प्रदेश चर्चा
म.प्र. : गिद्धों की कमी से खतरे की घंटी
मनीष वैद्य
मध्यप्रदेश के आबादी क्षेत्रों में गिद्धों की तादाद में बड़ी कमी दर्ज की गई है। पूरे प्रदेश में एक ही दिन १२ जनवरी २०१९ को एक ही समय पर की गई गिद्धों की गणना में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं।
इन आंकड़ों पर गौर करें तो ऊपर से देखने पर मध्यप्रदेश में गिद्धों की संख्या बढ़ी हुई नजर आती है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयान करती है। पूरे प्रदेश में दो साल पहले हुई गणना के मुकाबले ताजा गणना में आंकड़े यकीनन बढ़े हैं। लेकिन इनमें सबसे ज्यादा गिद्ध सुरक्षित अभयारण्यों में पाए गए हैं। दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और शहरों के आबादी क्षेत्र में गिद्ध तेजी से कम हुए हैं। गिद्धों के कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के साथ किसानों के मृत मवेशियों की देह के निपटान और संक्रमण की भी बड़ी चुनौती सामने आ रही है।
इस बार १२७५ स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में प्रदेश में ७९०६ गिद्धों की गिनती हुई है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इसमें १२ प्रजातियों के गिद्ध मिले हैं। इससे पहले जनवरी २०१६ में ६९९९ तथा मई २०१६ में ७०५७ गिद्ध पाए गए थे । ऐसे देखें तो गिद्धों की तादाद १२ फीसदी की दर से बढ़ी है । पर इसमें बड़ी विसंगति यह है कि इसमें से ४५ फीसदी गिद्ध प्रदेश के संरक्षित वन क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूरे प्रदेश के आबादी क्षेत्र में गिद्धों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है ।
जैसे, मंदसौर जिले में गांधी सागर अभयारण्य में गिद्धों को साधन सम्पन्न प्राकृतिक परिवेश हासिल होने से इनकी संख्या बढ़ी है। बड़ी बात यह भी है कि एशिया में तेजी से विलुप्त् हो रहे ग्रिफोन वल्चर की संख्या यहां बढ़ी है। ताजा गणना में यहां ६५० गिद्ध मिले हैं। दूसरी ओर, श्योपुर के कूनो अभयारण्य में २४२ गिद्धों की गणना हुई है जो दो साल पहले के आंकड़े ३६१ से ११९ कम है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में भी २०१६ के आंकड़े ८११ के मुकाबले मात्र ५६७ गिद्ध मिले हैं। सर्वाधिक गिद्ध रायसेन जिले में ६५० रिकॉर्ड किए गए हैं ।
यदि गिद्धों की कुल संख्या में से मंदसौर अभयारण्य और रायसेन के आंकड़ों को हटा दें तो शेष पूरे प्रदेश में गिद्ध कम ही हुए हैं। नगरीय या ग्रामीण क्षेत्र में, जहां गिद्धों की सबसे ज्यादा जरूरत है, वहां इन कुछ सालों में गिद्ध कम ही नहीं हुए, खत्म हो चुके हैं । दरअसल वन विभाग ने जंगल और आबादी क्षेत्र के गिद्धों के आंकड़ों को मिला दिया है। इस वजह से यह विसंगति हो रही है।
दरअसल बीते दो सालों में यहां गिद्धों की तादाद तेजी से कम हुई है ।
इंदौर में तीन साल पहले तक ३०० गिद्ध हुआ करते थे, अब वहां मात्र ९४ गिद्ध ही बचे हैं । उज्जैन और रतलाम जिलों में तो एक भी गिद्ध नहीं मिला । इसी तरह देवास जिले में भी मात्र दो गिद्ध पाए गए हैं । धार, झाबुआ और अलीराजपुर में भी कमोबेश यही स्थिति है । इंदौर शहर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है । लेकिन शहर की यही स्वच्छता अब गिद्धों पर भारी पड़ती नजर आ रही है । बीते मात्र दो सालों में इंदौर शहर और जिले से १३६ गिद्ध गायब हुए हैं । कभी यहां के ट्रेचिंगग्राउंड पर गिद्धों का झुण्ड जानवरों के शवों की चीरफाड़ में लगा रहता था। अब वहां गंदगी के ढेर कहीं नहीं हैं । मृत जानवरों को जमीन में गाड़ना पड़ रहा है । अब गणना में ट्रेचिंग ग्राउंड पर सिर्फ ५४ गिद्ध मिले हैं । दो साल पहले तक यहां ढाई सौ के आसपास गिद्ध हुआ करते थे ।
