बुधवार, 18 नवंबर 2015

ज्ञान-विज्ञान
सूक्ष्मजीव बताते है घर का पता
    आपके घर के कोनों में जो धूल इकट्ठा होती रहती है वह अवश्य एलर्जी वगैरह का कारण बनती होगी मगर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस धूल से न सिर्फ यह बताया जा सकता है कि आपका घर किस बस्ती में है बल्कि घर के सदस्यों के बारे में भी काफी कुछ सुराग मिल सकते हैं । इस रोचक अनुसंधान की रिपोर्ट हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुई है । 
     शोधकर्ता अल्बर्ट बार्बेआिन और उनके साथियों ने कुछ वालंटियर्स को यूएस के करीब १२०० घरों से और घरों के आसपास से धूल के नमूने लाने को कहा । जब इन नमूनों की जांच हुई तो पता चला कि किसी भी घर में औसतन ५००० किस्म के बैक्टीरिया और २००० किस्म की फफूंदें निवास करती हैं ।
    फफूंद की किस्मों के विश्लेषण से घर की स्थिति के बारे मेंकाफी कुछ बताया जा सका । आम तौर पर किसी भी इलाके की फफूंद आबादी काफी विशिष्ट होती है । यही फफंूद घर के बाशिंदों के साथ या खिड़कियों-दरवाजों से घरों के अंदर भी आ जाती है । तो इसके आधार पर बताया जा सकता है कि जिस घर की धूल है वह किस इलाके में है । जैसे शोधकर्ताआें ने पाया कि ग्रेट लेक और एरिजोना के इलाकों के घरों की फफूंद का संघटन काफी अलग-अलग था ।
    और बैक्टीरिया तो घर के लोगोंके बारे मेंबहुत कुछ चुगली कर देते हैं । आम तौर पर किसी घर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया उस घर के बाशिंदों के शरीर से झड़ते हैं । तो इनके आधार पर शोधकर्ता किसी घर का लिंग अनुपात बता पाने में सफल रहे । यहां तक कि वे यह भी बता पाए कि किसी घर में कोई पालतू जानवर है या नहीं क्योंकि कुत्ते-बिल्लियां सूक्ष्मजीव के इस संसार मेंअपना विशिष्ट योगदान देते हैं ।
    शोध रोचक तो है मगर इसका व्यावहारिक उपयोग क्या है ? शोधकर्ताआें का ख्याल है कि इस तरह की जानकारी अपराध वैज्ञानिकों के कामआ सकती है । इसके अलावा एलर्जीवगैरह के अध्ययन में घरों की धूल का सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक विश्लेषण सहायक हो सकता है ।

मानव जीनोम में फेरबदल की बहस जारी
    लंदन में कुछ वैज्ञानिकोंने अनुमति चाही है कि मानव भ्रुण में जेनेटिक फेरबदल करके देखना चाहते हैं कि इसका भ्रुण के विकास पर क्या असर होता है । यह पहली बार है कि शोधकर्ताआें ने किसी नियामक संस्था से ऐसी अनुमति मांगी है । यू.के. मेंचिकित्सा उद्देश्य से मानव भ्रुण के जीनोम मेंकांट-छांट करना गैर-कानूनी है । 
      वैसे इससे पहले चीन के एक दल द्वारा इस तरह मानव भ्रुण जीनोम मेंसंपादन किया जा चुका   है । यह फेरबदल एक नई तकनीक की बदौलत संपन्न हुआ था । इस तकनीक का नाम है उठखडझठ/उरी९ और यह जेनेटिक संरचना में बहुत सटीक फेरबदल की गुंजाइश प्रदान करती है । यह काम सन यातसेन विश्वविद्यालय के जीन विशेषज्ञ जुन्जिऊ हुआंग के नेतृत्व में किया गया था और इसका मकसद यह था कि बीटा-थेलेसीमिया के जीन को परिवर्तित कर दिया जाए ।
   थेलेसीमिया रक्त सम्बंधी एक रोग है जो शरीर को मिलने वाली ऑक्सीजन की सप्लाई को प्रभावित करता है । हालांकि यह शोध कार्य एसे भ्रुणों पर किया गया था जो आगे चलकर शिशु में विकसित नहीं हो सकते थे, मगर इसने दुनिया भर में काफी विवाद को जन्म दिया था । तभी से इस बात पर बहस जारी है कि मानव जीनोम के साथ इस तरह की छेड़छाड़ की सीमाएं क्या हों ?
    अब ब्रिटेन मं फ्रांसिस क्रिक संस्थान की कैथी निआकान ने ह्यूमन फर्टीलाइजेशन एंड एम्ब्रियोलॉजी अथॉरिटी से मानव जीनोम परिवर्तन की अनुमति मांगी है । निआकान का कहना है कि वह यह शोध चिकित्सा में उपयोग के उद्देश्य से नहीं करना चाहती हैं । अथॉरिटी का मत है कि उसे इस प्रस्ताव पर कई दृष्टियों से विचार करना होगा ।
    चीन और ब्रिटेन के बीच इस तरह के शोध को लेकर प्रमुख अंतर यह है कि जहां चीन मेंइस सम्बंध में कुछ दिशानिर्देश विकसित किए गए हैं वहीं ब्रिटेन में इसके लिए कानून है । चीन में इस तरह के अनुसंधान के लिए मात्र स्थानीय नैतिकता समिति की स्वीकृति पर्याप्त् हाती हैं । इसलिए दुनियाभर के जीव वैज्ञाानिकों को ब्रिटेन की अथॉरिटी के फैसले का इन्तजार है क्योंकि इससे मानव जीनोम सम्बंधी भावी अनुसंधान की दिशा तय होगी ।
    इस बीच कई वैज्ञानिक संस्थाआें ने इस बात पर आंतरिक व सार्वजनिक बहस शुरू कर दी है कि मानव जर्मलाइन (यानी अंडाणु, शुक्राणु तथा भ्रुण) पर जीनोम बदलाव सम्बंधी शोध पर क्या रूख अपनाया जाना चाहिए और इसकी सीमाएं क्या होनी चाहिए ।

