रविवार, 16 अप्रैल 2017

विरासत
आदिवासी-संस्कृति और पर्यावरण
गोवर्धन यादव

    भारत में करीब तीन हजार की संख्या में विभिन्न जातियों और उप-जातियों निवास करती है, सभी का रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं परम्पराएं अपना विशिष्ट विशेषताआें को दर्शाती है ।
    कई जातियाँ मसलन - गौड़, भील, बैगा, भारिया, आदि जंगलों में आनादिकाल से निवास करती आ रही है । सभी की आवश्यकताआें की पूर्ति जंगलों से होती है । इन जातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक एवं कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी अलग पहचान रही है ।
    इन लोगों में वन-संरक्षण करने की प्रबल वृत्ति है, अत: वन एवं वन्य जीवों से उतना ही प्राप्त् करते हैं जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके और आने वाली पीढ़ी को भी वन-स्थल धरोहर के रूप में सौंप सके । इन लोगों में वन संवर्धन, वन्य जीवों एवं पालूत पशुआें का संरक्षण करने की प्रवृत्ति परम्परागत है । इस कौशल दक्षता एवं प्रखरता के फलस्वरूप आदिवासियों ने पहाड़ों, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को संतुलित बनाए रखा । 
     स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासी क्षेत्र से छेड़-छाड़ नहीं करते थे लेकिन अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्था को तहस-नहस कर डाला, क्योंकि यूरोपीय देशों में स्थापित उद्योगों के लिए वन एवं वन्य-जीवों पर कहर ढा दिया, जब तक आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक वातावरण मेंभी कम कहर नहीं ढाया । इनकी उपस्थिति से उनके परम्परागत जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक स्थिति में गिरावट आयी है । साफ-सुथरी हवा में विचरने वाले, जंगल में मंगल मनाने वाले इन भोले-भाले आदिवासियों के जीवन में जहर सा घुल गया है ।
    आज इन आदिवासियों को पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, बेकारी एवं वन-विनाशक के प्रतीक के रूप मेंदेखा जाने लगा है । उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक और लालची उद्योगपति खुले आम लूट रहे हैं । जंगल का राजा अथवा राजकुमार कहलाने वाला यह आदिवासी जन आज दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करता दिखलायी देता हैं । चंद सिक्को में इनके श्रम-मूल्य की खरीद-फरोख्त की जाती है और इन्हीं से जंगल के पेड़ो और जंगली पशु-पक्षियों को मारने के लिए अगुवा बनाया जाता है । उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी कि पीढ़ी से वे जिन जंगलों में रह रहे है थे, उनके सारे अधिकरों को ग्रहण लग   जाएगा । विलायती हुकूमतने सबसे पहले उनके अधिकारोंपर प्रहार किया और नियम प्रतिपादित किया कि वनों की सारी जिम्मेदारी और कब्जा सरकार का रहेगा और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है ।
    वे अब भी झूम खेती करते है । पेड़ो को जलाते नहीं है, जिसके फलों की उपयोगिता है । महुआ का पेड इनके लिए किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं है । जब इन पर फल पकते है तो वे इनका संग्रह करते हैं और पूरे साला इनसे बनी रोटी खाते है । इन्हीं फलों को सडाकर वे उनकी शराब भी बनाते है । शराब की एक घूंट इनमें जंगल में रहने का हौसला बढ़ाती है ।
