रविवार, 16 अप्रैल 2017

उद्योग जगत
विकास से उपजता जहरीला ई कचरा
पंकज चतुर्वेदी
    लगभग तीन दशकपहले हमारे देश में शुरू हुई मौजूदा विकास की प्रक्रिया के नतीजे अब उजागर होने लगे हंै। इनमें से एक है-इलेक्ट्रानिक कचरे का निपटान । रोजमर्रा की खरीद-फरोख्त में `केशलेस पेमेंट` की मार्फत पहुंच चुके आम लोग इसमें उपयोग होने वाले इलेक्ट्रानिक यंत्रों के खतरे नहीं समझ पा रहे है । क्या विकास का यह दौर इसी तरह के आत्मघाती भस्मासुरों का दौर नहीं कहा   जाएगा ।
    हमारी सुविधाएं, विकास के प्रतिमान और आधुनिकता के आईने जल्दी ही हमारे लिए गले का फंदा बनने वाला है। देश के सबसे बड़े व्यापारिक संगठन एसोचेम ने चेतावनी दी है कि आगामी २०१८ तक भारत में हर साल ३० लाख मेट्रीक टन ई-कचरा उत्पादित होने लगेगा और यदि इसके सुरक्षित निबटारे के लिए अभी से काम नहीं किया गया तो देश की धरती, हवा और पानी में इतना जहर घुल जाएगा कि उसका निदान होना मुश्किल  होगा । 
     कहते हैं ना कि हर सुविधा या विकास की माकूल कीमत चुकानी ही होती है, लेकिन इस बात का नहीं पता था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी । सनद रहे आज देश में लगभग १८.५ लाख टन ई-कचरा हर साल निकल रहा है। इसमें मुंबई से सबसे ज्यादा एक लाख बीस हजार मेट्रीक टन, दिल्ली से ९८ हजार मेट्रीक टन और बंगलुरु से ९२ मेट्रीक टन कचरा है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निबटारा हो रहा    है । बाकी कचरा अवैध तरीके से निबटने के लिए छोड़ दिया जाता है । इस कचरे से बहुमूल्य धातु निकालने के काम में दस से १५ साल की आयु के कोई पांच लाख बच्च्े जुड़े हुए हैंऔर ऐसे बच्चें की सांस व शरीर में हर दिन इतना विष जुड़ रहा है कि वे शायद ही अपनी जवानी देख पाएं ।
    लगभग १५ साल पुरानी वह घटना शायद ही किसी को याद हो, जब दिल्ली स्थित एशिया के सबसे बड़े कबाड़ी बाजार मायापुरी में कोबाल्ट का विकिरण फैल गया था, जिसमें एक मौत हुई व अन्य पांच जीवन भर के लिए बीमार हो गए थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायन विभाग ने एक बेकार पड़े उपकरण को कबाड़े में बेच दिया व कबाड़ी ने उससे धातु निकालने के लिए उसे जलाना चाहा था । उन दिनों वह हादसा उच्च् न्यायालय तक गया था ।
    आज तो देश के हर छोटे-बड़े शहर में हर दिन ऐसे हजारों उपकरण तोड़े-जलाए जा रहे हैं जिनसे निकलने वाले अपशिष्ट का मानव जीवन तथा प्रकृति पर दुष्प्रभाव विकिरण से कई गुणा ज्यादा है । यह भी तथ्य है कि हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़े में डाल दिए जाते हैं। ऐसे सभी इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैंजो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है । यही ई-कचरा कहलाता है और अब यह वैश्विक समस्या बन गया है ।
    इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें ३८ अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है । जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मरक्यूरी, केडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं । सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कम्प्यूटरों और मोबाईल का है । इसमें पारा, कोबाल्ट और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं । कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किड़नी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कंप्यूटर का वजन लगभग ३.१५ किलो ग्राम होता है। इसमें १.९० किलोग्राम सीसा और ०.६९३ ग्राम पारा और ०.०४९३६ ग्राम आर्सेनिक होता है । जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं।
    ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलों से भी उपज रहा है । सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वाइरनमेंट (सीएसई) ने कुुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करने वाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे ।
    भारत में यह समस्या लगभग २५ साल पुरानी है, लेकिन सूचना प्रोद्यौगिकी के चढ़ते सूरज के सामने इसे पहले गौण समझा गया, जब इस पर कानून आए तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी । घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलने वाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं । वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जो कि और भी नुकसानदेह है ।
    वैसे तो केन्द्र सरकार ने सन् २०१२ में ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) २०११ लागू किया है, लेकिन इसमें दिए गए दिशा-निर्देश का पालन होता कहीं दिखता नहीं है। म.प्र. में भी खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन,हैंडलिंग एवं सीमापार संचलन) अधिनियम-२००८ में ही इलेक्ट्रॉनिक व इलेक्टिक वस्तुओं से निकलने वाले कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था कई साल पहले से ही लागू कर दी गई थी, लेकिन म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा लगातार इसकी अनदेखी की जा रही है । असल में ई-कचरे के आतंक के समाधान का मंत्र है-जागरूकता व बचाव ही असली निदान है ।

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