का आधार है । अंतरिक्ष के तत्व प्रेरक होते है । वायु हमारी भावना विचार और वाणी की संवाहक है । अग्नि तत्व की दहकता पवित्र और पावस करती है । जल जीवन दाता है इसलिये कहा जा सकता है कि जल ही जीवन है। मातृ वत्सला धरती हमारी पोषक है । माटी से ही हमारी देहयष्टि बनती है । मानवीय स्वास्थ्य हमारी देह की भौतिक तथा मानसिक स्थिति के साथ-साथ ऊर्जस्विता पर भी निर्भर करता है । जब हमारे चारों ओर का ऊर्जा क्षेत्र श्रेयस, सकारात्मक और प्रभावशाली होता है तो हम भी पूर्ण उत्साहित, उल्लासित, तेजस्वित एवं आनंदित रहते है और प्रसाद मुद्रा में रहते है । धर्म मनुष्यता का संरक्षक और ईश्वरीय आशीर्वाद है । धर्म ही समस्त संसारों की प्रकृति एवं स्थिति का कारण है । संसार में मनुष्य ही श्रेष्ठता का निर्वहन और धर्म का अनुसरण करने को कृत-कृत्य है । धर्म से पाप दूर होता है । ग्लानि दूर होती है । समस्त चराचर जगत धर्माधारित है । धर्म को ही सदैव वरेण्य वंदनीय और श्रेष्ठ बतलाया गया है । महाभारत में महर्षि व्यास का उद्भाव है -धारणाद धर्ममित्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:।यत् स्याद धारणसंयुक्त सधर्म इति निश्चय:।।उन्नति हि निखिला जीवा धर्मेणैव क्रमादिह।विद्धाना: सावधाना लाभन्तेडन्ते पर पदम्।। धारण करने को ही धर्म कहा है। धर्म ने ही समस्त संसार को धारण कर रखा है । जो धारण है संयुक्त है वही धर्म है यह निश्चित है । धर्म के द्वारा ही समस्त जीव उन्नति तथा लाभ पाते हुए अतं मेंे परमपद को प्राप्त् होते है। अत: जिन शुभ कार्यो से सुख शान्ति ज्ञान आदि सदगुणों की विकास और वृद्ध हो अर्थात शारीरिक आत्मिक एवं मानसिक उन्नति हो वही धर्म है । पर्यावरण के धर्म का आधार प्रेम है । प्रकृति ही प्रेम की प्रमेय है । प्रेम का प्रलेख तो प्रकृति के कण-कण में प्रतिक्षण है । प्रेममय रहना सिखाती है । जहाँ प्रेम होगा वहाँ त्याग भी अवश्य ही होगा । त्याग संगतिकणका प्रतिफल होता है । सत्संग का प्रतिफल होता है जिसमें प्रथम क्रिया के बाद एक तत्व का दूसरे तत्व के साथ संयोग होता है । त्याग से दान का भाव आता है । ऋतु का भाव आता है । ऋतबद्धता तथा ऋतुबद्धता तय का ही एक रूप है । वैदिक मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ही एक प्रकार से यज्ञ चक्र अहिर्मिण चलता है । ऋतु का आशय वस्तुत: इलेक्ट्रोन तथा प्रोटोन का प्रकटीकरण ही है । त्याग और समर्पण ही समन्वय के सूत्र है । यही हमारी एक्यता के पोषक हैं । सामंजस्य के सोपान हैं । सामंजस्य सदैव शांतिदायक होता है । कहने का तात्पर्य है कि प्रेम, त्याग, समन्वय, शांति आदि ही पर्यावरण के धर्म के अंग है इन्हें हमें अवश्य ही अंगीकार एवं आत्मसात कर लेना चाहिए । जिस तरह ब्रह्मांड अपरिमित शक्ति का स्रोत है उसी तरह हमारी देह भी शक्तिपुंज है । पितृत्व शुक्राणु सुक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर भी जीव सत्ता का निर्माण करता है उसमें देहाणु रूप में देहांग हाथ पैर आदि अंग-प्रत्पंग बीज रूप में होते हैं । गर्भ-क्षेत्र में बीजारोपण एवं अंकुरण अर्थात स्त्रीत्व डिम्ब से मिलन के पश्चात जब भ्रूण बनता है तो भ्रूण अपने भू्रणीय रक्षा कवच में ही सामर्थ्य एवं शक्ति का संचय करने लगता है वह गर्भस्थ रहते हुए भी प्रकृति पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से तालमेल बनाना सीख जाता है उसके रोम रोम में शक्ति का संचय होने लगता है चैतन्यता एवं जीवन्तता का