    देश की स्वतत्रंता के उपरान्त पंचवर्षीय योजनाआें की स्थापनाएं, बुनियादी उद्योगों की स्थापनाएं एवं हरित क्रांति जैसे घटकों के आधार पर विकास की नींव रखने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों ने हड़बड़ाहट में एकानामी एवं एकालाजी के सह-संबंधों को भूल जाने की प्रवृति के चलते, हमारे सम्मुख पारिस्थितिकी की विकट समस्या पैदा कर दी है । यह समझ से परे है कि विकास के नाम पर आदिवासियोंको विस्थापित कर उन्हें घुम्मकड़ श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है और द्रुतगति से वनों की कटाई करते हुए बड़े-बड़े बांधों का निर्माण करवा दिया है ।  यह भी सच है कि हमें विश्व संस्कृति के स्तर देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाते हुए समानान्तर स्तर पर लाना है, लेकिन अरण्य संस्कृति को विध्वंश करके किये जाने की परिकल्पना कालान्तर मेंलाभदायी सिद्ध होगी, ऐसा सोचना कदापि उचित नहीं माना जाना चाहिए ।
    हमें अपने परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक परम्पराआें का विनाश न करते हुए आदिवासियों की वन एवं एवं वन्य-जीव संस्कृति को बगैर छेड़-छाड़ किए संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए । एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापन, न तो आदिवासियों को भाता है और न ही वन्य जीव-जन्तुआें को, लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है, इस पर अंकुश लगाए जाने की जरूरत है । अगर ऐसा नहीं किया गया तो निश्चित जानिए कि वनों का विनाश तो होगा ही, साथ ही पारिस्थितिकी असंतुलन में भी वृद्धि होगी । अगर एक बार संतुलन बिगड़ा तो सुधारे सुधरने वाला नहीं हैं ।
    संविधान में आदिवासियों को यह वचन दिया गया है कि वे अपनी विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए राष्ट्र की विकासधारा से जुड़ सकते   हैं । अत: कडा निर्णय लेते हुए सरकार को आगे आना होगा, जिससे उनकी प्राकृतिक संस्कृति पर कोई प्रतिकूल असर न पडे ।
    हम सब जानते है कि उनकी भूमि अत्याधिक उपजाऊ नहीं है और न ही खेती के योग्य है । फिर भी वे वनोंमें रहते हुए वनों के रहस्य को जानते हैं और झूम पद्धति से उतना पैदा कर ही लेते हैं, जितनी कि उन्हें आवश्यकता होती हैं । यदि इससे जरूरतें पूरी नहीं हो सकती तो वे महुआ को भोजन के रूप में ले लेते हैं या फिर आम की गुठलियों को पीसकर रोटी बनाकर अपना उदर-पोषण कर लेते हैं, लेकिन प्रकृतिसे खिलवाड़ नहीं करते । रि वे हर पौधे-पेड़ों से परिचित भी होते हैं, कि कौनसा पौधा किस बीमारी में काम करती है, को भी संरक्षित करते चलते हैं ।
    विंध्याचल-हिमालय व अन्य पर्वत शिखर हमारी संस्कृतिके पावन प्रतीक हैं, इन्हें भी वृक्षविहीन बनाया जा रहा है, क्योंकि वनवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा सके । इन पहाड़ियों पर पायी जाने वाली जड़ी बूटियां, इंर्धन, चारा एवं आवश्यकतानुसार इमारती लकड़ी प्रचूर मात्रा में प्राप्त् होती रहे । आदिवासियों को जंगल धरोहर के रूपमें प्राप्त् हुए थे, वे ही ठेकेदारों के इशारे पर जंगल काटने को मजबूर हो रहे हैं । यद्यपि पर्वतीय क्षेत्रों में अनेकों विकास कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं लेकिन उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से उन्हें फायदा होने वाला नहीं है ।
    आदिवासियों को संरक्षण प्राप्त् नहीं होने से केवल वन संस्कृति एवं वन्य-जीव सुरक्षा का ही हास नहींहो रहा है बल्कि देश की अखण्डता को खंडित करने वाले तत्व अलग-अलग राज्यों की मांग करने को मजबूर हो रहे हैं । इन सबके पीछे आर्थिक असंतुलन एवं पर्यावरण असंतुलन जैसे प्रमुख कारण ही जड़ में मिलेंगे ।