एंटीबायोटिक उपयोग और प्रतिरोध में नाटकीय वृद्धि
    दुनिया भर में एंटीबायोटिक दवाइयों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है । सेंटर फॉर डिसीज डाएनामिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी नामक संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनकी मांग मेंसर्वाधिक वृद्धि निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में देखी जा रही है । संस्था ने हाल ही में विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के अलावा पर यह रिपोर्ट जारी की   है । 
     सेंटर ने पिछले १० वर्षोंा में ६९ देशों एंटीबायोटिक्स के उपयोग के रूझानों और ३९ देशों में १२ किस्म के एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध की गणना की है ।
    रिपोर्ट के अनुसार २००० से २०१० के बीच एंटीबायोटिक का वैश्विक उपयोग ३० प्रतिशत बढ़ा । इसमें से अधिकांश वृद्धि दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे देशों में देखी गई । इन देशों में दुकान से एंटीबायोटिक दवाइयां खरीदना बहुत आसान है ।
    उदाहरण के लिए भारत में क्लेबसिएला न्यूमोनिए के प्रतिरोधी संक्रमणोंकी तादाद २००८ में २९ प्रतिशत थी और २०१४ में बढ़कर ५७ प्रतिशत है जो शक्तिशाली एंटीबायोटिक कार्बेपेनीम के प्रतिरोधी साबित हुए हैं ।
    रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दुनिया भर में पशुआें पर एंटीबायोटिक्स का उपयोग तेजी से बढ़ा है । समस्या खास तौर से चीन में गंभीर रूप ले चुकी है जहां २०१० में पशुआें के लिए १५,००० टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया गया ।
    दूसरी ओर, उच्च् आमदनी वाले देशों में एंटीबायोटिक्स के उपयोग के नियमन की कोशिशेंकी जा रही है । रिपोर्ट के मुताबिक यू.के. जैसे देशोंमें मेथिसिलिन के प्रतिरोधी स्टेफिलोकॉकस ऑरियस संक्रमणों की संख्या पिछले आठ वर्षोंा में तेजी से कम हुई है ।
    रिपोर्ट के बारे में कई चिकित्सा शोधकर्ताआें का मत है कि यह रिपोर्ट आंखे खोल देने वाली है और मांग करती है कि निगरानी के प्रयास सघन किए जाएं, खास कर विकासशील देशों में, जहां फिलहाल आंकड़ों का अभाव है ।
    रिपोर्ट में एंटीबायोटिक प्रतिरोध से निपटने के लिए ६ उपायों का सुझाव दिया गया है । इनमें से कुछ उपाय तो जाने-माने हैं । जैसे स्वच्छता तथा शौच व्यवस्था में सुधार करना । मगर कृषि और अस्पतालोंमें एंटीबायोटिक के उपयोग को सीमित करने जैसे कदम इतने आसान नहीं   हैं । ये काफी विवादास्पद भी साबित हो सकते हैं । इस संदर्भ में एंटीबायोटिक उपयोग की निगरानी के लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के विकास की बात भी सामने आ रही है । स्वास्थ्य के प्रति जनमानस में लोकचेतना के प्रयासों में यह महत्वपूर्ण होगा ।

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