अभ्युदय होता है । ब्रह्मांड की तरह हमारी देह संरचना में भी पांचभूत तत्व लगभग उसी अनुपात में समाहित है हमारी दृश्यमान भौतिक देह के आसपास कुछ अदृश्य परतें भी होती है जिन्हें पारलोकिक मानवीय (ईथरिक) देह कहते हैं इसीलिए हमें कुछ अतीन्द्रिय संज्ञान भी होता है तथा उन बातों का अहसास भी रहता है जो हमारे लिए अद्भुत होता है । यह अदृश्य वायवीय आवरण, विद्युतीय, चुम्बकीय या तापीय या इनका मिला जुला रूप हो सकता है । वायवीय परतो में विद्युत परत ओरा का निर्माण करती है। इसी ओरा के प्रभाव के कारण की हम किसी से प्रभावित या अप्रभावित होते है । ओरा वस्तृत हमारी तेजस्विता का परिचायक है । हमारा ओरा हमारी आंतरिक प्रवृत्तियों, अत: करण के भावों के साथ साथ प्रकृति और पर्यावरण से भी प्रभावित होता है । यदि हम पर्यावण के धर्म का पालन सुरूचिपूर्ण ढंग से करते हैं तो हमारी तेजस्तिता उज्जवल रहती है निर्मल रहती हैं सकारात्मक रहती है स्वस्थ्य रहती है और सुखद रहती है । पर्यावरण का धर्म कहता है कि हम धरती, जल वायु, अग्नि और आकाश को संतुुलित रखें । हमारी धरती हमारा जीवनाधार है जो अपनी गोद में हमे खिलाती है । पार्थिव सकारात्मकता ही हमें स्थायित्व तथा दृढ़ता प्रदान करती है। धरती ही अनुपयुक्त ऊर्जाआें का अवशोषण करती है । प्रदूषणों को भी अवशोषित करती है । पृथ्वी पर जल की उपलब्धता पर ही हमारा जीवन निर्भर है जल ही हमें द्रव्यता प्रदान करता है । हमारी देह में ८० प्रतिशत जल होता है। जल ही अवांछनीय ऊर्जा का विलायक और प्रवाहक है । जल ही हमें शुद्ध एवं निर्मल रखता है । शुद्धता से सुचिता रहती है । वायु तो प्राणों का आधार है । वायु हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे विचारों का आदान प्रदान वायु के माध्यम से ही वाणी द्वारा होती है । बौद्धिकता की शोधक भी वायु ही है । वायु ही शक्ति की प्रस्तोता है । जल और वायु के माध्यम से ही हमारी देह में अणुआें का संचालन होता है जिससे देह में संतुलन बना रहता है । अग्नि तत्व भी शक्तिशाली होता है मृदुलता तथा कठोरता की निर्धारक अग्नि ही होती है जो पदार्थोंा को भस्मीभूत कर प्रकृति के सत्य को प्रकट करती है । अग्नि से ही प्रकाश उत्पन्न होता है । प्रकाश से ही जीवन चैतन्यता है । प्रकाश की उपस्थिति ही हमारे पौषण का आधार है । हमारे नकारात्मक भाव प्रकाश की उपस्थिति से ही शामिल होते है । अग्नि और प्रकाश से संकल्प शक्ति मिलती है इसलिए अग्नि के समक्ष ही कसमें खाई जाती है और शपथ ली जाती है । प्रकाश की उपस्थिति में हमारी अशुद्ध ऊर्जा शुद्ध ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है । आकाश तत्व तो प्रत्यक्ष रूप से हमारी चेतन्य शक्ति से जुड़ा है । आकाश अनंत है वह महतो महीयान है जो हमे भी अनंतता और दिग दिगन्तता प्रदान करता है । ईश्वरीय वितान के रूप में हमे सुरक्षा से आच्छादित रखता है । सभी अन्योन्यश्रित ब्रह्मांडीय शक्ति एवं ऊर्जा हमें प्रकृति ओर पर्यावरण के धर्म पालन से ही सुलभ है । हमारा धर्म हमारे नियमित खुशहाल जीवन, सामाजिक धारणाआें एवं वर्जनाआें के साथ-साथ पर्यावरण एवं प्रकृति का भी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हिस्सा है । हमारे वेद पुराण उपनिषद एवं अन्य धर्मो के ग्रन्थोंमें भी दो प्रमुख तत्व प्रकृति तथा पुरूष का उल्लेख है । ब्रह्मांड रचयिता ब्रह्म ही प्रकृति तथा पुरूष के सर्तक और जनक है अत: प्रकृति और पुरूष में समन्वय जरूरी है संवाद