    हमारे देश की अरण्य संस्कृति अपनी विशेषता लिए हुए थी, जो शनै:-शनै: अपनी हरीतिमा खोती जा रही हैै । जहाँ-कहीं के आदिवासियोंने अपना स्थान छोड़ दिया है, वहाँ के वन्य-जीवों पर प्रहार हो रहे हैं, बल्कि यह कहा जाए कि वे लगभग समािप्त् की ओर हैं, उसके प्रतिफल में सूखा पड़ने या कहें अकाल पड़ने जैसी स्थिति की निर्मित बन गई हैं । फिर सरकार को करोड़ो रूपया राहत के नाम पर खर्च करने होते हैं । लाखों की संख्या में बेशकीमती पौधे रोपने के लिए दिए जाते हैं, लेकिन उसके आधे भी लग नहीं पाते । यदि लग भी गए तो पर्याप्त् पानी और खाद के अभाव में मर जाते है । जब शहरों के वृक्ष सुरक्षित नहीं है तो फिर कोसो दूर जंगल में उनकी परवरिश करने वाला कौन है ? हम अपने पडौस के देशों में जाकर देखें, उन्होंने प्रभावी ढंग से सफलतापूर्वक अनुकरणीय कार्य किया है और पेड़ों की रक्षा करते हुए हरियाली को बचाए रखा है ।
    जब आदिवासियों से वन-सम्पदा का मालिकाना हक छीनकर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के हाथों में चले जाएंगे तो केवलविकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध बांधे जाएंगे और बदले में उन्हें मिलेगा बांधो से निकलने वाली नहरें, नहरों के आसपास मचा दलदल और भूमि की उर्वरा शक्ति को कम करने वाली परिस्थिति और विस्थापित होने की व्याकुलता और जिन्दगी भर की टीस, जो उसे पल-पल मौत के मुंह में ढकेलने के लिए पर्याप्त् होगी ।
    आदिवासी क्षेत्रों में होने वाले विध्वंस से जलवायु एवं मौसम में परिवर्तन द्रुत गति से हो रहा है । कभी भारत में ७०% भूमि वनों से आच्छादित थी, आज घटकर २०-२२ प्रतिशत रह गई है । वनों के लिए यह चिंता का विषय है । वनों की रक्षा एवं विकास के नाम पर पूरे देया में अफसरों और कर्मचारियों की संख्या में बेतरतीब बढ़ौतरी हुई हैं, उतने ही अनुपात में वन सिकुड रहे हैं । सुरक्षा के नाम पर गश्ती दल बनाए गए हैं, फिर भी वनों की अंधाधुंध कटाई निर्बाधगति से चल रही है ।
    कारण पूछे जाने पर एक नहीं, वरन अनेेकों कारण गिना दिए जाते हैं, उनमे प्रमुखता से एक कारण सुनने में आता है कि जब तक ये आदिवासी जंगल में रहेंगे, तब तक वन सुरक्षित नहीं हो सकते । कितना बड़ा दोषारोपण है इन भोले-भाले आदिवासियों पर, जो सदा से धरती को अपनी मां का दर्जा देते आए हैं । वे रूखा-सूखा खा लते हैं, मुफलिसी में जी लेते हैं, लेकिन धरती पर हल नहीं चलाते, उनका अपना मानना है कि हल चलाकर वे धरती का सीना चीरना नहीं चाहते ।
    भारत का हद्य कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा जिले से ६२ कि.मी. तथा तामिया विकास खंड से महज २३ कि.मी. की दूरी पर, समुद्र सतह से ३२५० फीट ऊँचाई पर तथा भूतल से १२०० से १५०० फीट गहराई में कोट यानि पातालकोट स्थित है । जिसमें आज भी आदिवासियों के बारह गाँव सांस लेते हुए देखे जा सकते हैं । यहाँ के आदिवासियों को धरती-तल पर बसाने के लिए कई प्रयत्न किए गए, लेकिन वे इसके लिए कतई तैयार नहींहोते ।
    अत: दोषारोपण मढ़ना कि आदिवासियों की वजह से वन सुरक्षित नहीं है, वास्तविकता से आंखे मूंदना है, अत: सच्चई का दामन पकड़ना होगा । यदि आदिम लोगों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए तथा उनकी सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करते हुये उन्हें विकास की योजनाआें के साथ जोड़ दिया जाए तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि आदिम क्षेत्र में पर्यावरण के साथ अन्य भागों को भी सुरक्षित रखा जा सकता है, स्वस्थ पर्यावरण पर सारे राष्ट्र का अस्तित्व एवं भविष्य सुरक्षित रह सकता है, और वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है । 

कोई टिप्पणी नहीं: