बुधवार, 18 नवंबर 2015

दीपावली पर विशेष
पर्यावरण, स्वास्थ्य व आर्थिक मंदी
डॉ. ओ.पी. जोशी
    आर्थिक मंदी की वजह से घटता उत्पादन जहां एक ओर पर्यावरण को फायदा पहुंचाता     है वहीं दूसरी ओर इसकी वजह    से बढ़ती परेशानियों के मद्देनजर तमाम लोग पर्यावरण की चिंता करना ही छोड़ देते हैं ।
    पृथ्वी पर जिस प्रकार भूकम्प, ज्वालामुखी, बाढ़, सूखा चक्रवात एवं सुनामी नामक प्राकृतिक आपदाएं आती रहती हैं ठीक उसी प्रकार मनुष्य द्वारा स्थापित वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी मंदी के झटके आते रहते हैं । सबसे पहले सन् १९३० के आसपास दुनिया के बाजारों में भयानक मंदी आयी थी । वर्ष २००७ एवं २००८ में अमेरिका मंदी के दौर से गुजरा । ग्रीस में यह संकट अभी भी जारी है । दुनिया भर में दबी जुबान     से मंदी का खतरा बताया जा रहा है । 
     विश्व बैंक ने भी अपने एक वक्तव्य में कहा है कि वर्ष २०१५ में वैश्विक वृद्धि दर (ग्लोबल ग्रोथ रेट) कम ही रही है। आर्थिक व्यवस्था मनुष्य जीवन के कई आयामों से जुड़ी रहती है। अत: आर्थिक तेजी या मंदी मनुष्य को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करती है । मंदी के दौरान शिशु जन्म, मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों के  संदर्भ में वैज्ञानिकोंने कुछ प्रारम्भिक अध्ययन किये हैं।
    कोपनहेगन बिजनेस स्कूल में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर सुश्री अर्जा वर्डा डोटीर ने अध्ययन कर बताया कि मंदी में पैदा शिशुओं के वजन में औसतन १२० ग्राम कमी देखी   गयी । आइसलैंड में वर्ष २००८ में आई अचानक मंदी के बाद राष्ट्रीय जन्म रजिस्टर में दर्ज रिकार्ड के आधार पर यह अध्ययन कर जर्मनी के मानहेम में यूरोपीय इकॉनामिक एसोसिएशन के सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया । शिशुओं के वजन में आई कमी का कोई स्पष्ट एवं  ठोस कारण तो नहीं बताया गया परन्तु यह सम्भावना है कि मंदी के कारण महिलाओं को गर्भावस्था के समय उचित पोषकआहार न मिला हो । अमेरिका में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार मंदी लोगांे में मोटापा   भी बढ़ाती है । मंदी के समय लोग ज्यादा चिंतित एवं थोड़े निराश रहते  हैं ।
    अपनी चिंता एवं निराशा को कम करने हेतु वे फास्ट-फूड एवं स्नेक्स आदि का ज्यादा सेवन करने लगते हैं । यही मोटापे का कारण बनता है। कार्यालयों में कार्यरत ४३ प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारियों ने माना कि चिंता में ज्यादा खाने से उनका वजन बढ़ा  है । पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वजन ज्यादा बढ़ा । उनका औसतन वजन ८ से १० पौंड तक बढ़ा । ब्रिटेन वि.वि. के पोषण आहार विशेषज्ञों(डायटीशियंस) तथा जीव वैज्ञानिकों (बायलॉजिस्ट) ने सन् १८८० से १९९० (११० वर्ष) के बीच यूरोप के १५ देशों के लोगों पर आहार आधारित अध्ययन    किया ।
    अध्ययन के परिणाम में बताया कि ब्रिटेन, नीदरलैंड, आयरलैंड, आस्ट्रिया, बेल्जियम तथा स्कैंडेनिविया में दोनों विश्वयुद्ध तथा मंदी के दौरान पुरुषों की ऊंचाई में लगभग ग्यारह से.मी. का इजाफा हुआ । इसे  इस प्रकार समझाया गया कि मंदी के वर्णन समय में परिवार का आकार छोटा रखने पर ध्यान दिया गया। इससे कम बच्च्े पैदा हुए एवं इसका प्रभाव उनकी ऊँचाई पर हुआ । यह अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने वाले प्रो. टी. हेमटन के अनुसार पूर्व में भी कुछ वैज्ञानिक प्रजनन में कमी को ऊँचाई बढ़ने से जोड़कर अध्ययन कर चुके हैं । पर्यावरण के संदर्भ में वर्ष २००७-०८ की मंदी से कार्बन डायऑक्साइड का उर्त्सजन घट  गया ।  
    नीदरलैंड स्थित एनवायर-मंेटल एसेसमेंट एजेंसी ने अपने अध्ययन में पाया कि वर्ष २००० से २००५ के  मध्य वैश्विक स्तर पर कार्बन डायऑक्साइड की वृद्धि दर १८ प्रतिशत के लगभग रही । वर्ष २००० के बाद वृद्धि ४ प्रतिशत से बढ़ी लेकिन सन् २००८ में घटकर १.७ से २ प्रतिशत के मध्य रह  गयी । घटने का कारण यह बताया गया कि मंदी के कारण यातायात, कारखानों में उत्पादन तथा कई अन्य गतिविधियों में कमी आयी जिसके फलस्वरूप उत्सर्जन घट गया । हड़तालों के  समय कम गतिविधियों से प्रदूषण में कमी का आंकलन भी किया गया  है ।
    मुंबई में वर्ष २००० में परिवहन हड़ताल के कारण १८ स्थानों पर प्रदूषण के स्तर में ४० से ६० प्रतिशत तक की कमी आई थी । एक अध्ययन यह भी दर्शाता है कि मंदी में पर्यावरण के प्रति चिंताए घट जाती हैं ।
    वर्ष २०१२ में ग्लोेबल स्केन राडार नामक संस्था ने २२ देशों के २३ हजार लोगों पर एक सर्वेक्षण किया । परिणाम में बताया गया कि वर्ष २००७-०८ की मंदी के बाद वर्ष २०१०-११ में पर्यावरण के प्रति लोगांे की चिंताए काफी कम हो गयी । नब्बे के दशक में लोेग प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग, जैवविविधता संरक्षण, शुद्धपेय जल प्राप्ति व जलवायु परिवर्तन आदि समस्याओं पर गहन चिंता रखते   थे । परंतु अब इनके प्रति ज्यादा सरोकार नहीं रखते । मंदी के कारण पर्यावरण पर पहले औद्योगिक देशों ने कम ध्यान दिया परंतु बाद मंे चीन व ब्राजील जैसे देश भी पर्यावरण की चिंता छोड़ते नजर आये ।     मई २०१४ में हमारे देश में बनी केन्द्र की नई सरकार भी विकास दर तेज करने हेतु पर्यावरण की अनदेखी कर रही है भविष्य में इसके गम्भीर व भयानक परिणाम सामने आएंगेे ।

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