जरूरी है । किन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हम प्रकृति और पर्यावरण के प्रति अपने धर्म को भूल रहे है नैतिकता को भूल रहे हैं नैसर्गिकता से हम दूर हो रहे हैं । प्रकृति से हम दूर हो रहे है तथा प्रकृति पर मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है अत: पर्यावरण पर नये विषय के साथ नई सोच बनाने की महती आवश्यकता है। प्रकृति और पर्यावरण तो अपना धर्म निश्चित रूप से निभाते है प्रकृति की समस्त क्रियाएँ समय पर हमें स्वयमेव सुलभ होती है प्रकृतिके किंचित भी विचित्र होने पर हम विचलित हो जाते है । क्या हम भी ईमानदारी से अपना पर्यावरणीय धर्म निभाते है यह विचारणीय प्रश्न है । क्या हम पेड़ पौधौं वनस्पतियों एवं अन्य जीव जन्तुआें की रक्षा एवं संरक्षण करते हैं क्या हम जल वायु आकाश धरती अम्बर को प्रदूषण रहित स्वच्छ रख पा रहे है । क्या हमारी जीवन शैली प्रकृतिपरक एवं योग क्षेमकारी है सबका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा हमें प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण करना होगा उपभोक्तावाद से बचना होगा । पर्यावरण के प्रति अपने नैतिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उत्तरदायी बनना होगा । प्राकृतिक प्रक्रमोंमें संतुलन बनाना होगा अपनी संस्कृति संस्कार कर्तव्य तथा व्यवहार को सुधरना होगा । अतएव हममें से प्रत्येक को प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणवादी बनना होगा । ***
ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों की रिपोर्ट पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग की भयावह तस्वीर पेश करते हुए कहा है कि वर्ष २०३० तक यह लोगों को ध्रुवीय क्षेत्रों पर शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर देगा । ओलिंपिक खेल सिर्फ साइबर स्पेस पर आयोजित होंगे और आस्ट्रेलिया का मध्य क्षेत्र पूरी तरह निर्जन हो जाएगा । पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली ब्रिटिश संस्था फोरम फार द फ्यूचर और ह्रूलिट पैकर्ड प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने अपनी यह ताजा रिपोर्ट पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर लोगों का ध्यान खींचने और इससे निबटने के उपायों को लेकर जन जागरूकता अभियान के लिए जारी की है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट ने दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें की जिस कदर चूलें हिला दी हैं उसी तरह एक दिन ग्लोबल वार्मिंग की समस्या भी अर्थव्यवस्थआें में ऐसा ही भूचाल लाएगी । फोरम के अध्यक्ष पीटर मैडन के मुताबिक यह रिपोर्ट कोरे कयासों पर नहीं बल्कि पूरी तरह वैज्ञानिक अनुसंधान और तथ्यों पर आधारित है । यह धरती की भविष्य की तस्वीर पेश करती है, जो निश्चित रूप से अच्छी नहीं कही जा सकती । श्री मैडन ने कहा कि चीजों को सुधारने का अभी भी वक्त है लेकिन इसके लिए पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर स्वच्छ और हरित ऊ र्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, कम कार्बन उत्सर्जन वाली गतिविधियों पर ध्यान देना और प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन पर अंकुश लगाना होगा । उन्होने कहा भविष्य के इतिहासकार हमारे युग को जलवायु परिवर्तन के युग के नाम से पुस्तकों में दर्ज करेंगे ।

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