इसी तरह चोरल, पेडमी और महू के जंगलों में भी महज ४० गिद्ध ही मिले हैं जहां कभी डेढ़ सौ गिद्ध हुआ करते थे। गिद्ध खत्म होने के पीछे पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ट्रेचिंग ग्राउंड के पास का तालाब सूख चुका है और एक तालाब का कैचमेंट एरिया कम होने से इसमें पानी की कमी रहती है और अक्सर सर्दियों में ही यह सूख जाता है । शहर से कुछ दूरी पर गिद्धिया खोह जल प्रपात की पहचान रहे गिद्ध अब यहां दिखाई तक नहीं देते । गणना के समय एक गिद्ध ही यहां मिला ।
इन दिनों गांवों में भी कहीं गिद्ध नजर नहीं आते । कुछ सालों पहले तक गांवों में भी खूब गिद्ध हुआ करते थे और किसी पशु की देह मिलते ही उसका निपटान कर दिया करते थे । अब शव के सडने से उसकी बदबू फैलती रहती है । ज्यादा दिनों तक मृत देह के सड़ते रहने से जीवाणु-विषाणु फैलने तथा संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है ।
देवास के कन्नौद में फॉरेस्ट एसडीओ एम. एल. यादव बताते हैं, करीब ७५ हजार वर्ग किमी में फैले जिले में २०३३ वर्ग कि.मी. जंगल है । कुछ सालों पहले तक जंगल में गिद्धों की हलचल से ही पता चल जाता था कि किसी जंगली या पालतू जानवर की मौत हो चुकी है। जंगलों में चट्टानों तथा ऊंचे -ंऊंचे पेड़ों पर इनका बसेरा हुआ करता था । इन्हें स्वीपर ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता रहा है । मृत पशुओं के मांस का भक्षण ही उनका भोजन हुआ करता था । ये कुछ ही समय में प्राणी के शरीर को चट कर देते थे। लेकिन अब जिले के हरे-भरे जंगलों में भी इनका कोई वजूद नहीं रह गया है
सदियों से गिद्ध हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण सफाईकर्मी रहे हैं । ये मृत जानवरों के शव को खाकर पर्यावरण को दूषित होने से बचाते रहे हैं । लेकिन अब पूरे देश में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का ही सवाल खड़ा होने लगा है । इनमें सामान्य जिप्स गिद्ध की आबादी में बीते दस सालों में ९९.९ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है । १९९० में तीन प्रजातियों के गिद्धों की आबादी हमारे देश में चार करोड़ के आसपास थी जो अब घटकर दस हजार से भी कम रह गई है । पर्यावरण के लिए यह खतरे की घंटी है ।
दरअसल पालतू पशुओं को उपचार के दौरान दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नामक दवा गिद्धों के लिए घातक साबित हो रही है। इस दवा का उपयोग मनुष्यों में दर्द निवारक के रूप में किया जाता था । अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी किया जाने लगा। इस दवा का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा, वैसे-वैसे गिद्धों की आबादी लगातार कम होती चली गई । पहले तो इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन जब हालात बद से बदतर होने लगे तो खोज-खबर शुरू हुई । तब यह दवा शक के घेरे में आई ।
वैज्ञानिकों के मुताबिक डिक्लोफेनेक गिद्धों के गुर्र्दों पर बुरा असर डालता है । इस दवा से उपचार के बाद मृत पशु का मांस जब गिद्ध खाते हैं तो इसका अंश गिद्धों के शरीर में जाकर उनके गुर्दों को खराब कर देता है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है । खोज में यह बात भी साफ हुई है कि यदि मृत जानवर को कुछ सालों पहले भी यह दवा दी गई हो तो इसका अंश उसके शरीर में रहता है और उसका मांस खाने से यह गिद्धों के शरीर में आ जाता है।
कई सालों तक इस दवा के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ और संगठन मांग करते रहे तब कहीं जाकर इस दवा के पशुओं में उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाया गया । लेकिन आज भी तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए यह दुनिया के कई देशों में बनाई और बेची जा रही है । इससे भी खतरनाक बात यह है कि कई कंपनियां इन्हीं अवयवों के साथ नाम बदलकर दवा बना रही हैं। इसी वजह से गिद्धों को बचाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी सफल नहीं हो पा रही हैं ।
अब जब गिद्धों की आबादी हमारे देश के कुछ हिस्सों में उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बची है तब २००७ में भारत में इसके निर्माण और बिक्री पर रोक लगाई गई । लेकिन अब भी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है । कुछ दवा कम्पनियों ने डिक्लोफेनेक के विकल्प के रूप में पशुआें के लिए मैलोक्सीकैम दवा बनाई है । यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं है।
विशेषज्ञों के मुताबिक संकट के बादल सिर्फ गिद्धों पर ही नहीं, अन्य शिकारी पक्षियों बाज, चील और कुइयां पर भी हैं । कुछ सालों पहले ये सबसे बड़े पक्षी शहरों से लुप्त् हुए । फिर भी गांवों में दिखाई दे जाया करते थे पर अब तो गांवों में भी नहीं मिलते । कभी मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से चार तरह के गिद्ध मिलते थे ।
गिद्धों को विलुप्ति से बचाने के लिए सरकारें अब भरसक कोशिश कर रही हैं । संरक्षण के लिहाज से गिद्ध वन्य प्राणी संरक्षण १९७२ की अनुसूची १ में आते हैं। देश में आठ खास जगहों पर इनके ब्राीडिंग सेंटर बनाए गए हैं। हरियाणा के पिंजौर तथा पश्चिम बंगाल के बसा में ब्रीडिंग सेंटर में इनके लिए प्राकृतिक तौर पर रहवास उपलब्ध कराया गया है । पिंजौर में सबसे अधिक १२७ गिद्ध हैं ।
दो साल पहले भोपाल में भी केरवा डेम के पास मेंडोरा के जंगल में प्रदेश का पहला गिद्ध प्रजनन केन्द्र स्थापित किया गया है । वन अधिकारियों के मुताबिक यहां गिद्धों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और उनकी हर हलचल पर नजर रखी जाती है ।
हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गिद्धों को सहेजना बहुत जरूरी है । हमारे देश में किसानों के पास बीस करोड से ज्यादा गायें, बैल, भैंस आदि पालतू मवेशी हैं । इन्हें पशुधन माना जाता है। लेकिन जब इनकी मृत्यु हो जाती है तब इन्हें जलाया या दफनाया नहीं जाता है, बल्कि गांव किनारे की क्षेपण भूमि में मृत देह को रख आते हैं। गिद्धों के अभाव में मृत मवेशियों की देह सड़ती रहती है । गिद्धों की कमी के कारण मांस खाने वाले कुत्तों की तादाद बढ़ने से रैबीज जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है ।
पारसी समुदाय में शवों को डोखमा (बुर्ज) में खुला छोड़ दिया जाता है । जहां गिद्ध जैसे बड़े पक्षी उन्हें नष्ट करते हैं । पारसी धारणा के मुताबिक शव को दफनाने से जमीन तथा जलाने से आग दूषित होती है । इसलिए इस समाज के लोगों के लिए तो गिद्धों का होना बहुत जरूरी है । अब गिद्धों की कमी के चलते बुर्जों पर सौर उर्जा परावर्तक लगाए जा रहे हैं ।
गिद्धों के संरक्षण के लिए सरकारों के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा । तेजी से कम होते जा रहे गिद्धों के नहीं रहने से बढ़ते प्रदूषण पर सोचने भर से हम सिहर उठते हैं । गिद्धों का रहना हमारे पर्यावरण की सेहत के लिए बेहद जरूरी है । उनके बिना प्रकृति की सफाई कौन करेगा ।
किसान चाहें तो खुद अपने मवेशियों को डिक्लोफेनेक देने से रोक सकते हैं। इसके विकल्प के रूप में मैलोक्सकैम दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए । इसके अलावा गिद्धों के प्राकृतिक आवास तथा घोंसलों को भी संरक्षित कर सहेजने की जरूरत है । कहीं ऐसा न हो कि हम अगली पीढ़ी को सिर्फ किताबों और वीडियो में दिखाएं कि कभी इस धरती पर गिद्ध रहा करते थे ।
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